Mann ke moti in Hindi Short Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मन के मोती

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मन के मोती

मन के मोती 8

{लघु कथा संग्रह}

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

{1}

बैरंग चिठ्ठी

बैरंग चिठ्ठी की तरह एक दिन अचानक बिट्टो बुआ आ धमकीं. परिवार का माहौल अच्छा नही चल रहा था. पति पत्नी के बीच तनाव था. इसका असर बच्चों पर भी पड़ रहा था. वंश कुछ कह भी नही सकता था. बचपन में बुआ की ममता और सेवा ही उसे मौत के मुंह से खींच लाई थी. आते ही बुआ ने घर पर जैसे नियंत्रण कर लिया. अपनी इच्छा से रोज़ कुछ नया पका लेती. सबको एक साथ बैठ कर खाना पड़ता. साथ में कोई पुराना किस्सा ले बैठतीं. आरंभ में यह सब बहुत उबाऊ प्रतीत होता था. किंतु धीरे धीरे फिज़ा बदलने लगी. बच्चे इस सब से खुश होने लगे. पति पत्नी भी एक दूसरे को देख मुस्कुराने लगे. और एक दिन बिट्टो बुआ जैसे आईं थीं वैसे ही अचानक चली गईं. किंतु परिवार की सारी आंखें नम थीं.

{2}

संतुष्टि

इस बाजार में महेशजी की कपड़े की दुकान प्रसिद्ध थी. पिछले तीस सालों से वह यहाँ कारोबार कर रहे हैं. उनके मृदु स्वभाव तथा ईमानदारी के कारण सभी उनकी इज़्जत करते हैं. महेशजी बहुत ही धार्मिक व्यक्ति हैं. भगवान कृष्ण के उपासक हैं. आए दिन कोई ना कोई धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन करते रहते हैं. धर्म के उत्थान में बहुत सक्रिय रहते हैं. इन दिनों शहर का माहौल कुछ ठीक नही है. आज व्यापार संघ के मुखिया चंदूलाल से भेंट हुई. चिंता व्यक्त करते हुए वो बोले "जिस तरह से ये लोग बढ़ रहे हैं धर्म की रक्षा के लिए अच्छा संकेत नही है. अब कुछ करने की आवश्यक्ता है."

"चिंता क्या करना कान्हाजी संभाल लेंगे." महेशजी ने अपने हाथ जोड़ते हुए कहा.

"बस यही तो हमारी कमज़ोरी है. हमें स्वयं ही करना होगा. श्रीकृष्ण ने भी तो धर्म की रक्षा का आदेश दिया है."

महेशजी कुछ नही बोले. दुकान के सामने पहुँच कर विदा ली और भीतर आ गए. आज काम कुछ अधिक रहा. नौकर संजय को भी किसी काम से बाहर भेजना पड़ा. शाम हो रही थी. महेशजी अपने नौकर के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह आए तो छुट्टी पाकर वह कान्हाजी के सामने दिया जला कर उन्हें माखन मिश्री का भोग लगा दें. संजय घबराया सा दुकान में दाख़िल हुआ "साबजी जल्दी से दुकान बंद करिए. शहर में दंगा हो गया है. बड़ी अफरा तफरी मची है."

"तो तुम निकलो तुम्हारे छोटे छोटे बच्चे हैं. तुम्हारा घर भी सुरक्षित जगह पर नही है." संजय एक पल ठिठका और फिर तेजी से निकल गया.

