मन के मोती 7
{लघु कथा संग्रह}
लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी
{1}
लग जा गले
पारस कुछ चीज़ों की व्यवस्था देखने के लिए कमरे के बाहर गए थे. आज दोपहर ही में महिमा और वह इस लॉज में आए थे. महिमा के दिल में कई मिलेजुले भाव उमड़ रहे थे. थोड़ी खुशी, थोड़ा कौतुहल, थोड़ा संकोच कुछ भय. सब मिलकर एक अजीब सी भावना पैदा कर रहे थे. आज उसके और पारस के वैवाहिक जीवन की पहली रात थी.
दोनों की शादी अरेंज्ड थी. वैसे महिमा एक आधुनिक लड़की थी. अपने पैरों पर खड़ी थी. लेकिन यह विषय उसने अपनी इच्छा से माता पिता पर छोड़ दिया था.
ऐसा नही था कि दोनों को एक दूसरे को समझने का बिल्कुल भी समय नही मिला था. विवाह से पहले दोनों की चंद मुलाकातें हुई थीं. फोन पर भी दोनों अक्सर बातें करते थे. इन सब से पारस एक भले इंसान प्रतीत हुए थे. इतना ही पर्याप्त समझा था उसने. वैसे तो पूरी ज़िंदगी कम पड़ती है किसी को जानने के लिए. फिर कोई भी परिपूर्ण नही होता. रिश्ता तो आपसी सामंजस्य पर ही टिक पाता है.
दरअसल पारस को लेकर वह असहज नही थी. यह उहापोह तो नैसर्गिक थी. जो सदा से ही नव ब्याहता के मन में इस रात को लेकर रही है.
अपनी नर्वसनेस को कम करने के लिए वह अपने मोबाइल पर अपना पसंदीदा रूमानी गाना सुनने लगी. खिड़की के बाहर रजनीगंधा का पेंड़ था. मंद हवा से पत्ते कांप रहे थे. दरवाज़े पर हुई दस्तक ने उसके दिल में भी सिहरन पैदा कर दी.
{2}
टिक टिक टिक..
वैभव खिड़की पर खड़ा बाहर देख रहा था. विमला कमरे में आई तो देखा कि चाय टेबल पर रखी हुई ठंडी हो गई थी. उसने धीरे से वैभव के कंधे पर हाथ रखा. दोनों ख़ामोश खड़े एक दूसरे की पीड़ा को समझ रहे थे.
वैभव ने अपने भविष्य की योजनाएं बनाई थीं. इस साल बेटी दसवीं कक्षा में थी. अपने कैरियर को लेकर वह पूर्णतया स्पष्ट थी. उसके कैरियर के लिए पैसों की व्यवस्था कैसे करनी है फ्लैट की किश्तें कैसे चुकानी हैं इन सब के बारे में उसने सोंच लिया था. वह बहुत खुश था. सब कुछ उसकी योजना के मुताबिक ही चल रहा था.
पर बीते कुछ दिनों से स्वास्थ कुछ ठीक नहीं था. पहले तो उसने सोंचा कि मौसम के बदलाव के कारण ऐसा हो रहा है. पर जब परेशानी बढ़ गई तो उसने अपने फैमिली डॉक्टर को दिखाया. उनके इलाज से भी जब कोई फायदा नही हुआ तो डॉक्टर ने उसे विशेषज्ञ के पास भेज दिया.
विशेषज्ञ ने कई सारे टेस्ट करवाए. विमला घबरा गई. वैभव ने तसल्ली दी "तुम तो यूं ही परेशान हो जाती हो. देखना सब ठीक होगा."
रिपोर्ट अच्छी खबर लेकर नहीं आई. रिपोर्ट देख कर विमला रोने लगी..वैभव ने भर्राई हुई आवाज़ में पूँछा "डॉक्टर साहब कितना समय है मेरे पास."
कुछ क्षण शांत रहने के बाद डॉक्टर ने गंभीर स्वर में कहा "आई एम सॉरी आप के पास अधिक दिन नहीं हैं. अधिक से अधिक तीन माह."
वैभव ने पास बैठी पत्नी तरफ देखा. उसे लगा जैसे सब कुछ बिखर गया. अपनी तरफ बढती मौत के कदमों की आहट सुनाई देने लगी.
