Kam umra ki prem kahani in Hindi Love Stories by Anubhav verma books and stories PDF | कम उम्र की प्रेम कहानी

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कम उम्र की प्रेम कहानी

मैं जिला के हाईस्कूल के, अपने सेक्शन "10D" में खड़ा था, कि अचानक मेरे फेंकू मित्र ठाकुर साहब बोले, "वो देखो, वो मेरी गर्लफ्रेंड"सुरभि ' है।"

वहां खड़े कुछ और सहपाठियों के साथ मैंने भी उधर देखा, जिधर 10 A की लड़कियां चली जा रही थीं, पर मैं पहचान नहीं पाया। जीवन में पहली बार अपने सामने मुझे ये नया शब्द सुनाई दिया "गर्लफ्रेंड"..!! मैं ठहरा 15 km दूर से साईकिल चला के आने वाला गाँव का एक "अंतर्मुखी लड़का, मैंने ये शब्द केवल इक्का दुक्का फिल्मों में ही सुना था, वो भी जो कभी कभार गलती से "दूरदर्शन" पर आ जाती थीं। लड़कियां, हमारे स्कूल में सिर्फ A में ही पाई जाती थीं। B, C और D में हमारे जैसे "पिछड़े" लड़के ही पाए जाते थे। पता नहीं कैसे, ये ठाकुर साहब भी हमारे सेक्शन में आ गए थे, और बताते थे कि उस लड़की के घर उनका रोज का उठना बैठना है। उन्होंने ही बताया कि इस कस्बे के बैंक के मेनेजर हैं "मेरी सुरभि "के पापा।

उसके बाद मैं उनकी कहानियों से दूर रहने लगा, क्योंकि किसी लड़की के बारे में इस तरह सरेआम बोलना मुझे अच्छा नहीं लगता था, वैसे कुछ लोगों ने ये भी बताया कि हर मामले की तरह ठाकुर साहब इस मामले में भी फेंक ही रहे हैं, और वो लड़की इनको सिर्फ एक "परिचित" ही समझती है।

मुझे एक लड़की अच्छी लगती थी, जो मेरे ही स्कूल की थी। जाने क्या नाम था, जाने किस क्लास की थी। लेकिन आते जाते वो मुझे पैदल चलते हुए दिख जाती थी, और मैं उसके बगल से साईकिल खूब तेजी से आगे निकाल ले जाया करता था। मैं पता नहीं क्यों ऐसा करता था, शायद यही सोचता था कि ऐसे ही इम्प्रैशन जमता है। लेकिन वो एक नजर देखती भी नहीं थी। बस अपनी बुक्स को दोनों हाथों से सीने पे चिपकाये चली जाती थी। इतना तो मुझे पता चल गया था कि स्कूल से थोड़ी ही दूर पर उसका घर है, इसलिए वो पैदल आती थी।

स्कूल की कुछ लड़कियां सलवार कुरते की यूनिफार्म में आती थीं, तो कुछ शर्ट और स्कर्ट में। ये लड़की भी स्कर्ट में ही आती थी। सुन्दरता की अति, लेकिन लगता था कि जैसे इसको अपनी सुन्दरता का पता ही ना हो। गोरा सा, गोल सा लेकिन भोला सा चेहरा, सिंगल वाली सिंपल सी चोटी,.. और उसकी चाल ऐसी थी कि,.. शायद थोड़ा उचक उचक के चलती थी, स्पोर्ट्स वालों की तरह या क्या? पर जब वो चलती थी तो उसकी गर्दन हिलती थी, और उसकी वो सिंगल चोटी ऊपर नीचे होती रहती थी। और उसकी चोटी जब ऐसे ऊपर नीचे होती थी, तो मुझे बहुत प्यारी लगती थी। उसको देखकर मुझे अच्छा लगता था। पूरे दिन भर की पढाई, आना जाना मिलाकर 30 km से ऊपर का साईकिल चलाने की थकान, सब उसको एक नजर देख के जैसे वसूल सा हो जाता था। जिस दिन ना दिखे, वो दिन बेकार गए जैसा लगता था।

