ख्वाबो के पैरहन
पार्ट - 9
अब्दुल्ला ने खूब मन लगाकर सींक कबाब बनाये थे| साथ में प्याज़ के बारीक लच्छे और टमाटर की सॉस! शाहजी को मीठी सॉस पसंद न थी सो शहनाज़ बेगम अपने हाथों चटपटी स्पेशल सॉस बनाती थीं| धीरे-धीरे ताहिरा कोठी के संस्कारों की अभ्यस्त हो चुकी थी| हालाँकि, प्रतिदिन वह शाहजी के इंतज़ार में अपने को सँवारती थी लेकिन कभी सूनी उदास शामें भी गुज़र जातीं तो उसे बुरा नहीं लगता| वह जानती थी, शाहजी का पहला हक बड़ी बेगम का है| वह यह भी जानती थी कि उसकी उदासी फूफी को तोड़ देती है.....| अपनी जान से प्यारी फूफी के लिए वह क़यामत तक दुखों को झेल सकती है फिर यह तो बड़ी मामूली-सी बात है|
अब्दुल्ला ने चाँदी की तश्तरियों में कबाब, केतली में चाय लाकर हॉल में खाने की मेज पर रख दिए| साथ में काजू-पिस्ता रोल और दूध में डूबी अंजीरें भी| धीरे-धीरे शाम की चाय के लिए सभी कुर्सियों पर जुटने लगे| बड़ी बेगम के हुक्म से हॉल में रखे रिकॉर्डर पर ग़ालिब की चुनिंदा ग़ज़लों का रिकॉर्ड लगा दिया गया| माहौल बड़ा खुशगवार लग रहा था| साँझ झुक आई थी और खिड़की के पार दिखता बग़ीचा सिंदूरी रंग में नहा उठा था|
ताहिरा कत्थई रंग के सूट में खूब फब रही थी| चेहरे पर नई दुल्हन की रौनक बरकरार थी, अलबत्ता हाथों की मेंहदी थोड़ी फीकी पड़ गई थी| शाहजी अ गए थे| आते ही पहला सवाल अब्दुल्ला से-“अब्बू और आपा का नाश्ता भिजवा दिया?”
‘जी|” अब्दुल्ला ने सबकी प्लेटें लगाते हुए कहा| हालाँकि, सवाल बेमानी था क्योंकि यह सारी जिम्मेदारी शहनाज़ बेग़म की थी| शाहजी ने कबाब का टुकड़ा मुँह में डाला और ताहिरा की तरफ देखा, कुछ यूँ कि-“तुम भी खाओ|”
किन्तु बड़ी बेग़म शुरू करें, फूफी शुरू करें तभी तो वह भी शुरू करे और बड़ी बेगम थी कि अस्मां और मुमताज़ को निर्देश दे रही थीं कि कल चालीस किलो उड़द पिसवा लो और पापड़ की खार यादवजी को भेजकर बाज़ार से मँगवा लो| पापड़ का काम निपटे तो सौंठ, गरम मसाला कुटे| फिर अचारों का नम्बर आये|
“पहले नाश्ता तो कर लीजिए बेगम साहिबा|” शाहजी के कहने पर बड़ी बेगम ने उनकी ओर अजीब नज़रों से देखा-“ओह! ताहिरा अब तक बैठी है, लाना मुमताज़ कबाब की प्लेट इधर.....!”
ताहिरा का मन बुझ गया| सारे कबाब ठंडे हो चुके थे| शाहजी नाश्ता समाप्त करके नैपकिन से मुँह पोंछ रहे थे| ताहिरा ने बेमन से दो कबाब टूँगे और चाय पीकर बड़ी बेगम से आज्ञा ली-“मैं चलूँ?”
“हाँ जाओ.....खाया तो कुछ नहीं तुमने? खाने-पीने के मामले में बेफ़िक्र रहा करो| न खाने से सेहत ख़राब अपनी ही होती है, दूसरों का कुछ नहीं बिगड़ता|” और ऊपर से नीचे तक ताहिरा के छलकते यौवन को घूरकर वे फिर अस्मां की तरफ मुख़ातिब हो गई|
फूफी ने तख़त पर बैठे-बैठे पान की गिलौरियाँ बनाईं और शाहजी की ओर बढ़ा दीं| मन खिन्न हो गया कि ताहिरा क्यों उठ गई अचानक| बच्ची मन मसोसती रह जाती है, मन का कर नहीं पाती| दिखाई देता है उन्हें सब पर लाचारी ज़ुबाँ ख़ामोश कर देती है| फूफ़ी अनमनी-सी उठ गईं, हाथ में पकड़ी गिलौरी गाल में दबा ली और ताहिरा के कमरे की ओर बढ़ी पर सहसा ठिठककर उन्होंने रास्ता बदल दिया| शाहजी पान चबाते ताहिरा के कमरे की ओर जा रहे थे| ताज्जुब भी हुआ, शाहजी इस वक्त यहाँ! यह वक्त तो उनका तनहाई में सुस्ताने का होता है और घंटे भर बाद छत पर जाने का होता है| जब रात अपनी काली ओढ़नी में सितारे सजाये फ़िज़ा में उतर आती है.....जब घटता-बढ़ता चाँद आसमान में होता है, तब शाहजी की आँखें अपनी बड़ी-सी दूरबीन पर टिक जाती हैं और इस तनहा आलम से शाहजी दूर तब होते हैं जब रात के खाने की गुहार होती है| लेकिन आज? फूफी मुस्कुराई और अपने कमरे की ओर बढ़ ली|
ताहिरा पलंग पर बैठी पत्रिका के पन्ने पलट रही थी| शाहजी को देखा तो हुलसकर उठी| शाहजी ने उसे बाँहों में दबोच लिया-“उठ क्यों आई?”