महेशजी ने कान्हाजी को प्रणाम कर माफी मांगी और तेजी से सामान समेटने लगे. बाहर आकर उन्होंने दुकान का शटर गिराया और ताला लगाने जा रहे थे कि एक स्त्री उनके कदमों के पास आकर बैठ गई. वह भय से कांप रही थी. उसका बच्चा उसके पीछे चिपका खड़ा था. "हिफ़ाज़त करें. आपको अपने रब का वास्ता." महेशजी सकपका कर पीछे हट गए. भयाकुल उसकी आंखें अनुनय कर रही थीं. उन्होंने दुकान का शटर उठाया और दोनों को दुकान के भीतर ले गए " इस समय यही सबसे महफ़ूज जगह है. बाद में जब हालात ठीक हुए तो मैं आपको आपके घर पहुँचा दूंगा." दुकान से निकलने से पहले उन्होंने कान्हाजी के माखन मिश्री का डब्बा उस बालक को थमा दिया. दुकान बंद कर वह घर की तरफ बढ़ने लगे. आज तक किए गए सारे धार्मिक अनुष्ठानों से अधिक संतुष्टि महसूस कर रहे थे.

{3}

इंटरव्यू

लॉज में चेकइन करते ही अजय इंटरव्यू में जाने के लिए तैयार होने लगा. निकलने से पहले उसने अपने सर्टिफिकेट्स की फाइल निकालने के लिए बैग खोला. इधर उधर देखा किंतु फाइल नही थी. सारा सामान निकाल दिया फिर भी नही मिली. वह सर पकड़ कर बैठ गया. लगता है कल रात ट्रेन में चादर निकालते समय बाहर निकाली होगी फिर रखना भूल गया. वह मन ही मन बड़बडाया. यह सब उस आदमी की वजह से हुआ था. उसकी बकबक से दिमाग परेशान हो गया था. कितना ढीट था बातों बातों में उसने पता कर लिया कि वह किस कंपनी में किस जगह इंटरव्यू के लिए जाने वाला है. वह इसी शहर का निवासी था.

अब क्या करे वह समझ नही पा रहा था. बिना इंटरव्यू दिए लौट जाए तो सब हंसेंगे. इतनी बार नकारे जाने के बाद अब यही एक उम्मीद बची थी. इंटरव्यू के लिए जाएगा तो उन्हें क्या स्पष्टीकरण देगा. बहुत सोंचकर उसने इंटरव्यू के लिए जाना तय किया.

एक एक कर कैंडीडेट्स अंदर जा रहे थे. अभी अभी एक युवती भीतर गई थी. अब उसकी बारी थी. वह सोंचने लगा कि किस प्रकार अपनी बात रखेगा. तभी चपरासी ने बताया कि रिसेप्शन पर कोई उससे मिलने आया है. वह जब रिसेप्शन पर पहुँचा तो देखा कि वही व्यक्ति था जो ट्रेन में मिला था. वह कुछ कहता उससे पहले ही उसने बैग से फाइल निकाल कर उसे थमा दिया. फाइल देखते ही अजय खुशी से उछल पड़ा. यह उसके सर्टिफिकेट्स थे. वह उसका शुक्रिया अदा करता तब तक उसके नाम की पुकार हुई.

"आप जाकर इटरव्यू दीजिए. आल दि बेस्ट." कह कर वह व्यक्ति चला गया.

शुक्रिया अजय के मुह में ही रह गया. मन ही मन उसे धन्यवाद देते हुए वह इंटरव्यू देने चला गया.

{4}

बुआ दादी

सावित्री बुआ ने अपनी पूजा समाप्त कर ली थी. अब वह अपनी 108 मनकों की माला लेकर बैठी थीं. इसके दो फेरे करने के बाद ही वह अन्न जल ग्रहण करेंगी. यही उनकी दैनिक दिनचर्या थी.

माला फेर लेने के बाद बुआ ने रसोई के छोटे मोटे कामों में मदद की और अपना झोला लेकर मंदिर चली गईं. उस झोले में कोई ना कोई धार्मिक ग्रंथ रहता था. मंदिर परिसर के किसी एकांत स्थान पर बैठ कर वह उसका अध्यन करती थीं. यही उनका सैर सपाटा और मनोरंजन का साधन था.