मैंने अपनी क्लास के सारे टीचरों से कह रखा था, कि "मुझे मेरिट में आना है, तो चाहे मारिये या चिढ़ाइए, लेकिन मुझपर ध्यान दीजिये।" तो मेरे जीव विज्ञान के टीचर ने कहा कि,.. "यहाँ क्लास में 60-65 लड़के हैं, और मुझे सब पर ध्यान देना रहता है, इसलिए अगर चाहो तो टयूशन पढ़ लो, और पैसे की दिक्कत हो तो मत देना फीस ।"

मैं ट्यूशन के खिलाफ था, और इतनी दूर से भी आता था। लेकिन जीव विज्ञान में मैं खुद को कमजोर समझता था, इसलिए मैंने ट्यूशन के लिए हामी भर दिया, वो भी ऐसे सर्दियों के वक़्त।

मैं पहले दिन ही ट्यूशन लेट पहुंचा, तो ग्लानी तो थी ही। जब वहां पहुंचा तो 15-16 बच्चे थे, मैं सिर नीचे किये ही बैठ गया, सबसे पीछे। लेकिन तभी माटसाब ने मुझे बुलाकर अपने पास बुलाया और कड़कती आवाज में कहा,.. "तुम्हारी साफ़गोई से मैं बहुत खुश हूँ, अब से तुम मेरे पास आगे वाली रो (क़तार) में ही बैठोगे।"

मैंने चोरी-चोरी नजर डाल के इधर उधर देखा, तो ठाकुर साहब भी मेरी ही बेंच पर थे। और दाहिने तरफ की बेंचों पर आगे कुछ 4-5 लड़कियां भी बैठीं महसूस हुईं, नीची नजर से ही देखने पर। लेकिन अचानक मेरा दिल धक्क से रह गया, उन लड़कियों की जूतियों में से, एक जानी पहचानी सी लगीं। मैं काँप सा उठा, और धीरे-धीरे, चुपके चुपके स्लो मोसन में नजर ऊपर सरकाते हुए, मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि,.. "हे भगवान, ये "वो" ना हो। काहे से कि अपनी जीव विज्ञान का हाल हमहीं बूझते हैं, बड़ी बेइज्जती हो जाएगी।" लेकिन भगवान ने हमरी एक ना सुनी, और ये वही लड़की थी, अपनी कॉपी में नजर गड़ाये हुए।

अब हम समझ चुके थे, कि हमरा बेड़ा गर्क हो चुका है। फिर कुछ दिन की क्लास से, और लोग भी ये जान गए, साथ में "वो भी" कि हमको कुछ नहीं आता है। जीव विज्ञान से हमारा छत्तीस का आंकड़ा है। एक दिन, मैं टयूसन की छुट्टी कर गया, और अगले दिन पहुंचा। माटसाहब ने अपनी कड़क वाली आवाज में हमसे कहा,.. "चलो जीव विज्ञान का पाठ सुनाओ।" मेरे मुंह से अचकचा के निकला,.. "कौन का पाठ?, मैं कल आया नहीं था।" माट साहब ने गुर्रा के कहा,. "अगर तुम्हारे मन में सीखने की ललक होती, तो कल आये बच्चों से पूछ के तैयार कर लिए होते।" और फिर गधा, घोडा, खच्चर इत्यादि नाना प्रकार के विभूषणों से मुझे विभूषित किया। मैं अपमान और शर्म के मारे जैसे जमीन में गड़ा जा रहा था। फिर बाकी बच्चों से उन्होंने पाठ सुनाने को कहा,.. जब आखिरी बच्चा भी सुना लिया,.. तो "मैंने" उनसे कहा,.. "मैं भी सुनाऊंगा।" तो उन्होंने बोला कि,.. "तुमने याद नहीं किया, फिर कैसे?"

