मन के मोती 11
{लघु कथा संग्रह}
आशीष कुमार त्रिवेदी
{1}
पार्क की बेंच
मिस्टर बंसल बेचैनी से उनकी राह देख रहे थे। दो दिन हो गए वो पार्क नहीं आईं। हर बीतते क्षण के साथ उनके आने की उम्मीद घटती जा रही थी।
तकरीबन एक वर्ष पूर्व उनसे इसी पार्क में मुलाक़ात हुई थी। उम्र के इस पड़ाव में जब साथी की सबसे अधिक ज़रूरत होती है मिस्टर बंसल की तरह वह भी अकेली थीं। कुछ औपचारिक मुलाकातें हमदर्दी के रिश्ते में बदल गईं। रोज़ सुबह पार्क की बेंच पर बैठ कर एक दूसरे का सुख दुःख बांटना उनकी दिनचर्या का अहम् हिस्सा बन गया था जो उन्हें पूरे दिन तरोताज़ा रखती थी।
मिस्टर बंसल के मन में कई बार इस रिश्ते को कोई नाम देने की बात आयी। किन्तु कभी भी "मिसेज गुप्ता" का संबोधन "सुजाता" में नहीं बदल सका।
अक्सर मिसेज गुप्ता उनके लिए कुछ न कुछ बना कर लाती थीं। हर बार मिस्टर बंसल कहते " आप इतनी तकलीफ क्यों करती हैं।" हर बार मिसेज गुप्ता वही वही पुराना जवाब देतीं " क्या मैं इतना भी नहीं कर सकती हूँ।"
पिछले कुछ दिनों से मिसेज गुप्ता कुछ परेशान लग रही थीं। मिस्टर बंसल के पूछने पर " कुछ ख़ास नहीं " कह कर टाल दिया।
गए दो रोज़ से तो वह आयीं भी नहीं। जाने क्या बात है सोंच कर मिस्टर बंसल परेशान थे। उन्होंने घड़ी देखी. अब तो आने की कोई उम्मीद नहीं। निराश होकर मिस्टर बंसल जाने को खड़े हुए ही थे की मिसेज गुप्ता आती हुई दिखाई पड़ीं।
दोनों पार्क की बेंच पर बैठ गए। कुछ देर दोनों के बीच ख़ामोशी छायी रही। ख़ामोशी को तोड़ने की पहल मिसेज गुप्ता ने की " मेरे बेटे बहु कई दिनों से विदेश में बसने की फिराक में थे। उन्हें अमेरिका की किसी कंपनी में जॉब मिल गयी है। अब मैं अपने छोटे बेटे के साथ बेंगलौर में रहूंगी। कल ही मुझे जाना है।"
एक बार फिर मौन छा गया। इस बार मिस्टर बंसल ने मौन को तोड़ा "सुजाता क्या हम एक साथ ......." मिसेज गुप्ता कुछ देर कुछ सोंचती रहीं। फिर बिना कोई जवाब दिए एक स्टील का डब्बा उन्हें थमा कर चली गयीं। उस डब्बे के साथ मिस्टर बंसल को पार्क की बेंच पर अकेला छोड़ कर।
{2}
सामने वाली बालकनी
मैं अपनी व्हीलचेयर को खिड़की के पास ले गया। खिड़की खोलकर सामने वाली बालकनी की तरफ देखने लगा। किसी भी समय वो दोनों आकर बालकनी में बैठेंगे। पहले पति आयेगा और उस के पीछे चाय की ट्रे लिए पत्नी आयेगी। दोनों चाय की चुस्कियां लेते हुए एक दूसरे से बातें करेंगे। कभी हसेंगे तो कभी ख़ामोशी से एक दूसरे के साथ का आनंद लेंगे। सुबह शाम दोनों वक़्त का यही सिलसिला है।
दोनों की उम्र 65 से 70 के बीच होगी। मेरी नौकरानी ने बताया था की दंपति निसंतान हैं। उनका एक भतीजा कुछ वर्षों तक इनके घर पर रह कर पढ़ा था वही कभी कभी मिलने आ जाता है। इस उम्र में पति पत्नी ही एक दूसरे के सुख दुःख के साथी हैं।