“यूँ ही, कुछ ख़ास नहीं|”
“शुक्र है! हमने समझा कि हमसे कोई गुस्ताख़ी हो गई जो बेगम साहिबा के तेवर बदल गए|”
शाहजी जूते उतारकर पलंग पर अधलेटे से हो गए| ताहिरा ने ए. सी. ऑन किया और उनके पास बैठते हुए कहा-“चलिये न! कहीं घूम आते हैं|”
“इस वक़्त?” शाहजी ने इसरार किया| “इस वक़्त तो बस तुम्हारे पहलू में बैठने की तमन्ना है| थके दिल को आराम दे दो, अपने नाज़ुक हाथ इधर टिका लो.....”
“रहने दीजिए! न चलने का बड़ा दिलचस्प बहाना खोजा आपने| पता है, हम गाते भी हैं?”
“अच्छा! तो सुनाइए|”
“ऊँहू.....ऐसे थोड़ी! गाने की हमारी अपनी शर्तें हैं| नदी का किनारा हो, फ़िज़ा में सन्नाटा हो और नदी के जल में तारों का अक्स हो|”
शाहजी ने करवट लेकर पलंग में ताहिरा के लिए भी जगह कर दी और बेताब हो उस पर झुक आए-“तारों का अक्स भी दिखा देंगे जानेमन.....” और उसके होठों पर शाहजी ने अपने होंठ टिका दिए| बगीचे से गुज़रती फूलों की खुशबू से रची-बसी हवा इस मिलन की गवाह बन गई|
शाम गहरा गई थी| साढ़े सात बजे होंगे जब शाहजी ने अपने पहलू में दुबकी ताहिरा को हिलाया-“चलिये बेग़म.....तारों का अक़्स नहीं देखेंगी?”
ताहिरा के क़दमों में बिजली-सी गति आ गई| पल भर में ही दोनों छत पर पहुँच गए| शाहजी ने दूरबीन पर पड़ा काला कपड़ा हटाया| लम्बी-चौड़ी छत पर रखी एकांकी दूरबीन का विशाल आकार ताहिरा ने पहली बार देखा| शाहजी ने फोकस मिलाया और दूरबीन के काँच पर ताहिरा की आँखें झुका दीं.....सारा आकाश एक विशाल, भव्य सागर की तरह ताहिरा की आँखों के आगे तिर गया|.....चहुँ ओर तारे.....बड़े-बड़े तारे, नक्षत्र, चमकते लुपडुप करते.....आँख के दायरे में और कुछ नहीं.....मात्र काला-अंतहीन फैलाव ताहिरा डर गई| दूरबीन से सिर हटा उसने शाहजी का हाथ कसकर पकड़ लिया-
“क्या हुआ?”
“हमें डर लगता है|” ताहिरा के स्वरों में मासूमियत थी|
“लो, हमारा हाथ पकड़े-पकड़े देखो| केतकी, अरुन्धती, सप्तर्षि, ध्रुव.....| जैसे-जैसे रात बीतेगी गुरु, शनि, मंगल सब दिखेंगे| शनि इतना सुन्दर दिखता है जैसे हीरे जड़ी अँगूठी हो| गुरु में तीन रंग दिखते हैं-नारंगी, पीला, हरा| केतकी के तारों का झुंड सवालिया निशान-सा दिखता है| जब राशियाँ निकलती हैं तो आसमान से नूर-सा टपकता है| सब राशियाँ तुम पहचान सकती हो| वृश्चिक, तुला, कन्या, सिंह| आज रात यहीं बितायेंगे, सारे ग्रह, नक्षत्र, राशि तुम्हें दिखायेंगे| तुम देखना आसमान का शबाब, एक-एक ग्रह नक्षत्र का शबाब, ढेरों रंग, दूधिया आकाशगंगाएँ, एक नया तजुर्बा होगा तुम्हें|”
ताहिरा मंत्रमुग्ध-सी सुनती रही.....सुनती रही और रात बीतती रही| काफ़ी रात गए शाहजी छत से उतरे| कोठी में सन्नाटा था| सभी के कमरे अँधेरे के आगोश में थे| शाहजी सीधे ताहिरा के कमरे में आ गए| कमरे में घुसते ही उन्हें लगा मानो बाहर की दीवार से लगा एक बेचैन-सा साया अभी-अभी शहनाज़ बेगम के कमरे की तरफ़ गया है| उन्होंने चोर नज़रों से ताहिरा की तरफ़ देखा पर उसके चेहरे पर खुशी की क़ैफियत थी| बिना दख़ल दिए शाहजी सोफे पर बैठ गए| खाना निक़हत ले आई और कमरे में एक ओर रखे सुन्दर, नक़्काशीदार टेबल पर रख दिया| चाँदी की सुराही में गुलाबजल की महक में बसा शीतल जल और चाँदी की ही रकाबी में सौंफ़, इलायची, मिश्री के टुकड़े, सिंकी बादाम|
“आइये चचीजान, .....गरमागरम सूप और मटर पुलाव खाइए|”
“तुम भी आओ निक़हत, आज साथ ही खायेंगे|” ताहिरा चुनरी सम्हालती शाहजी के बगलगीर हो गई| निक़हत हँसते हुए शब-ए-दावत में शरीक हो गई| ताहिरा का दिल खिला पड़ा था| मानो आहिस्ते से कोई चिन्गारी बारूद को छू गई हो| निक़हत मंद-मंद मुस्कुरा रही थी| ताहिरा ने शाहजी की ओर शरमाकर देखा फिर खिड़की के पार नज़रें टिका दीं, खिड़की पर बादामी परदे लगे थे| उस पार देखना नामुमकिन-सा था|
