Chandragupt - 30 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 30

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चंद्रगुप्त - तृतिय - अंक - 30

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(नन्द की रंगशाला - सुवासिनी और राक्षस बन्दी-वेश मं)

नन्दः अमात्य राक्षस, यह कौन-सी मंत्रणा थी? यह पत्र तुम्हींनेलिखा है?

राक्षसः (पत्र लेकर पढ़ता हुआ) “सुवासिनी, उस कारागार सेशीघ्र निकल भागो, इस स्त्री के साथ मुझसे आकर मिलो। मैं उपरापथमें नवीन राज्य की स्थापना कर रहा हूँ। नन्द से फिर समझ लियाजायगा” इत्यादि। (नन्द की ओर देखकर) आश्चर्य, मैंने तो यह नहींलिखा! यह कैसा प्रपंच है, - और किसी का नहीं, उसी ब्राह्मण चाणक्यका महाराज, सतर्क रहिए, अपने अनुकूल परिजनों पर भी अविश्वास नकीजिए। कोई भयानक घटना होने वाली है, यह उसी का सूत्रपात है।

नन्दः इस तरह से मैं प्रतारित नहीं किया जा सकता, देखो यहतुम्हारी मुद्रा है। (मुद्रा देता है)

(राक्षस देखकर सिर नीचा कर लेता है।)

नन्दः कृतघ्न! बोल, उपर दे।

राक्षसः मैं कहूँ भी, तो आप मानने ही क्यों लगे!

नन्दः तो आज तुम लोगों को भी उसी अन्धकूप में जाना होगा,प्रतिहार!

(राक्षस बन्दी किया जाता है। नागरिकों का प्रवेश।)

(राक्षस को श्रृंखला में जकड़ा हुआ देखकर उन सबों में उपेजना)

नागरिकः सम्राट्‌! आपसे मगध की प्रजा प्रार्थना करती है किराक्षस और अन्य लोगों पर भी राजदण्ड द्वारा किये गये जो अत्याचारहै, उनका फिर से निराकरण होना चाहिए।

नन्दः क्या! तुम लोगों को मेरे न्याय में अविश्वास है?

नागरिकः इसके प्रमाण हैं - शकटार, वररुचि और मौर्य!

नन्दः (उन लोगों को देखकर) शकटार! तू अभी जीवित है?

शकटारः जीवित हूँ नन्द। नियति सम्राटों से भी प्रबल है।

नन्दः यह मैं क्या देखता हूँ! प्रतिहार! पहले इन विद्रोहियों कोबन्दी करो। क्या तुम लोगों ने इन्हें छुड़ाया है?

नागरिकः उनका न्याय हम लोगों के सामने किया जाय, जिससेहम लोगों को राज-नियमों में विश्वास हो सम्राट्‌! न्याय को गौरव देनेके लिए इनके अपराध सुनने की इच्छा आपकी प्रजा रखती है।

नन्दः प्रजा की इच्छा से राजा को चलना होगा?

नागरिकः हाँ, महाराज।

नन्दः क्या तुम सब-के-सब विद्रोही हो?

नागरिकः यह सम्राट्‌ अपने हृदय से पूछ देखें?

शकटारः मेरे सात निरपराध पुत्रों का रक्त!

नागरिकः न्यायाधिकरण की आड़ में इतनी बड़ी नृशंसता!

नन्दः प्रतिहार! इन सबको बन्दी बनाओ!

(राज-प्रहरियों का सबको बाँधने का उद्योग, दूसरी ओर सेसैनिकों के साथ चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चन्द्रगुप्तः ठहरो! (सब स्तब्ध रह जाते हैं) महाराज नन्द! हमब आपकी प्रजा हैं, मनुष्य हैं, हमें पशु बनने का अवसर न दीजिए।

वररुचिः विचार की तो बात है, यदी सुव्यवस्था से काम चलजाय, तो उपद्रव क्यों हो?

नन्दः (स्वगत) विभीषिका! विपपि! सब अपराधी और विद्रोहीएकत्र हुए हैं (कुछ सोचकर) अच्छा मौर्य! तुम हमारे सेनापति हो औरतुम वररुचि! हमने तुम लोगों को क्षणा कर दिया!

शकटारः और हम लोगों से पूछो! पूछो नन्द। अपनी नृशंसताओंसे पूछो। क्षमा? कौन करेगा। तुम? कदापि नहीं। तुम्हारे घृणित अपराधोंका न्याय होगा।

नन्दः (तनकर) तब रे मूर्खों! नन्द की निष्ठुरता! प्रतिहार!राजसिंहासन संकट में है! आओ, आज हमें प्रजा से लड़ना है!

(प्रतिहार प्रहरियों के साथ आगे बढ़ता है - कुछ युद्ध होने केसाथ ही राजपक्ष के कुछ लोग मारे जाते हैं, और एक सैनिक आकरनगर के ऊपर आक्रमण होने की सूचना देता है। युद्ध करते-करते चन्द्रगुप्तनन्द को बन्दी बनाता है।)

(चाणक्य का प्रवेश)

चाणक्यः नन्द! शिखा खुली है। फिर खिंचवाने की इच्छा हुईहै, इसीलिए आया हूँ। राजपद के अपवाद नन्द! आज तुम्हारा विचारहोगा!