दो वर्ष पूर्व एक सड़क दुर्घटना में मैंने अपनी पत्नी को खो दिया। रीढ़ की हड्डी में लगी चोट ने मुझे इस व्हीलचेयर पर बिठा दिया। अकेलेपन की पीड़ा को मैंने बहुत शिद्दत से महसूस किया है। किसी के संग अपने मन की बात कह सकने की आकुलता को मैं समझता हूँ। यही कारण है की उन्हें एक दूसरे के साथ बात करते देख मन को सुकून मिलता है।
कभी कभी मन में एक अपराधबोध भी होता है की मैं उनके इन अन्तरंग पलों को दूर से बैठ कर देखता हूँ। किन्तु मेरे सूने जीवन में यह कुछ पल ही ख़ुशी लाते हैं।
किन्तु आज माहौल कुछ बदला बदला लग रहा है। उनके घर के सामने कुछ लोग ख़ामोशी से खड़े हैं। एक लाश गाड़ी भी घर के पास खड़ी है। मैं क़यास लगा ही रहा था की मेरी नौकरानी कमरे की सफाई करने आ गई। मैंने इस विषय में उस से पुछा तो उसने बताया "वो सामने वाली माताजी को कल रात अचानक छाती में दर्द उठा डाक्टर के पास ले जाने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया।" यह कह कर वह कमरे की सफाई करने लगी।
मैंने खिड़की बंद कर दी। पति का चेहरा मेरी आँखों के सामने घूम गया। उसके दिल का दर्द मेरी आँखों से बहने लगा।
{3}
नया आसमान
उसकी गोद में किताब यूँ है खुली पड़ी थी। प्याले में पड़ी पड़ी चाय भी ठंडी हो गई थी। किंतु ऊषा अपने विचारों में खोई हुई थी। एक कश्मकश उसके दिल में चल रही थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि हाँ करे या ना।
वैसे कोई बड़ी बात नहीं थी। उसके सहकर्मी अनुज ने उसके सामने डिनर पर चलने का प्रस्ताव रखा था। यह पहली बार था जब उसे अपने बारे में कोई फैसला करना था। अब तक तो उसका जीवन दूसरों के बारे में सोचने में ही गुज़र गया। पिता के ना रहने पर परिवार क़ा बोझ उसके कन्धों पर आ गया। जब तक ज़िम्मेदारियाँ पूरी हुईं उम्र का एक हिस्सा गुजर चुका था। उसके पास उसकी सुध लेने वाला कोई नहीं था।
वह एकदम अकेली थी। उसने अपने इर्द गिर्द एक मज़बूत दीवार सी खड़ी कर ली थी। कोई भी उस दीवार के पार झांक नहीं सकता था। उसने अपनी सारी भावनाओं को कुचल कर स्वयं को रुटीन में बंधी ज़िन्दगी के सुपुर्द कर दिया था।
इस साल के एकेडेमिक सेसन की शुरुआत में अनुज ने स्कूल ज्वाइन किया। उसके आने से स्टाफ़रूम के माहौल में एक ताज़गी सी आ गई। उसका व्यक्तित्व बहुत आकर्षक था। सभी से खुल कर मिलना, हंस कर बात करना, सबके सुख दुःख में शामिल होना ये सारी बातें सबका मन मोह लेती थीं। उसने लाख कोशिश की किंतु ख़ुद को उस आकर्षण से बचा नहीं पाई।
उसके इर्द गिर्द खींची गई दीवार में दरारें पड़ने लगी थीं और उनके बीच से अनुज भीतर झांकने लगा। जिस जीवन को उसने बंजर ज़मीन का टुकड़ा बना लिया था उसमें अनुज ने आशा और सम्भावनाओं के फूल खिला दिए थेेेे। धीरे धीरे वह बदलने लगी थी। अब चलते फिरते ख़ुद को आईने में निहार लेती थी। कस कर बाँधी जाने वाली चोटी अब खुल चुकी थी।