ताहिरा के कमरे की सजावट इंटीरियर डेकोरेटर की योजनानुसार हुई थी| फर्नीचर, पलंग, ड्रेसिंग टेबल, गलीचा, सोफ़ासेट, आतिशदान मानो ताहिरा की खूबसूरती के हिसाब से रचे गए हों| कोने में रखा बड़ा कलर टी. वी., बाजू में फोन.....मानो, दुनिया सिमटकर ताहिरा के कमरे में आ गई थी| ताहिरा की इच्छा थी, घनी डालियों वाले दो आदमक़द पेड़ दरवाज़े के दोनों ओर लम्बी काली सुराहियों में सजाये जायें| बात शाहजी तक पहुँची और पेड़ों के गमले दूसरे दिन आ गए| ताहिरा खुली प्रकृति की गोद में पली थी| चिड़ियाँ, तोतों के बीच बचपन गुज़रा था| शाहजी ने रंग-बिरंगी चिड़ियों के कई जोड़े खरीदवा दिए, एक तोता भी आ गया| बगीचे की ओर खुलती बरामदे में छत की रेलिंग के हुकों में चिड़ियों और तोतों के पिंजड़े लटका दिए गए| चिड़ियों से शायद अख़्तरी बेगम को भी लगाव था सो शांताबाई देखरेख के लिए उनके हुक़्म से मुक़र्रर की गई| चिड़ियाँ सुबह-सवेरे अपनी चहचहाहट से ताहिरा को जगा देतीं| ताहिरा बगीचे के ओस भीगे लॉन पर चहलक़दमी करती| चमेली की लतर को सूँघती और दबे पाँव फूफी के कमरे में घुस जाती| अलस्सुबह शाहजी उठ जाते और बड़ी बेग़म के कमरे का रुख़ कर लेते| यूँ तो, इन दिनों ताहिरा पर उनकी विशेष कृपा थी, लगभग हर रात उसके कमरे में गुज़ारते| शाम के बाद क़रीब बारह बजे तक छत पर, फिर खाना| लेकिन ताहिरा को ताज्जुब है कि शाहजी कभी भूलकर भी मँझली बेग़म से नहीं मिलते| यह कैसा बंधन है, जहाँ सिर्फ़ रुसवाई है, आख़िर ब्याहता तो वे भी हैं? फिर बीमार भी हैं, सहानुभूति होनी चाहिए उनसे| इस विशाल कोठी में वे छिटकी हुई बालू-सी पड़ी हैं| कभी कोई पूछता है उन्हें? कम-से-कम शाहजी को तो पूछना चाहिए| कोख तो बड़ी बेग़म की भी नहीं भरी, फिर मँझली के साथ यह सौतेला बर्ताव क्यों? कोख अगर उसकी भी नहीं भरी तो एक दिन वह भी किसी शांताबाई के हाथों सौंप दी जायेगी क्या? और क्या शाहजी उसे भी पलटकर नहीं देखेंगे? वह हवा में सरो के पेड़-सी काँप उठी| दौड़कर फूफी के पास गई और उनसे लिपट गई| फूफी नींद की गफ़लत में थीं, चौंक पड़ीं|
“क्या हुआ बेटी?”
“मुझे अपनी गोद में छुपा लो फूफी|”
“क्यों? फिर कुछ वाहियात सोचने लगी पगली| अल्लाह पर भरोसा रख| शाहजी का रुझान तेरी ओर बढ़ता ही जा रहा है इसे टूटने न देना|” फूफी ने ताहिरा का सिर सहलाते हुए कहा|
“फूफी, डरती हूँ, मेरा भी हश्र खिन अख़्तरी बेग़म जैसा.....” फूफी तमक उठीं-‘क्या कुफ्र बकती है बेवकूफ, उसके खोटे नसीब से अपने को क्यों जोड़ती है?’
फिर उनकी आवाज़ धीमी पड़ गई-“अख़्तरी के लिए मन में बड़ा हौल-सा उठता है| इतनी बड़ी कोठी में भी वह बदनसीबी से घिरी है, एक औलाद न होना क्या इतना बड़ा अपराध होता है?” और ताहिरा की ओर देख आसमान की ओर हाथ फैला मन ही मन दुआ माँगने लगीं-‘मेरी बच्ची को औलाद का मुँह दिखा दे मेरे मौला|’
गौरेयों ने चहकना शुरू किया और इधर कोठी भी चहल-पहल से भर गई| बड़ी बेगम चाय-नाश्ते के बाद सीधा भंडारघर गईं और अब्दुल्ला को दोपहर के भोजन का सामान निकालकर देने लगीं| घी, चावल, आटा, दाल, मसाले सभी कुछ| सब्ज़ियाँ तक तौल-तौलकर दी जातीं| काजू, बादाम, पिस्ते कटोरियों से नापे जाते| सुबह शाकाहारी भोजन ही बनता| शाम को चिकन, मटन पकता नियम से| क़रीब पच्चीस-तीस आदमियों का खाना रोज़ बनता| पूरा भंडार बड़ी बेगम सम्हालती वरना नौकरों के हाथ सौंपे तो कोठी का दिवालिया ही निकल जाए| गुलनार आपा इस मामले में कभी दख़ल नहीं देतीं| आख़िर गृहस्थी शहनाज़ बेग़म की ही तो है|
आज पापड़ बनेंगे| कोठी के छत पर कनातें तान दी गई हैं| शाहजी की दूरबीन बहुत एहतियात से छत की बरसाती में रख दी गई है| वहीँ बेलने वालियाँ बैठेंगी, कनातों के नीचे| शाम होते-होते चालीस किलो मूँग-उड़द के पापड़ ऐसे बिल जाते हैं मानो खेल हो| दस बजे बेलने वालियाँ आ गईं, लगभग बीस थीं| सबको दो-दो किलो पापड़ का आटा, तेल पकड़ा दिया गया| चौकी, बेलन वे खुद लातीं| दोपहर को उन्हें रोटी-सब्ज़ी खाने को दी जाती और दो टाइम चाय| चाय के साथ मठरी या शकरपारे| बीच-बीच में घर के नौकर छत के चक्कर लगा रहे थे.....बेलनेवालियों का क्या भरोसा? धोती के पल्लू में लोइयाँ बाँध लें तो? पिछले साल मुमताज़ ने पकड़ी थी एक चोरनी| क्या लानत-मलामत की थी बड़ी बेगम ने| बड़ी बेगम अज़मेर की है इसीलिए उनके रहन-सहन, खान-पान में राजस्थानी छुअन है| पापड़ों का शौक भी शायद इसीलिए अधिक है| वे अपने इस शौक को बाँटकर तृप्त होती हैं|