मैंने कहा,. "अभी-अभी याद किया है।" और 13-14 लाइन वाली पाठ पूरी सुना दिया, केवल आखिरी की 1-2 लाइन में गड़बड़ाया। माटसाब की ताली बज उठी, और कनखियों की कृपा से मुझे ये ज्ञात हुआ कि,.. ताली उन गोरे हाथों ने भी बजाया था, जिसके एक हाथ में चौड़ी पट्टी वाला कंगन था, और दुसरे में HMT की घड़ी थी। ..फिर डरते-डरते मैंने नजर उठा के, ऊपर किया, और नजर से नजर टकरा गई,.. पहली बार। उन मोटी-मोटी, काली कजरारी, चुलबुली आँखों में जैसे चुम्बक सा लगा हुआ था। मुश्किल से 1 सेकंड का ही ये खेल हुआ, लेकिन ना जाने कितने लाख सूचनाओं का आदान प्रदान हो गया। सूचनाएं तो खैर मेरी तरफ से ही गईं कि,.. "तुमको सूचित हो,......" और उधर से बस शायद इतनी ही आई कि,. "इतनी जल्दी कैसे याद कर लिया तुमने"

कुछ सप्ताह उपरांत धीरे धीरे, नजर मिलने की घटनाओं में तेजी आ गई, क्योंकि मैं उसको चुपके-चुपके निहारा करता था। और जब वो मेरी तरफ देखती थी, तो मैं गड़बड़ा कर नजर हटा लिया करता था। लेकिन इसी बीच नजर टकरा जाती थी, तो एक स्पार्क सा उठ जाता था, ऐसा लगता था कि, आज का दिन सफल हो गया। फिर धीरे-धीरे वो भी स्पार्क महसूस करने ही लगी थी, बड़ी डर डर के अपनी हिरणी जैसी आँखों को, मेरी आँखों में देती थी, थोड़ी सी देर के लिए ही, और उतनी देर में ही मेरा हृदय झूम उठता था। अब मुझे रविवार अच्छा नहीं लगता था, क्योंकि उस दिन छुट्टी रहती थी।

ऐसे कई दिन गुजरने के बाद भी, मुझे उसका अपनी ओर देखना, एक इत्तफाक ही लगता था। ऐसा लगता था कि मेरे दिल की भावनाएं वो नहीं ही समझती थी। इसी बीच माटसाहब ने नई पद्धति विकसित कर लिया, जिसमें किसी चैप्टर की एक-एक लाइन बारी बारी से हर बच्चे को पढना होता था, और उसका अर्थ, मतलब हिंदी में बताना होता था। आखिरी बच्चे के बाद फिर से पहले बच्चे का नंबर आ जाता था, अगली लाइन पढने के लिए। तो एक दिन,.. सबसे पहली लाइन मैंने निबटाया, और अगले बच्चे के शुरू होते ही, फिर से नजरों की छुपन-छुपाई शुरू कर कर दिया। आज तो तीन बार नजरें टकराईं थीं, तसल्ली से,.!! असीम आनंद की अनुभूति मिल रही थी मुझे कि अचानक,.. माटसाब की छड़ी मुझ पर सट से पड़ी,.. "कहाँ खोये हो बे, सीता जी गायब हो गईं का तुम्हरी?"

और मैं शर्म से पीला पड़ गया, जैसे मेरी चोरी पकड़ी ही गई। जल्दी जल्दी, डरते डरते मैंने अपने हिस्से की लाइन निबटाया जैसे तैसे करके, और अपनी नजरें किताब में धंसा लीं मैंने। फिर जब थोड़ी देर बाद,.. माटसाब की आवाज मेरे कानों से टकराइ,.. "अब तुम्हारा ध्यान किधर चला गया है?" मैंने झटके से देखा,.. "उसको" हडबडा कर अपनी लाइन पूरी करते हुए।.... एक बार फिर मुझे लगा कि "शायद कारण मैं हूँ" और मैं खुश हो उठा।,.. और इसके बाद जो आखिरी बार नजर टकराई, तो जैसे पल ठहर सा गया। अब मुझे यकीन हो चला कि,.. ये नजरों का टकराना इत्तिफाक नहीं है।