अचानक ही उस दिन अनुज ने उसके सामने डिनर का प्रस्ताव रख दिया। वह ऐसी परिस्तिथी के लिए तैयार नहीं थी। उसे असमंजस में पड़ा देख कर अनुज ने उसे आश्वासन दिया " कोई बात नहीं आपके पास संडे दोपहर तक क़ा समय है। इत्मिनान से सोंच कर फोन कर दीजियेगा। "
आज सुबह से ही वह परेशान थी कि क्या करे। किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था। उसने खुली हुई किताब को बंद कर दिया। उठ कर कमरे की खिड़कियां खोल दीं। बाहर बालकनी में आकर खड़ी हो गई। बहुत सुहानी शाम थी। उसने एक नए निश्चय के साथ सूरज के लाल गोले को देखा फिर अपने फोन पर नंबर डॉयल करने लगी।
{4}
चुभन
" मॉम मैं जा रहा हूँ। बाय। " दरवाजा खुला और वो बाहर चला गया। उसका बैकपैक और लाल जैकेट दिखाई दिया।
शैला की आँख खुल गई। वह उठ कर बैठ गई। सुबह के छह बजे थे। अखिल सोये हुए थे। कल रात भी देर से आये। काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। वह पूरे एहतियात के साथ उठी ताकी अखिल की नींद न टूट जाए।
तैयार होकर वह हाथ में चाय का प्याला पकड़े बालकनी में आ गयी। यूनिफार्म पहने स्कूल जाते बच्चों को देखने लगी। पीछे से आकर अखिल ने धीरे से उसका कंधा पकड़ा। दोनों ने एक दूसरे को देखा और आँखों ही आँखों में दिल का दर्द समझ लिया।
" उठ गए आप, कल भी बहुत देर हो गयी "
" हाँ आजकल काम बहुत बढ़ गया है। आज भी मुझे जल्दी निकलना है। एक मीटिंग है। "
" ठीक है आप तैयार हों मैं नाश्ता बनाती हूँ। " कहकर शैला रसोई में चली गयी।
अखिल के जाने के बाद शैला ने अपना पर्स उठाया, एक बार खुद को आईने में देखा और बाहर निकल गई।
ट्राफिक बहुत ज़यादा था। सिग्नल पर जाम लगा था। आटो बहुत धीरे धीरे बढ़ रहा था। शैला यादों के गलियारे में भटकने लगी।
" मॉम मुझे दोस्तों के साथ मैच खेलने जाना है।"
" नहीं आज तुम्हारी अमेरिका वाली बुआ लंच पर आ रही हैं। तुम नहीं होगे तो पापा गुस्सा होंगे।"
" मॉम मैं वादा करता हूँ जल्दी लौट आऊँगा। प्लीज जाने दो।"
शैला बहुत व्यस्त थी। एक लम्बे अर्से के बाद उसकी ननद भारत आई थी। अपने व्यस्त कार्यक्रम से वक़्त निकाल कर वह लंच पर उनके घर आ रही थी। वह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती थी। वह जानती थी कि जब तक वह इज़ाज़त नहीं देगी तब तक वह पीछे पड़ा रहेगा। अतः उसे मानना ही पड़ा।
" ठीक है पर देर मत करना" शैला ने काम करते हुए जवाब दिया।
" मॉम मैं जा रहा हूँ। बाय" शैला ने किचन के दरवाज़े से झाँका। उसे केवल लाल जैकेट दिखाई दिया। वह बाहर जा चुका था।
उसके बाद कभी उसने अपने बेटे को जीवित नहीं देखा। आज भी उसके दिल में इस बात की चुभन है कि वह जाते समय उसका मुख भी न देख सकी।
