Chandragupt - 20 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 20

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चंद्रगुप्त - द्वितीय अंक - 20

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(शिविर के समीप कल्याणी और चाणक्य)

कल्याणीः आर्य, अब मुझे लौटने की आज्ञा दीजिए, क्योंकिसिकन्दर ने विपाशा के अपने आक्रमण की सीमा बना ली है। अग्रसरहोने की सम्भावना नहीं, और अमात्य राक्षस भी आ गये हैं, उनके साथमेरा जाना ही उचित है।

चाणक्यः और चन्द्रगुप्त से क्या कह दिया जाय?

कल्याणीः मैं नहीं जानती।

चाणक्यः परन्तु राजकुमारी, उसका असीम प्रेमपूर्ण हृदय भग्न होजायगा। वह बिना पतवार की नौका के सदृश इधर-उधर बहेगा।

कल्याणीः आर्य, मैं इन बातों को नहीं सुनना चाहती, क्योंकिसमय ने मुझे अव्यवस्थित बना दिया है।

(अमात्य राक्षस का प्रवेश)

राक्षसः कौन? चाणक्य?

चाणक्यः हाँ अमात्य! राजकुमारी मगध लौटना चाहती है।

राक्षसः तो उन्हें कौन रोक सकता है?

चाणक्यः क्यों? तुम रोकोगे।

राक्षसः क्या तुमने सब को मूर्ख समझ लिया है?

चाणक्यः जो होंगे वे अवश्य समझे जायँगे। अमात्य! मगध कीरक्षा अभीष्ट नहीं है क्या?

राक्षसः मगध विपन्न कहाँ है?

चाणक्यः तो मैं क्षुद्रकों से कह दूँ कि तुम लोग बाधा न दो,और यवनों से भी यह कह दिया जाय कि वास्तव में यह स्कन्धावार प्राच्यदेश के सम्राट्‌ का नहीं है, जिससे भयभीत होकर तुम विपाशा पार नहींहोना चाहते, यह तो क्षुद्रकों की क्षुद्र सेना है, जो तुम्हारे लिए मगध तकपहुँचने का सरल पथ छोड़ देने को प्रस्तुत है... क्यों?

राक्षसः (विचार कर) आह ब्राह्मण, मैं स्वयं रहूँगा, यह तो मानलेने योग्य सम्मति है। परन्तु...

चाणक्यः फिर परन्तु लगाया। तुम स्वयं रहो और राजकुमारी भीरहे और तुम्हारे साथ जो नवीन गुल्म आये हैं, उन्हें भी रखना पड़ेगा।जब सिकन्दर रावी के अन्तिम छोर पर पहुँचेगा, तब तुम्हारी सेना काकाम पड़ेगा। राक्षस! फिर भी मगध पर मेरा स्नेह है। मैं उसे उजड़नेऔर हत्याओं से बचाना चाहता हूँ।

(प्रस्थान)

कल्याणीः क्या इच्छा है अमात्य?

राक्षसः मैं इसका मुँह भी नहीं देखना चाहता। पर इसकी बातेंमानने के लिए विवश हो रहा हूँ। राजकुमारी! यह मगध का विद्रोही अबतक बन्दी कर लिया जाता, यदि इसकी स्वतंत्रता की आवश्यकता न होती।

कल्याणीः जैसी सम्मति हो।

(चाणक्या का पुनः प्रवेश)

चाणक्यः अमात्य! सिंह पिंजड़े में बन्द हो गया।

राक्षसः कैसे?

चाणक्यः जल-यात्रा में इतना विघ्न उपस्थित हुआ कि सिकन्दरको स्थल-मार्ग से मालवों पर आक्रमण करना पड़ा। अपनी विजयों परफूल कर उसने ऐसा किया, परन्तु जा फँसा उनके चंगुल में। अब इधरक्षुद्रकों और मागधों की नवीन सेनाओं से उसको बाधा पहुँचानी होगी।

राक्षसः तब तुम क्या कहते हो? क्या चाहते हो?

चाणक्यः यही कि तुम अपनी सम्पूर्ण सेना ले कर विपाशा केतट की रक्षा करो, और क्षुद्रकों को ले कर मैं पीछे से आक्रमण करनेजाता हूँ। इसमें तो डरने की कोई बात नहीं?

राक्षसः मैं स्वीकार करता हूँ।

चाणक्यः यदि न करोगे तो अपना अनिष्ट करोगे।

(प्रस्थान)

कल्याणीः विचित्र ब्राह्मण है अमात्य! मुझे तो इसको देखकर डरलगता है।

राक्षसः विकट है! राजकुमारी, एक बार उससे मेरा द्वंद्व होनाअनिवार्य है, परन्तु अभी मैं उसे बचाना चाहता हूँ।

कल्याणीः चलिए।

(कल्याणी का प्रस्थान)

चाणक्यः (पुनः प्रवेश करके) राक्षस, एक बात तुम्हारे कल्याणकी है, सुनोगे? मैं कहना भूल गया था।

राक्षसः क्या?

चाणक्यः नन्द को अपनी प्रेमिका सुवासिनी से तुम्हारे अनुचितसम्बन्ध का विश्वास हो गया है। अभी तुम्हारा मगध लौटना ठीक न होगा।समझे!

(चाणक्य का सवेग प्रस्थान, राक्षस सिर पकड़ कर बैठ जाता है।)