सूरज डूबते-डूबते पापड़ बिल गए और अब्दुल्ला तथा कैलाश ने मिलकर पाँच-पाँच किलो पापड़ के कनस्तर तैयार कर लिए| एक कनस्तर निकहत के घर जायेगा| निकहत के अम्मी-अब्बा वैसे ही मुफ़लिसी में दिन गुज़ार रहे हैं| निक़हत को मिलाकर तीन बहनें और तीन भाई| किसी का भी निकाह नहीं हुआ अभी| इसीलिए तो गुलनार आपा निकहत को अपने पास रखती हैं| वह प्राइवेट बी. ए. कर रही है| दूसरा कनस्तर अज़रा के घर जायेगा| अज़रा के लिए शाहजी का घर ही उसका मायका है| सारी सौगातें यहीं से भेजी जाती हैं| चाहे ईद हो या बकरीद| एक फूफी के लिए हिफ़ाजत से रख दिया गया| अगले जुमे के दिन वे भाईजान के घर जाने वाली हैं| एक मँझली के मायके पहुँचाया जायेगा, शेष कनस्तर भंडार घर के रैक पर जमा दिए गए, साल भर के लिए|
पूरा हफ़्ता व्यस्तता में बीता| तरह-तरह के अचार| बड़े-बड़े मर्तबानों के मुँह कपड़ों से बाँध कर हर जगह भेजे जाने के लिए तैयार किए गए| मूँग, उड़द की बड़ियाँ बनीं| चावल की कुरैरी, साबूदाना के सेव और पापड़| ताहिरा तो देखती रह गई| बड़ी बेगम हैं या कारखाना| कैसे पल के पल मनों अचार, बड़ियाँ बनके तैयार| मज़ाल है जो कहीं कमी-बेसी हो| सबसे ज्यादा तो सेवईयाँ बनीं| मशीन पर बारीक धागे के धागे निकाल-निकालकर तख़त पर बिछा दिए जाते|
हफ़्ते भर में सब तैयार होकर पैक कर दिया गया और सभी मर्तबानों, कनस्तरों पर नामों का लेबल भी लग गया| अब, यादवजी का काम था इन सबको तयशुदा जगहों पर पहुँचाना| तो उसकी भी तैयारी नहीं| फूफी ने यादवजी के लिए बाबा जर्दा डालकर, पान की गिलौरियों से मचिया भर दीं| पानी का कूल जग रखा गया| थर्मस में चाय| नाश्ते और खाने का सामान अलग| तब जाकर यादवजी रवाना हुए| फूफी के हिस्से के अचार, पापड़ वगैरह भंडार घर में ही रखवा दिए गए| अगले जुमे के रोज गाड़ी उन्हें छोड़ने जायेगी ही सो पहुँचा दिए जायेंगे|
शहनाज़ बेग़म के हाथों में कुछ ऐसा सबाब था कि ख़ानदान का हर शख़्स उनकी नज़र में रहता| यह सिलसिला सैलून से चला आ रहा था| वे सबके लिए सामान भेजा करतीं| ताहिरा को वे सौत कम अम्मी जैसी अधिक लगतीं| अम्मी जैसा रुतबा, सोच, समझ, कोठी पर एक छत्र अधिकार.....ताहिरा तो बच्ची-सी हो उठी थी|
यादवजी बदायूँ माल पहुँचाने चले गए| दिन ढल गया| दरख़्तों की बाँस-सी लम्बी छायाएँ धरती पर उतर आईं.....चिड़ियाँ घोसलों में लौटने लगी.....प्रकृति का काम भी मानो ख़तम.....आराम की तैयारी| फूफी के सर में तेल ठोंककर ताहिर उठी ही थी कि शांताबाई के पेट में दर्द शुरू हो गया| जैसे-तैसे करके मँझली बेगम बमुश्किल हॉल के दीवान पर बैठी ही थीं कि शांताबाई दर्द से ऐंठने लगी| मँझली बेगम ने कमर में खुँसे बटुए से दवा निकाली-“यह नामुराद ऐसे ही बिलबिलाती रहती है|”
फूफी ने जल्दी से उसकी नाभि टटोली.....”बेगम, इसकी तो नाभि उखड़ी है| ज़रा तेल तो मँगवाइये|”
अस्माँ कटोरी में गरम तेल लेकर आई ही थी कि शाहजी की गाड़ी आकर गेट पर रुकी| गेट खुलने की आवाज़ के साथ ही बड़ी बेग़म नमूदार-“रेहाना बी, शांताबाई को अन्दर के कमरे में ले जाइए.....शाहजी आ गए हैं|”
शांताबाई अस्माँ के सहारे हॉल से लगे कमरे में आ गई| उसे तख़्त पर लिटा, फूफी तेल मलने लगीं तो शांता बाई तड़प उठी-“हे भगवान! अरे, अब नहीं सहा जाता|”
उसकी कराह पर मँझली बेगम ने रोक लगा दी-“ऐ, चुप! हॉल में शाहजी तीन-चार लोगों के साथ आये हैं| लगता है, बिज़नेस के कुछ नये लोग हैं| अब हम तो यहाँ कैद हो गये क्योंकि उनकी बैठक चलेगी दो-तीन घंटे|”
“मैं चाय ले आऊँ आपके लिए?” अस्मां ने पूछा तो मँझली बेगम ने इंकारी में हिलाकर सिर पीछे टिका लिया| कुछ भी खाने-पीने का मन नहीं है| सुबह से ही तबीयत बेचैन-सी लगती है|
तेल मलते फूफी के हाथ रुक गए| वे ग़ौर से शांताबाई को देखने लगीं| तीन महीने से साये की तरह मँझली बेग़म के साथ है शांताबाई| पिछवाड़े, अपने क्वॉर्टर में चूल्हा सुलगाने तक नहीं जा पाई थी| यूँ खाना तो कोठी से ही मिलता है सबको पर कभी-कभी ससुर नरसिंघा की ज़िद्द पर खिचड़ी शांताबाई ही पकाती थी, क्वॉर्टर में| नरसिंघा पेट का रोगी है| गैस की तकलीफ है, साँस फूल जाती है| ऐसे में कोठी का घी, मेवे, मसाले वाला खाना भरी पड़ जाता है| तब शांताबाई खिचड़ी पका देती है और छाछ बिलो देती है| लेकिन तीन महीने से पलभर को भी मँझली बेग़म ने क्वॉर्टर नहीं जाने दिया उसे.....उनकी गठिया से टेढ़ी उँगलियाँ जानलेवा दर्द से पीड़ित रहीं| हर घड़ी मालिश.....हर घड़ी हौले-हौले सहलाना| तब!