ऑटो एक भवन के सामने आकर रुक गया। पैसे चुका कर वह तेज़ कदमों से भीतर चली गई। भीतर एक बड़े से कमरे में छोटे छोटे बच्चे बैठे थे। उसे देखते ही एक स्वर में बोल पड़े " गुडमार्निंग मैम"
इन गरीब और अनाथ बच्चों के साथ कुछ समय व्यतीत कर वह अपना दुःख भूल जाती है।
{5}
दर्द का रिश्ता
शहर में सन्नाटा पसरा है। ऐसा लगता है की पिछले दिनों हुए मानवता के नंगे नाच को देखकर वक़्त भी थम कर रह गया है। यूं तो शहर शांत है किन्तु राख के ढेर में अभी भी चिंगारियां दबी हैं। ज़रा सा कुरेदने पर धधक उठेंगी। लोगों में तनाव है। दोनों पक्षों की ओर से आरोप प्रत्यारोप जारी हैं।
मेरी ड्यूटी शहर के अस्पताल के शवगृह में लगी है। अपने परिजनों के शव तलाश करने वालों का ताँता लगा है। मेरे सामने दो महिलाएं बैठी हैं। एक कुछ स्थूल शरीर की मुस्लिम महिला है जो अपने दुपट्टे से अपने आंसू पोंछ रही है। दूसरी सफ़ेद साड़ी में एक हिन्दू महिला है जो आंसुओं से अपना आंचल भिगो रही है। दोनों ही फसाद में मारे गए अपने पुत्रों का शव लेने आई हैं।
औरों की तरह मेरे मन में भी दूसरे पक्ष के प्रति क्रोध है। मैंने एक हिकारत भरी दृष्टि उस मुस्लिम महिला पर डाली और फिर सहानुभूति से हिन्दू स्त्री को देखने लगा।
उन दोनों महिलाओं की दृष्टि एक दूसरे पर पड़ी। कुछ देर तक एक दूसरे को देखती रहीं। जैसे आँखों ही आँखों में एक दूसरे से कुछ कह रही हों। फिर मुस्लिम महिला अपनी जगह से उठी। हिन्दू स्त्री भी कुछ कदम आगे आई। कुछ देर यूँ ही खड़ी रहीं। मैं साँस रोके देख रहा था। कुछ देर यूँ ही खड़ी रहने के बाद मुस्लिम महिला ने उस हिन्दू स्त्री को गले लगा लिया। दोनों एक दुसरे से लिपट कर सुबकने लगीं।
मेरे भीतर कहीं कुछ दरक गया। बहार लोग दो धड़ों में बटे एक दूसरे का खून बहा रहे हैं। यहाँ ये दो स्त्रियाँ मजहब की दीवार गिराकर एक दूसरे का दुःख बाँट रही हैं। क्योंकि वे मुसलमान या हिन्दू नहीं सिर्फ "माँ "हैं।
{6}
पहचान
रजत ने घड़ी की तरफ देखा। अभी पूरा एक घंटा बाकी था।वह फिर इधर उधर टहलने लगा। अब बच्चों में वह आकर्षण नहीं था।फिर भी वह उनका ध्यान खीचने का प्रयास कर रहा था। पर बच्चे अब उतने उत्साहित नहीं थे। उनका ध्यान खाने पीने एवं अन्य गतिविधियों में था।
रजत इस काम से बहुत खुश नहीं था। परन्तु उसके पास अन्य कोई चारा भी नहीं था। उसे और कोई काम मिल नहीं रहा था। वैसे काम कुछ खास नहीं था। बस चहरे पर लाल पीला रंग लगाकर और जोकर का कास्टुयूम पहन कर बच्चों का मनोरंजन करना था।
