Khavbo ke pairhan - 8 in Hindi Fiction Stories by Santosh Srivastav books and stories PDF | ख्वाबो के पैरहन - 8

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ख्वाबो के पैरहन - 8

ख्वाबो के पैरहन

पार्ट - 8

रन्नी लौट तो आई थी अपने अतीत को छोड़कर लेकिन क्या कभी अतीत को बिसरा पाई? चहुँओर बिखरे अपने दिल की किर्चों पर लहूलुहान पैरों को रखती वह भाईजान के बच्चों को बड़ा करने में जुट गई| उम्र बीतती गई लेकिन उसके पाँव आज भी लहूलुहान हैं| और जब वह अपने पाँवों को सहलाती तो पीछे चुपके से आकर अतीत बैठ जाता| कभी भाभी जान उसकी पीठ सहलाकर समय को पीछे धकेल देतीं, और वह उनके बच्चों की मुस्कुराहट में खो जाती|

दसवीं से अधिक न नूरा पढ़ पाया और न ही शकूरा| नूरा लगातार फेल होता रहा और शकूरा जब उसके साथ इम्तहान में बैठा तो न जाने कैसे नूरा पास हो गया और शकूरा फेल| भाईजान समझ गए कि दोनों ही पढ़ने में कमजोर हैं| पिछले तीन साल से, नूरा खिलौने के धन्धे में हाथ तो बँटा ही रहा था| भाईजान कहते-‘थोड़ा धंधा जैम जाए तब इन दोनों का निकाह एक साथ करवा देंगे| खर्च भी ज़्यादा नहीं आएगा|’ लेकिन नूरा-शकूरा की लगातार नाक़ामयाबी देख भाभीजान का दिल हौल खाता था| बेटों से ही तो आस रहती है, इधर तो दोनों नकारे|.....अगर खिलौनों का धंधा न होता तो क्या करते दोनों?

ताहिरा छोटी-छोटी पायजेब पहने, ठुमक-ठुमक कर चलती कब बड़ी हो रही थी पता ही नहीं चल रहा था|

‘नामुराद! ऐसी कमसिन और दूध जैसी उजली है, न जाने किस घर को रौशन करेगी?’ एक दिन बुदबुदाकर रन्नी ने कहा तो भाभीजान तुरन्त बोल पड़ी-‘बिल्कुल तं पर गई है रन्नी बी-सूरत, सीरत, सभी में|’

‘न भाभीजान, मुझ मनहूस का एक रोयां भी, खुदा न करे, उस पर पड़े,’ कहते-कहते रन्नी उदास हो गई|

‘ऐसा न कहो रन्नी बी, हाथ की लकीरें तो खुदा के घर से लिखकर आती हैं, लेकिन तुम्हारे जैसा दिल कोई पा सकता है?’ भाभीजान ने कहा|

‘मेरी ताहिरा का निकाह देखना कैसे राजघराने में होगा|’ रन्नी चमकती आँखों से ताहिरा को देखती रही| मानो, खुदा से सिजदा कर रही हो कि जो खुशियाँ तू मेरी झोली में डालना भूल गया उन खुशियों में मिलाकर दुगना सुख ताहिरा की झोली में डालना|