नन्दः तुम ब्राह्मण। मेरे टुकड़ों से पले हुए। दरिद्र! तुम मगधके सम्राट्‌ का विचार करोगे! तुम सब लुटेरे हो, डाकू हो! विप्लवी हो- आर्य हो।

चाणक्यः (राजसिंहासन के पास जाकर) नन्द! तुम्हारे ऊपर इतनेअभियोग है - महापद्म की हत्या, शकटार को बन्दी करना, उसके सातपुत्रों को भूख से तड़पा कर मारना! सेनापति मौर्य की हत्या का उद्योग,उसकी स्त्री को और वररुचि को बन्दी बनाना, कितनी ही कुलीन कुमारियोंका सतीत्व नाश, नगरभर में व्यभिचार का स्रोत बहाना, ब्राह्मस्व औरअनाथों की वृपियों का अपहरण! अन्त में सुवासिनी पर अत्याचार,शकटार की एकमात्र बची हुई सन्तान, सुवासिनी, जिसे तुम अपनी घृणितपाशव-वृपि का...!

नागरिकः (बीच में रोक कर हल्ला मचाते हुए) पर्याप्त है। यहपिशाचलीला और सुनने की आवश्यकता नहीं, सब प्रमाण वहीं उपस्थित हैं।

चन्द्रगुप्तः ठहरिए! (नन्द से) कुछ उपर देना चाहते हैं?

नन्दः कुछ नहीं।

(‘वध करो!’ ‘हत्या करो!’ का आतंक फैलता है।)

चाणक्यः तब बी कुछ समझ लेना चाहिए नन्द! हम ब्राह्मण हैं,तुम्हारे लिए, भिक्षा माँग कर तुम्हें जीवन-दान दे सकते हैं। लोगे!

(‘नहीं मिलेगी, नहीं मिलेगी’ की उपेजना)

(कल्याणी को बन्दिनी बनाये पर्वतेश्वर का प्रवेश)

नन्दः आ बेटी, असह्य! मुझे क्षमा करो! चाणक्य, मैं कल्याणीके संग जंगल में जाकर तपस्या करना चाहता हूँ।

चाणक्यः नागरिक वृन्द! आप लोग आज्ञा दें - नन्द को जानेकी आज्ञा!

शकटारः (छुरा निकलकर नन्द की छाती में घुसेड़ देता है) सातहत्याएँ हैं! यदि नन्द सात जन्मों में मेरे ही द्वारा मारा जय तो मैं उसेक्षमा कर सकता हूँ। मगध नन्द के बिन भी जी सकता है।

वररुचिः अनर्थ!

(सब स्तब्ध रह जाते हैं।)

राक्षसः चाणक्य, मुजे भी कुछ बोलने का अधिकार है?

चाणक्यः अमात्य राक्षस का बंधन खोल दो! आज मगध के सबनागरिक स्वतंत्र हैं।

(राक्षस, सुवासिनी, कल्याणी का बंधन खुलता है।)

राक्षसः राष्ट्र इस तरह नहीं चल सकता।

चाणक्यः तब?

राक्षसः परिषद्‌ की आयोजना होनी चाहिए।

नागरिक वृन्दः राक्षस, वररुचि, शकटार, चन्द्रगुप्त और चाणक्यकी सम्मिलित परिषद्‌ की हम घोषणा करते हैं।

चाणक्यः परन्तु उपरापथ के समान गणतंत्र की योग्यता मगध मेंनहीं, और मगध पर विपपि की भी संभावना है। प्राचीनकाल से मगधसाम्राज्य रहा है, इसीलिए यहाँ एक सबल और सुनियंत्रित शासक कीआवश्यकता है। आप लोगों को यह जान लेना चाहिए कि यवन अभीहमारी छाती पर हैं।

नागरिकः तो कौन उसके उपयुक्त है?

चाणक्यः आप ही लोग इसे विचारिए।

शकटारः हम लोगों का उद्धारकर्ता। उपरापथ के अनेक समरों काविजेता - वीर चन्द्रगुप्त!

नागरिकः चन्द्रगुप्त की जय!

चाणक्यः अस्तु, बढ़ो चन्द्रगुप्त! सिंहासन शून्य नहीं रह सकता।अमात्य राक्षस! सम्राट का अभिषेक कीजिए।

(मृतक हटाते जाते हैं, कल्याणी दूसरी ओर जाती है, राक्षसचन्द्रगुप्त का हाथ पकड़कर सिंहासन पर बैठाता है।)

सब नागरिकः सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय! मगध की जय!

चाणक्यः मगध के स्वतंत्र नागरिकों को बधाई है! आज आपलोगों के राष्ट्र का जन्म-दिवस है। स्मरण रखना होगा कि ईश्वर ने सबमनुष्यों को स्वतंत्र उत्पन्न किया है, परन्तु व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहीं तक दीजा सकती है, जहाँ दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा न पड़े। यही राष्ट्रीयनियमों का मूल है। वत्स चन्द्रगुप्त! स्वेच्छाचारी शासन का परिणाम तुमनेस्वयं देख लिया है, अब मंत्रि-परिषद्‌ की सम्मति से मगध और आर्यावर्तके कल्याण में लगो।

(‘सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त की जय’ का घोष)

(पटाक्षेप)