ख्वाबो के पैरहन
पार्ट - 5
फूफी को ताहिरा के क़दमों की चाप देर तक टकोरती रही| ज़ेहन में उस चाप की टकोर से वेदना उठी|.....मन अपराधी हो स्वयं से गवाही माँगने लगा- ‘क्यों किया रन्नी तूने ऐसा? क्यों ख़ानदान की बलिदेवी पर बेटी की कुर्बानी दे दी? अँधे न देखें तो ख़ुदा उन्हें माफ़ करता है पर तू तो आँख होते अंधी हो गई थी|’
फूफी की आँखें डबडबा आईं| बेशुमार आँसू ओढ़नी पर चू पड़े| उनकी ज़िन्दगी हो मानो कुर्बानियों की दास्तान है, आहों का जलजला, उम्मीदों की टूटन है| रोते-रोते वे तकिये में मुँह गड़ा कर लेट गईं| धीरे-धीरे अतीत दस्तक देने लगा|
चौदह साल की उम्र में फूफी उर्फ रेहाना ब्याह दी गई थी| फिर वह सुहागरात जिसकी चिर स्मृति के नाम पर कुछ भी नहीं|.....पति.....छै फीट का पैंतीस दुहिजवाँ| रेहाना ने बस गुड़ियों से खेलना बंद ही किया था|.....उसके बाबा, सज़्ज़ाद अली खिलौने वाला शहर के नामी मशहूर व्यक्ति थे| पीढ़ियों से यह रोजगार चला आ रहा था| अच्छा खाता-पीता घराना था, शहर में साख थी| अब्बू के भी औलाद के नाम पर बस वह और भाईजान| बच्चे तो आठ हुए पर बाकी जन्मते ही ख़ुदा को प्यारे हो गये| बड़ी मुश्किलों से, पीर-दरगाह की मन्नतों से वह और भाईजान बच पाये| फिर अचानक बाबा चल बसे|
अब्बू बाबा से बहुत लगाव रखते थे, मृत्यु का सदमा बर्दाश्त नहीं कर पाये|.....तबीयत उचाट-सी हो गई उनकी हर काम से| इकलौते थे सो बाबा के बेहद लाड़ले| बाबा ने उन्हें मानो चिड़िया की तरह अपने मुलायम परों में रखकर पाला था| ठीक भी तो है कितनी मुश्किलों से अब्बू का जन्म हुआ था| जाने कितने पीर, दरगाह, मजारें बाबा ने मन्नतों से लाद दी थीं| मज़हबी कट्टरता के बावजूद वे औलाद की ख़ातिर चामुंडा देवी और चर्च में भी फूल चढ़ाकर माथा नवा आये थे|
जिस समय अब्बू का जन्म हुआ बाबा ने मोहल्ले भर में मोतीचूर के लड्डू बँटवाये थे और अड़ोस-पड़ोस के बच्चों को मुफ़्त में खिलौने बाँटे थे| बाबा ने अब्बू का नाम रखा बरक़त अली| भाईजान ने ही रेहाना को बताया था कि अब्बू के जन्म लेते ही बाबा का व्यापार खूब चमका था| शहर के प्रतिष्ठित मोहल्ले में बाबा ने घर बनवाया था और खूब शान से रहते थे| अब्बू उनके लिये बरक़त ही तो थे| उन दिनों बाबा के ऊपर लक्ष्मी की कृपादृष्टि थी| खिलौनों की माँग इतनी कि कर्मचारी रखने पड़े थे| शहर के ऐन बाज़ार में उनकी दुकान थी| बाबा दुकान में मुब्तिला रहते| इधर अब्बू दादी की छत्रछाया में लढ़ियाते रहते| सुबह से शाम तक दिन का हर घंटा अब्बू के लिये| जूस, मेवे, हलवा, मिठाई के इंतज़ाम में ही जुटी रहतीं दादी| घर में मदरसा से मौलवी साहब अलिफ़-बे सिखाने आने लगे| तेज़ दिमाग़ था अब्बू का| छोटी-सी उम्र में ही कुरान की आयतें सुना देते मौलवी साहब को| बेटे की तेजबुद्धि देख बाबा ने सोचा- ‘इसे नाहक मिट्टी, रंग-रोगन की दुनिया में क्यों घसीटूँ’ सो अब्बू बाक़ायदा स्कूल जाने लगे| घर में एक चितक़बरी गाय भी आ गई, हुकुम था कि इसी गाय का दूध पिलाकर बरकत अली स्कूल भेजे जायें|