‘क्या पता ताहिरा के नसीब में क्या है?’ ठंडी साँस भर कर भाभीजान बोली|

रन्नी जानती है भाभी का दिल| निरन्तर गरीबी और अभाव ही देखा है इस औरत ने और भाईजान गृहस्थी की गाड़ी खींचते-खींचते असमय ही बुढ़ा गए| बाल खिचड़ी, देह में ताकत नहीं, अब तो साईकिल चलाते भी हाँफ जाते हैं| लड़के अपने आप किसी काम का बोझ उठाने को तैयार नहीं| जाकिर भाई के घर बिजली आये दो साल हो गए हैं| भाईजान के पास इतनी रकम कभी एक मुश्त जमा नहीं हो पाई कि बिजली का कनेक्शन ले सकें| लम्बा तार डालकर एक बल्ब का कनेक्शन जाकिर भाई के यहाँ से ले लिया है| जिसमें बैठकर रन्नी गोटे-तिल्ले, सितारे का काम करती है| जब कभी रन्नी सोचती कि अब बिजली लायक पैसे जुड़ ही जायेंगे तभी कोई अन्य जरूरी खर्च, आकर खड़ा हो जाता|.....कभी खिलौनों के रंग और कभी किसी की बीमारी.....घर टूटता ही जा रहा था| जिस भाभी ने कभी मुँह न खोला था अब वही दोनों बेटों पर चिल्लाती रहतीं-नूरा! तू अब्बू का हाथ बँटा और शकूरा कोई नौकरी तलाश कर| कुछ तो घर की गाड़ी खिंचेगी| नूरा अपने अब्बू के साथ काम समझने लग गया| बाज़ार, हाट, गाँव की मड़ई में खिलौने ले जाने लगा|.....परन्तु शकूरा कोई नौकरी न तलाश पाया| ‘दसवीं पास को नौकरी भी क्या मिलेगी? चपरासी गिरी न?’ भाई जान कहते तो भाभी रो पड़तीं-‘अरे नामुरादों, जरा अपने खानदान को देखो,.....तुम्हारे दादाजी क्या थे? खानदान टूटता है तो आने वाली औलाद सम्हाल लेती है| लेकिन ये निकम्मे तो क्या सम्हाल पाएँगे? इनको और इनके बीवी-बच्चों को का हमें ही पेट भरना पड़ेगा|’ ताहिरा को मदरसा तक अब्बू साईकिल पर छोड़ने जाते| कभी वह अकेली ही घर वापिस आ जाती| फूफी समझाती कि संग-सहेलियों के साथ लौटा कर| यूँ अकेले आना अच्छा नहीं| कभी शकूरा लिवा लाता| जब सहेलियों के साथ लौटती तो रास्ते में झड़बेरी के बेर तोड़ती| विलायती इमली बटोरती| और तब तक फूफी आकर रास्ते में खड़ी हो जाती| ताहिरा के लौटने में देर हो तो उनका हृदय धक-धक करने लगता था| ताहिरा हर कक्षा में अव्वल आ रही थी| अब्बू का कलेजा गज भर फैल जाता| यह लड़की ही शायद घर के दलिदर दूर करे, वे सोचते..... लेकिन अगले ही क्षण उनका दिल तर्क कर उठता, ‘लड़की जात है, क्या नौकरी करवायेंगे वे?.....नहीं कभी नहीं| लेकिन घर-वर तो अच्छा ही मिलेगा|’

ताहिरा आठवीं में पहुँच गई थी| रन्नी ने तीन-चार गाढ़े रंग के सलवार-सूट उसके लिए सिल दिए थे| ओढ़नी को चारों तरफ लपेटकर, सिर ढँककर स्कूल जाती| नाते-रिश्तेदार ताहिरा की बेपनाह खूबसूरती देखकर अन्दर ही अन्दर जले-कुढ़े रहते| किस हूर को देखकर जना था इसकी माँ ने.....वे सोचते|

