Chandragupt - 34 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 34

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चंद्रगुप्त - चतुर्थ - अंक - 34

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(प्रकोष्ठ में चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः विजयों की सीमा है, परन्तु अभिलाषाओं की नहीं।मन ऊब-सा गया है। झंझटों से घड़ी भर अवकाश नहीं। गुरुदेव औरक्या चाहते हैं, समझ में नहीं आता। इतनी उदासी क्यों? मालविका!

मालविकाः (प्रवेश करके) सम्राट्‌ की जय हो!

चन्द्रगुप्तः मैं सब से विभिन्न, एक भय-प्रदर्शन-सा बन गया हूँ।कोई मेरा अन्तरंग नहीं, तुम भी मुझे सम्राट्‌ कहकर पुकारती हो!

मालविकाः देव, फिर मैं क्या कहूँ?

चन्द्रगुप्तः स्मरण आता है - मालव का उपवन और उसमेंअतिथि के रूप में मेरा रहना?

मालविकाः सम्राट्‌, अभी कितने ही भयानक संघर्ष सामने हैं!

चन्द्रगुप्तः संघर्ष! युद्ध देखना चाहो तो मेरा हृदय फाड़कर देखो।मालविका! आशा और निराशा का युद्ध, भावों और अभावों का द्वन्द्व! कोईकमी नहीं, फिर भी न जान कौन मेरी सम्पूर्ण सूची में रक्त-चिह्न लगादेता है। मालविका, तुम मेरी ताम्बूल-वाहिनी नहीं हो, मेरे विश्वास की,मित्रता की प्रतिकृति हो। देखो, मैं दरिद्र हूँ कि नहीं, तुमसे मेरा कोईरहस्य गोपनीय नहीं! मेरे हृदय में कुछ है कि नहीं, टटोलने से भी नहींजान पड़ता।

मालविकाः आप महापुरुष हैं, साधारणजन - दुर्लभ दुर्बलता नहोनी चाहिए आप में देव! बहुत दिनों पर मैंने एक माला बनायी है -

(माला पहनाती है।)

चन्द्रगुप्तः मालविका, इन फूलों का रस तो भौंरे ले चुके हैं!

मालविकाः निरीह कुसुमों पर दोषारोपण क्यों? उनका काम हैसौरभ विखेरना, यह उकना मुक्त दान है। उसे चाहे भ्रमर ले या पवन।

चन्द्रगुप्तः कुछ गाओ तो मन बहल जाय।

(मालविका गाती है।)

मधुप कब एक कली का है!

पाया जिसमें प्रेम रस, सौरभ और सुहाग,

बेसुध हो उस कली से, मिलता भर अनुराग,

विहारी कुञ्जगली का है!

कुसुम धूल से धूसरित, चलता है उस राह,

काँटों में उलझा, तदपि, रही लगन की चाह,

बावला रंगरली का है।

हो मल्लिका, सरोजिनी, या यूथी का पुञ्ज,

अलि को केवल चाहिए, सुखमय क्रीडा-कुञ्ज,

मधुप कब एक कली का है!

चन्द्रगुप्तः मालविका, मन मधुप से भी चंचल और पवन से भीप्रगतिशील है, वेगवान है।

मालविकाः उसका निग्रह करना ही महापुरुषों का स्वभाव है देव!

(प्रतिहारी का प्रवेश और संकेत - मालविका उससे बात करकेलौटती है।)

चन्द्रगुप्तः क्या है!

मालविकाः कुछ नहीं, कहती थीं कि यह प्राचीन राज-मन्दिरअभी परिष्कृत नहीं, इसलिए मैंने चन्द्रसौंध में आपके शयन का प्रबन्धकरने के लिए कह दिया है।

चन्द्रगुप्तः जैसी तुम्हारी इच्छा - (पान करता हुआ) कुछ औरगाओ मालविका! आज तुम्हारे स्वर में स्वर्गीय मधुरिमा है।

(मालविका गाती है।)

बज रही बंशी आठों याम की।

अब तक गूँज रही है बोली प्यारे मुख अभिराम की।

हुए चपल मृगनैन मोह-वश बजी विपंची काम की,

रूप-सुधा के दो दृग प्यालों ने ही मति बेकाम की!

बज रही बंशी-

(कुंचकी का प्रवेश)

कुंचकीः जय हो देव, शयन का समय हो गया।

(प्रतिहारी और कंचुकी के साथ चन्द्रगुप्त का प्रस्थान)

मालविकाः जाओ प्रियतम! सुखी जीवन बिताने के लिए और मैंरहती हूँ चिर-दुःखी जीवन का अन्त करने के लिए। जीवन एक प्रश्नहै, और मरण है उसका अटल उपर। आर्य चाणक्य की आज्ञा है -“आज घातक इस शयनगृह में आवेंगे, इसलिए चन्द्रगुप्त यहाँ न सोने पावें,और षड्‌यन्त्रकारी पकड़े जायँ।” (शय्या पर बैठकर) - यह चन्द्रगुप्त कीशय्या है। ओह, आज प्राणों में कितनी मादकता है! मैं... कहाँ हूँ? कहाँ?स्मृति, तू मेरी तरह सो जा! अनुराग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा!

(गाती है।)

ओ मेरी जीवन की स्मृति! ओ अन्तर के आतुर अनुराग!

बैठ गुलाबी विजन उषा में गाते कौन मनोहर राग?

चेतन सागर उर्मिल होता यह कैसी कम्पनमय तान,

यों अधीरता से न भीड़ लो अभी हुए हैं पुलकित प्रान।

कैसा है यह प्रेम तुम्हारा युगल मूर्ति की बलिहारी।

यह उन्मप विलास बता दो कुचलेगा किसकी क्यारी?

इस अनन्त निधि के हे नाविक, हे मेरे अनंग अनुराग!

पाल सुनहला बन, तनती है, स्मृति यों उस अतीत में जाग।

कहाँ ले चले कोलाहल से मुखरित तट को छोड़ सुदूर,

आह! तुम्हारे निर्दय डाँडों से होती हैं लहरें चूर।

देख नहीं सकते तुम दोनों चकित निराशा है भीमा,

बहको मत क्या न है बता दो क्षितिज तुम्हारी नव सीमा?

(शयन)