Gajab ki ladki thi vo in Hindi Love Stories by Qais Jaunpuri books and stories PDF | ग़ज़ब की लड़की थी वो

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ग़ज़ब की लड़की थी वो

ग़ज़ब की लड़की थी वो

क़ैस जौनपुरी

आराधना नाम था उसका. ख़ूब गोरी, सुन्दर. बहुत चंचल थी वो. हमेशा हँसती रहती थी. हमेशा ख़ुश रहती थी. उसको पहले कभी उदास देखा ही नहीं था. कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि वो किसी से प्यार करती है. उसने मुझे उसके बारे में बताया और उससे मिलवाया भी. हम बस से पढ़ने जाते थे. एक दिन, जब हम बस में बैठे, तब उसने इशारे से मुझे बताया कि, “ये वही है.”

वो उसको इतना ज़्यादा दीवानों की तरह चाहती थी कि हर वक़्त उसकी ही बातें करती. अपने सीने पे ब्लेड से उसका नाम लिखती. हाथ में नाम लिखती. वो जैसे उसी में जीती थी. हर वक़्त उसकी बातें, एस. पी. ये, एस. पी. वो.

वो फ्रॉक पहनती थी. उसके काले घने बाल कमर से नीचे तक थे. बहुत ख़ूबसूरत दिखती थी वो. ख़ुश तो इतना रहती थी कि कोई दुखी आदमी भी उसके सामने आ जाए तो उसे देख के ख़ुश हो जाता था. चार भाई-बहनों में दूसरे नम्बर पे थी वो. सिद्दीक़पुर से हमारा स्कूल सात किलोमीटर दूर पड़ता था. बस से जौनपुर आती-जाती थी. और उसी बस में उसकी मुलाक़ात एस. पी. से हुई, और धीर-धीरे उन दोनों को एक-दूसरे से प्यार हो गया.

चौदह साल की थी वो. पढ़ने में उसका एकदम मन नहीं लगता था. उसको एस. पी. पसन्द था, बस. सातवीं में पढ़ती थी. तीन बार फ़ेल. दो बार पहले ही फ़ेल हो चुकी थी. तीसरी बार मेरे साथ थी. ऐसा भी नहीं था कि दोनों में शारीरिक प्यार था. दोनों कभी अकेले में नहीं मिले थे. आजकल के प्यार की तरह उसको ये भी नहीं था कि, “आज मुझे ‘किस्स’ मिला, या आज ये हुआ, या आज वो हुआ.” ये सब बातें भी दोनों के बीच में नहीं थीं.

जब किसी दिन उसकी तबियत ठीक नहीं रहती थी और वो स्कूल नहीं जाती थी, तब वो अपने गेट पे खड़ी होके मेरे आने का इन्तिज़ार करती थी. और मेरे आते ही मुझे पकड़कर पूछती, “एस. पी. आया था? क्या पहना था? कैसा लग रहा था? कुछ पूछ रहा था मेरे बारे में?”

एस. पी. को लेटर लिखती थी वो. लेटर लिखने के बाद नीचे ‘आई लव यू’ अपने ख़ून से ज़रूर लिखती थी. ग़ज़ब की लड़की थी वो. अपने सीने पे उसने सुई से खुरुच-खुरुच कर उसका नाम लिख रखा था, एस. पी. यादव. हाथ पे भी. फिर रंग हाथ में लेके रगड़ देती थी, तो बाकी रंग तो छूट जाता था मगर सुई के घाव में जो रंग घुस जाता था, वो नहीं निकलता था. इस तरह उसका नाम और साफ़ दिखाई देने लगता था. ख़ुश हो जाती थी वो ये सब देखके.

हम दोनों साथ बैठते थे, तो उसी की बात करती रहती थी, और ज़मीन पे पूरे वक़्त लिखती रहती थी, एस. पी., एस. पी., एस. पी. एकदम दिलो-दिमाग़ पे छाया हुआ था वो उसके. उसके दाँत छोटे-छोटे थे. आँखें भी छोटी-छोटी थीं उसकी. बहुत सुन्दर थी वो.