बारह वर्ष की आयु में विधवा होकर वह अपने पिता के घर आ गई थीं. संस्कारों में उन्हें यही घुट्टी पिलाई गई कि विधवा स्त्री के लिए सादगी से जीवन जीना ही उचित है. उन्होंने उसी प्रकार की जीवन शैली अपना ली. सादा भोजन, सफेद साड़ी तथा व्रत उपवास.

पिता की मृत्यु के बाद घर की बाग डोर भाई ने संभाल ली. भाभी ने सदैव उन्हें पूरा आदर दिया. अब तो भतीजे की गृहस्ती भी बस गई थी. उनके नीरस जीवन में यदि कुछ पल प्रसन्नता के आते थे तो उसका कारण था उनके भाई का पोता बिट्टू.

पांच साल का बिट्टू उनसे बहुत हिला था. वह उन्हें बुआ दादी कह कर पुकारता था. आकर उनके पास बैठ जाता और उनसे ढेर सारी बातें करता था.

मंदिर से लौट कर बुआ ने भोजन किया और आराम करने अपने कमरे में चली गईं. कुछ समय आराम करने के बाद अभी उठी ही थीं कि बिट्टू आ गया. बुआ ने उससे पूंछा "अपना होमवरक कर लिया." बिट्टू ने उन्हें सुधारते हुए कहा "होमकरक नही होमवर्क होता है." बुआ ने हंस कर कहा "वही, अभी कर लो. शाम को शादी में जाना है ना सबको."

"आज आप भी चलना मम्मी तथा दादी की तरह सजधज के." बिट्टू ने भोलेपन से कहा. उसका भोलापन उनके मन को छू गया. बुआ ने कहा कि वह कहीं नही जाती हैं.

बिट्टू अक्सर सोंचता था कि बुआ दादी कहीं आती जाती क्यों नही. वह समझ नही पाता था कि क्यों बुआ दादी सिर्फ सफेद साड़ी पहनती हैं. वह मम्मी और दादी की तरह लाल बिंदी लगाने की जगह चंदन का टीका क्यों लगाती है. आखिरकार आज उसने बुआ दादी से ही पूंछ लिया. उस बाल विधवा की दबी हुई पीड़ा को इस बच्चे ने उभार दिया. क्या बताती कि होश संभालने से पहले ही पति को खो देने के दंड में समाज ने उसे इन बेड़ियों में जकड़ रखा है. वह हल्के से मुस्कुराईं और बोलीं "धत् पगला, जाकर होमवरक कर."

{5}

छलिया

वह पगडंडी सूनी पड़ी है. अब वहाँ से कोई नही गुजरता है. बस उसकी वापसी की प्रतीक्षा रहती है. वह प्रतिदिन उसी स्थान पर आकर बैठ जाती है जहाँ अंतिम बार उसे विदा किया था. मथुरा जाते हुए उसके रथ को रोक कर नेत्र भर उसे देखा था. नेत्रों की प्यास तो नही बुझी थी किंतु वह उसे रोक भी नही पाई थी. वैसे तो उसके प्रेम को यह अधिकार था कि उसे जाने ना देती. किंतु सच्चे प्रेम की यही दुर्बलता है कि वह अधिकार नही जता पाता है. उसके कर्मपथ पर रोड़ा नही बनना चाहती थी. अतः उसे जाते हुए देखती रही तब तक जब तक कि अश्रुओं ने दृष्टि को बाधित नही कर दिया.