लेकिन बाबा की इच्छा धरी की धरी रह गयी| अब्बू पढ़ न सके| दोस्तों की संगत में अपनी ज़िम्मेवारियाँ भूल गये| उनका स्कूल शहर के हरे-भरे इलाक़े में था, जाने के लिए यूँ तो इक्का रोज़ दरवाज़े पर आ जाता, पर बरक़त अली इक्के वाले को उस जगह से विदा कर देते जहाँ से अमराई शुरू होती थी| पूरी अमराई यार-दोस्तों के साथ चलकर पार होती| आमों के मौसम में कहाँ का स्कूल और कहाँ की पढ़ाई?.....बस्ता फेंक सरपट पेड़ पर और कच्चे आमों की जमकर खिलाई| दिनभर मटरगश्ती, गुल्ली-डंडा और कबड्डी से अमराई में हड़कंप मचाये रखते| एक घंटे वाला पीपल का चबूतरा भी था उस अमराई में..... मशहूर था कि उस पीपल में भूत है| रात के सन्नाटे में पीपल से घंटे बजने जैसी ध्वनि पैदा होती है| कोई डर के मारे उसके नज़दीक नहीं जाता था| बरक़त जब अपने दोस्तों के साथ वहाँ से गुज़रते तो हनुमान चालीसा की चौपाइयों को बोलते जाते, जो उनके दोस्त महेश ने उन्हें सिखा दी थीं| आँखें मुँदी होतीं और दिमाग़ में घंटे बजते रहते| स्कूल में अनुपस्थित रहने का दंड था एक आना प्रतिदिन और दस बेंत| एक दिन मास्टर ने ऐसी ज़ोरों की बेंत मारी कि उन्हें रात को बुखार आ गया| ख़बर उड़ गई कि बरक़त अली पर घंटे वाले पीपल के भूत का साया है| आख़िर उस पेड़ के पास से रोज़ जो गुज़रते.....! भूत भी उस खूँख़्वार अंग्रेज़ अफ़सर का जो रोज अमराई से अपने शानदार घोड़े पर गुज़रता था| सूट-बूट से लैस, चुस्त-दुरुस्त अंग्रेज़ अमराई से पाँच कोस की दूरी पर गन्ने के खेतों की ओर जाता था और दिनभर भारतीय मजदूरों की पीठ पर कोड़े बरसाता काम कराता था| गन्ने के खेतों से लगी शक्कर मिल थी| इस मिल के आस-पास के लगभग दो मील चौरस इलाके में दीवाली के दिनों मड़ई भरती थी| आसपास के गाँवों से किसान मज़दूर अपनी चीज़ें बेचने आते| बिजली का झूला, गन्ने का मशीन से निकाला, बरफ़ डाला, झाग़दार मीठा रस और औंटाये हुए दूध का ताज़ा खोवा जो तेंदू के पत्तों में रखकर बेचा जाता था, इस मड़ई का ख़ास आकर्षण था| रंगी, छपी सींगों में कौड़ी, मूँगा, मोती मढ़े गाय लिये ग्वाले आते और जमकर नाचते| इनका नाच देखने अंग्रेज़ ख़ासतौर से आते| ग्वालों के संग ग्वालिनें भी नाचतीं.....प्रिंटदार छींट की साड़ी, फुग्गेदार बाहों का ब्लाउज़ और गोरे गालों पर गुदा गुदना जो चिड़ी की छाप का था| जो ठुमक-ठुमक कर सबसे अच्छा नाच रही थी, उस ग्वालिन पर अंग्रेज़ अफ़सर का दिल आ गया| इसी पीपल के पेड़ के नीचे एक बार मौका देख अंग्रेज़ अफ़सर ने उस ग्वालिन को दबोच लिया था और उसका फुग्गेदार ब्लाउज़ फाड़ डाला था| ग्वालिन गठीले शरीर की ताक़तवर महिला थी| उसने चारे के गठ्ठर में खुसा हँसिया निकाला और उस अंग्रेज़ को पटक कर उसका गला काट डाला| फिर अपनी खुली छातियों पर आँचल ढँका और फूट-फूट कर रोती घर लौट गई| उस अंग्रेज़ का क्रिया कर्म भी नहीं हुआ|.....लाश सड़-सड़ कर चील कौओं का भोज बनती रही| वही अंग्रेज़ भूत बनकर पीपल पर रहता है उर घंटा बजा-बजाकर लोगों को बताना चाहता है कि उसका क़त्ल हुआ, उसकी लाश तक ठिकाने नहीं लगाईं गई| सो बरक़त अली पर इसी भूत का साया था तभी तो बुखार चढ़ा|
‘कितनी बार कहा तुमसे कि इक्का स्कूल तक भिजवाया करो|’ बाबा दादी पर गरजे थे|
‘मैं तो इक्के वाले को स्कूल तक छोड़ने को ही कहती हूँ| यही बीच में उतर जाये तो मैं क्या करूँ?’
‘लाहौल विलाकूवत! एक बच्चे पर बस नहीं तुम्हारा, वो तो खुदा ने एक ही दिया, दर्जन भर देता तो क्या करतीं?”
