Khawabo ke pairhan - 2 in Hindi Fiction Stories by Santosh Srivastav books and stories PDF | ख्वाबो के पैरहन - 2

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ख्वाबो के पैरहन - 2

ख्वाबो के पैरहन

पार्ट - 2

उदास ताहिरा अँधेरे में भी पेड़ के नीचे बैठी रही| बीच-बीच में आँखें भर आतीं| फैयाज़ का मुस्कुराता चेहरा आँखों के समक्ष डोल जाता| उसने कभी भी फैयाज़ को निराश नहीं देखा था| जब भी फैयाज़ से मिली थी यही पाया था कि फैयाज़ में गहरी महत्वाकांक्षा है| बावजूद सारी ज़िम्मेदारियों के वह घबराया नहीं है| वह कहता था बहन की जिम्मेदारी पूरी करने के बाद शादी करेगा, और एक सुंदर गृहस्थी की कल्पना से ताहिरा आँखें मूँद लेती थी| हमउम्र युवकों से फैयाज़ एकदम अलग था| हाँ, उसने फैयाज़ को असाधारण ही समझा था| भावनाओं की अनुभूति है उसमें, मुहब्बत उसके लिए खुदा की इबादत है| ताहिरा फिर फफक पड़ी| अब जबकि इस रिश्ते को कोई स्वीकारना तो दूर सुनेगा भी नहीं.....क्या जवाब देगी फैयाज़ को.....? कि उसकी ताहिरा झूठी थी.....बेवफा थी, कि मुहब्बत को सोने की तराजू में तोल दिया| ढेर-ढेर सूखे पत्ते झरकर उसके घने रेशमी बालों में अटक गए थे, ज़िंदगी पतझड़ के मौसम के समान दिखाई देने लगी| दो सौतनें और एक बूढ़ा पति.....और औलाद के लिए हलाल की जाती वह.....| उसे महसूस हुआ मानो गर्दन पर धीमे-धीमे छुरी चलाकर कोई हलाल कर रहा है| चारों तरफ रक्त फैल रहा है वह चीख पड़ने को हुई ही कि भीतर से अम्मी की आवाज़ सुनाई दी, “अरी ताहिरा.....कब तक बाहर अँधेरे में बैठी रोती रहेगी अपने फूटे नसीब को.....चल अंदर आ, दिया बाती हो चुकी है|”

“यूँ न कहो भाभी,” रन्नी बी चहकीं, “लौंडिया को गर्त में डालने तो हम जा नहीं रहे हैं| अरे फूटे नसीब उसके दुश्मनों के, वह तो राजरानी की तरह सोने के झूले पर झूलेगी|”

“हुंह” भाभी ने मुँह बनाया|

ताहिरा अंदर आई और एक लोटा पानी लेकर बाहर निकल गई| मुँह पर पानी के छींटे मारे, तब भी आँखों में जलन होती रही| चुनरी से मुँह पोंछा और चौके में घुस गई| देखा कि सभी बच्चे प्लेट में चाय डाले लाइन से बैठे थे और हाथ में ज्वार की रोटियाँ थीं| तोड़-तोड़ कर, चाय में डुबाकर वे रोटियाँ खा रहे थे| रोटी का चूरा नीचे गिर रहा था| फूफी ने उसकी तरफ एक प्याला चाय सरका दी| ताहिरा चुपचाप चाय पीती रही| तामचीनी के प्लेट-कप की परत उधड़ गई थी| अंदर से एल्यूमीनियम झाँक रहा था| बच्चे हँसते खिलखिलाते चाय और रोटी खा रहे थे|

“कैसी मातमी सूरत बनाए बैठी है| मानो हम इसे आग में झौंके दे रहे हैं|” चाय सुड़कती जमीला ने कहा और चौके से बाहर निकल गई|