{3}
एक पुख़्ता सवाल
पंद्रह साल की ज्योती के लिए पैंतीस साल के रामसजीवन का रिश्ता आया था. पहली पत्नी प्रसूति के समय चल बसी थी. ज्योती ने अपनी माँ से कहा "अम्मा अभी तो हमारी उम्र भी नही हुई. फिर जल्दी किस बात की है." उसकी माँ ने जवाब दिया "बिटिया हम गरीबों की छाती से बेटी का भार जितनी जल्दी उतर जाए अच्छा है." अपनी माँ का जवाब उसके दिल में चुभ गया "क्यों अम्मा घर के हर काम में मैं हाथ बटाती हूँ. तुम्हारे साथ बापू का हाथ बंटाने खेत पर भी जाती हूँ. फिर मैं भार कैसे." उसकी माँ मौन थी. यह तो वह पुख़्ता सवाल था जो इस समाज की बेटियां सदियों से पूंछ रही हैं.
{4}
राह
सौम्य के मित्रों रिश्तेदारों और बड़े से सर्किल में जिसने भी सुना वह चौंक गया. सभी केवल एक ही बात कह रहे थे 'भला यह भी कोई निर्णय हैं.'
सबसे अधिक दुखी और नाराज़ उसकी माँ थीं. होतीं भी क्यों नही. पति की मृत्यु के बाद कितनी तकलीफें सह कर उसे बड़ा किया था.
"इसे निरा पागलपन नही तो और क्या कहेंगे. इस उम्र में इतनी सफलता यह ऊपर वाले की कृपा ही तो है. तुम्हारे लिए इन सबका कोई मूल्य नही है." माँ ने बड़े निराश भाव से कहा.
"क्यों नही है माँ. मैं ईश्वर का शुक्रगुज़ार हूँ. तभी तो उसकी संतानों की सेवा कर उसका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ." सौम्य ने अपना पक्ष रखा.
"सारी दुनिया के गरीब बेसहारा लोगों के लिए एक तुम ही तो बचे हो." माँ ने ताना मारा.
सौम्य नही जानता था कि वह अकेला है या इस राह के और भी राही हैं. परंतु उसके भीतर एक कीड़ा था जो उसे पिछले कई दिनों से कुछ करने को उकसा रहा था.
ऐसा नही था कि यह निर्णय उसने भावावेश में बिना कुछ सोंचे समझे ले लिया था. दरअसल विद्यार्थी जीवन से ही उसकी सोंच औरों से अलग थी. सदा से ही वह देश और समाज के लिए कुछ करना चाहता था.
ऐसा भी नही था कि वह स्वयं को बर्बाद कर दूसरों के लिए कुछ करने वाला था. फर्क इतना था कि उसकी सोंच अपने तक ही सीमित नही थी. अब तक उसने जितना अर्जित किया था उससे उसकी माँ का जीवन आराम से कट सकता था. जहाँ तक उसका प्रश्न था. उसने अपनी आवश्यक्ताओं को बहुत सीमित कर लिया था.
अब पीछे हटना अपने आप को धोखा देना था. अतः कुछ भी उसे विचलित नही करता था. सारे तानों उपहासों को अनसुना कर वह अपने पागलपन में मस्त जो ठाना था उसे पूरा करने के लिए आगे बढ़ रहा था.
{5}
अपना ठिकाना
विनय को मकान पसंद आया. उस अकेले के लिए पर्याप्त जगह थी. उसने आवश्यक अग्रिम राशि जमा कर दी.
अविवाहित विनय ने अपने छोटे भाइयों को पुत्रवत पाला था. उन्हें उनके पैरों पर खड़ा करने के लिए अपने सुखों का भी त्याग किया था. जीवन भर किराए के मकान में रहे. उनके परम मित्र राजेश अक्सर कहते थे "भाइयों के लिए कुछ करना बुरा नहीं पर अपने बारे में भी सोंचो. कल जब यह दोनों अपनी गृहस्ती बसा लेंगे तो तुम क्या करोगे. कहाँ रहोगे." लेकिन विनय अपने तर्क देते थे "मैं तो अकेली जान हूँ. दोनों भाइयों को बेटे की तरह पाला है. किसी के भी साथ रह लूँगा."
