Badalate rang in Hindi Short Stories by Vinita Shukla books and stories PDF | बदलते रंग

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बदलते रंग

बदलते रंग

विनीता शुक्ला

अपर्णा अपने मोबाइल को बजते हुए सुन रही थी. माँ का नंबर था. सूनी आँखों से उनके नाम को फ्लैश होते हुए देखती रही. उसका हाँथ कांपा और फोन की तरफ बढा. पर अपर्णा ने सायास उसे पीछे खींच लिया. विरक्ति होने लगी थी उसे. माँ का वही रटारटाया प्रश्न, “रुढ़की कब आ रही हो? लड़के वाले, दबाव बना रहे हैं हम पर” बहाना बनाते हुए थक गई वह. व्यस्तता का नाटक -कॉलेज की परीक्षाओं के नाम पर या फिर शोधकार्य की आड में! पर कब तक ??? विवाह का फंदा, कब तक अपने गले से दूर रख पायेगी?! कैसे बताये माँ को; कि दिल पर उसका वश ही नहीं. वह तो कबका खो गया........सदा के लिए!!

वह अनमनी सी उठी और दराज से एक पुरानी डायरी निकाली; हवा सांय सांय बह रही थी, खिड़कियों के पट डोलने लगे और पेड़ों के पत्ते सिहर उठे; मानों अंतस की उथल -पुथल से- तादात्म्य हो प्रकृति का! उसने यंत्रवत, डायरी का पहला पन्ना खोलकर देखा. रोमांच हो आया- ऐसे...जैसे पहली बार देख रही हो. वही टेढी मेढी विशिष्ठ लिखाई- “अपनी प्रिय छात्रा अपर्णा को सस्नेह” – दिनेश. साथ में वह सूखी पंखुडियां! दिनेश सर की यादें कुलबुलाने लगीं थीं. अपर्णा ने खुद को शाल में लपेट लिया- कसकर! पत्तों की सिहरन उसकी देह... यहाँ तक कि मन में उतर आयी थी!!

एक हूक सी उठी भीतर. नैतिकता की गाँठ, जो अवचेतन में कहीं गहरे दबी थी; आज फिर कसकने लगी. दो जलती हुई आँखें कह रहीं थीं- “अपर्णा तुमसे यह उम्मीद न थी- तुम और......!” दिल हुआ, फूट फूटकर रोये और चिल्ला चिल्लाकर कहे, “नहीं दिनेश...आप गलत समझ रहे हैं. समित मेरा कोई नहीं, वह बस एक दोस्त है पुराना. हमारी दोस्ती निरा बचपना थी- किशोरावस्था की बचकानी दोस्ती!!” पर जब यह सब कुछ कहना था तब स्वर उसके कंठ में ही घुटकर रह गए. अपने बचाव में एक भी दलील न दे पाई वो; असहाय सी देखती रही, दिनेश को जाते हुए....साथ में बिखरते सपनों के तिनके!! उनकी घृणा को आज तक जी रही थी – अपने भीतर. यह घृणा नत्थी हो गई थी उसके वजूद से. दिनेश की अंतिम स्मृति बनकर... मर्म पर -जलती शलाका से लिखे गए इतिहास जैसी!

परिपक्व प्रेम क्या होता है; किसी से बौद्धिक जुड़ाव होना कितना संतोष देता है- उनके बिना ये जान ही न पाती! सर की सबसे मेधावी छात्रा होने का गौरव! उस गहन गंभीर व्यक्तित्व का सान्निध्य, उसकी असाधारण मेधा को परिष्कृत करता गया. क्या अजब नशा था...!! विद्वान गुरु के साथ, बौद्धिक चर्चाओं में शामिल होना...यह सौभाग्य किसी और को नहीं मिला. जाहिर था - कि एम. ए. में अपर्णा से अच्छे नंबर, कोई नहीं ला सकता था. दिनेश जी गंभीरता के आवरण में, उसके प्रति अपने कोमल भावों को दबाए रहते थे. एक अध्यापक की गरिमा को, खंडित कैसे करते?! परीक्षाफल घोषित हुआ- तो अपेक्षानुसार, कॉलेज में अव्वल नम्बर पर अपर्णा ही थी. जूनियर सेक्शन में, उसकी नियुक्ति भी सुनिश्चित हो गयी; एक शिक्षिका के तौर पर.