जितनी देर ताहिरा बाहर अकेली बैठी थी उतनी देर में ही फूफी का लड़के वाले के घर जाने का प्रोग्राम बन चुका था| उसने सुना, फूफी कह रही थीं- “तो भाईजान, हम सुबह की ही बस से निकले जाते हैं, परसों शाम की वापिसी हो जाएगी|” किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया| रन्नी बी तखत पर लेट गईं| भाईजान ने तहमत पर कमीज़ चढ़ाई, पैरों में चप्पलें डालीं और फटर-फटर करते हुए सड़क पर निकल गये|

भाभीजान को गैस का जो दौरा पड़ा तो हाय-हाय करने लगीं| जम्हाई पर जम्हाई उन्हें आ रही थी और पेट फूलता जा रहा था| रन्नी बी उठ बैठीं और ताहिरा से चूल्हे पर तवा गरम करके लाने को कहा|

“हाय! मुझे मौत क्यों नहीं आ जाती, ऐ मेरे परवर दिगार! ऐसी ज़िंदगी से तो मौत भली|” हमेशा की तरह भाभी खुदा से मौत माँग रही थीं और छटपटा रही थीं|

“अब, दीया-बाती के समय ऐसे शब्द न बोलो भाभी, जब खुदा ने रहमत का हाथ उठाया है तो मरें तुम्हारे दुश्मन” रन्नी बी बोलीं|

“अरे क्या ख़ाक रहमत, फूल जैसी बच्ची को बूढ़े के गले बाँध दो, चाँदी के सिक्के बटोर लो, इसमें खुदा की क्या रहमत|” भाभी जान के गालों पर आँसुओं की धार बहने लगी| तभी ताहिरा चिमटे से पकड़कर गरम तवा ले आई| रन्नी बी ने दो फटी बनियान लीं और उनको तहकर, तवे पर रख गर्म कर, भाभी जान का पेट सेंकने लगीं| पाँच मिनिट बाद भाभी जान के चेहरे पर राहत नज़र आई तभी ताहिरा हींग का एक टुकड़ा अम्मी के मुँह में रख गई| उन्होंने आँसू पोंछ लिए और बड़ी बेचारगी से रन्नी बी की तरफ देखा| मानो आँखें कह रही थीं कि इस औरत को ज़िंदगी में क्या मिला? फिर भी इस घर पर जान देने पर भी कभी मलाल न करेगी| उन्होंने आँखें मूँद लीं|

रात दस बजे खाना बना| चौका धुएँ से भर गया था| दोनों बहुएँ बड़बड़ा रही थीं कि गीली लकड़ियाँ कैसे जले? उधर नूरा भूख से व्याकुल चीख रहा था कि लकड़ियाँ गीली कैसे हुईं? सभी ने ज्वार की रोटियाँ, भाजी, प्याज़ और हरी मिर्च के साथ खाईं, बच्चे तो शाम को ही चाय के साथ रोटी खा चुके थे और सो रहे थे| ताहिरा गुमसुम-सी छोटे-छोटे कौर तोड़ रही थी और मुँह में रख रही थी| फूफी ने जब उसे टहोका दिया तो वह खाने लगी|

“अरी ताहिरा ऊँघ रही है क्या? खाती क्यों नहीं?”