"ईश्वर करे आपका भरोसा सही निकले लेकिन मैं तो दुनिया का चलन देखते हुए कह रहा था." राजेश उन्हें दुनिया की सच्चाई दिखाने की कोशिश करते थे.
दोनों भाइयों ने अपनी अपनी गृहस्ती बसा ली. अवकाशग्रहण के बाद वह कभी एक के यहाँ तो कभी दूसरे के यहाँ जाकर रहते. कुछ दिन तो ठीक लगा परंतु धीरे धीरे उन्हें एहसास होने लगा कि यह व्यवस्था ठीक नहीं. प्रत्यक्ष तौर पर तो कोई कुछ नहीं कहता था लेकिन अक्सर ही अपने व्यवहार से दोनों भाई उन्हें इस बात का आभास कराते कि वह उनके घर में रह रहे हैं.
देर से ही सही बात उनकी समझ में आ गई. उन्होंने अपने लिए अलग किराए का मकान ले लिया.
{6}
'बताशा' बाबा’
शंकर अपने गंतव्य पर पहुँच गया था. कुछ तंग गलियों को पार कर वह एक मकान के पास जाकर रुका. यही बाबा जी का डेरा था. बाहर थोड़ी सी खुली जगह में बहुत से लोग जमा थे. उसने नियत राशि जमा करके अपना नंबर ले लिया.
पिछले कई साल से समस्याओं ने उसके घर डेरा जमा लिया था. पहले जिस फैक्टरी में वह काम करता था वह बंद हो गई. अपनी जमा पूंजी लगा कर व्यापार आरंभ किया. कुछ दिन सब सही चला फिर उसमें भी नुकसान झेलना पड़ा. व्यापार बंद कर फिर से नौकरी कर ली. वहाँ सब सही था तो अब पत्नी बीमार पड़ गई. एक के बाद एक आने वाली मुसीबतों से वह तंग आ गया था. ईश्वर पर से उसका भरोसा उठ गया था.
परसों उसकी मुलाकात अपने पुराने दोस्त से हो गई. उसकी कठिनाई सुन कर उसके मित्र ने उसे 'बताशा' बाबा के बारे में बताया. बाबा व्यक्ति की बात सुन कर कुछ क्षण आंखें बंद कर मंत्र जाप करते थे फिर व्यक्ति को चीनी के बने बताशे प्रसाद रूप में देते थे. उन्हें खा कर समस्या का समाधान हो जाता था. इस सब के लिए बाबा एक सौ एक रुपये की दक्षिणा लेते थे. कई लोगों को फायदा पहुँचा था. अतः शंकर के मित्र ने उससे भी बाबा के पास जाने को कहा.
उसकी बात पर शंकर ने कोई प्रतिक्रिया नही दी. घर आकर उसने यह बात अपनी पत्नी को बताई. उसकी पत्नी ने भी उससे एक बार जा कर देखने को कहा. मुसीबत में फंसे इंसान को उससे निकलने की जो भी राह दिखती है उस पर चल पड़ता है. शंकर जाने को राज़ी हो गया.
अभी बाबा जी अपनी गद्दी पर नही बैठे थे. सभी उनके आने की राह देख रहे थे. शंकर ने चारों तरफ नज़र दौड़ाई. सभी उदास और परेशान थे. हर आयु तथा वर्ग के लोग मौजूद थे. गरीब अमीर मध्यवर्ग सभी सभी किसी ना किसी समस्या से जूझ रहे थे. अब और कुछ हो ना हो उसे एक बात समझ आ गई थी कि मुसीबतज़दा अकेला वही नही है.
{7}
डेयरिंगबाज़
दीपक आज पहली बार अपने दम पर मिशन को अंजाम देने निकला था.
अपने छोटे से शहर से वह पढ़ाई करने के लिए इस महानगर में आया था. यहाँ वह वैसा ही महसूस करता था जैसे छोटे से तालाब से निकल कर कोई मछली बड़े से समुद्र में आ गई हो. सब कुछ अद्भुत अनोखा. इस समुद्र की कुछ चालाक शर्क मछलियों ने उसे फंसा लिया. वह भी उनकी चमक दमक से खिंचा चला गया. उन्होंने उसे बिंदास जीने के लिए डेयरिंगबाज़ी के गुन सिखाए. आज उसकी परीक्षा थी.