“शांताबाई.....यह क्या?”
“बुआ” शांता बाई फुसफुसाई.....”बुआ, मुझे मार डालो|”
कमरे में कुछ भी पूछना मुनासिब न था| फूफी ने उसे उठने का संकेत कर, मँझली बेग़म से कहा-“इसे आपके कमरे में लिटा आते हैं| शाहजी को बातों में ख़लल पड़ रहा होगा|”
मँझली बेग़म पलंग पर चित्त लेटी थीं और अस्मां उनके बालों में कंघी फेर रही थी| फूफी शांता बाई को कंधे का सहारा देकर बगीचे की ओर खुलने वाली लम्बी खिड़की से कुदा कर मँझली बेगम के कमरे में ले आईं|
“अब बता|”
शांताबाई फूट-फूटकर रो पड़ी| रोती रही और कोठी का भीतरी मंजर फूफी के आगे तिलिस्म-सा खुलता गया| मँझली बेगम की नींद लगते ही, फर्श पर लेटी शांताबाई को गहराती रात में कमरे में घुसकर चुपके से जाफर ने दबोच लिया| पहली बार तो अपनी भारी हथेली उसके होंठों पर रख उसने शांताबाई का ब्लाउज़ खोल डाला था| वह चीख़कर भी नहीं चीख़ पाई थी| मँझली बेगम दवाई की गफ़लत में थीं और कोठी पर अपार भरोसा रखने वाले उसके ससुर और पति क्वॉर्टर में सो रहे थे| घंटे भर बाद, जाफ़र जब जाने लगा तो चुपके से उसके कान में फुसफुसाया था-‘किसी से कहना मत वरना फँसेगी तू ही, मैं तो साफ़ मुकर जाऊँगा|’
शांताबाई कबूतरी-सी सहम उठी थी| भरपूर यौवन भी काल बन जाता है औरत के लिए| उसके सिले होठों ने जाफ़र को बढ़ावा दिया| वह हर दूसरे-तीसरे दिन शांताबाई के पास आने लगा और.....फूफी ने सिर थाम लिया-‘उफ़.....या अल्लाह, क्यों बनाई औरत तूने? क्या सिर्फ़ खिलौना? जैसे कि माटी की वह बचपन से बनाती आ रही है रंग रोगन भर के!”
“अब मैं क्या करूँ? बुआ, मेरा मरद तो मुझे कच्चा चबा जायेगा|” शांताबाई सिसक पड़ी|
“मैं तो यहाँ किसी को नहीं जानती शांताबाई| तू ही हमल गिराने का बंदोबस्त कर| अभी दूसरा ही महीना है ज़्यादा तकलीफ नहीं होगी|” फूफी ने सलाह दी|
“कहाँ जाऊँ मैं?.....बेग़म को पल-भर भी मैंने छोड़ा और ख़बर कपूर की तरह पूरी हवेली में उड़ जायेगी|”
“अभी तो आराम कर, मैं कुछ उपाय सोचती हूँ|” कहकर फूफी तेज़ी से कमरे से बाहर हो गई| ज़्यादा रुकीं तो नाहक़ शक़ पड़ जायेगा|
दूर, क्षितिज पर, सूरज अंतिम साँसें ले रहा था|.....बस अँधियारा पसरने ही वाला है| अगले महीने से रमजान का महीना लग जायेगा और वह अगले जुमे को भाईजान के घर जा रही है| रोज़े शुरू होने से पहले शांताबाई को छुटकारा मिल जाये| तौबा.....तौबा.....यह कैसी इबादत! पाक काम शुरू करने के पहले दिमाग़ में नापाकियत घुसी जा रही है| लेकिन शांताबाई का घर भी तो उजड़ने से बाख जायेगा, यह तो सबाब हुआ न! और फिर जिस जुर्म से किसी की ज़िन्दगी बचे, जुर्म-जुर्म नहीं कहलाता|
कोठी में रोज़मर्रा के काम बदस्तूर चलते रहे और इसी बीच ताहिरा ने बताया कि शाहजी, बड़ी बेग़म और वह ख़्वाजा साहब की दरगाह में मन्नत का डोरा बाँधने मीरपुर जा रहे हैं-“चार दिन वहाँ रहना होगा फूफी!.....आने-जाने में ही दो दिन निकल जायेंगे| एक दिन इबादत में और एक दिन यहाँ के प्रसिद्ध राष्ट्रीय उद्यान की सैर में|”
फूफी ने लाड़ से ताहिरा को देखा| जानती थीं डोरा औलाद के लिए बाँधा जा रहा है| अल्लाह पाप का घड़ा तो जल्दी भरता है और सीधी राह औलाद भेजने में कसामुसी करता है| नमाज़ का वक्त ह चला था| फूफी ने गुसलखाने में जाकर वजू किया और तख़्त पर कीमख़ाव बिछाकर नमाज़ पढ़ने लगी| नमाज ख़तम कर दुआ माँगी-“या अल्लाह, मेरी बच्ची को नामुराद न करना|”
दूसरे दिन, सुबह-सुबह बड़ी कार में सफ़र का सामान लादा जाने लगा| ताहिरा ने नहा-धोकर हल्के सूती कपड़े पहने, हल्के ज़ेवर भी| यही गुलनार आपा का हुक़्म था| सफ़र में जितनी सादगी रखो, बेहतर है| जाने से पहले गुलनार आपा ने शगुन किया| फूफी ने भी किया, बलायें लीं| जब कार कोठी के गेट को पार कर सागौन और आम के दरख़्तों से घिरी सड़क पर दौड़ने लगी तो फूफी ने नम आँखें पोंछी| कहने को तीन ही गए थे, पर कोठी में सन्नाटा खिंच गया था| न जाने फूफी को क्या हुआ कि पूरी कोठी, कोठी का हर कमरा घूम-घूम कर वे मानो कुछ तलाशने-सी लगीं| शायद ताहिरा का सुख, शायद उस चिराग की लौ जो तीन-तीन बेगमों के रहते अभी तक भी कोठी को रोशन न कर सकी और उधर शांताबाई का अनचाहा गर्भ.....| खुदा भी कैसे-कैसे मंजर दिखाता है| कहीं ये खुदा की तरफ़ से किया इशारा तो नहीं कि वे शांताबाई को इस दोज़ख से छुटकारा दिलायें वरना अचानक शाहजी का मय फेमिली जाना| उतने दिनों गुलनार आपा का सुबह-शाम तक कारोबार सम्हालना, शाहजी के बदले में दफ्तर देखना|.....मँझली बेगम और वालिद साहब का वजूद तो केवल उनके कमरों तक ही रहता है|.....और पलक झपकते ही फूफी दौड़ पड़ीं शांताबाई की तरफ़|
शांताबाई अख़्तरी बेगम को गुसल करा रही थी| फूफी कुर्सी पर बैठ गई और पास ही, बड़े से चाँदी के कटोरे में भरे मेवे मुट्ठी में भर, जल्दी-जल्दी चुभलाने लगीं| अख़्तरी बेगम अच्छे नाक-नक़्श की थीं पर बीमारी और शाहजी की उपेक्षा ने उन्हें मुरझा डाला था|
“अरे, रेहाना बी.....ख़ैरियत तो है?”