बाबा देर तक बड़बड़ाते रहे| बरक़त अली की पढ़ाई छुड़ा दी गई, अब वे दुकान पर बैठकर गल्ला सँभालते| खिलौनों की पैकिंग उन्हीं की देख-रेख में होती| सारा माल अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा, कलकत्ता के बाज़ारों में भेजा जाता| अंग्रेज़ बहादुरों के घर में सज़्ज़ाद अली खिलौने वाला के यहाँ की चिड़ियों की जमात की खूब माँग थी| लेकिन बरक़त का मन धंधे में भी नहीं लगा| कभी पैकिंग में कागज़ की क़तरनें कम ठूँसी जातीं तो खिलौने मुक़ाम तक पहुँचते-पहुँचते टूट जाते|.....गल्ले में हिसाब गड़बड़ा जाता, नफ़े की जगह नुकसान हो जाता| बाबा को चिन्ता सताने लगी, उनके बाद क्या होगा? किसी ने सलाह दी, शादी कर दो ज़िम्मेवारी सिर पर आयेगी तो सब ठीक हो जायेगा|
थोक कपड़ों के व्यापारी लियाक़त अली की खूबसूरत-निपुण-इकलौती लड़की से इकलौते बरक़त अली ब्याह दिये गये| शादी क्या थी, हफ़्तों का जश्न था| बाबा ने दिल खोलकर ख़र्च किया| कलकत्ते के सुनारों से गहनों का सेट बनवाया, सूरत से असली चाँदी की ज़री का शरारा, ओढ़नी, कुरता-पूरा जोड़ा सेरों वज़न का.....क्या बात थी उस ज़माने की!.....बाबा के कारोबार से बाज़ार में उनकी ख़ास पहचान थी| शामियाने में थाल के थाल दही में डूबे बड़े भेजे जा रहे थे| बड़े-बड़े रक़ाब में फीरनियों की परइयाँ और गुलगुलों से भरी डलियें गुलाबी नैपकिन से ढँककर भेजी गईं| तुख़्मे बालंगा के शरबत के लिये बर्फ़ की सिलें रखवायी गईं| हर आगन्तुक पर केवड़े और चंदन के इत्र की बौछार, जूही, चमेली के गजरों की भरमार| कई अंग्रेज़ भी आये| बाबा का मेलजोल था उनसे|
नई दुल्हन घर आई कि तभी हादसा हो गया| बाबा को पुलिस पकड़कर ले गई| दुकान के तलघर में बम बनाने का मसाला पेटियों में भरा मिला, हथियार मिले, कुछ गुप्त नक़्शे भी| दादी रोते-रोते बेहोश हो गईं| दादी के भाई चुप कराते रहे ‘मत रो बाज़ी, क्रान्ति की आग पूरे देश में फैली है| सबने प्रण लिया है देश को आज़ाद कराने का| मौक़ा पड़ा तो हम भी जेल जायेंगे|’
‘अरे, मुझसे तो बताते कुछ, मुझे तो सुराग़ ही नहीं मिला|’
‘ये सब बातें बताने की थोड़ी होती हैं.....ख़ैर, छोड़ो, तुम ज़रा होशियार रहना, पुलिस किसी भी वक़्त आ सकती है|’
माहौल संजीदा हो गया था| शादी की खुशियाँ कपूर सी उड़ गईं| दादी घर बैठकर आँसू बहाने वालों में से न थीं, सीधी पहुँच गईं जेल| सींखचों के पार खड़े बाबा से पूछा- ‘बोलिये मेरे लिए क्या हुक़्म है?’
‘बस, बेटे-बहू की सुरक्षा! मेरा चमन उजड़ने न देना, बड़ी मन्नतों के बाद पाया है ये सुख|’
बाबा की आँखें डबडबा आईं थीं| देर तक लोहे के सींखचों में उनके हाथ पर अपना हाथ धरे दादी मूर्ति-सी खड़ी रहीं| आँखें जुबान बन गई थीं| मौसम भी गीला-गीला-सा था| पहरे पर तैनात कांस्टेबल ने डंडा ठोंककर हाँक लगाई थी- ‘मिलने का समय ख़तम|’
बाबा छै: महीने बाद जेल से छूटे थे| इधर बहू के पैर भारी थे, उधर दुकान बैठती जा रही थी| कर्मचारी क्रांतिकारी बन गये थे| खिलौनों की पेटियाँ बमों की पेटियाँ बन गई थीं| मिट्टी, भूसे, गत्तों की जगह अब बारूद में मसाला मिलाने का काम शुरू था| जो जमापूँजी थी सो निकाल-निकाल कर काम चलता रहा| भाईजान के जन्म लेते ही देश में क्रान्ति की लपटें उठने लगी थीं| बाबा तीन बार जेल गये थे.....दादी ने सब सँभाला.....क्रान्तिकारियों के खेमों में दादी भेष बदलकर खाना पहुँचातीं| रात-रात भर बैठकर रोटियाँ सेंकती फिर पैकेट बनते| हर पैकेट में छै: छै: रोटियाँ, भुनी सब्ज़ी, आम के अचार की एक फाँक| बाबा को गर्व था दादी पर|