दिनश तब रोक न सके, आकुल भावनाओं के प्रस्फुटन को!! उन्होंने सम्मान- स्वरुप अपर्णा को वह डायरी दी और उसमें दबा एक सुर्ख गुलाब भी; जिसने उनके लगाव को, बिना बोले ही व्यक्त कर दिया. फिर तो... प्रेम पेंगें लेने लगा था- उछाह भरे वेग से! हाँलांकि शालीनता की सीमा रेखा, उन्होंने कभी न लांघी पर चोरी छुपे मिलना शुरू हो गया. अपर्णा के पी. एच. डी. की रूपरेखा भी, बनने लगी साथ ही साथ. तय हुआ कि अब विवाह को लेकर अभिभावकों से बात कर लेनी चाहिए. उनके बीच, तब ना जाने कहाँ से; समित कूद पड़ा-किसी दुस्वप्न की तरह!! वह दिनेश के निर्देशन में शोध करना चाहता था. अपनी पुरानी ‘मित्र’ से टकराना, स्वाभाविक ही था! और एक दिन... जब वह अपर्णा से कह रहा था – “ कम ओंन डियर! माना कि पहले हमारा ‘ब्रेक- अप’ हो चुका है; बट फॉर देट- तुम सीधे मुंह बात ही ना करो- ये तो....” उसे चुप होना पडा; क्योंकि चोरों की तरह दम साधकर, ‘सर’ उसकी ही बात सुन रहे थे. उन्हें देखते ही वह, वहाँ से खिसक लिया. रह गई अपर्णा; अपनी सफाई में कुछ कह पाने का, उसे मौका ही नहीं मिल पाया- दिनेश के हाव-भाव से छलकती घृणा, अकल्पनीय जो थी! उसकी जबान मानों तालू से चिपक कर रह गई थी!! उन चंद ही पलों में... सब कुछ मिट गया हो जैसे!!!

वह कहना चाहती थी- “आप गलत समझ रहे हैं! सहेलियों की देखादेखी, मैंने भी ‘ब्वॉय- फ्रेंड’ बनाया जरूर था.... पर वो बस एक “पैशन” था – जस्ट टू शो ऑफ!....मैंने कोई मर्यादा नहीं तोडी- इन फैक्ट मेरी हिम्मत ही नहीं थी, ऐसा कुछ भी करने की!!” लेकिन “कारवां गुजर गया” और वह “गुबार” ही देखती रह गई!!! हर दिन खुद को कोसती कि उसने दिनेश जैसे नैतिकतावादी से, प्रेम ही क्यों किया?! सर नहीं जानते थे पर उसे तो पता था कि छिछोरापन उन्हें हजम नहीं होगा; उनका गहरा व्यक्तित्व ..... किसी भी प्रकार की छुद्रता को- सह न सकेगा; आचरण की छुद्रता तो बिलकुल ही नहीं!! वह ही मूरख थी- जो यह जानते हुए भी, उनके प्यार में पड गई.

मन में एक कुंठा घर करने लगी, जो रोज उसे कठघरे में खड़ा करती. रोज उससे कहती- “ तू पापन है. तूने एक सच्चा प्रेम करने वाला दिल दुखाया. अपना अतीत छुपाकर, उन्हें अँधेरे में रखा” वो भी कितनी नादान थी... विगत बातों को, समाज की संकरी सोच से जोड़ पाती- तो उनके निकट जाने की धृष्ठता ही क्यों करती! उनकी नज़रों में गिरना- मौत से भी बदतर लग रहा था!! मां- बाऊजी उसकी शादी पर जोर डाल रहे थे; पर वह अपनी ही मनःग्रंथि से उबर कहाँ पा रही थी, राजी कैसे होती?! इसी तरह साल निकल गया. दिनेश ने जानकर, दूसरे किसी संस्थान में नियुक्ति ले ली थी. शायद भागना चाहते हों उससे!