भाईजान सुबह की बस पर रन्नी को बिठा आए| इस सारे नाटक में वे ख़ामोश थे और चाह रहे थे कि सारा फ़ैसला रन्नी के द्वारा ही हो ले| उनसे कितनी छोटी थीं रन्नी लेकिन उसके फैसले के आगे भाई जान क्या, सभी ख़ामोश हो जाते थे| भाभी भी ना नुकुर करके अंततः उन्हीं का फैसला मानती थीं| इसमें रन्नी का क्या स्वार्थ था? भाईजान सोच रहे थे| इस घर के बच्चे उसके बच्चे थे| इस घर से अलग रन्नी का अस्तित्व ही कहाँ था? जितना वह कमाती थी सब इसी घर पर ख़र्च करती रही| नूरा और शकूरा के ब्याह पर रन्नी ने ही चाँदी के ज़ेवरों का सेट दिया था| तब वे कितने हैरान हो गए थे| दोनों की शादी पर दुल्हनों के लिए साटन के जोड़े भी उन्हीं के बनाए थे और सारी-सारी रात जागकर तिल्ले, मुकेश की बारीक कशीदाकारी की थी| भाईजान को याद आया कि रन्नी की शादी पर क्या आया था ससुराल से? एक मुचा-गुमचा सा नकली रेशम का जोड़ा, शायद पहली औरत का होगा, क्योंकि उसके किनारे उधड़े और तिल्ले-गोटे, टूटे-फटे थे| हाथ के चाँदी के कड़े जिनकी पॉलिश भी फीकी पड़ चुकी थी| कैसे अब्बू ने किसी की न सुनी थी और एक दुहिजवें, फटे हाल घर में अपनी इकलौती बेटी सौंप दी थी| तब रन्नी कचनार की कली की तरह मासूम और खूबसूरत थी| चंपा जैसा रंग, घने रेशमी बाल, औसत कद.....और जब दो साल बाद वह इस घर में वापिस आई तो.....| आँखें भर आईं भाई जान की| उन्हीं पर गई है ताहिरा.....बस कद थोड़ा-सा ऊँचा है|

“क्या सोचने लगे?” ताहिरा की अम्मी ने पान का बीड़ा उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा|कुछ

“कुछ भी तो नहीं, जो करना है रन्नी ही करेगी,” इतना बोलकर वे फिर बाहर निकल गए| मानो किसी से आँख मिलाने से अपने आप को असमर्थ पा रहे हों| सच ही तो है, यह गृहस्थी उन्हीं की है, यह बगिया उन्हीं ने तो संवारी है और आज अपनी बगिया के सबसे कोमल फूल को वे पतझड़ के हाथों सौंपने जा रहे हैं| भले ही वे सबके समक्ष चुप हैं, लेकिन मन में कहीं यह लालसा भी है कि ताहिरा वहीँ ब्याही जाए| क्या वे कभी अपने पुरुषार्थ के चलते ताहिरा का हाथ किसी अन्य जगह दे पायेंगे? फिर आश्वासन भी तो ऐसा आया कि ताहिरा उस घर में जाएगी तो नूरा-शकूरा का व्यापार बढ़िया हो जाएगा| उनके दो जवान बेटे भी तो घर में कोई खुशहाली न ला सके| बस, वही दादा के ज़माने से चला आ रहा धंधा कर रहे हैं| दादा के समय से ही घर में खिलौने बनने लगे| उससे पहले तो उन्हें खिलौने लाकर दिये जाते थे और दादा जी ही खिलौनों को अन्य व्यापारियों को देते थे| न बाज़ार का झंझट न हाट-बाज़ार में ले जाकर बेचने का| सब काम आसान था| न जाने कब स्थिति बिगड़ने लगी थी और फिर शुरू हुआ था घर में ही खिलौने बनाने का सिलसिला| .....उन्हें आशा थी कि रन्नी निश्चय ही कोई उचित समझौता करके लौटेगी| बीच-बीच में वे निर्लिप्त से हो जाते पर कहीं बेचैनी भी थी| चौबीस घंटे.....फिर फैसले की घड़ी.....| फूल जैसी बच्ची को साँझ के हवाले करना और अपने घर में सूर्योदय की किरण का झाँकना.....सिर्फ चौबीस घंटों में|

सभी धड़कते हृदय से फूफी के लौटने का इंतज़ार कर रहे थे| नूरा और शकूरा तो हर आहट पर चौंक पड़ते थे| अलबत्ता अम्मी तख़त पर लेटी अपनी बच्ची के लिए सोच रही थीं|