कहते कुछ नहीं पर दादी के चेहरे की हर शिकन बाबा की चिन्ता का सबब बन जाती| बाबा के सिर पर देशभक्ति का जुनून चढ़ा था जिस पर वे अपना तन, मन, धन लगा चुके थे| बस, दादी की चिन्ता सताये जाती| बरक़त अली के लिये घर, धन-दौलत, दुकान सब थी| सँभालना उन्हें था| बहू के पैर दोबारा भारी थे| इधर क्रान्ति की सरगर्मी बढ़ती जा रही थी, आये दिन गिरफ़्तारियाँ होतीं| क्रान्तिकारियों को पकड़-पकड़कर फाँसी पर लटकाया जाता, गाँधी जी के अहिंसक दल पर हिंसा बरसती| सब-कुछ उलट-पलट गया था| जोश ऐसा कि जिससे जो बन पड़ा, किया| उस वक़्त का दिया चाँदी का एक तार भी मूल्य रखता था| दादी ने तो अपनी पूरी ज़िन्दगी बलिदान कर दी| खुलकर सामने तो नहीं आईं पर बाबा की रीढ़ की हड्डी बनी रहीं| रेहाना जन्मी तब तक देश आज़ाद हो चुका था| लेकिन बाबा टूट चुके थे, शक्ति जवाब दे गई..... धन ख़तम हो गया|.....देश को सँभलने में समय लग रहा था.....जिन-जिन ने कुर्बानियाँ दीं सभी के घरों का यही हाल था| बाबा ने खाट पकड़ ली-अब क्या होगा? इलाज के पैसे कहाँ से आयेंगे? दादी मायूसी से बोलीं|
‘मेरा बेटा है न, इलाज करायेगा मेरा|’
दादी ठंडी आह भरती-कहाँ है बेटे में दम खम, जो कमाये| इधर उसके बच्चे बड़े हो रहे हैं, घर का खर्च बढ़ रहा है| उधर दुकान से लागत तक वसूल नहीं होती| वे मन ही मन सोचतीं|
फिर भी बरक़त अली ने इलाज में क़सर नहीं छोड़ी| वैद्य, हक़ीम, ओझा, डॉक्टर सबको आज़माया| बाबा के पेट में पानी भर गया था| इतने सालों तक आज़ादी की लड़ाई में उन्होंने दिन में दो घंटे भी गहरी नींद नहीं ली थी, नतीजा लीवर ख़राब| कुछ भी हज़म न होता| जो खाते सब निकल जाता| शरीर कमज़ोर होता गया| वैद्य ने संतरे का रस देने को कहा पर उतने पैसे भी न जुड़ते कि संतरे मँगाये जायें| बाबा ने आज़ादी भी दिलाई, धन भी कमाया.....घर की बगिया भी फलने-फूलने वाली बनाई पर बरक़त अली को वे अपनी कामयाबी का हुनर न दे सके|
वह अपने भाईजान के साथ बाबा के आगे पीछे गुड़िया-सी डोलती रहती| कभी उन्हें शहद में घोलकर अपनी नन्हीं उँगलियों से दवा चटाती, कभी मूँग की उबली दाल, चम्मच से पिलाती| दादी बिसूरने लगतीं| बहू से कहतीं- ‘कभी तुम्हारे ससुर ने गोश्त के बिना निवाला नहीं तोड़ा| मेवों की मिठाईयाँ हर वक़्त घर में मौजूद रहतीं| केशर डली बिरयानी आड़े दूसरे बनती| सस्ते के ज़माने की बात है.....उनका एक पान का बीड़ा दो रुपये में लगता था| कलकत्ते का मीठा पत्ता ख़ास उनके लिये मँगवाया जाता था| आज मूँग का पानी तक पेट में नहीं ठहरता|’
उस दिन रह-रहकर बरसात हो रही थी| सुबह से बेमौसम काली घटाएँ आसमान पर लदी थीं| दादी ने बाबा की फतोईं निकाल, झटककर उन्हें पहना दी थी, ऊनी कनटोपा भी| उतरते जाड़ों की साँझ थी| गुरसी में अँगारे रखकर बाबा की खाट के पास रख दिये गए थे| वैद्य की दवा ख़तम थी सो बरक़त अली दवा लेने गये थे| धीरे-धीरे बाबा ने आँखें खोली थीं- बरक़त की अम्मी.....कहाँ हो तुम?
‘आपके पास ही तो हूँ| बोलिए, क्या चाहिए, पानी दूँ?’
‘नहीं अपना हाथ दो.....मैं अकेलापन महसूस कर रहा हूँ| घुटन-सी हो रही है, लगता है बाहर हवा नहीं चल रही है|’
‘चल तो रही है.....खूब भीगी, ठंडी हवा चल रही है|’
दादी ने ऊनी धुस्सा भी ओढ़ा दिया उन्हें.....दो चार दहक़ते अँगारे और डलवा दिये गुरसी में| पूछने लगीं, ‘चाय बनवा दूँ बहू से?’