रन्नी डरती थी, जैसे ही ताहिरा नहाकर आती, वे उसे आईना भी न देखने देती| पकड़कर उसके घने-लम्बे बालों में तेल चुपड़ देतीं और खींच-खींच कर चोटी कर देती| फिर आँखों में सुरमा लगा देती| रन्नी स्वयं आईना बन जाती| आँखों में बेपनाह प्यार भरकर उसे स्कूल भेज देती| आँखों से ओझल होते तक वे सड़क के किनारे खड़ी रहती| याद आता हल्का गुलाबी सूट, जिसे पहनकर जब वह खाला के घर जाती तो अम्मा हैरत से देखती रह जाती थीं| आज वैसी ही हैरानगी ताहिरा को देखकर उसकी आँखों में तैरती है| फिर से अतीत उसकी आँखों में तैर जाता| एक ऐसी ही खूबसूरत-सी लड़की जिसने ख्वाब देखना भी शुरू नहीं किया था कि एक जल्लाद की झोली में जा गिरी थी| नहीं! अब तो टूटे सपनों का कोई दर्द भी नहीं था| सचमुच? क्या सचमुच दर्द नहीं था? हाँ! रेहाना को तो वह दफ़ना आई थी फिर क्यों वह यदा-कदा सिर उठाने लगती है? न आम की अमराई सूखी है, न सूरज का डूबना रुका है, न पीले फूलों की घाटियाँ सूखी हैं| हाँ, फूलों की झाड़ियाँ कुछ और ही घनी और फूलदार हो उठी हैं| वही खेत हैं,.....शिकाकाई की घनी होती झाड़ियाँ हैं| अमरुद और मुनगे के पेड़ अलबत्ता मोटे हो गए हैं| पहाड़ी नाला कुछ और गहरा हो गया है| पानी और निर्झर, साफ-पाक| आमों का ठेका वही मिट्ठन लेता आ रहा है, अलबत्ता बूढ़ा हो गया है| अब लाठी लेकर सुग्गों को उसके बेटे उड़ाते हैं| वह खटिया पर पड़ा टर्राता रहता है| क्या सचमुच कुछ नहीं बदला था? लेकिन रन्नी तो टूटे ख्वाबों को कंधों पर ढोते-ढोते थक गई थी, कब्र से उठकर चाहें जब रेहाना उसके सामने खड़ी हो जाती थी और अट्टहास करने लगती थी.....रन्नी! तुम कैसे भुलोगी मुझे? वक्त घाव तो देता है लेकिन घाव की टीस क्या कभी उठती नहीं.....? बोलो रन्नी, बोलो.....|

नहीं! समय तो निश्चय ही बदला था| पेट्रोल पंप पर खासी भीड़ रहती है| बसों का आना-जाना काफी बढ़ गया है| सामने की सड़क अब और चौड़ी हो गई है| चिलबिल का दरख़्त खूब ऊँचा और अनेक शाखाओं को फोड़ता विशाल बन चुका है| अब चिलबिल में से चिरौंजी, ताहिरा निकालती है और तमाखू की खाली डिब्बी चिरौंजी से भर लेती है| घने होते पेड़ों पर बंदरों का उत्पात बढ़ गया है| कितनी बार तो भाभी ने सना आटा अथवा बनी हुई रोटियाँ बन्दरों को दे डाली हैं| बंदर पान के बने बीड़े उठा लेते हैं, और पेड़ पर बैठकर खाते हैं| तमाखू उन्हें लग जाती है तो झूमते हैं, ऊँघते हैं| हाँ! कहीं कुछ भी तो नहीं ठहरता है| बस उम्र बढ़ती जाती है| रन्नी नहीं चाहती कि वह दफन की हुई रेहाना को टटोले| वह अमराई में अकेली ही घूमती रहती है.....लेकिन अब कभी उसका दुपट्टा किसी शाख से नहीं उलझता| अपने ही कदमों की आहट से वह चौंक उठती है, पीछे पलटकर देखती है, नहीं! कोई भी तो नहीं| साल पर साल गुज़रते गए..... रन्नी के दिल के टुकड़े फिर क्या जुड़ पाये? कभी-कभी झाड़ियों के पास यूँ महसूस होता कि यूसुफ खड़े हैं, अभी आगे बढ़कर लिपटा लेंगे| धड़कते हृदय से झाड़ियों के पास वह बढ़ी.....लेकिन नहीं, यहाँ तो कोई नहीं है| केवल रन्नी है और उसका अकेलापन है| जब कभी यूँ रोना चाहा है, ताहिरा की नन्ही बाँहें उसे घेर लेती हैं| हाँ! वह समय बड़ा कठिन होता है जब रेहाना कब्र में से अंगड़ाई लेती उठ खड़ी होती है| उसे वापिस कब्र में सुलाने में बहुत पीड़ा झेलनी पड़ती है| बरसों बाद भी अतीत ज्यों का त्यों सामने आकर खड़ा हो जाता है| यूसुफ के साथ रहने की बरसों पहले की आकांक्षा|.....काश! यूसुफ अपने आप कोई फैसला लेते|..... एक मर्द की तरह उसका हाथ पकड़कर कहते-चलो रेहाना, मुझे किसी की परवाह नहीं| परन्तु उन्होंने तो ऐसा मुँह चुराया कि कभी पलटकर नहीं देखा|.....सही कि फिर यूसुफ ने अपना घर नहीं बसाया| बावजूद अथाह मुहब्बत के रन्नी का मुँह कड़वाहट से कसैला हो जाता है.....क्या कहेंगे इसे? कायर पुरुष!!!