लेकिन अब तक,.. मुझे उसका नाम भी नहीं पता था, किसी से पूछने लायक हिम्मत भी नहीं थी मुझमें। क्योंकि मैं ज्यादा बात किसी से कर नहीं पाता था, अपने ही ख्यालों में डूबे रहने वाला इंसान था। बहुत सोचा कि नाम कैसे पता करूँ? फिर ख्याल आया कि हो सकता है, उसको भी मेरा नाम ना पता हो। बहुत दिमाग भिड़ाने के बाद, मैंने अपनी मोटी "काका" गाइड पर, अपनी सर्वप्रसिद्ध हैण्डराइटिंग में,.. अपना नाम लिख दिया " विष्णु शंकर तिवारी",!! ये नाम मैंने, बुक के ऊपर या नीचे नहीं लिखा, बल्कि मोटाई की तरफ पन्नों पर लिखा , जिससे मुझे किताब को उठा कर उसको दिखाने की जरुरत नहीं पड़ती, बस किताब को टेबल पर रख कर, उसका मुंह "उसकी तरफ" कर देना होता। .........और इसमें "मेरी कोई गलती" भी नहीं कह सकता।

और उस दिन मैंने धड़कते दिल से, जैसे ही उससे नजर टकराई, मैंने अपनी बुक उधर ही मोड़ दिया और अपनी नजर फेर लिया। थोड़ी देर तक ये धुकधुकी लगी रही कि उसने देखा कि नहीं,.. फिर ऐसा हर बार किया। लेकिन उसका रेस्पोंस, प्रतिक्रिया ऐसी ही होती थी, जैसे देखी ही ना हो। फिर अगले दिन भी मैंने यही किया, और उसका वैसा ही रेस्पोंस। फिर मुझे झुंझलाहट सी आ गई, कि वो समझ नहीं पा रही है क्या?, या समझना ही नहीं चाहती है?। फिर झुंझलाहट में ही,. ट्यूशन में कई गलतियाँ कर बैठा। तब माटसाहब पूछे कि "क्या हुआ विष्णु ?" और हमने कह दिया कि "सिर में दर्द हो आया है अचानक।" और मन में बडबडाने लगा,. "बड़ी नकचढ़ी है यार, पता नहीं खुद को क्या समझती है। मेरी पढाई भी डिस्टर्ब हो रही है, अब तो तय कर लिया कि देखना ही नहीं है उसकी ओर। अब बिलकुल भी भाव नहीं दूंगा,.... वगैरह वगैरह मन में रटता रहा। लेकिन जैसे ही माटसाब ने कहा,. कि "अब सोमवार को, ये सब लोग याद करके आना", ...ये सुनके रहा ही नहीं गया,.. खुद को रोकने के सारे प्रण, प्रतिज्ञा भूल के उसकी ओर देख बैठा।

वो मेरी ओर ही देख रही थी, उसके चेहरे पर चिंता साफ़ दिख रही थी। ऐसा लग रहा था कि,.. जबसे मैंने अपने मन में उसको ना देखने के बारे में सोचा, तब से ही वो परेशान हो गई थी। और अब,.. जब मेरी नजर फिर से उससे टकराई,.. वो खिल सी उठी। मेरी नजरें उसकी नजरों में चुम्बक की तरह जमी हुईं थीं, कि टेबल पर रखी उसकी बुक पर टिकी हुई ऊँगली हलकी सी काँप गई। इतनी हलकी कि,. कोई और समझ भी नहीं पाता कि कुछ हलचल भी हुई है। और... उसकी ऊँगली के पास, उसकी बुक पर, मेरी ही स्टाइल में उसका नाम लिखा था,.. " सुरभि "..!! पढ़ के मैं इतना खुश हुआ, जैसे दुनिया जहां की खुशी मिल गई हो! और फिर खुश होकर उसकी आँखों में झाँका, लेकिन अब वो शरमा के अपनी नजर फेर ली और उठ खड़ी हुई। कैसे एक एक पल गिन के वो जालिम रविवार कटा, ये कहना बहुत ही मुश्किल है।

(वैसे अब मुझे याद आया कि, कुछ महीने पहले, ठाकुर साहब इन्हीं के बारे में फेंका करते थे स्कूल में,.. और उनकी ही नाक के नीचे, ठीक नज़रों के सामने,.. "दो दिल मिल रहे थे, मगर चुपके चुपके,.. !!)