रजत ने अर्थशास्त्र में एम . ऐ . किया था। किन्तु बिना किसी प्रोफेशनल डिग्री के उसे कोई ढंग का काम नहीं मिल रहा था। वह एम . बी . ऐ . करना चाहता था। किन्तु पिता की बीमारी में उनके सारे जीवन की जमा पूंजी ख़त्म हो गयी। उसका सपना सपना ही रह गया। घर की माली हालत ठीक न होने के कारण उसे काम की तलाश में निकलना पड़ा। कई जगह भटकने के बाद भी उसे कोई ढंग का काम नहीं मिला। उन्हीं दिनों उसके एक दोस्त ने यह काम सुझाया " एक काम है करोगे। रोज़ सिर्फ कुछ ही घंटों का काम और पैसे भी अच्छे मिलेंगे।" " कोई गैरकानूनी काम तो नहीं।" रजत ने आशंका जताई। उसके दोस्त ने दिलासा देते हुए कहा " नहीं कोई ऐसा वैसा काम नहीं है। आज कल बड़े लोगों की पार्टियों में चलन है बच्चों को खुश करने के लिए जोकर बुलाते हैं। तुम्हे जोकर बनकर उन्हें बहलाना होगा। मैं एक आदमी को जनता हूँ जो पार्टियों में जोकर सप्प्लाई करता है। कहो तो बात करूं।" रजत को पहले तो झिझक महसूस हुई पर और कोई रास्ता न देखकर उसने हाँ कर दी।
वैसे इतने कम समय में उसे इतने पैसे किसी भी काम में नहीं मिलते किन्तु फिर भी उसे दूसरों के बीच स्वयं को तमाशा बनाना अच्छा नहीं लगता था। रंग बिरंगे मेक -अप के पीछे उसकी सख्शियत दब कर रह जाती थी। सबके लिए वह महज एक मनोरंजन की वस्तु था। उसके साथ इस काम में लगे बहुत से लोगों को तो अपना नाम लिखना भी नहीं आता था। सभी उसे भी उन्हीं जैसा समझते थे। यह बात उसे कष्ट देती थी। वह जल्द से जल्द इस काम को छोड़ना चाहता था किन्तु उसे कोई दूसरा काम मिल नहीं रहा था।
पार्टी ख़त्म हो गयी और उसकी ड्यूटी भी। उसने अपना चेहरा धोया।लाल पीले रंगों की परत पानी में बह गयी। आईने में उसका चेहरा दिखाई पड़ रहा था। उसने जोकर का कास्टुयूम उतरा और अपने कपडे पहने। अब वह मनोरंजन की वस्तु नहीं था। वह रजत था एक ऐसा नौजवान जिसे एक ऐसी नौकरी की तलाश थी जहाँ उसे मेक - अप के पीछे अपनी पहचान को न छिपाना पड़े।
{7}
संघर्ष
वो सारे चहरे उसके नज़दीक आ रहे थे। धीरे धीरे आवाजें भी साफ़ सुनाई देने लगी थीं। उसे लगने लगा था कि आज वह इन चेहरों को पहचान लेगी। उन आवाजों में से कोई नाम अवश्य उभर कर आएगा। बस वह कुछ ही दूर है अपनी मंजिल से। किन्तु अचानक ही चहरे धुंधले पड़ने लगे। आवाजें मद्धिम हो गयीं। वह अँधेरे में इधर भटकने लगी। घबराहट में वह चीख पड़ी। उसकी नीद खुल गई। वह पसीने से भीगी हुई थी। नर्स भागी हुई आई और उसे पानी पिलाया। फिर उसे तसल्ली देने लगी " घबराओ मत सब ठीक हो जाएगा।"
वह फिर से लेट गयी। आँखों से आंसू छलक पड़े। छः महीने हो गए वह अपनी ही पहचान से अन्जान है। जब कोई उसे आत्मीयता से देखता है तो वह परेशान हो उठती है कि कहीं वह उसका कोई अपना तो नहीं है। उसके इर्द गिर्द सभी व्यक्तियों का एक नाम है। उनकी एक पहचान है। सिर्फ वही अनाम है। अपनी पहचान से दूर है। उसे महसूस होता है इंसान के लिए उसका नाम और पहचान कितने ज़रूरी हैं। उसके लिए इस तरह जीना बहुत ही कष्टप्रद है। वह भीतर ही भीतर घुट रही है।