“अल्लाह की मेहरबानी बेगम| आज आपकी तबीयत में सुधार लग रहा है| शांताबाई भी फुरसत से है.....सभी मीरपुर गए हैं|”
“हाँ, बड़ी बेगम ताहिरा को चैन कहाँ लेने देगी? फूल-सी बच्ची, हँसने-खाने के दिन| आई थी बेचारी नमाज़ बख़्शवाने, गले पड़ गए रोज़े|”.....अख़्तरी पलंग से टिककर, पैर फैलाकर बैठ गई| कंधे पर लहराते बालों से बूँद-बूँद पानी पलंग की नक्काशीदार टेक पर टपकने लगा|
“तो, आज शांताबाई को घुमा लायें? सुपर मार्केट जाना है हमें| अगले हफ्ते भाईजान के पास जा रही हैं| थोड़ी खरीदी करनी थी|” फूफी ने बहाना पहले से सोच लिया था|
“हाँ, हाँ, शांता भी ऊब गई होगी हमारी बीमारी से| ले जाइए, जो यह कहे इसे भी दिलवा दीजिएगा|” अख़्तरी बेगम ने कहा| शांताबाई से अलमारी में से अपना पर्स निकलवाया और सौ-सौ के दस-बीस नोट फूफी के हाथों में दबा दिए-“आपको कम न पड़ें, और हाँ, ज़ाफर से कहें गाड़ी निकाले, गाड़ी से ही जाइयेगा|”
फूफी अंगड़ाई लेती उठीं-“नहीं मँझली बेग़म, आज तो गाड़ी की बंदिश नहीं चलेगी, पूरा तफ़रीह का इरादा है|”
अख़्तरी बेग़म ने फूफी के सलोने मुखड़े पर नज़र डाली-“ख़ुदा ख़ैर करे, इरादे तो नेक हैं|”
फूफी हँसती हुई तैयार होने चली गईं| आज अस्माँ ने कमरे में ही नाश्ता लगा दिया था| खा-पीकर फूफी शांताबाई को लेकर पैदल ही कोठी से बाहर निकल आईं| देखा गुलनार आपा की कार गेट के बाहर जा रही थी| गुलनार आपा क्रीम कलर की सिल्क की साड़ी पहने, बड़ा-सा जूड़ा बाँधे और धूप का चश्मा लगाये बेहद रूआबदार दिख रही थीं| जाफ़र गैराज में अख़्तरी बेगम की गाड़ी साफ़ कर रहा था| शांताबाई को फूफी के साथ पैदल जाते देख उनकी तरफ़ दौड़ा-“हुज़ूर, गाड़ी निकालें?”
फूफी ने तमककर जाफ़र की तरफ देखा मानो उसकी कारगुज़ारी पर अभी उसे धूल चटा देंगी| बेहया! अब भी शांताबाई को घूरे जा रहा है| फूफी ने रूआबदार आवाज़ में कहा-“नहीं|” और तेज़ी से सड़क पर उतर आईं| अरसे बाद सड़क पर चल रही थीं वे| धूप के चकत्ते दरख़्तों से छनकर सड़क पर चित्रकारी से कर रहे थे| हवा भी हलकी-हलकी थी| कुछ दूर चलने पर रिक्शे की घंटी सुन वे ठिठकीं-“आओ शांताबाई रिक्शा कर लें|”
शांताबाई नहीं जानती थी कि फूफी उसे कहाँ ले जा रही है| उसका जन्म कोठी के पिछवाड़े क्वॉर्टर में हुआ था और तब से आज, पच्चीस वर्ष की अवस्था तक उसने कोठी के अतिरिक्त कुछ जाना नहीं था| मालूम तो फूफी को भी नहीं था कि उन्हें कहाँ जाना है पर यकीन था कि सही जगह ही पहुँचेगी|
रिक्शे पर बैठते ही उन्होंने रिक्शा वाले से किसी अच्छी लेडी डॉक्टर के क्लीनिक ले चलने को कहा-“हम नये हैं भैया, तुम्हीं ले चलो|”
“माँ जी.....इधर अरोरा क्लीनिक बड़ा फ़ेमस है, वहीँ चलें?” और अनुमति मिलते ही रिक्शा वाले ने दस मिनिट में क्लीनिक पहुँचा दिया| सुबह का वक़्त था, क्लीनिक में अधिक भीड़ न थी| उनका नम्बर जल्दी आ गया| डॉ. अरोरा अधेड़ उम्र की अनुभवी महिला थीं| शांताबाई को देखते ही ताड़ गईं कि मामला नाज़ुक है-“काम तो घंटे भर का है पर फीस पाँच सौ लगेगी|”
फूफी ने रज़ामंदी दे दी| शांताबाई ने छलछलाती आँखों से फूफी की ओर देखा, मानो कह रही हो ‘तुम इंसान नहीं, देवी हो देवी|’