सोमवार को माटसाहब द्वारा फिर से एक नई पद्धति का ईजाद हुआ, और सबके होमवर्क की कापियां लेकर, सारे बच्चों में ही बाँट दिया, कि वो सही जवाब बताते, और हमलोग एक दुसरे को कॉपी में नम्बर देते। और इस बार मेरे साथ चमत्कार हुआ, और उसकी कॉपी मेरे हाथ में आई। मैं अपनी खूबसूरत राइटिंग के आगे, किसी को नहीं समझता था दुनिया में, लेकिन जब उसकी राइटिंग देखा, तो मेरे होश ही उड़ गए। ऐसा नहीं कि मुझसे भी ज्यादा सुन्दर राइटिंग थी, लेकिन इतने सीधे-सीधे "अक्षर" थे कि देखते ही मेरे मन में ख्याल आया,.. "ऐसी हैण्डराइटिंग वाला इंसान बहुत सीधा होता है दिल से, बहुत ही ज्यादा सरल, और मासूम होता है। कोई छल कपट नहीं होता है उसके मन में।"

वो कनखियों से मेरी ओर ही देख रही थी, क्योंकि अपनी कॉपी मेरे पास आते देख लिया था उसने।.. मुझे शैतानी सूझी, और उसके 10 नम्बर के बजाये मैंने "0" नम्बर लिख दिया टोटल में, सबसे ऊपर "0/10"..!! लेकिन हर सवाल के जवाब के आगे, बहुत छोटे-छोटे "1, 1" मार्क्स लिख दिए थे, और माट साब को कॉपी पकड़ा दिया। वो उस कॉपी का नम्बर आते ही चिल्लाये,. "तुम्हारे "0" नंबर?? क्या करती हो घर पर?" ....बेचारी को विश्वास ही नहीं हुआ, उसने मेरी ओर देखा, उसकी बड़ी बड़ी आँखों में, आंसूं झिलमिला गए थे इतनी ही देर में।मुझे लगा कि गलती हो गई, तुरंत खड़े होकर बोला,.. "माट साब, मैंने चेक किया है, पूरे दस नम्बर हैं। चाहें तो चेक कर लें, हर जवाब के आगे 1 मार्क्स दिए हैं मैंने।"माट साब गुर्राए,. "अबे अहमक, तो टोटल में जीरो क्यों दिया है तूने?"मैंने हेंहेंहें कर के कहा,. "जल्दबाजी में गलती हो गई होगी। "I am sorry",.. ये सॉरी मैंने "उसकी" आँखों में झांक के बोला, फिर वो मुस्कुरा दी, क्योंकि मेरी छेड़खानी समझ गई।"

{एक तो साला जब प्यार होता है, तो शुरू में लगता है कि बस एक बार देख ले तो धन्य हो जाऊं। और अगर देख ले तो,.. एक बार मुस्कुरा दे बस। और मुस्कुरा दे अगर,. तो बस एक बार बात हो जाए,... एक बार हाँ बोल दे, एक बार मुलाकात हो जाए,..... और इस तरह सिलसिला बढ़ता ही चला जाता है। एक जगह पर, एक स्टेज पर,.. ठहर क्यों नहीं जाता ये प्यार,.? ये आज तक किसी के समझ में नहीं आया है। थोड़ा और,. थोड़ा और,.. करते करते,. इसकी प्यास मिटती ही नहीं है, बढती ही चली जाती है।}