सत्रह बरस की ताहिरा.....| बिल्कुल यही उमर थी उनकी जब अब्बू ने उनकी शादी तय की थी और पलक झपकते वे इस घर में थीं| न सोचने का मौका मिला न समझने का| हाथों की मेंहदी फीकी भी नहीं पड़ी थी तभी से खिलौनों की मिट्टी सान रही हैं| तब सास-ससुर और रन्नी बी ही थे घर में| सास उनसे असंतुष्ट ही रहती थीं| सास का मानना था कि यदि घर में बहू के मुबारक कदम पड़ें, तो घर की काया-पलट हो जाती है| यहाँ तो वही ढाक के तीन पात.....| वही ग़रीबी| सुबह पाँच बजे से उनकी दिनचर्या शुरू हो जाती थी और रात दस बजे जब वे बिस्तर पर जातीं थीं तब भी सास झुँझलाती थीं- ‘मैं तो सोच रही थी कि अब मेरे घुटनों की मालिश करने आएगी, अभी से घुस गई कमरे में, लानत है ऐसी जवानी को.....|’ उन्हें अपने दिन याद आये, जब वे सास के पैर दबाकर और उनसे इजाज़त लेकर ही अपने कमरे में जाती थीं| लेकिन वे यह भूल जाती थीं कि उन्हें तब इतने काम नहीं करने पड़ते थे| घरेलू कामों को लगभग उन्होंने तिलांजलि ही दे दी थी.....| वे स्वतंत्रता की लड़ाई के दिन थे.....| तब भी रन्नी बी बातों को सम्हालती थीं- ‘लाओ अम्मी, हम मल देते हैं तुम्हारे घुटनों को, क्या भाभी को आराम नहीं चाहिए|’

अम्मी झटक देती थीं रन्नी का हाथ- ‘जा अपनी सास के गोड़-घुटने मलियो.....मुझे दोज़ख में न भेज.....अब अपनी लड़की से घुटने मलवाऊँगी|’

बड़बड़ाहट सुनकर वे बिस्तर से उठने लगतीं तभी पति पकड़कर खींच लेते ‘अब थक कर मरना है क्या, सुबह से तो खट रही हो|’

पति का उस समय का चेहरा याद करके वे आँखें बंद कर लेती हैं| कपड़ों से आती मिट्टी की सौंधी गंध में वे दोनों डूब जाते| सास की बड़बड़ाहट, कमरतोड़ काम और ग़रीबी में वे इसी पुरुष के सहारे ही तो जी सकी हैं, जो उन्हें बेइंतहा चाहता है|

शादी के पहले ही साल नूरा हुआ| दो बरस बाद शकूरा और फिर आठ-नौ बरस बाद ताहिरा| रन्नी बी कहती थीं- ‘है तो पेट की पोंछन.....पर इतनी सुन्दर.....राजरानी बनेगी|’ और सच ही उसे राजरानी बनाने ही गई हैं रन्नी बी|

शाम ढल रही थी| शकूरा फूफी की राह ताकता घर से निकल चुका था और ताहिरा पेड़ के नीचे झड़ते पत्तों के बीच बैठी थी| अभी दो दिन पहले तक ताहिरा बच्चों के साथ निकल जाती थी और चिलबिल के चिरौंजी भरे दानों वाली पत्तियाँ चुनरी भर बटोर लाती थी| फिर सभी बच्चों के बीच बैठकर पत्तों को चुरमुराकर चिरौंजी जैसे दाने निकालती और गिनकर पाँच-पाँच चिरौंजी बच्चों के सामने रखती जाती| फिर पाँच अब्बू के लिए एक डिब्बी में, पाँच अम्मी के लिए, पाँच फूफी के लिए| बच्चे खुश थे| डिब्बियाँ भी भर जाती थीं| दो दिनों में ही ताहिरा के चेहरे पर अवसाद की छाया देखी जा सकती थी| चेहरा मुरझा गया था| आँचल चिलबिल की पत्तियों से भर गया था| परन्तु किसी ने चिरौंजी निकालने को पत्तियाँ नहीं बटोरी थीं|