भाईजान ने साईकिल दीवार से टिकाई और आते ही कहा, ‘नूरा के लिए रिश्ता आया है| जानती हो कहाँ से? अरे, वही अपने पुराने मुहल्ले के उस्मान भाई टेलर की बड़ी बिटिया का| याद है, खेलते थे नूरा और जमीला अपने घर की गलियों में|’

‘पहले हाथ-मुँह धो लो, फिर इत्मीनान से बताना|’ भाभीजान ने कहा|

‘हाँ! हाँ!’ वे पैरों पर पानी डालते हैं, कुल्ला करते हैं, और मुँह धोकर तख़त पर बैठ जाते हैं| ताहिरा उन्हें तौलिया थमाती है और फिर चाय बनाने के लिए स्टोव में पंप भरने लगती है| चरों तरफ कैरोसीन की तीखी गंध फ़ैल जाती है|

‘कैसी दिखती होगी, वह छटांक भर की जमीला?’ रन्नी ने पूछा|

‘अरे! वहीँ तो गया था| उस्मान भाई ज़बरदस्ती घर लिवा ले गए| सामने ही बैठी थी, बहुत अच्छी दिखने लगी है| रंग भी साफ हो गया है| पहले से ही नूरा को लेकर घर में गुफ्तगूँ हुई होगी तभी तो मुझे देखते ही अन्दर भाग गई| उस्मान भाई की वालिदा और उनकी बीवी सभी सामने आ बैठे, और झोली फैलाकर नूरा को माँगा, क्या कहता मैं?’

‘अरे! हाँ कर दी होगी, और क्या? मैं तुम्हें जानती नहीं?’ भाभीजान बोलीं|

वे मुस्कुरा पड़े| सच्ची तो ‘हाँ’ कर दी उन्होंने| शगुन के रुपये, मिठाई का डिब्बा, बी निकलवाते हैं वे साईकिल के कैरियर से| ताहिरा ने आगे बढ़कर मिठाई का डिब्बा खोला| नूरा चुपचाप बैठा डिब्बों में खिलौने भर रहा था| शकूरा ने उसे छेड़ा तो वह मुस्कुरा पड़ा| नूरा की आँखों के सामने छोटी-सी जमीला दौड़ने लगती है|

‘नूरा की पढ़ाई, उसका काम-धन्धा. घर की.....हालत को देखते हुए उस्मान टेलर की बेटी ही इस घर के लिए उपयुक्त है|’ रन्नी ने कहा-‘निभा जायेगी जमीला इस घर में|’

और एक दिन नूरा चल पड़ा दूल्हा बनकर, जमीला को ब्याहने| घर मेहमानों से भर गया था| पुराने मुहल्ले के कुछ पड़ोसी भी इधर आ गए थे कि वे तो लड़के वालों की तरफ से शामिल होंगे| शादी के गीत ढोलक पर गाए जा रहे थे| रन्नी बार-बार नूरा की नज़र उतार रही थी| कुछ भी हो पंडित काका सच ही कहते हैं.....राम-लछमन की जोड़ी दिखती है नूरा-शकूरा की| रन्नी न्यौछावर हुई जा रही थी नूरा पर| स्टोर की चाभी उसी के हाथों में है| स्टोर में चार दिन पहले बने लड्डू, शकरपारे, नमकीन भरे हैं| हर दो घंटे बाद आपा चाय बना लेती हैं| हर आने वाले मेहमान के आगे नाश्ते की प्लेट रखी जाती है| घर आए मेहमानों के लिए उम्दा कीमा-मटर बनाया गया, और मीठे में लड्डू तो हैं ही| जब बारात लौटेगी तब क्या-क्या बनेगा इसकी भी लिस्ट रन्नी ने तैयार कर ली है| रन्नी ने रात-रात भर जागकर दुल्हन के लिए जोड़े तैयार किए हैं| गोटा, मुकेश टाँकना कोई इतना सरल काम तो नहीं| आँखों के आगे नन्ही-सी जमीला आकर खड़ी हो जाती है फूफी! फूफी चिल्लाती हुई.....और अब ये सलवार-कुर्ते-शरारा, गरारा| या खुदा! कितने वर्ष बीत गए| भाभी ने अपनी चूड़ियाँ तुड़वाकर दुल्हन के लिए गहने तैयार करवाये हैं| रन्नी ने कपड़ों के लाजवाब चार जोड़े तैयार किए हैं| फातिमा खाला चाँदी के कंगन लेकर आई हैं और पड़ोस की आपा चाँदी की चेन और डमरू आकार का लॉकेट| भाभी जान गदगद हो उठीं-‘लो! दुल्हन तो सोने-चाँदी से लद गई| कहाँ! हमें लगता था कि कुछ हो पाएगा या नहीं|’