सुना- उनका विवाह किसी सुदर्शन, परम्परावादी कन्या से हो गया था. सुनकर पहले तो दिल टीसने लगा परन्तु फिर सोचा –‘चलो अच्छा ही हुआ; उन्हें उनकी आदर्श पत्नी मिल गई. वे खुश रहेंगे तो कदाचित मैं भी....! उनकी खुशी में ही मेरी ........’ चिंतन प्रक्रिया इसके आगे नहीं बढ़ पाती. कैसे बढ़ती? कैसे मान लेती कि उनकी खुशी; उसे उसके दुःख, उसके अपराध -बोध से उबार सकती थी! “ सर ने सबको बुलाया है. यू नो, विदेश से एक मैडम आयी हैं. उन्होंने अपने पुराने हिंदी ग्रंथों पर रिसर्च कर रखी है........और पता- शी विल बी एड्रेसिंग अस इन द ऑडिटोरियम! इट्स सो एक्साइटिंग....!! इजिंट इट?!”

रजनी की बकबक ने उसे, विचारों के सागर से खींच निकाला. ज्यादा कुछ तो नहीं; पर इतना समझ पायी कि उसकी प्रिय साहित्यिक चर्चा होने वाली थी- एक निराले ही अंदाज़ में. उसने जल्दी जल्दी खुद को व्यवस्थित किया और छात्रावास से प्रेक्षागार की तरफ बढ़ चली. रजनी का हाथ उसके हाथ में था. सीटें पहले ही काफी कुछ भर चुकीं थीं. वे दोनों जाकर ‘मिडिल रो’ में बैठ गईं. स्टेज वहाँ से स्पष्ट नजर आता था. तभी प्रिसिपल सर उस विदुषी को स्टेज पर लेकर आये. उसे देख अपर्णा की तो सांस ही रुक गयी! साडी में वह अनिन्द्य सुन्दरी लग रही थी. विदेशी होते हुए भी ऐसा मर्यादित पहनावा! दीपदान में दिए जलाकर, कार्यक्रम का उदघाटन होने वाला था. जलती हुई मोमबत्ती लेकर, कोई पीछे से स्टेज पर आया. कौन था यह -जिसने अपर्णा के होश उड़ा दिए! जो उस युवती को मोमबती थमा रहा था, दीप- प्रज्ज्वलन के लिए?? यह तो वह ही थे- जिनकी स्मृतियाँ उसे कभी सहज न होने देती थीं....उसके परम प्रिय दिनेश शर्मा!!! सभी दर्शक मंत्रमुग्ध से, उस विदेशी कन्या डोना को हिंदी बोलते हुए सुन रहे थे. बीच बीच में वह अंग्रेजी का सहारा भी लेती- अपने उद्गार प्रकट करने के लिए. सब कुछ बढिया ढंग से चल रहा था; बस अपर्णा का ही चित्त नहीं ठहर रहा था- उन गतिविधियों में. कई वक्ता आये और अपने- अपने विचार व्यक्त करके चले गए; लेकिन अपर्णा के पल्ले कुछ भी न पड़ा.

कार्यक्रम के अंत में जो फुसफुसाहटें सुनाई दीं, उनसे अलबत्ता उसके कान जरूर खड़े हो गए. “पता है, लंदन में दिनेश सर को, टेम्परेरी एप्वाइंटमेंट मिला था – वहीँ के किसी कॉलेज में........”

“तो उधर ही टकरा गए इस डोना के साथ ???”

“टकरा गए!! दे आर लिविंग टुगेदर एज .....यू नो व्हाट आई मीन....!”

“ओह गौड! व्हाट एबाउट हिज वाइफ?”

“ही इज नो मोर कन्सर्न्ड अबाउट हर. इन फैक्ट वो परमानेंटली वहीँ सेटल होने की कोशिश में हैं” आगे सुन नहीं सकी अपर्णा. दिमाग जैसे सुन्न पड गया था! जिस ग्लानि ने, उसके जीवन को अधूरा रखा- क्षण भर में तिरोहित हो चली! ऐसे आदमी के लिए, वह खुद को सजा देती रही; जिसने रिश्तों को खेल बना रखा था. जैसे वर्जनाएं मात्र नारी के नाम लिख दी गई हों; और पुरुष.... वह कहीं भी मुंह मारता घूमे, कोई हर्ज नहीं!! उस दोगले इंसान के खोखले आदर्श; जीवन पर बोझ से थे!!! अपर्णा ने फौरन मां को फोन लगाया और कहा, “मैं जल्द से जल्द रुढ़की आ रही हूँ. उन लोगों को इत्तला कर देना...”