दूर, फूफी के साथ शकूरा रिक्शा में आता दिखा तो सभी चौंक पड़े| एक बड़ा ट्रंक रिक्शा में रखा था, एक बड़ा बैग फूफी के कंधे पर लटक रहा था|

“तो रिश्ता तय कर ही आई रन्नी बी,” अम्मी बड़बड़ा उठीं, नूरा भागकर बाहर गया और फूफी के कंधे से बैग उतारकर ले आया| दोनों बहुएँ तखत के पास आकर बैठ गईं| अम्मी पान लगाने लगीं| सभी के हृदय उछल रहे थे| बच्चे खेलने गये थे| भाईजान फूफी के प्रवेश करते ही उठकर तखत पर बैठ गये| फूफी ने मुस्कुराकर सबकी तरफ देखा, और चेहरे का पसीना पोंछने लगीं|

“तो, कर आईं रन्नी बी तुम बूढ़े दामाद का फैसला?” अम्मी ने कहा|

तभी जमीला ने पानी का गिलास फूफी के आगे बढ़ा दिया| फूफी एक साँस में पानी पी गईं, कहा- “अब ऐसा न कहो भाभी, जब रिश्ता कर ही आए तो बूढ़ा-बूढ़ा न कहो|”

अम्मी ने पान का बीड़ा भाईजान की तरफ बढ़ाया, एक रन्नी बी की तरफ और फिर अपने मुँह के अंदर बीड़ा ठेल दिया|

फूफी ने बीड़ा मुँह में रखा| नूरा, शकूरा और दोनों बहुएँ बेसब्री से फूफी की ओर देख रहे थे| ट्रंक और बैग में क्या है इसकी भी उत्सुकता थी| फूफी ने अपने कुर्ते के अंदर हाथ डाला| कपड़े की थैली निकाली, धागा खींचा और चाभी निकाली| ट्रंक खुला और उनकी आँखें ताहिरा को ढूँढने लगीं|

“अरे, बिटिया कहाँ है?”

“बाहर बैठी है, उदास” अम्मी ने कहा|

“अब लो, और सुनो.....उदासी की क्या बात?” ज़ोर से उन्होंने आवाज़ दी, “ताहिरा!.....ओ ताहिरा.....| अब तो आए हैं उसके दिन हीरे-मोती में खेलने के और तुम कहती हो भाभी कि उदास बैठी है|” एक बड़ा-सा पैकेट उन्होंने ट्रंक से बाहर निकाला| “यह दुल्हन के लिये भेजा है गुलनार बेगम ने|”

“यह गुलनार बेगम कौन है?” अम्मी ने पूछा|

“शाहजी की बड़ी आपा हैं| समझो, इन्हीं ने पाला-पोसा है शाहजी को| क़रीब १७ वर्ष बड़ी हैं शाहजी से| छोटी-सी उम्र में विधवा होकर वापिस अपने वालिद के पास चली आईं| अपनी अम्मी की मृत्यु के बाद इन्होंने न केवल घर सँभाला बल्कि अपने वालिद का सारा व्यापार, हवेली, रिश्तेदार, नौकर-चाकर सभी सँभाले| शाहजी के वालिद तो अपनी बीवी की अचानक मौत से समझो अर्धविक्षिप्त से हो गये थे न औलाद का होश.....न ही व्यापार का| इन गुलनार बेगम ने दूर देशों में फैला व्यापार ऐसा सँभाला कि सबने दाँतों तले उँगली दबा ली| फिर शाहजी उन्हीं की गोद में पले-बढ़े| अपनी आपा पर न्यौछावर| उन्हें शौक है तो बस चाँद-सितारों का| बड़ी-सी दूरबीन छत पर लगी है, उसी में डूबे रहते हैं| यूँ कारोबार भी देखते रहे, लेकिन जबसे शहनाज़ बेगम आईं तो इतनी होशियार कि गुलनार आपा ने कारोबार उन्हें समझा दिया| वैसे गुलनार आपा और शहनाज़ बेगम का हुक्म चलता है वहाँ| शाहजी तो इतने सीधे हैं कि न कुछ माँगते हैं, न चाहते हैं|”