फूफी एक नहीं बल्कि दो घंटे क्लीनिक में बैठी रहीं| एबॉर्शन तो आधे घंटे में हो गया था लेकिन शांताबाई को नॉर्मल होने में वक़्त लगा| वक़्त भी फूफी से कैसे=कैसे काम कराता है| कभी ग्लानि से भरे तो कभी खुशी से भरे.....लेकिन अपने लिए नहीं, अपनी ज़िन्दगी कुछ नहीं| रन्नी मानो वह बयार है जो सुगंध और शीतलता से भरी है और सुगंध और शीतलता सँजोकर नहीं रखी जाती, बाँटी जाती है| रन्नी बँट रही है, रन्नी का पल-पल बँट रहा है| रन्नी के ख़ज़ाने में समय का पंसाखरा है पर अपने लिए एक पल भी नहीं है|
शांताबाई अब प्रफुल्लित दिख रही थी| फूफी ने बाहर निकलकर सबसे पहले उसे नारियल पिलाया, फिर टैक्सी करके सुपर मार्केट गईं| शांताबाई के लिए ही साड़ी पेटीकोट ख़रीदा फूफी ने, अपने लिए कुछ नहीं| कुछ ख़रीदना भी न था|
“मैं, आपको कभी नहीं भूल सकती बुआ|” लौटते हुए शांताबाई की आँखें भर उठी|
“तुम मेरे लिए ताहिरा समान हो, बेटी! मैं मालिक और नौकरों में भेद नहीं करती| सब खुदा के बंदे हैं|”
शांताबाई को फूफी तुलसी का पौधा लगी जिसे खाद की ज़रुरत है न देखभाल की लेकिन जिसके फूल, पत्ते, जड़, तना सब दूसरों के हित के लिए उपयोग में आते हैं और जिसके पत्ते के बिना भगवान का प्रसाद अधूरा है| मन ही मन उसने फूफी को नमन किया| कोठी आ चुकी थी|
चार दिन तक फूफी सोचती रहीं.....सोचती रहीं और समय की धारा बहती रही| हर औरत बर्दाश्त का भंडार है, सहन करने की खदान.....या शायद तक़दीर का व्यंग्य| फूफी खुद व्यंग्य बनकर ही तो जी रही है| अचानक जागी आँखों वे ख़्वाब-सा देखने लगती हैं-कोई बड़ी गहरी, चौड़ी, काली लहरों से भरी नदी है जिसमें रन्नी बही जा रही है| नदी का ओर-छोर नहीं| लहरें उमड़-घुमड़ आती हैं कि दूर एक कश्ती नज़र आती है| कश्ती है या बरेजा| बरेजे पर गद्देदार कुर्सी, कुर्सी पर अधलेटा कद्दावर जिस्म, वह अपने तगड़े हाथों से रन्नी को बरेजे में खींच लेता है| रन्नी की साँसें घुट जाती हैं| पुरुष की आदिम भूख उसे पीस डालती है| लहरें शांत हो गई हैं पर रन्नी का बरेजा डूब रहा है| अतल गहराई में, तेजी से.....| फूफी पसीना-पसीना हो उठती है| यह कैसा ख़्वाब था, माजी को टकोरता, तकदीर की यंत्रणाओं को उभारता| शायद इसीलिए, फूफी को अकेलेपन से डर लगता है| सन्नाटा होते ही फूफी की रन्नी जाग पड़ती है क्योंकि फूफी ने जंगल होना चाहा था| पुरुष बीज को अपनी उर्वरा शक्ति से पल्लवित करना चाहा था| चाहा था, एक बिरवा फूटे और वे जंगल बन जायें पर हरियाली उनकी हो न सकी और वे भटकन बनकर रह गईं|
निक़हत ने लाइट जलाई तो फूफी ने नीममुँदी पलकें उठाईं| कमरा दूधिया रोशनी से नहा रहा था-“फूफीजान उठिये, माशा अल्लाह तारों भरी रात का मंजर न देखियेगा? फूफी उठ बैठीं| खिड़की के परदे निक़हत ने सरका दिए थे| बगीचे से फूलों की सुगंध फूफी तक बह आई-“क्या वक़्त हुआ निक़हत?”
“नमाज़ का वक़्त तो निकल गया| आप इतनी मीठी नींद में थीं कि हमसे जगाया न गया|”
“तब पाप की भागी तुम|” फूफी ने हँसकर कहा|
“मंजूर, लेकिन किसी संत ने कहा है कि मीठी और गहरी नींद से जगाना सबसे बड़ा पाप है|” निक़हत कब चूकने वाली थी-“तो फूफीजान, सबाब हमने ले लिया| अब आप चाय पीजिये और चलकर अब्दुल्ला को बता दीजिए कि क्या पकेगा?”