‘नहीं.....कुछ नहीं.....रन्नी कहाँ है और बड़े साहबज़ादे कहाँ हैं हमारे? ये बाहर क्रान्तिकारियों की भीड़ क्यों लगी है? क्या तुमने आज खाने के पैकेट नहीं भिजवाये उन्हें? बरक़त की अम्मी.....मेरे महेश को फाँसी दे दी अंग्रेजों ने| मेरा दोस्त महेश.....ओह लाश देखतीं तो सीना दहल जाता| आँखें कौड़ी सी बाहर निकल आई थीं.....गले में फंदा धँस गया था.....कल ही तो दफ़नाया हमने उसे| मुझे जाना है.....मेरा कोट.....शेरवानी ले आओ.....टोपी बदल दो मेरी.....कल ज़मीन में गिर गई थी|’ कहते-कहते बाबा चुप हो गये थे| तभी बरक़त अली दवा लेकर आ गये| बाबा उन्हीं की ओर देख रहे थे.....दादी विस्फरित, अवाक़ थीं.....लेकिन बाबा शान्त.....सब कुछ ख़तम| बरक़त अली पछाड़ खाकर गिरे और फ़र्श से सिर कूटने लगे अपना| दादी अपना ग़म भूल गईं| बेटे के बिलखने ने उन्हें सहमा दिया था| भाई जान और रेहाना अब्बू से चिपके बिलख रहे थे| सारे घर पर मातम छा गया|
बाबा के बाद अब्बू ने सबसे बड़ी भूल की घर बेचने की| दुकान में माल ख़रीदने के लिये रुपये चाहिए थे| बाबा थे तो अब्बू निश्चिंत थे| अब चिन्ता ही चिन्ता.....कुल मिलाकर पाँच लोगों का ख़र्च| करने-धरने वाले वे अकेले| दुकान में कर्मचारी मालिक को ढीला देख मनमानी करने लगे| गल्ले में हिसाब का ओर-छोर न था| कहाँ का रूपया निकाल कहाँ डाला गया कोई जवाब नहीं| कर्ज़ बढ़ता गया| मुफ़्त में कौन पहुँचाता खिलौने? लिहाजा, घर बेचकर अब्बू किनारी बाज़ार के पिछवाड़े, दो मंज़िले मकानों की बख़री में नीचे के मकान में किराये से रहने लगे| कारखाने से खिलौने मँगाने की अब औक़ात न थी| लिहाज़ा, घर के आँगन में ही मिट्टी सनने लगी| कच्चे खिलौने सूखते-पकते.....दादी और अम्मी रंग-रोगन लगाने में दुपहरिया बिता देतीं| रेहाना और भाईजान को घर पर मौलवी पढ़ाने आते पर भाईजान अब्बू के कारण ज़्यादा नहीं पढ़ पाये| मामूजान ने उन्हें अपने कपडे के व्यापार में साझीदार बना लिया और छोटी-सी उमर में ही वे घर के ख़र्चे में हाथ बँटाने लगे| रेहाना के लिये भी अब मौलवी जी न आते| वह भी सखी-सहेलियों से दूर खिलौनों की दुनिया में अकेली डूबी रहती| खिलौनों के काम से निपट वह अकेली बैठी गुड़ियों से खेलती रहती| बाहरी दुनिया का उसे रत्ती भर भी ज्ञान न था| अम्मी झिड़कतीं भी|
‘अरी.....गैया-सी भोली बनी रहेगी तो ज़िन्दगी कैसे पार होगी?’
‘खिलौने बनाती तो हूँ अम्मी| भाईजान की दुपल्ली टोपी भी क्रोशिये से बुन देती हूँ|’
‘बस....., हो गई टोपी-खिलौनों में ज़िन्दगी पार| कुछ शऊर सीख| दुपट्टा तक ठीक से लेना नहीं आता|’ रेहाना खिलखिला पड़ती, “लो, ले लिया ठीक से, अब खुश!”
रेहाना को तेरहवाँ साल लगा और दादी अपने अच्छे दिनों की याद में खोई अल्लाह को प्यारी हो गईं| अम्मी के ऊपर पूरी गृहस्थी का बोझ आ गया| अब्बू सहमे से रहते| अपनी आँखों जिस शान-शौक़त को उन्होंने देखा है, जिस लाड़-प्यार से पीला-बढ़े, उसका नामोनिशान न था| कमर तोड़ मेहनत थी और व्यापार में निराशा थी| अब्बू ऊब चुके थे, टूट चुके थे| रेहाना की चिन्ता खाये जाती| लड़की जवान हो रही थी और घर में कंगाली छायी थी| भाईजान के लिये भी रिश्ता आ गया था पहले रेहाना को निपटाना था| लिहाज़ा आनन-फानन में दुकान के ही एक कर्मचारी द्वारा सुझाये रेहाना से दुगने से भी अधिक बड़ी उम्र के एक क्लर्क से रेहाना का निक़ाह पढ़वा दिया गया| शादी भी क्या थी.....जन्मदिन पार्टी जैसी.....घर के आगे ही मेन सड़क पर हरे रंग की कनातें लगाकर कुर्सियाँ डाल दी गई थीं| नुक्कड़ पर बड़ी-सी भट्टी सुलगाकर बिरयानी और शीरकोरमा पकाया गया था| बहुत बड़े अल्यूमीनियम के देगचे में गुलाब का शरबत था सबके लिये| शाम निक़ाह पढ़ा गया, रात तक्क मेहमान आते रहे| उसी रात दो बजे के लगभग रेहाना बिदा कर दी गई| सिल्क का नक़ाब ओढ़ाकर जो कि उनके परिवार में पहली बार ख़रीदा गया था| बाबा ने अपने खानदान, अपनी क़ौम से बगावत करके कभी दादी को नकाब न ओढ़ने दिया| उन्होंने दादी को अपने बराबर का दर्ज़ा दिया था| उनकी दृष्टि में नक़ाब औरत की काबलियत को छुपाता है जिससे कि शायद मर्दज़ात को डर हो| अम्मी ने भी कभी नक़ाब नहीं पहना लेकिन रेहाना को पहनना पड़ा क्योंकि उसके ससुराल की माँग थी| नक़ाब ओढ़ना रेहाना के लिये अद्भुत घटना थी, उसके लिये तो शादी भी अद्भुत घटना थी| चूँकि वह सहेलियों में पली बढ़ी न थी सो शादी का अर्थ भी न जानती थी|