“तो सौतन की चलेगी वहाँ, है न?” अम्मी ने कहा|

फूफी ने आँखें तरेरी, मानो कह रही हों कि रिश्ता हो जाने के बाद अब यह ओछी बातें क्यों? फूफी ने पैकेट खोला| कीमख़ाब का जोड़ा झाँका.....बहुओं की आँखें फटी की फटी रह गईं| खूबसूरत फालसाई रंग का कीमख़ाब का जोड़ा.....| एक रानी कलर का रेशम का जोड़ा तथा तीन दुबई की साटन के जोड़े|

“पाँच सूट, इतने खूबसूरत” जमीला बुदबुदाई, “अरे! अभी तो देखती चलो, अरब, दुबई और नैरोबी के कपड़े हैं,” एक सेट सोने का, एक चाँदी का, एक कुंदन का तथा एक मोती का सेट और हीरे के कंगन, जब फूफी ने तखत पर फैलाए तो सबके दिल की धड़कन रुक गई| एक बारगी तो अम्मी भी हैरान रह गईं| इतने ऐश्वर्य की कल्पना तो किसी ने न की थी| भाईजान अभी भी निर्लिप्त बने तखत पर बैठे थे और ताहिरा सिर झुकाए सभी चीज़ों से बेखबर अपने पैरों के नख से गोबर लिपा फ़र्श कुरेद रही थी| अभी बैग खुलना बाकी था| ट्रंक में और भी पैकेट थे, परन्तु फूफी ने ट्रंक का ढक्कन बंद कर दिया और बताने लगीं, “वे लोग खानदानी रईस हैं भाईजान, उनके पुरखों का कारोबार दुबई, अरब और अफ्रीका में होता है| उनकी अमीरी का जो आलम है उसका बयाँ मैं नहीं कर सकती, शाहजी का नाम शेख असलम है, उन्हें सब शाहजी ही कहते हैं| वे ही उस शानदार हवेली और व्यापार के अकेले वारिस हैं| उम्र तो उनकी पचास के आसपास है पर पैंतीस-छत्तीस से ज़्यादा के नहीं दिखते|”

“भई, अमीरों से तो उम्र भी ख़ौफ़ खाती है,” जमीला ने कहा|

“और रन्नी बी, दोनों बड़ी बीबियाँ?” अब तक एमी इस रिश्ते के लिये अपने को तैयार कर चुकी थीं तभी तो उनकी आवाज़ अब संयत थी|

“अरे कुछ न पूछो भाभी, बड़ी तो समझो शाहजी की उम्र की है, दो बरस छोटी होगी| वह तो कह रही थी कि ताहिरा की इस घर में बड़ी इज्ज़त होगी, आप फ़िकर न करें| हमें तो बस घर का एक चराग़ चाहिए| घर भी ऐसा भाईजान.....एकदम किले जैसा|”