“आज मँझली बेग़म से पूछो निक़हत, कभी-कभी उन्हें भी इस घर की बेग़म होने का रुतबा दो|”
“सही फ़रमाया आपने|” कहकर फूफी के लिए कप में चाय उड़ेली और मँझली बेग़म के कमरे की ओर भाग ली|
फूफी चाय पीकर, तरोताज़ा होकर जब कमरे से बाहर आईं तो बावर्चीख़ाने की चहल-पहल सुन उस ओर मुद गईं| ताज्जुब! मँझली बेग़म मुढ़िया पर बैठी अब्दुल्ला को निर्देश दिए जा रही थीं| बीच-बीच में बिना सहारा लिए उठतीं और ग्रेनाइट के प्लेटफॉर्म पर थालियों में खाना पकाने के सामान की मिक़दार निकालने लगतीं| फूफी को आता देख वे चहकीं-“आइये रेहाना बी, देखिये इतनी केसर, जर्दा पुलाव के लिए काफी है न! और सुनो अब्दुल्ला, पुलाव तमाम खड़े गरम मसाले से बघारा जायेगा| टमाटर का गाढ़ा सूप बनेगा और ब्रेड के टुकड़े खूब कुरकुरे तलकर डाले जायेंगे उसमें| रेहाना बी, आप अपनी पसंद बताइए| कीमा मटर गुलनार आपा की पसंद की बनवा रही हूँ| अब्बाजान के लिए उबली तरकारियाँ अलग बनी हैं|”
फूफी तो गश खाकर गिर जातीं अगर चौखट का सहारा न लेतीं| यह अख़्तरी बेगम को हुआ क्या? महीनों बिस्तर के इर्द-गिर्द सिमटी ज़िन्दगी में बहार कैसे? कहाँ गया उनके गठिया का दर्द? कहाँ है उनकी लाठी शांताबाई? बिना सहारे तो वे कुल्ला तक न करती थीं और फूफी तन्मय चलती-फिरती निर्देश देती मँझली बेग़म को देखती रह गईं| तो इस घर को पंगु किया है शहनाज़ बेगम ने, जो स्वयं औलाद वाली न हुई परन्तु बेऔलाद मँझली बेगम को कोंच-कोंच कर जड़ बना डाला था| या शायद मँझली बेगम की ग़रीबी अभिशाप बन गई हो क्योंकि शहनाज़ बेगम तो लखपति घराने की बेटी थीं इसलिए सब पर हावी रही हों| मँझली बेगम, निक़हत और अब ताहिरा, तो क्या ताहिरा की कोख न भरी तो वह भी ऐसी ही लँगड़ी ज़िन्दगी जियेगी? ग़रीबी का संकोच उसे भी खुलकर जीने न देगा? शायद वह भी शहनाज़ बेग़म के हुक्म से कोठी के किसी कोने में लाचार बनाकर पटक दी जाये| तौबा.....तौबा.....जीभ काट ली फूफी ने| लानत है ऐसे सोच पर|
तुरन्त फूफी ने मँझली बेगम की खुशी में शामिल होने के लिए कदम बढ़ाए| तय था कि उनको बीमार करार दिया गया है वरना अपनी गृहस्थी सम्हालने की ताब है उनमें|
चौथे दिन ताहिरा लौट आई, थकी-सी| साँवली पड़ गई थी वह| आते ही फूफी से लिपट गई-“फूफी, खूब घूमे हम तो| जंगल में हठी पर बैठकर सैर करते रहे, ढेर सारे जानवर देखे|”
फूफी ने ताहिरा का माथा चूमा और उसे आराम करने को कह, हॉल में आ गईं|
“सलाम वालेकुम बेग़म|”
“वालेकुम सलाम| लो, रेहाना बी, दरगाह का प्रसाद लो और दुआ करो कि जल्दी इस घर में चिराग रोशन हो|” शहनाज़ बेगम ने प्रसाद का पैकेट उनकी ओर बढ़ा दिया|
“आमीन|” कहकर उन्होंने पैकेट से चिरौंजी दाने और गुलाब की पँखुड़ी मुँह में डाल सिजदा किया फिर दीवान पर बैठ शहनाज़ बेगम से सफर के किस्से सुनने लगीं| मीरपुर जाने का उनका भी मन था पर ताहिरा के आनन्द में खलल न पड़े इसलिए खामोश रहीं| वैसे भी कुछ दिनों के बाद जाना ही है उन्हें|
चिड़िया के पंख-सा उड़ता-तैरता जुमे का दिन आ गया| फूफी खुशी-उदासी दोनों के आलम से ऊहापोह थीं| ताहिरा को अकेले छोड़ना दहशत-सी भरता था उधर मन में भाईजान, भाभी से महीनों बाद मिलने की खुशी| शादी के बाद मात्र दो दिनों के लिए वे पैर फेरने के निमित्त ताहिरा को लेकर गईं थीं| गुलनार आपा का हुक़्म था, जब तक ताहिरा के वाल्दैन अपनी हैसियत न सुधार लें, आना-जाना ज़रा मुश्किल है| शाहजी का ऊँचे तबके में उठना-बैठना है|
शहनाज़ बेगम ने भाईजान, भाभी और सादिया-जमीला के लिए ईद की बेहतरीन सौगातें लाकर रख दीं| बच्चों के लिए मिठाईयाँ, फूल, मेवे, कपड़े| पापड़, अचार, बड़ियाँ आदि सभी कुछ| बताशों का थाल, ख़ास ईद के दिन बनाने के लिए सेवईयाँ दीं| एक रेशमी बटुए में भाभीजान के लिए एक सौ एक चाँदी के सिक्के| मानो, बेटी बिदा हो रही हो| बस, ऐसे ही लोक व्यवहार की बात और मुक्तहस्त दान, उन्हें कोठी की मलिका के सिंहासन पर आसीन किये हैं| सबका कद छोटा पड़ जाता है उनके आगे|
ताहिरा ने भाभीजान के नाम चिट्ठी लिखी और अपनी तरफ़ से अपने भतीजे-भतीजियों के लिए ईदी में देने की सौगातें दीं-“फूफी, ईद होते ही लौट आना, हम उँगलियों पर दिन गिनेंगे|”
फूफी ने ताहिरा को अपने आगोश में लेकर देर तक समझाया कि पहली ईद है उसकी यहाँ| किस तरह पेश आना, क्या-क्या करना, वगैरह.....| फूफी का सामान शहनाज़ बेगम की कार में भर दिया गया| जब वे लौटेंगी तब तक ताहिरा की कार भी आ जायेगी, शाहजी ईद पर उसे कार भेंट कर रहे हैं| फिर आना-जाना उसी में होगा|
फूफी ने सबसे बिदा ली| अपना पान दान सम्हाला और कार में आ बैठीं| यादवजी कार चला रहे थे कोठी के गेट से पार होते-होते, विदा देती लोगों की भीड़ में अलग-थलग शांताबाई का चेहरा नज़र आया| मुड़ते-मुड़ते फूफी ने देखा कि शांता बाई ने साड़ी के आँचल से अपनी आँखें पोंछी हैं|