छोटे से दो कमरों वाले घर में वह बिदा होकर आई| सारे दिन मुँह-दिखाई की रस्म चलती रही| रात को मेहमानों को बिदा कर रेहाना की सास ने दिन भर पलथी मारे बैठी, थकी, सोने के लिये बेचैन रेहाना से कड़क लहज़े में कहा- ‘खाना खाकर कपडे बदल लो बहू, वो कुठरिया में तुम्हारा बिस्तर है.....चली जाना|’
बिस्तर के नाम पर उसमें शक्ति आ गई| लेकिन यह क्या, अभी खा-पीकर, नक़ाब उतारकर वह आराम से लेटी ही थी कि उसका पति कमरे में दाख़िल हो गया| उसके आते ही शराब का भभका भी कुठरिया में फैल गया| उसने दरवाज़े की कुंडी चढ़ाई और रेहाना पर भरभराकर गिर पड़ा| रेहाना चीख पड़ी| उसने पूरी ताक़त से अपने को छुड़ाया और कोने में खड़ी होकर रोने लगी| ऐसा तो कभी उसके साथ सलूक नहीं हुआ.....अब्बू ने उसे कैसे जानवर के घर भेज दिया| नींद-वींद सब उड़ गई| पति ने उसे फिर अपनी ओर घसीटा और उसके कुरते में अपना हाथ डाल दिया| अपने उरोज़ों पर लोहे जैसे वज़न से वह तड़प उठी और कसकर एक झापड़ पति के गाल पर रसीद कर दिया| रेहाना वैवाहिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ थी.....और फिर यह वहशी सलूक? बेहद गुस्सा आया उसे| पूरी ताकत से उसने पति को ढकेला था| शराब से मदहोश वह वहीँ बड़बड़ाते हुए सो गया| रेहाना खटिया की पट्टी पर सिर रखे फूट-फूट कर रोती रही| दर्द, दुख की चुभन झेलते कब सुबह हुई पता ही न चला| नींद खुलते ही रेहाना हड़बड़ाकर कुठरिया से बाहर आई| सास नाहा धोकर नमाज़ पढ़ रही थी| रेहाना के चेहरे ने सब कुछ बयाँ कर दिया|.....बेटा शराब में अभी तक बेसुध सो रहा था| सास ने रेहाना के हाथों की कलाइयों को इतनी ज़ोर से पकड़ा कि उँगलियों के निशान उभर आये- ‘यह नखरा यहाँ नहीं चलेगा|.....कोई नया-नया दूल्हा बना है मेरा बेटा जो तुम्हारे नखरे उठायेगा? तुमसे ज़्यादा सुन्दर थी पहली, उसे भी अपनी उँगलियों पर नचाता था वह|’ रेहाना को यह तो पता चल गया था कि वह दूसरी बीवी है, पहली प्रसव पीड़ा में मर गई थी| वह कुछ बोली नहीं, चुपचाप चौके में जाकर चूल्हा फूँकने लगी| अब्बू, अम्मी की याद सताने लगी| मन हुआ, भाग जाये यहाँ से| अगले महीने भाईजान की शादी है| क्या वह यहाँ मरती खपती रहेगी, उधर कुछ तो तैयारी में हाथ बँटाना होगा|
रात फिर वही कांड| वैसा ही आक्रामक रूप पति का, अबकी बार तो पूरा कुर्ता ही फाड़ डाला था उसके वज़नी हाथों ने| रेहाना बिलबिला पड़ी थी| अपने को छुड़ाने के चक्कर में गिरते-गिरते बची थी| लगातार इंकार से पति ने दो-चार हाथ रसीद कर दिये और बड़बड़ाते हुए सो गया- “साली! घोड़ी जैसी बिदकती है| झाँसी की रानी बनी है, हाथ पैर दिखाती है| अरे, ब्याह कर लाया हूँ, कोई भगाकर तो लाया नहीं हूँ|”
रेहाना अवाक थी| कहाँ भूल हो गई उससे? बढ़िया रोटी-सालन पकाया था उसने|.....थाली परोसकर दी, बिस्तर बिछाया, सिरहाने पानी रखा.....आख़िर उसका पति चाहता क्या है उससे? रेहाना को शादी का अर्थ तक पता न था|.....एकांकी जीवन में वह खिलौनों के संसार में पली थी, फिर किसी ने सिखाया भी नहीं कुछ| पति अनुभवी था सो यह समझ ही नहीं पाया कि रेहाना सेक्स शब्द से अपरिचित है| बात सास के कान तक पहुँची| उन्होंने शाम को नहाने जा रही रेहाना के सब कपड़े बाथरूम की खूँटी से ग़ायब कर दिये| रेहाना नहाकर बाहर निकले कैसे? सास तो घर का बाहरी दरवाज़ा बन्द कर चबूतरे पर जाकर बैठ गई थी| इधर रेहाना ने चुपके से आहट ली, फिर तौलिया लपेट कोठरी की ओर दौड़ गई.....जहाँ पहले से ही पति महोदय विराजमान थे| पति ने झपटकर तौलिया खींच लिया और उसे नंगी पलंग पर पटककर उसकी चीख़ों को घोंट दिया| दर्द, पीड़ा में छटपटाती रेहाना बेहोश सी होने लगी| अपरिपक्व मन में पति के इस बलात्कार से सदमा-सा लगा| चादर खूण से रंग गई थी| रेहाना के सामने जीवन का एक नया पक्ष प्रगट हुआ पति के अमानुषिक बलात्कार द्वारा! वह तृप्त हुआ, सिगरेट सुलगाये खटिया से टिका बैठा था| रेहाना धीरे-धीरे उठी.....| आश्चर्य! खूँटी के कपड़े खटिया के पैताने रखे थे और सास चौके में चाय की पतीली चूल्हे पर चढ़ा रही थी|
‘चादर बदल लो.....’ हलके से आलिंगन में लेते वह बोला- ‘क्यों इतना हाथ-पैर चलाती है? मेरी बीवी है न तू?’