मेंहदी की रात घर में हड़कंप मचा था| आपा ने नूरा को पकड़ लिया और मेंहदी लगाई| फातिमा खाला चिल्ला रही थीं-आरी लड़कियों पहले मेंहदी की रस्म हो लेने दो फिर नाचना| लेकिन कोई मान ही नहीं रहा था| सज्जो दूल्हे की पोशाक में सजकर खड़ी थी और ताहिरा दुल्हन बनी थी| ढोलक की थाप पर, फिल्मी तर्ज़ का नाच शुरू हुआ| सज्जो और ताहिरा को देखकर सब ठठा कर हँस पड़े| दूसरी औरतें भी नाचने लगीं| किसी ने रन्नी का हाथ पकड़कर नाचने को उठाया तो रन्नी अपना वैधव्य भूलकर ऐसी नाची कि सभी हैरान|

जमीला को लेकर बारात लौटी| नेग-दस्तूर करते काफी रात हो आई| अब रन्नी को याद आया कि जमीला को तो ढंग से देखा तक नहीं, वे जाकर उसकी मुट्ठी में कुछ रुपये दबाती बोलीं-‘अरे! ज़रा-सी मेरी बिटिया इत्ती बड़ी हो गई, लेकिन आँखें वही बचपन वाली|.....’ रन्नी ने ममत्व से भरकर जमीला को खींचकर लिपटा लिया| जमीला को मानो अम्मी मिल गईं|.....वह भी अपनी प्यारी फूफी से लिपट गई|

धीमे-धीमे रिश्तेदार लौटने लगे| नूरा खुश था और काम में कुछ अधिक ही ध्यान दे रहा था|

एक दिन भाईजान बहुत बड़ा टोकरा साईकिल में लटकाये हुए आए ‘मुर्गियों के चूज़े हैं| अब शकूरा मुर्गियाँ पालेगा, मैंने अहमद भाई से पूछ लिया है हम यहाँ कच्चा दड़बा बना सकते हैं|’

शकूरा खूब खुश हो गया| चलो, खिलौनों की झंझट से मुक्ति मिली| उसका कभी मन ही नहीं लगा था खिलौने के धंधे में| कई बार वह अब्बू के साथ प्रोग्राम बना चुका था कि ढेरों मुर्गियाँ पालेगा और अंडों का धंधा खड़ा करेगा| गेस्ट हाउस और होटलों में अंडे पहुँचायेगा|

दूसरे दिन से ही नूरा, शकूरा और भाईजान ने दड़बा बनाने का कार्य शुरू कर दिया| तीसरे रोज़ ऐसा दड़बा बनकर तैयार हो गया कि सभी देखकर हैरान रह गए| ज़ाकिर भाई और आपा ने तो खूब तारीफ की| ज़ाकिर भाई बोले-‘भाईजान! मैं हैरान हूँ| ऐसा लगता है, आपने कहीं से ट्रेनिंग ली है और फिर यह दड़बा बनाया है|’ दड़बे की दीवाल पर लोहे की जाली लगाई गई| मुर्गियों के बैठने की जगह, दड़बा धोने के लिए नाली| करीब पाँच सौ मुर्गियाँ तो रह सकती हैं इस दड़बे में, भाईजान ने ज़ाकिर भाई को बताया| दड़बा सूखने में दो-तीन दिन लगे उसके बाद उसमें मुर्गियों के चूज़े डाले गए| शकूरा बड़ी शिद्दत से मुर्गियों के धंधे में रम गया|