आज भी बैठी थी वह. उसके कान और आंखें पूरी तरह सजग थे. हल्की आहट भी यदि कान सुनते तो नेत्र उतावले हो पगडंडी पर भागने लगते. इस उम्मीद से कि शायद उसका रथ वापस आता दिखे. किंतु जल्द ही हताश होकर वापस आ जाते. वह सोंचने लगी 'कैसा निर्मोही है. एक बार पलट कर भी नही देखा. निर्मोही क्या अभिमानी है. यह भी नही समझा कि वृंदावन के कण कण का ऋणी है वह. यहाँ की कुंज लताओं, गउओं, पशु पक्षियों गोपियों सभी के निश्छल प्रेम के कारण ही तो उसकी पहचान है. हम ना होते तो कौन सुनता उसकी मुरली की तान को. गोपियां ना होतीं तो किनके साथ रचाता रास किनसे करता बरजोरी. आज हमें ही बिसरा दिया.' लेकिन फिर दिल के भाव बदल जाते. 'नही अभिमानी नही है. ऐसा होता तो क्या वन लताओं पशु मनुष्य सबसे एक जैसा प्रेम करता. घर में माखन भरा होने पर भी ग्वालों संग माखन चोरी करता. वह तो सिर्फ हमारे सुख के लिए था. प्रेम तो उसका निश्छल था तभी तो रास में सभी गोपियों के साथ सम रहता था. उसकी मुरली के स्वर तो वृंदावन के प्राण हैं. ऋणी तो यह वृंदावन है उसका.' उस निर्जन पगडंडी पर सुबह से शाम तक वह उसकी प्रतीक्षा करती थी. उसके हृदय में ऐसे ही विचार उठते और खत्म हो जाते. हर सांझ वह अगले दिन उसके लौटने की आशा ले घर लौट जाती.

{6}

सेवा

रामेश्वर आज ही गांव से लौटा था. इस बार बीए पास कर चुकी अपनी बेटी का ब्याह भी तय कर आया.

वह पिछले तीस वर्षों से पंडित दीनदयाल अग्निहोत्री की सेवा में था. अग्निहोत्री जी भारतीय धर्म और दर्शन के प्रकांड पंडित थे. उन्होंने लगभग सभी ग्रंथों का अध्ययन किया था. भारतीय धर्म और दर्शन पर आख्यान देने के लिए उन्हें देश व विदेश से निमंत्रण आते थे. कई पत्र पत्रिकाओं में उनके लेख छपते थे. इसके अतरिक्त वह एक विशाल पैतृक संपत्ति के स्वामी थे.

रामेश्वर पूरे मन से उनकी सेवा करता था. समय असमय जो भी आदेश मिलता बिना किसी शिकायत के उसका पालन करता. पंडितजी के प्रति उसमें बहुत श्रृद्धा थी. यही कारण था कि कभी उसने कोई तय पारिश्रमिक की मांग नही की. पंडितजी जो दे देते चुपचाप ले लेता था.

शाम के समय पंडित जी अपने कक्ष में बैठे कुछ लिख रहे थे. रामेश्वर ने कक्ष में प्रवेश किया. उन्हें प्रणाम कर बोला "इस बार बिटिया का विवाह तय कर दिया. आप तो ज्ञानी हैं. समझते हैं कि कितने खर्चे होते हैं. यदि आप ...."

उसकी बात बीच में ही काट कर पंडितजी बोले "देखो रामेश्वर मेरा तुम्हारी तरफ कोई हिसाब बाकी नही. हाँ यदि तुम कहो तो कुछ ॠण दिला सकता हूँ." यह कह कर वह फिर लिखने लगे.

रामेश्वर बिना बोले बाहर आ गया. उसने मन को समझाया कि उसकी सेवा का शायद इतना ही फल था.

{7}

तांक-झाँक

उसे दो साल हो गए थे सोसाइटी में आए किंतु कोई भी उसके बारे में कुछ नही जानता था. सिवाय उसके नाम 'अविनाश' के जो उसके फ्लैट के बंद दरवाजे पर लगी पट्टी पर लिखा था. सभी उसके बारे में जानने को उत्सुक थे. उसके जीवन के रहस्य को बाहर लाना चाहते थे. लेकिन वह सभी की पहुँच से बाहर था. अब तो लगता था कि सोसाइटी वालों के लिए उसके अलावा कोई अन्य जिज्ञासा नही बची थी.