“किले जैसा?” सादिया हैरत से चीख पड़ी थीं|

“हाँ रानी, क़िले जैसा,” अब फूफी आलथी-पालथी मारकर तखत पर बैठ गईं|

“लाओ भाभी, एक बीड़ा और दो|” भाभी ने पान लगाया और फिर से फूफी और भाईजान की तरफ बीड़ा बढ़ाया| एक बीड़ा उन्होंने स्वयं खाया| फूफी पान चबाने लगीं, उत्तेजना से उनसे बोला नहीं जा रहा था| पीक के कुछ छींटे उनके कुर्ते पर आए, कुछ उनके गोरे-मुखड़े पर छिटक गए और कुछ होंठों के किनारों पर आकर ठहर गए| उन्होंने चुन्नी के छोर से मुँह साफ किया और फिर बताने लगीं- “जब मैं फाटक से हवेली के अंदर गई तो हैरान रह गई| मुझसे दस गुना बड़ा तो लोहे का फाटक था| दरबान खड़े थे बंदूक लिए| दरबान ने छोटी-सी कोठरी में जाकर फोन किया, मेरे आने की इत्तला दी| फिर बड़े अदब से मुझे अंदर ले जाया गया| घर की बैठक मानो.....किसी बादशाह का दरबार.....| एक बड़ा हॉल, लाखों का झूमर, सलाखें, मोतियों के पर्दे, भूसा भरे शेर, चीते, हिरन के शरीर टंगे थे| काले शीशम से बना फर्नीचर, फ़र्श पर ईरानी कालीन, सब तरफ शानो-शौकत का नज़ारा| झीने पर्दे के पीछे बैठी थीं गुलनार आपा, उनके बाजू में शहनाज़ बेगम.....दो दासियाँ दोनों ओर खड़ी थीं| मुझे बिठाया| पहले तो पानी के साथ दो गुलाब-जामुन दिये खाने को, फिर तिपाई पर लाकर शर्बत, ढेरों मिठाईयाँ, नमकीन, फल और काजू-पिस्ते, बादाम दिये| शहनाज़ बेगम नक्काशीदार चाँदी के पानदान से पान लगाती रहीं,” फिर जैसे रन्नी बी को कुछ याद आया उन्होंने ट्रंक खोला और एक चाँदी का पानदान निकालकर भाभी की ओर बढ़ाया, “यह खासतौर से तुम्हारे लिये भेजा है गुलनार बेगम ने,” फूफी की कहानी पर विराम आ गया क्योंकि उन्होंने देखा कि सभी की नज़रें उस ट्रंक पर हैं जिसमें अभी भी कुछ पैकेट हैं| सभी उस तिलिस्म के खुलने का इंतज़ार कर रहे थे| उन्होंने एक रेशम का गुलाबी सूट भाभी की ओर फेंका|

“हाँ! भाभी मैंने कह दिया कि मेरी भाभी जान खूब सुंदर हैं,” तो उन्होंने कहा कि तब तो यह गुलाबी सूट खूब फबेगा उन पर| भाभी शरमा गईं, आँखों की कोरों से भाईजान की ओर देखा, भाईजान की आँखें खपरों की टूटी-फूटी छत की ओर थीं| भाभी पुनः फूफी की ओर देखने लगीं| उन्होंने एक नोटों की गड्डी निकाली और भाईजान की ओर बढ़ा दी- “पूरे पचास हज़ार हैं, इसी में निकाह होगा ताहिरा का|” सब चुप खड़े थे, नूरा सोच रहा था कि उन लोगों ने इतने रुपये आज तक नहीं देखे| फूफी ने बहुओं के लिए रेशम के सूट, पैरों की पायलें, नूरा-शकूरा के लिए सूट और भाईजान के लिए रेशम का कुर्ता-पाजामा निकाले| भाभी, भाईजान के लिए एक-एक अँगूठी, बच्चों के लिए कपड़े, ढेरों मिठाईयाँ, मेवे| पूरा कमरा सौगात से भर गया था|

“और तुम्हारे लिये रन्नी बी,” भाभी ने पूछा| फूफी ने कोसे का एक क्रीम कलर का सलवार-सूट निकाला और फिर शांत हो गईं, “यह मेरे लिए है|”

“तो, रन्नी तुम ‘हाँ’ कर आईं?” भाईजान ने इतनी देर बाद मौन तोड़ा|

“लो, और सुनो भाईजान की बात.....इतना माल असबाब ‘हाँ’ के बाद ही तो देवेंगे न वे| खुदा छप्परफाड़ के दे और हम ना कर दे|”