जमीला पेट से है और शकूरा के ब्याह की बातें घर में चलने लगी|

जिस गाँव की मड़ई में पिछली बार भाईजान और नूरा खिलौने बेचने गए थे, उसी गाँव की लड़की है सादिया, ‘देखने में ठीक ठाक है|’ भाईजान बताते हैं शकूरा ने लड़की को कई बार देखा भी है| एक दिन, सादिया के वालिद और बड़े भाई आकर बात पक्की कर गए| नूरा के निकाह में चंद बर्तन और नूरा के लिए नई साईकिल मिली, लेकिन सादिया के वालिद कुछ लम्बी लिस्ट थमा गए| साईकिल, रेडियो, बर्तन, कपड़ों के थान, कुर्सियाँ और भी छोटी-मोटी चीजें| भाईजान चिन्ता करने लगे कि नूरा को तो छोटा कमरा दे दिया है.....अब शकूरा को कौन-सा देंगे| बाहर के बरामदे में एक ओर लकड़ी से ठोक-पीटकर शकूरा के लिए कमरा तैयार करवाया भाईजान ने| नये पर्दे रन्नी ने सी दिए| इस बीच, पैसे जोड़कर रन्नी ने चाँदी का सेट दुल्हन के लिए खरीद लिया था| इस बार मेले में और गाँव की मड़ई में खिलौनों की अच्छी बिक्री हुई थी| मुर्गियों के अंडे भी अच्छे-खासे हो रहे थे| घर में फिर ब्याह की तैयारियाँ होने लगीं|

भाभी कहने लगीं-‘शायद छोटी दुल्हन के मुबारक कदम हैं, जो पहले से ही सब अच्छा हो रहा है|’ सारी ज़िन्दगी दूसरों के ब्याह के जोड़ों में सलमा-सितारे टाँकती रही है रन्नी| अब फिर रन्नी ने छोटी दुल्हन के चार सूट तैयार किये| ताहिरा उन्हीं के पास बैठी चुनरियों में गोटा टाँक रही थी| ब्याह से तीन दिन पहले घर मेहमानों से भर गया| भाभीजान के भाई-भावज भी गाँव में आए थे| फ़ातिमा खाला अम्मी की जगह थीं| जमीला पूरे दिनों से थी और उसका चलना-फिरना मुश्किल हो रहा था| फिर भी चौके का भार वही सम्हाले थी|

सादिया को विदा कराके जब बारात वापिस आई तो सामने का बरामदा सामानों से भर गया| भाभी-जान खूब खुश थीं अपने कपड़े और शॉल देखकर| जमीला के घर से छोटी दुल्हन के लिए चाँदी का गहनों का सेट और शकूरा के लिए कपड़े आये थे| सभी खुश थे, क्योंकि एक तो किसी की कोई अपेक्षा नहीं थी और दूसरे सभी के लिए कुछ न कुछ तोहफे शकूरा के ससुराल से आये ही थे| आपा और जमीला ने मिलकर शकूरा का कमरा सजा दिया था| रिश्ते की बहनें, भाभियाँ हँसी-ठिठोली करते हुए सादिया को कमरे में छोड़ आई थीं|

सादिया को आए सातवाँ दिन था जब जमीला ने बेटे को जन्म दिया| घर आबाद हो रहा था| फ़ातिमा खाला, मुहल्ले भर की औरतों के साथ बैठकर ढोलक बजाकर, सोहर के गीत गाने लगी| रह-रहकर उनकी आँखें भर आती थीं-‘जब नूरा का जन्म हुआ था और जब शकूरा पैदा हुआ था रन्नी की अम्मी कितनी खुश थीं पोतों को देख-देखकर|’ रह-रहकर उनकी आँखें छलक जाती थीं| तब फ़ातिमा खाला इतनी बूढ़ी नहीं थीं.....तब भी उन्होंने ढोलक पर सोहर के गीत गाये थे| आज भी वे ढोलक बजा रही हैं| साँस फूलती है| वही गीत मोहल्ले की औरतें उठा लेती हैं|.....रन्नी की आँखों में अतीत झाँकता है| जब वह ब्याही गई थी, ससुराल में न गीत हुए थे न ही ढोलक बजी थी| ‘हुंह! दूसरी शादी में क्या हो-हल्ला’ सास चिढ़ती ही रहती थी| रन्नी की आँखों में फ़ातिमा खाला न जाने क्या पढ़ लेती हैं.....झुर्रीदार हाथ आगे बढ़ाती हैं, और रन्नी को पास खींचकर चिपटा लेती हैं.....दो बूँद आँसू दोनों की आँखों की कोरों में अटक जाते हैं|