उसके जेहन में कुछ चहरे हैं। कुछ आवाजें उसके मन में बसी हैं। किन्तु उन चेहरों को वह पहचान नहीं पाती है। उन आवाजों से स्वयं को जोड़ नहीं पाती है। उसके भीतर ऐसे अन्जाने चेहरों और आवाजों की एक दुनिया है। इस दुनिया से उसका संघर्ष ज़ारी है जो उसे परेशान तो करती है किन्तु उसकी मंजिल तक पहुँचाने में मदद नहीं करती है।
पिछले छः माह से वह लगभग रोज़ ही टूटती है किन्तु स्वयं को बिखरने नहीं देती है। बड़ी मजबूती से उसने स्वयं को संभाले रखा है। इस उम्मीद से कि एक न एक दिन वह स्वयं से ज़रूर मिलेगी।
{8}
मेरी राह
जेम्स ने अपने पिता की स्टडी में प्रवेश किया। वो कोई किताब पढ़ रहे थे। जेम्स ने धीरे से कहा " डैड मुझे आप से कुछ बात करनी है।" उसके पिता ने नज़रें उठाए बिना कहा " बोलो क्या बात है।" " डैड मैं एन . डी . ऐ . के एग्जाम में नहीं बैठना चाहता।" जेम्स ने सहमते हुए जवाब दिया। उसके पिता ने किताब बंद कर दी। उसे गौर से देख कर कहा " क्यों इस बार तैयारी नहीं हो पायी।" जेम्स ने हिम्मत जुटा कर कहा " जी नहीं दरअसल मैं एन . डी . ऐ . में नहीं जाना चाहता हूँ। डैड, म्यूजिक मेरा पैशन है। मैं म्यूजिक के फील्ड में जाना चाहता हूँ।"
उसके पिता ने तंज़ किया " तो अब एक एक्स आर्मीमैन का बेटा पार्टियों में गाना गायेगा।" जेम्स को अपने पिता का तंज़ चुभ गया " डैड म्यूजिक फील्ड में भी बहुत सारी करीअर ऑपरच्यूनिटीज़ हैं।" जेम्स के पिता ने अपना फैसला सूनाते हुए कहा " मुझे कोई बहस नहीं करनी है। मुझे मेरे घर में कोई गाने वाला नहीं चाहिए।" यह कह कर वह फिर से पढ़ने लगे। जेम्स बिना कुछ बोले कमरे से बाहर आ गया।
वह बहुत दुखी था। उसने अपना गिटार लिया और सईकिल पर सवार हो अपने पसंदीदा स्पॉट की तरफ चल दिया। इस जगह पर कोई आता जाता नहीं था। इस जगह की शांति में अक्सर वह अपने गिटार पर अपनी मनपसंद धुनें बजता था।
वहां पहुँच कर उसने गिटार के साथ अपना दिल बहलाना चाहा। किन्तु लगता था जैसे की गिटार के तार भी उसकी भांति बेचैन थे। उस ने गिटार रख दिया। वह कोई निर्णय नहीं कर पा रहा था। वह अपने पिता का दिल नहीं दुखाना चाहता था। उसकी माँ के जाने के बाद उन्होंने ने ही उसे पाला था। उसने बहुत कोशिश की थी एन . डी . ऐ .के लिए अपना मन बनाने की। पर वह जानता था की यदि वह जबदस्ती मन को मार कर आर्मी में जायेगा भी तो सफल नहीं हो पाएगा। उसने बहुत सोच कर ही अपना फैसला पिता को सुनाया था।
जेम्स एक दोराहे पर खड़ा था। क्या करे कुछ समझ नहीं पा रहा था। उसकी आँखों में उसके मित्र राहुल का चेहरा घूम गया। राहुल भी ऐसे ही दोराहे पर था फुटबाल या पढाई। माँ बाप के फैसले के आगे झुक तो गया लेकिन निभा नहीं पाया। ज़हर खा कर उसने स्वयं को इस दुविधा से मुक्त कर लिया। किन्तु वह ऐसा नहीं करेगा। वह अपने पिता को जीवन भर की सज़ा नहीं देगा। न ही वह अपने आप को धोखा देगा। वह अपनी चुनी राह पर ही चलेगा। अपने मन में दृढ निश्चय कर वह घर की तरफ चल दिया।