सभी ने सिर हिलाया, पुनः फूफी बोलीं- “तो मुख़्तसर बात यह है भाईजान कि यह तीसरी शादी औलाद की ख़ातिर है| शाहजी बड़े शरीफ इंसान हैं| नज़रें उठाकर बातें नहीं कीं| सब बातचीत गुलनार बेगम ने ही की| वे तो सिंहासन जैसे सोफे पर बैठे अपनी हीरे, मोती, पन्ने की अँगूठियों से खेलते रहे| बाल तो ज़रूर खिचड़ी हैं, लेकिन एकदम सफेद नहीं| अब भला पचास की उमर भी क्या उमर होती है! और फिर मर्द की उमर.....भला कौन देखता है? अमीरी की काया है| उठें तो नौकर आगे बढ़कर जूते सामने कर दें, तब पहनें|”

“हाँ! भई, बस आख़िरी बात” उन्होंने उठते हुए कहा, “इस निक़ाह के बाद इस घर में ग़रीबी नहीं रह जाएगी यह वादा किया है गुलनार बेगम ने और भाभी मैंने तो कह दिया कि ताहिरा मेरी बेटी है मैं उसके साथ यहाँ आकर रहूँगी ताकि वह घबराए नहीं इस माहौल से|”

“आखिर भाभी, हमारी और उनकी औकात में ज़मीन-आसमान का फ़र्क तो है ही न!”

“यह तुमने अच्छा किया रन्नी बी, वरना हमारी फूल जैसी बच्ची उस हवेली में घबरा जाती|” अब फूफी थक चुकी थीं, वे तखत पर लेट गईं और कुछ ही मिनटों में गहरी नींद में सो गईं| अम्मी ने गहने और कपड़े ट्रंक में रखे, उसी में रुपये रखे और ताला बंद करके अपनी छोटी कोठरी में रख दिया|

दूसरे दिन से घर में ब्याह की तैयारियाँ होने लगीं, सर्वप्रथम कौन-सा मंगल कार्यालय बुक होगा इस पर नूरा-शकूरा में विवाद उठ खड़ा हुआ| भाई जान ने कहा कि वे आज ही जाकर शहर के कार्यालय का किराया आदि पता करेंगे तभी कुछ तय हो सकेगा| सादिया की सहेली घर-घर जाकर मेंहदी लगाने का काम करती थीं| सादिया पर यह काम सौंपा गया कि वह अपनी सहेली को बुला लाएगी| यूँ तो रन्नी भी बारीक मेंहदी लगाती थीं कि क्या कोई ब्यूटी पार्लर वाली लगाएगी, लेकिन ऐसे मुबारक मौके पर सुहाग के कार्य में हाथ लगाना नहीं चाहती थीं| दुल्हन का श्रृंगार अच्छे से होना चाहिए तो जमीला ने ब्यूटी पार्लर जाने की सलाह दी| अम्मी राज़ी नहीं हुईं|

“नहीं, यहीं आकर हमारी ताहिरा का वे लोग मेकअप कर जायेंगी, ताहिरा कहीं नहीं जाएगी|”

भाईजान मंगल कार्यालय बुक कराने चल दिये और जमीला ‘अजंता ब्यूटी पार्लर’ चल दी| उसके साथ पड़ोस की आपा भी गई| घर में किसी को सुध नहीं थी.....सब शादी की ही चर्चा में मगन थे| जमीला ने लौटकर बताया कि शेफ़ाली निक़ाह के दिन आएगी और घर में ही दुल्हन का श्रृंगार करेगी|

इन सारी बातों से अलग, ताहिरा बाहर नीम के पेड़ के नीचे अँधेरे में बैठी थी, उसे लग रहा था कि उसे अब शीघ्र ही हलाल करने ले जाया जाएगा.....| लगा, गरदन पर छुरी चल रही है और रक्त की धार कुरते पर रेंग रही है| एक लाल चींटी ने उसकी गरदन पर काटा था| दर्द को वह महसूस कर रही थी, उसने गरदन पर हाथ लगाया तो वहाँ रक्त नहीं था बल्कि तीखी जलन थी, नीम की घनी, काली छाया ने उसके मन के अँधेरों को और बढ़ा दिया| वह रो पड़ी|