रेहाना को सब कुछ समझ में आ गया था.....अब विरोध न था.....पर कहीं दबी-ढँकी नफ़रत ज़रूर थी उस शख़्स से जो उसका पति था| संसार में क्या इंसानियत कुछ नहीं? क्या उसके पति को उसकी कम उम्र और मासूमियत का ज्ञान नहीं? उसे अपनी सास से भी परहेज़ था जो औरत की शक़्ल में स्वार्थ का भंडार थी.....जो दया, प्रेम से परे, मात्र अपने शौहर के वंश को चलाने में मुब्तिला थी| फिर चाहे उसका बेटा औरत के साथ बलात्कार करे या उसे मारे धमकाये|
बाबा की लाड़ली रन्नी अब पूर्ण औरत बन चुकी थी| बहुत वहशी तरीके से उसे औरत बनाया गया था जिसमें उसकी सास और पति दोनों का हाथ था| फिर भी रन्नी काम में जुटी रहती| सुबह से रात तक घर-गृहस्थी के काम करती| रात को चौके का काम निपटा, सास के पैरों की मालिश करती| सर में तेल ठोंकती| फिर पति के पैर दबाती, बालों में चंपी करती.....वह सिगरेट, शराब पीता रहता, रन्नी के हाथों बना भुना गोश्त खाता रहता और नशे में धुत रन्नी के कमसिन शरीर से अपने शौहर होने का हक़ वसूलता और सो जाता| कभी-कभी बात बेबात रन्नी मार भी खाती| पति की भी, सास की भी| पर वह सब कुछ ख़ामोशी से बर्दाश्त कर लेती|
भाईजान की शादी भी सादगी से सम्पन्न हुई| भाभी दहेज-दायजा काफी ले आई थीं| भाईजान ने रेडीमेड कपड़ों की दुकान मामूजान की मदद से अपनी खिलौनों की दुकान के बाजू में ही खोल ली थी| खिलौनों की दुकान की तो कुर्की निकल आई थी| बाबा के ज़माने का क़र्ज़ पटा नहीं था लिहाज़ा, घर तो बेचना पड़ा था ही अब दुकान की भी नीलामी हो गई थी| अब वे अपने किराये के मकान में ही ऑर्डर लेकर खिलौने भेजते रहे| लेकिन बाज़ार में, खिलौनों की दुनिया में, नया मोड़ आया था| चाबी वाले प्लास्टिक, रबर और लकड़ी के खिलौनों की भरमार थी| एक से बढ़कर एक नये खिलौने.....अब इन मिट्टी के कमज़ोर खिलौनों को पूछता कौन?
इसी तरह साल गुज़रते गये| भाईजान गरीब से गरीब होते गये| अब्बू के लिये सब कुछ बर्दाश्त के बाहर था| पहले बाबा गये, फिर घर बिका, दुकान नीलामी चढ़ी.....फूल-सी बेटी रन्नी नर्क में डूबी और अब खिलौनों के व्यापार का दिवालिया| एक रात जो सोये तो सुबह उठे ही नहीं| अम्मी जगाने आईं.....हिला-हिलाकर थक गईं पर बेजान मिट्टी में कैसी हलचल? उनकी चीख़ दूर खेतों में पके गेहूँ की बालियों को कँपा गई|.....होली नज़दीक थी, घर-घर पकवान बन रहे थे| ऐसे में बरक़त अली के घर का मातम सभी को सहमा गया था| वैसे इस घर से सभी को हमदर्दी थी| रन्नी को भी उसका पति मय पेटी बक़्से के छोड़ गया था| अम्मी ने सोचा था रस्म अदायगी तक रहेगी रन्नी, शायद इसीलिये कपड़ों का बक्सा साथ आया है| उन्हें क्या मालूम था कि बाँझ करार दिये जाने पर उसकी थुक्का-फज़ीहत हुई थी| सास के सारे प्रयास व्यर्थ गये थे| झाड़ा-फूँका गया था, गंडे-ताबीज़ बाँधे गये थे.....पर बेअसर था सब| महीने भर बाद भाईजान ने रन्नी से कहा- ‘ससुराल नईं जायेगी रन्नी?’
‘नहीं भाईजान! उस नर्क़ में मुझे दोबारा न घसीटो| मेरी ज़िन्दगी में कुछ भी शेष नहीं रहा.....महज़ शराब, लात घूँसों के|’
‘क्या! वे लोग तुझे मारते हैं? आख़िर क्यों?’
रन्नी होंठ काटकर रह गई.....जो बर्दाश्त किया है वह बयाँ से बाहर है और जो भविष्य है वह सोच से परे.....