अब कुछ दिन इस स्टेज पर रुक के इसका आनंद लिया तो, लेकिन अब आगे बढ़ने की तड़प शुरू हो गई। देखने मुस्कुराने से आगे, अब अनजान डगर पर बढ़ चलने की बेचैनी शुरू हो गई। सर्दियों का, घने कोहरे का दिन था। माटसाब के घर से पहले वाली गली में मैं अपने साईकिल की चेन उतार कर, फिर उसको झुक के बार-बार चढाते हुए,. उसका इंतजार कर रहा था। और कुछ लड़के लड़कियों के चले जाने के बाद वो आती दिखाई दी। कोहरा काफी घना था, लेकिन मैं पहचान लिया उसको। पास आई तो मैं खड़ा हो गया। पहचान तो वो भी ली मुझे, लेकिन मेरे हाथ में एक कागज़ दबा हुआ देख ली। वो कागज़ देखते ही, उसकी बड़ी बड़ी आँखें, और भी फ़ैल गईं,.. और वो थमक के दो कदम पीछे हट गई।

उसके इस रिएक्शन से, मैं भी डर सा गया। जल्दी से कागज़ जेब में रखा और साईकिल ले के भाग लिया। और पूरे ट्यूशन में उसकी ओर खुल के नहीं देख पाया, लेकिन इतना आभास तो हो ही गया कि उसने भी मेरी ओर नहीं देखा है, एक बार भी। मुझे बहुत डर लगा, मैं यही सोचता रहा कि मेरी हरकत उसको बहुत बुरी लग गई। लेकिन अब कैसे सुधारू अपनी गलती, इसका कोई उपाय मुझे समझ नहीं आ रहा था। ऐसे ही दो-तीन दिन बीते, फिर आखिरी दिन, शनिवार को, ट्यूशन ख़त्म होने के वक़्त.. वो मेरी ओर देखी, नजरें मिलीं लेकिन मैं समझ नहीं पाया कोई भाव। ...और तुरंत उसने माटसाब को पलट के कहा कि "मेरे कुछ सवाल हैं सर, दो मिनट रुक जाऊं? माट्साब ने हाँ कर दिया। पता नहीं क्यों मुझे लगा कि,.. वो मुझे ही रुकने को बोली है।

मैंने गली में उसी जगह, खड़ा हो गया, अपनी साईकिल की चेन उतारकर। सारे बच्चे चले गए, फिर वो आती दिखी, और मेरा दिल धाड़ धाड़ करके बज उठा। हजारों शंकाओं ने सर पहले ही उठा रखा था, कि मुझे रुकने के लिए ही ऐसा बोला था या नहीं? अगर हाँ तो, क्या कहेगी? क्योंकि इतने दिन तक तो ठीक से मेरी तरफ देखी भी नहीं, गुमसुम ही रही।मैंने अपना पूरा ध्यान और पूरी जान,.. साईकिल की चेन पर लगा दिया,.. जैसे मुझे कुछ पता ही ना हो। ...उसके शूज पास आते गए, थोड़े लड़खड़ाते, थोड़े सहमते, थोड़े असमंजस में, और पास आकर तीन फीट की दूरी पर रुक गए। मैंने थोड़ी देर तक अपने कान खड़े रखे, कि कोई आवाज हो तो उठूँ, लेकिन कोई आवाज नहीं आई। फिर खुद ही उठ गया मैं। और, उसने फिर से अपनी आँखें, मेरी आँखों में डाल दिया,.. और अटकते हुए, घबराहट में बोलना शुरू की,.. "मुझे पता है तुम्हारी फीलिंग्स, तुम कब क्या सोच रहे हो, वो सब पता चल जाता है मुझे। मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है,.. ये कुछ लिखा है,. शायद तुम्हें बुरा लगे। और अगर बुरा लगे तो भूल जाना मुझे। लेकिन अगर समझ आ जाए, तो "समझ लेना" !!" ये कह कर उसने अपने हाथ में दबा हुआ एक पत्र मेरी ओर बढ़ा दिया,.. !!