आज सोसाइटी की मीटिंग थी. वह कभी भी मीटिंग में नही आता था. लेकिम आज उसे वहाँ देख कर सब हैरान थे. मीटिंग सम्प्त होने के बाद वह सेक्रेटरी के पास गया और बोलने की इजाजत मांगी. हाथ जोड़ कर उसने सबको नमस्कार किया और फिर बोलना शुरू किया "आप सभी के लिए मैं अनबूझी पहेली हूँ. सभी जानना चाहते हैं कि मेरे फ्लैट के बंद दरवाजे के पीछे मैंने क्या राज़ छिपा रखा है. कोई गहरा राज़ नही है. बात बस इतनी है कि मुझे मेरी निजता बहुत प्यारी है. अनावश्यक ना मैं किसी के जीवन में दखल देता हूँ ना ही अपने जीवन में किसी का दखल पसंद करता हूँ. प्रकृति ने मुझे ऐसा ही बनाया है. अतः आप लोग जिज्ञासा का कोई और कारण ढूंढ लें."

सभी चुपचाप सर झुकाए थे.

{8}

एहसास

सभी कह रहे थे कि नीरज बहुत भाग्यशाली है. वरना इतने बड़े हादसे के बाद उसका बच जाना और अपने पैरों खड़ा हो पाना किसी चमत्कार से कम नही था.

यह संभव हो पाया था उसकी पत्नी विभा के प्रेम और अथक सेवा के कारण. वही विभा जिसे नीरज ने कभी प्रेम और सम्मान नही दिया.

नीरज को अपने पिता के दबाव में आकर विभा से विवाह करना पड़ा था.

अभी तो उसने नौकरी आरंभ की थी. कुछ दिन वह स्वतंत्र रहना चाहता था

जीवन को अपने हिसाब से जीना चाहता था. दरअसल वह अपनी पसंद की लड़की से ब्याह करना चाहता था. अतः विवाह के बाद विभा उसे पैर में बंधी जंजीर सी लगती थी. इसलिए उसने स्व़यं को उस जंजीर से मुक्त कर लिया. विभा को कभी पत्नी के तौर पर नही अपनाया.

उसकी दुनिया घर के बाहर थी. देर रात तक वह दोस्तों के साथ पार्टी करता रहता था. अक्सर शराब के नशे में धुत घर आता था. वह दूसरी औरतों में अपना प्यार तलाशने लगा था.

विभा सब चुपचाप सह रही थी. वह कमज़ोर नही थी सिर्फ अपनी शादी को एक मौका देना चाहती थी. उसे यकीन था कि एक दिन अपने भटके हुए पति को सही राह पर ले आएगी.

एक दिन जब नीरज देर रात एक पार्टी से लौट रहा था तब नशे में होने के कारण कार पर काबू नही रख पाया. उसकी कार दूसरी कार से टकरा गई.

कई दिनों के बाद जब नीरज को होश आया तो उसने विभा को अपने सिरहाने पाया. विभा मन प्राण से उसकी सेवा करती थी. धीरे धीरे उसका मन बदलने लगा. विभा का धैर्य और साहस देख कर उसके मन में उसके प्रति आदर पैदा होने लगा. अब अक्सर वह पछताता था कि वह इस हीरे की उपेक्षा कर काँच के टुकड़ों की चमक से चकाचौंध था. लेकिन यह समझने में उसे बहुत देर लगी थी.

आज उसे अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली थी. विभा उसी की तैयारी कर रही थी. नीरज ने उसे अपने पास बुलाया और उसका हाथ थाम कर बोला "आज मैं तुमसे सच्चे दिल से क्षमा मांगता हूँ. मैंने तुम्हारा बहुत तिरस्कार किया है. मैं मूर्ख तो यह भी नही समझ पाया कि जिसकी मुझे तलाश थी वह तो मेरे ही पास थी." यह कह कर उसने अपने हाथ जोड़ लिए.

विभा ने उन्हें थाम कर चूम लिया.

{9}

आक्रोश

मैं पुलिस स्टेशन में बैठा था. वह भी मेरे सामने खड़ा अपना बयान दे रहा था. अपनी आंखों के सामने उसे देख मेरा रोम रोम जल रहा था.