जमीला फिर पेट से है, सादिया के भी पूरे दिन हैं| शकूरा अपने मुर्गी के दड़बे में मशगूल रहता है| नूरा, भाईजान, भाभी और रन्नी खिलौनों के रंग रोगन में लगे रहते| ईद नज़दीक आ रही थी| सभी के नये कपड़े बनने थे| जचकी का खर्च अलग.....रन्नी देर रात तक कपड़ों का काम करती रहती| घर की सिलाई अलग और मुकेश, गोटे-तिल्ले का काम अलग| रन्नी इतनी मेहनत कर रही है, देखकर भाईजान गदगद हो जाते हैं| वे सोचते कि बगैर रन्नी के क्या वे इस घर की गाड़ी खींच पाते? दिन भर सब जुटकर खिलौनों में रंग भरते| भाभीजान चिल्लाती रहतीं-‘रन्नीबी, तुम थोड़ा आराम कर लो वरना बीमार पड़ जाओगी|’ लेकिन रन्नी सुनती कहाँ थी| ताहिरा को रन्नी ने अपने जैसा ही मेहनती बनाया है| भारी से भारी काम करके भी उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती थी|

ज़ाकिर भाई, सज्जो का निकाह कराने पूरे परिवार सहित गाँव गये हैं| पीतल के पम्प वाले स्टोव्ह की छोटी-सी दुकान है लड़के की| दो कमरों का खुद का घर| आपा बहुत खुश थीं.....’दो वक्त की रोटी और सर छुपाने की छत, अल्लाह इतनी ही दे-दे तो ज़िन्दगी आराम से कट जाती है|’

इतने कामों के बीच भी रन्नी देख रही थी ताहिरा का बदला-बदला सा व्यवहार और चेहरे की ओजस्वी गुलाबी रंगत| एक साईकिल सामने से घंटी बजाती निकलती हैं और ताहिरा भागकर खिड़की पर आ जाती| काँप उठी रन्नी.....यूसुफ? यूसुफ की कार जब सामने आकर खड़ी होती थी तो ऐसे ही झाँकती थीं दो आँखें पर्दे के पीछे से.....|

ईद के दिन सुबह-सुबह फ़ातिमा खाला आ गईं| साथ में अपने पोते को भी लाई! ताहिरा अपनी सहेलियों से मिलने का बहाना करके फैयाज़ से मिलने चली गई| न जाने कैसे रन्नी को यह बात पता चल गई और वह चौकन्नी हो उठी| पता लगाना होगा यह फैयाज़ कौन है? कैसा है? और कहाँ रहता है? दिन भर उसका काम में मन नहीं लगा| समय की मार ने रन्नी को कठोर अवश्य बना दिया था, पर भीतर की संवेदना मरी नहीं थी| पहले पता लगायेगी, फिर ताहिरा से कुछ पूछेगी| लेकिन दिमाग आश्वस्त नहीं हो पा रहा था| कदम बहकते कितनी देर लगती है? क्या भाईजान को यही सब देखना बदा है?