मुझे वो पत्र लेना बहुत अजीब सा लग रहा था, पता नहीं क्यों डर सा लग रहा था। फिर भी मैंने हाथ बढ़ा कर वो पत्र पकड़ लिया, लेकिन उसने छोड़ा नहीं। थोड़ी देर तक मुझे देखती रही, और फिर पत्र छोड़कर मेरा हाथ पकड़ लिया। मेरे सारे शरीर में सनसनाहट दौड़ गई। लेकिन फिर भी ख़ुशी नहीं महसूस हो रही थी मुझे, कुछ छूट जाने जैसा लग रहा था। फिर वो पीछे मुड़ी और कोहरे में गुम होती चली गई।

मैं साईकिल पर बैठा और, सनसनाते हुए आबादी से दूर की ओर भागा चला गया, और एक पुलिया पर पहुँच कर, कांपते हाथों से उस लैटर को खोला,…

"विष्णु, तुम अच्छे लड़के हो, तुम्हारा सपना है कुछ करने का अपने जीवन में, ऐसे ही मेरा भी एक सपना है कि सिविल इंजीनियर बनूँ। लेकिन मैंने इस तरह चिठ्ठीबाजी के चक्कर में बर्बाद होते हुए, अपने कस्बे में सैकड़ों लोगों के बारे में सुना है। मेरी एक दूर की दीदी थीं, उन्होंने सुसाइड कर लिया था। उस दिन मेरे पापा, मेरी मम्मी के सामने बहुत रोये थे, कि,.. "कैसा जमाना आ गया है? और मेरी भी दो बेटियाँ हैं। अगर इन्होने कुछ भी ऐसा वैसा किया तो, मैं जिन्दा नहीं बचूंगा, याद रखना।" तो विष्णु, मैं अब तुम्हारे साथ, इस रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकती। हाँ, सपने पूरे हो जाने पर मैं तुम्हारा इन्तजार जरुर करूँगी। मैं आज से ट्यूशन बंद कर रही हूँ, क्योंकि मैं कुछ भी नहीं पढ़ पा रही हूँ इन दिनों। मैं तुम्हारा दोष नहीं दे रही, लेकिन ये प्रेम-मुहब्बत अभी मेरे अधिकार में नहीं है। तुम्हारी याद हमेशा रहेगी, और तुम भी खूब पढ़ो, आगे बढ़ो, ताकि "किसी" लड़की के पापा तुम्हें रिजेक्ट ना कर पाएं। अब मैं तुम्हें कभी नहीं दिखूंगी। मुझे तुम पर भरोसा है कि,.. "मुझे ढूँढने की कोशिश नहीं करोगे"!!"

और फिर परीक्षाएं हुईं, मैंने 11वीं में Bio…. ले लिया, उसने Math,.. फिर तो बिलकुल ही दिखना बंद हो गया। लेकिन उस दिन से मेरे आने जाने के वक़्त उसके घर की खिड़की के पर्दों में मुझे पता नहीं क्यों,. हल्का सा "गैप" दिखने लगा था, एक पतली सी झिर्री दिखने लगी, और लेकिन मुझे वो कभी दिखी ही नहीं। शायद, केवल मेरे लिए, इस दुनिया से ही गायब हो गई। स्कूल में ठाकुर साहब से ही पूछ लेता था कि,.. "और सुनाइए, आपकी गर्लफ्रेंड के क्या हाल हैं आजकल।" और ठाकुर साहब डिटेल में शुरू हो जाते थे, बताने के लिए, नमक मिर्च लगा कर,.. और मैं मुस्कुरा कर रह जाता था ।

फिर मैं इलाहाबाद में कोचिंग, फिर Doctoree… के चक्कर में इस शहर से उस शहर की धूल फांकता फिरा। कई साल बाद, मेरे भाई ने घर पे गाड़ी स्टार्ट करते हुए कहा, "भईया, चलो जरा स्कूल के दोस्तों से मिल आते हैं।" और सबसे पहले जिस घर के सामने, उसने गाड़ी रोक के, अपने जिस जिगरी दोस्त को बाहर बुलाया, वो "उसी" का घर था, और वो लड़का "उसी" का सगा छोटा भाई था, जो दो क्लास पीछे, मेरे भाई के साथ पढता था। मैं गाड़ी में ही बैठ के देखता रहा उस परदे को, जो अब बदल गया था और पूरी तरह से बंद था।

और मेरे मन में एक ही सवाल चलता रहा,.. " सुरभि, मुझे तो तुम्हारी वो "नाक की रिंग" आज भी याद है,... क्या मैं भी कभी याद आता हूँ??"

***