आज की शाम कितनी खुशनुमा थी. मेरा बेटा अपने प्रमोशन की खुशी में मुझे डिनर पर ले गया था.

आज हम दोनों की मेहनत रंग लाई थी. उसने इस तरक्की के लिए रात दिन एक कर दिया था. बचपन से ही वह होनहार था. जीवन को लेकर उसका अपना एक सपना था. आगे बढ़ने का, समाज में अपना मुकाम बनाने का. एक हेड क्लर्क के रूप में मेरी तन्ख्वाह कम थी. लेकिन उसके सपने पूरा करना ही मेरी जिंदगी का लक्ष्य बन गया. उसकी माँ बीच सफर में ही चल बसी. माँ बाप दोनों की ज़िम्मेदारियां निभाईं मैने. आज उस तपस्या का फल मिला था.

हम दोनों घर लौट रहे थे कि मेरे बेटे ने कहा कि आज हम दोनों मीठा पान खाकर इस शाम को पूरा करेंगे. मुझे कार में बैठा छोड़ कर वह पान लेने सड़क के पार चला गया.

मैं कार में बैठा उसे देख रहा था. तभी अचानक जोर का धमाका हुआ. एक तेज रफ्तार कार मेरे बेटे को उड़ा कर चली गई. कुछ पलों के लिए मैं सन्न रह गया. फिर कार से निकल कर अपने बेटे की तरफ भागा. वहाँ पहुँच कर उसका सर गोद में लिया. किंतु सब कुछ खत्म हो गया था.

जिस कार ने टक्कर मारी उसे एक रईसजादा चला रहा था. वह नशे में था. कुछ ही मीटर जाकर कार पेड़ से टकरा गई. उसे मामूली चोटें आईं. लोगों ने उसे पुलिस को सौंप दिया.

मेरी दुनिया तबाह करने वाला मेरे सामने था. मेरे भीतर द्वंद चल रहा था. जी चाह रहा था कि अभी उसको चीर डालूं. लेकिन चाह कर भी हैवान नही बन पा रहा था.

{10}

छलावा

स्नेहा अपना चयन हो जाने के कारण बहुत प्रसन्न थी. अब वह शोभना जी की स्वयंसेवी संस्था के लिए काम करेगी. शोभना जी उसका आदर्श थीं. वह उनके विचारों से बहुत प्रभावित थी. उन्हीं के कारण उसने सोशल वर्क में मास्टर किया था.

स्नेहा का काम उन संभावित लोगों से संपर्क करना था जो उनकी संस्था को दान दे सकते थे. संस्था मुख्यतया बच्चों तथा महिलाओं के अधिकारों के लिए काम करती थी. स्नेहा लोगों से मिल कर उन्हें इस कार्य में सहयोग देने के लिए प्रेरित करती थी.

एक बार किसी काम के सिलसिले में स्नेहा को शोभना जी के घर जाना पड़ा. वह बैठक में बैठी उनका इंतजार कर रही थी. वहाँ की सुरुचिपूर्ण सजावट देख कर वह बहुत प्रभावित थी. तभी बारह तेरह वर्ष की एक लड़की ट्रे में पानी लेकर आई. उसे देख स्नेहा को आश्चर्य हुआ. शोभना जी जैसी समाज सेविका के घर यह बच्ची काम कैसे कर सकती है. पानी पीकर उसने पूंछा "क्या तुम यहाँ काम करती हो."

बच्ची ने धीरे से हाँ कहा और गिलास लेकर जाने लगी. किंतु जाने कैसे उसका संतुलन बिगड़ गया और वह लड़खड़ा कर गिर गई. काँच का गिलास टूट गया. ठीक उसी समय शोभना जी ने बैठक में प्रवेश किया. बजाय उसे सांत्वना देने के वह उसे डांटने लगीं. स्नेहा दंग रह गई. एक पल में जो सच था वह छलावा बन गया था.