ईद पर बहुत हंगामा रहा| ईद के हफ्ते भर बाद सादिया को बेटा हुआ| भाभीजान तो मानो पगला ही गई| खुशियों का पारावार नहीं था| अपनी अनुभवी आँखों से उन्होंने देखकर घोषणा कर दी थी कि जमीला को फिर बेटा होगा| अपने दोनों पोतों के नाम उन्होंने ज़ुबेर और कैसर रखे| नूरा के बेटे का ज़ुबेर और शकूरा के बेटे का कैसर| उन्हें फुरसत ही कहाँ थी कि वह अब कुछ देख पाती| कभी इस पोते को गोद में लिए घूम रही हैं कभी उस पोते की मालिश| इधर रन्नी लगातार ताहिरा को लेकर चिन्तित थी| भाभीजान को मालूम होगा, बस कोसना शुरू कर देगी| रन्नी अपनी फूल जैसी बच्ची का निर्णय स्वयं लेगी|

रन्नी पता लगाती है, फैयाज़ इंटर में पढ़ रहा है| हैदराबाद का रहने वाला है| वहीँ उसकी दो बहनें और अब्बू-अम्मी रहते हैं| बेहद गरीब घर है उसका| फैयाज़ इधर ही हाइवे पर अपने मामू और मामी के साथ रहता है| धीमे-धीमे और परतें खुलती हैं, तो उन्हें पता चलता है कि स्कूल से लौटते कभी-कभी फैयाज़ और ताहिरा साथ घर तक आते हैं|

जमीला ने दूसरे बेटे को जन्म दिया, भाभीजान अपने तीनों पोतों में व्यस्त हो गई| पोतों के जन्म से वे अपने खानदान में गर्विता हो गई थीं|

घर का खर्च लगातार बढ़ता ही जा रहा था| भाईजान लगातार शरीर से थकते ही जा रहे थे| एक दिन सुबह-सुबह, शकूरा जब अंडे इकट्ठे करने दड़बे में घुसा तो चीख उठा, आधे से ज़्यादा मुर्गियाँ मरी पड़ी थीं और बाकी मरणासन्न थीं| भाईजान, नूरा, सभी लोग दड़बे की ओर दौड़े| शकूरा तो रो ही पड़ा| एक अच्छा, जमा कारोबार धूल चाटता नज़र आ रहा था| मुर्गियों को बीमारी लग चुकी थी| दुपहर होते-होते सारे दड़बे में मौत का सन्नाटा पसरा पड़ा था|

रोज़ का खर्च जो अंडे की आय से होता था वह मुँह बाए खड़ा था| अब दूध, बच्चों के लिए फल, सब्ज़ी सब कहाँ से आयेगा? कुछ रूपया उधर लेकर, व घर की सारी जमा पूँजी निकालकर भाईजान एक बार फिर मुर्गियाँ लाए थे| लेकिन एक डेढ़ हफ्ते में वे मुर्गियाँ फिर बीमारी की शिकार हो गईं और अंतिम जमा पूँजी का यूँ बर्बाद होना शकूरा से देखा नहीं गया| उसने लाठी उठाकर दड़बा तोड़ डाला.....सादिया ने हाथ पकड़ा तो पहली बार उसने अपनी बीवी पर हाथ उठाया|

घर एक बार फिर टूटने की कगार पर खड़ा था| रात होते-होते शकूरा को तेज़ बुखार चढ़ गया| सारा घर काँप उठा.....यह कैसी नज़र लग गई शकूरा को| बदहवास से भाईजान सादिया के वालिद के पास भागे और कुछ रुपये माँग लाए| महीना भर लग गया शकूरा को अच्छा होने में| शकूरा धीरे-धीरे वापिस खिलौनों के व्यापार में आ गया| खिलौनों के धंधे में रोज़ के खर्च तो निकल नहीं सकते थे| मेलों इत्यादि पर खिलौनों की माँग उतनी नहीं रह गई थी| घर में ग्यारह लोगों का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था| भाभीजान की बड़बड़ाहट चालू रहती थी|

भाईजान तख़्त पर लेटकर एकटक छत निहारा करते, शरीर अशक्त हो रहा था, खपरों से छनकर आती धूप तखत पर सीधी पड़ती तो वे करवट ले लेते|.....फिर दूसरी करवट| घर तो निरन्तर टूटता ही रहा, वे कुछ न कर पाए| न एक रेशा सुख अपनी लाड़ली बहन को दिया न ही अपनी बीवी को|.....

पुरुष के आँसू बहते नहीं हैं, लेकिन आँखों का समुन्दर रन्नी देख लेती है|.....इकलौता भाई और उसके हिस्से में आई सिर्फ ज़लालत? किन अपराधों की सज़ा हमें मिल रही है? वह खुदा से पूछती |