फिर एक दिन सबकुछ बदल गया. जब उसे पता चला कि जिसे वो इतना चाहती है, जिसे वो इतना पूजती है, वो तो किसी और का है. उसकी पहले से ही शादी हो चुकी थी. उसकी शादी तो बचपन में ही हो चुकी थी. उसने ये बात उससे पहले नहीं बताई थी. जब उसका गौना आने वाला था, दूसरी बिदाई, तब उसने उसको बताया कि, “मैं शादी-शुदा हूँ.”

आराधना को तो समझ में ही नहीं आया कि क्या कहे? क्या बोले? हर वक़्त हँसने और हर वक़्त ख़ुश रहने वाली लड़की, जिसको कोई डाँटे तब भी मैंने उदास नहीं देखा, उसकी हँसी तो जैसे ग़ाएब ही हो गई. अब वो हर वक़्त उदास रहती. बस मुझसे यही बोलती रहती, “एस. पी. यही बात मुझे पहले बता देता तो क्या हो जाता? डेढ़ साल तक हम लोग एक साथ रहे. आख़िर उसने मुझे क्यूँ नहीं बताया? आख़िर वो क्या चाहता था?”

वो मुझसे कहती कि, “एस. पी. ने ऐसा क्यूँ किया?” लेकिन जब भी एस. पी. से मिलती तो कोई शिकायत नहीं करती. बस उसको देखती थी और रोती थी.

मैं उसे बहुत समझाती, “कोई बात नहीं. अभी तो तुम्हारी पूरी उम्र पड़ी है.” लेकिन वो यही कहती, “अब जीने से क्या फ़ाएदा? जब एस. पी. ही नहीं, तो कुछ नहीं. मैं जीना ही नहीं चाहती.”

लाख कोशिश की मैंने उसे समझाने की, लेकिन वो नहीं मानी. बस, वो हर वक़्त रास्ते ढूँढ़ती कि, “ऐसा क्या करूँ कि मैं मर जाऊँ? ख़तम कर लूँ अपने आप को.”

वो ज़हर खाने से भी डरती थी कि, “मैं एकाएक मर गई, तो लोग मेरे घरवालों पे उँगली उठाएँगे. मेरे घर की बदनामी होगी.” वो ऐसा रास्ता ढूँढ़ती कि, “मैं मर भी जाऊँ और मेरे घरवालों पे कोई उँगली भी ना उठाए.”

एक दिन, उसको पता नहीं कहाँ से ये पता चल गया कि शीशा खा लेने से इन्सान तुरन्त नहीं मरता है, धीरे-धीरे मरता है. और कैसे मरता है, ये पता भी नहीं चलता है. फिर एक दिन उसने एक ख़तरनाक फ़ैसला कर लिया. उसने एक बल्ब को फोड़कर उसके शीशे को पीस लिया और काग़ज़ में लपेटकर पानी के साथ पी गई. और शीशा पीने के बाद वो इतनी ख़ुश थी कि जैसे उसकी कितनी बड़ी इच्छा पूरी हो गई हो. जो वो चाहती थी, वो कर लिया था उसने. और मेरे पास ख़ुशी-ख़ुशी आई और बताने लगी कि, “आज मैंने ऐसा कर लिया.”

मुझे तो यक़ीन ही नहीं हुआ. मैंने उससे कहा, “तुम झूठ बोल रही हो. ऐसा नहीं हो सकता.” फिर वो मुझे यक़ीन दिलाने के लिए, मेरा हाथ पकड़के अपने घर ले गई, और उसने वैसा ही दुबारा कर लिया. मैंने उसे रोकने की बहुत कोशिश की, लेकिन उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा, “एक बार खाऊँ या दस बार खाऊँ, होना तो वही है ना!”

फिर कुछ दिनों के बाद उसकी तबियत धीरे-धीरे ख़राब होने लगी. जब मैं उससे पूछती कि, “ऐसा तुमने क्यूँ किया?” तो वो कहती, “जब मैं उसके बिना ज़िन्दा ही नहीं रह सकती, तो जीने से फ़ाएदा?”

जब मैं उसको बिस्तर पे पड़ी देखती, उसकी ख़राब हालत को देखती, तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता. तब मैं उस लड़के को बहुत बुरा-भला कहती.