‘भाईजान, मैं यहीं कुछ न कुछ करके पेट पाल लूँगी, आप पर बोझ नहीं बनूँगी|’
एक झन्नाटेदार झापड़ गाल पर पड़ा- ‘कमअक़्ल! भाई से जुदा समझती है अपने को? अपना पेट पालेगी! अरे, पहले मुझे कब्र में सुला दे फिर कमाने जाना|’
रन्नी दौड़कर भाईजान के सीने से लग गई और फूट-फूट कर रोने लगी| भाभी अलग सुबकने लगीं| उनकी तबीयत वैसे भी ठीक नहीं थी.....उम्मीदों से थीं.....आजकल में दिन गुज़र रहे थे| अम्मी तस्बीह गिनने लगीं- ‘या अल्लाह! रहम कर|’
रन्नी शर्मिन्दगी से भर उठी| गरीब सही, पर उनके कुनबे में कितनी मोहब्बत है आपस में, सब एक दूसरे का मुँह देख कर जीते हैं| भाईजान, भाभी और ख़ासकर अम्मी के समझाने पर रन्नी ने ससुराल जाने को मन कड़ा कर लिया| औरत का भी क्या मुक़द्दर बनाया है ख़ुदा ने.....सब कुछ ज़ब्त करने का हैरत भरा माद्दा|
भारी मन लिये रेहाना ससुराल लौटी| सास का वही रूटीन रहता| सुबह से शाम तक औलाद न होने के जुर्म में उसे कोसती| वह कोल्हू का बैल बनी शौहर की गृहस्थी का जुआ सिर पर रखे चकरघिन्नी बनी रहती| देशी दारु की घिनौनी बदबू, शरीर पर पत्थर से वजन को हर रात सहना| हर रात माथे की ज़रा-सी शिकन पर पीठ, गाल पर उँगलियों के निशान उभार दिये जाते| रन्नी थक चुकी थी, टूट चुकी थी| वह मरना चाहती थी| उसे अपने जीवन से घृणा हो चुकी थी| उसके मन में कोई इच्छा शेष न थी| न उसे पड़ोसी बहू-बेटियों के हाथों पर रची मेंहदी के बूटे मोहते, न त्यौहार-दावत में पहनी उनकी गोटे, जरी, किरन लगी सिल्क की साड़ियाँ| न शादी-ब्याह में बन्ना-बन्नी के गीत रुचते, न ईद की ईदी के लिये लालायित रहती| हाँ, बस! रमजान के चालीस दिन का उसे इंतज़ार रहता| वह चालीस दिन के कड़े रोज़े रखती और बड़ी एहतियात से रहती| लेकिन ईद उसे उदास कर जाती|
रेहाना को अच्छी तरह याद है वह रमज़ान का दसवाँ रोज़ा था, फ़ज़र की नमाज़ के लिये उसने सिर पर दुपट्टा बाँधा ही था कि सास की चीख़ ने दिल दहला दिया था| चीख उसकी कुठरिया से आ रही थी जहाँ खून की उल्टी में उसका शराबी पति लिथड़ा पड़ा था| रात उसने पूरी बोतल बिना पानी मिलाये पी थी और रोज़ेदार रन्नी की पिटाई की थी कि ‘उसे धोखा हुआ जो वह निपूती ब्याह लाया|’
रन्नी ने दिल पर काबू किया| पति के कपड़े बदले, हाथ मुँह पोंछा| वह लोथड़े-सा उसके हाथों में हिलता-डुलता रहा| सास डॉक्टर बुला लाई| जाँच हुई, देर तक जाँच होती रही और डॉक्टर ने बड़े रहम से रन्नी को देखा- ‘मुझे अफ़सोस है.....इनका लीवर फेल हो गया है और शरीर का बुख़ार दिमाग़ तक पहुँच गया है| खुदा को याद करिये|’ रन्नी न रोई, न चीख़ी| दो घंटे तक डॉक्टर पति के शरीर में जान रोकने की कोशिश करता रहा, पर सब बेकार.....रात बारह बजे पति ने अंतिम साँस ली| रन्नी की ज़िन्दगी का यह एक बड़ा हादसा था पर वह इसे हादसा नहीं मानती| जहाँ से सुख का एक क्षण भी नसीब न हुआ हो उसके बिछुड़ने पर हादसा कैसा? बल्कि उसकी रूह को छुटकारा मिल गया था| समाज की नज़रों में वह विधवा थी, पर अपनी नज़रों में एक ऐसी संतुष्टि जैसी पिंजड़े से छूटे पंछी को मिलती है|
सास खुद विधवा थी पर उसके विधवा होने पर उसे कोसती- ‘करमजली, मेरा बेटा लील गई| एक दिन भी सुख न दिया मेरे जिगर के टुकड़े को| एक चूहे का बच्चा तक नहीं जना निपूती ने|’
रन्नी की आँखें काली घटा बनी जा रही थीं|.....उस रात दो घटनाएँ एक साथ हुईं| इधर सास ने उसे रखने से इंकार किया ही था, उधर भाईजान की साईकल दरवाज़े पर आकर रुकी| रन्नी दौड़कर लिपट गई उनसे और फूट-फूट कर रो पड़ी| भाईजान कुछ न बोले| रन्नी ने कपड़े समेटे और भाईजान के बुलाये रिक्शे पर बैठ गई| सास बाहर नहीं निकली| जिस दहलीज़ पर एक दिन दुल्हन बनकर उतरी थी आज उसी दहलीज़ से बेवा बनकर विदा हो रही है रन्नी|