एक बार मैं उसके पास बैठी, उसकी बुरी हालत को देखते हुए, एस. पी. को बद्दुआ दे रही थी. तो उसने रोते हुए, मेरा हाथ पकड़ा, और बोली, “उसको कुछ मत कहो. उसको बद्दुआ मत दो. मैं नहीं चाहती कि मेरे जाने के बाद वो उदास रहे, परेशान रहे.”

मैं बहुत हैरान हुई, उसे ये सब कहते-सुनते देखकर.

और तो और, जिस दिन एस. पी. का गौना आया, उस दिन के बाद से, उसने एस. पी. का नाम लेना छोड़ दिया. बात भी नहीं करती थी उसके बारे में. ऐसा लगता था, जैसे एस. पी. कोई है ही नहीं. जैसे कभी कोई रिश्ता ही नहीं था एस. पी. से. अजीबो-ग़रीब लड़की थी वो. जिसके बारे में पहले इतनी बात करती थी, अब उसी के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलती थी.

एस. पी. का गौना आने से एक दिन पहले, उसने मेरे ही हाथों मैसेज भिजवाया था कि, “मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ.”

फिर शाम के सात बजे, एस. पी. उसके घर के पीछे, आम के पेड़ के पास आया. दोनों ने मुश्किल से पाँच मिनट बात की. और फिर एस. पी. चला गया. मालूम नहीं, उस दिन, उन दोनों में क्या बातें हुईं. मैं थोड़ी दूरी पे खड़ी थी. मैं रखवाली कर रही थी कि कहीं कोई, उन लोगों को, मिलते हुए न देख ले.

उसके बाद से ही आराधना ने एस. पी. का नाम नहीं लिया और एकदम ख़ामोश हो गई. इस दिन के बाद से मैंने आराधना को हँसते-बोलते, फिर कभी नहीं देखा.

और फिर उसने स्कूल जाना भी बन्द कर दिया. पढ़ाई भी छोड़ दी अपनी. दोनों के बीच जिस्मानी तअल्लुक़ तो नहीं थे. इतना मुझे पक्का पता है, क्यूँकि वो लोग कभी भी अकेले में नहीं मिले थे. उनकी मुलाक़ात सिर्फ़ बस में होती थी. एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराना, एक-दूसरे से थोड़ी-बहुत बात कर लेना. एक-दूसरे का हाल पूछ लेना, बस. ज़्यादातर उन दोनों की बातें लेटर से ही होती थीं.

वो नॉन-वेज नहीं खाती थी. उसका पूरा परिवार वेजीटेरियन था. जब उसको पता चला कि एस. पी. नॉन-वेज खाता है, तो उसने मुझसे कहा, “रूचि, तुम्हारे घर जिस दिन नॉन-वेज बने, मुझे भी खिलाना. मैंने उससे कहा, “तुम्हारे घरवाले जान जाएँगे तो मुझपर ग़ुस्सा करेंगे, और तुम्हें भी डाँट पड़ेगी. तो उसने कहा, “नहीं, उन्हें मालूम ही नहीं पड़ेगा. मैं टॉयलेट की खिड़की के पास खड़ी रहूँगी, तुम मुझे खिड़की से दे देना. मैं टॉयलेट में ही खा लूँगी और किसी को पता भी नहीं चलेगा. मेरा एस. पी. खाता है, तो मैं क्यूँ नहीं खाऊँ?”

मेरे ख़याल से, अकेले में, उन दोनों की पहली और आख़िरी मुलाक़ात, वहीँ आम के पेड़ के पास हुई थी. आराधना उसे एक आख़िरी बार फ़ेस-टू-फ़ेस देखना चाहती थी.

छः महीना, वो ज़िन्दगी और मौत से लड़ती रही. वो सोती तो उसका पूरा बिस्तर ख़ून से भीग जाता. लेकिन उन छः महीनों में, मैंने उसे कभी भी, एस. पी. को कुछ भी कहते-सुनते नहीं देखा.

उसकी जान फिर भी नहीं निकली. उसकी हालत ज़्यादा ख़राब देखकर, उसके घरवाले, उसे अपने गाँव, गोरखपुर लेकर चले गए.

वो बिस्तर पे पड़ी रहती थी. उसका शरीर कट-कट के ख़ून के साथ निकलता था. बाद में ऐसा सुनने में आया कि उसे ज़हर की सुई लगवा दी गई थी ताकि वो जल्दी से मर जाए.

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