दीपक की नज़र एक महिला पर थी. जैसे ही वह घर से निकली वह मोटरसाइकिल पर उसके पीछे लग गया. जब वह एक गली में घुसी उसने झपट कर उसकी चेन खींची और तेज़ी से मोटरसाइकिल भगा कर गायब हो गया.
दीपक ने अपने कदम तो शिक्षा की राह पर रखे थे किंतु बहक कर अपराध की गली में चला गया.
{8}
इंद्रधनुष
एक छोटे से कमरे में बारह लड़कियां ठूंसी गई थीं. उनकी उम्र १५ से २० वर्ष के बीच थी. कमरे में केवल एक छोटी सी खिड़की थी. इतने लोगों के कारण बहुत घुटन थी.
पूनम खिड़की पर खड़ी थी. कुछ ही देर पहले बारिश रुकी थी. आसमान का जो टुकड़ा खिड़की से दिख रहा था उस पर इंद्रधनुष खिला था. उसे देख कर पूनम को अपने गांव की याद आ गई.
सुदूर पहाड़ों पर बसा उसका गांव बहुत सुंदर था. दूर तक फैले मैदान, कल कल बहती नदी, पेंड़ पौधे, पशु पक्षी सभी मनोहारी थे. वहाँ आज़ाद पंछी की तरह चहकती फिरती थी वह.
कमी थी दो वक्त पेट भर खाने की. तन ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ों की. वह उसकी माँ और छोटा भाई सभी खेतों में काम करते थे. कड़ी मेहनत के बाद जो मिलता उसका बड़ा हिस्सा उसके पिता की शराब की लत की भेंट चढ़ जाता. जो बचता उससे दो वक्त चूल्हा जलाना संभव नही था. अपने कष्टों के बावजूद भी वह खुश थी.
अचानक ही एक हलचल की तरह सुशील गांव आया. पांच साल पहले वह मुंबई भाग गया था. अब जब लौटा था तो उसके ठाट ही निराले थे. फिल्मी हीरो जैसा हुलिया बना रखा था. सभी बस उसी के बारे में बात कर रहे थे.
पूनम भी उसकी तरक्की से प्रभावित थी. वह भी उससे बात किया करता था. पूनम उसकी ओर आकर्षित हो गई. दोनों रोज़ ही एक दूसरे से मिलते थे. सुशील मुंबई के किस्से सुनाता था. पूनम मन ही मन मुंबई जाने के सपने देखती थी.
एक दिन जब दोनों नदी के किनारे बैठे थे तो सुशील ने कहा "मेरे साथ मुंबई चलेगी. तेरे दिन फिर जाऐंगे. यहाँ दिनभर खेत में खटती है तो भी पेट भरने लायक नही मिलता. वहाँ घरेलू काम के अच्छे पैसे मिलेंगे. यह समझ ले नोट बरसेंगे."
उसकी बात सुनकर पूनम ललचा गई और बोली "क्या सचमुच"
"हाँ मुझे ही देख. मैंने नही कमाए नोट. वहाँ मेहनत की कदर है."
सारी रात वह जागती रही. सुशील के शब्द उसके कानों में गूंजते रहे 'नोट बरसेंगे.' वह सुखद भविष्य के सपने देखने लगी. अगले दिन उसने घर में बात की. समझाया कि यदि वह गई तो पैसे घर भेज उन लोगों की मदद कर सकेगी. माँ ने तुरंत मना कर दिया कि अंजान शहर में अकेली कैसे रहेगी. लेकिन उसके शराबी पिता को केवल नोट दिख रहे थे. उसने उसकी माँ को डपट दिया.
पूनम सुशील के साथ मुंबई आ गई. सुशील ने मुंबई पहुँच कर उसे एक छोटी सी खोली में रखा. यहाँ पूनम को घुटन होती थी. वह बार बार काम के बारे में पूंछती थी. सुशील कहता कि काम खोजने में समय लगता है. इस तरह कुछ दिन बीत गए. एक दिन सुशील आया और बोला कि वह तैयार हो जाए. आज वह उसे काम पर ले जाएगा. पूनम खुशी खुशी तैयार होकर चल दी.
वह दोनों एक बड़े से बंगले में पहुँचे. बंगले में एक बड़ा स्वीमिंगपूल था. पूनम बहुत कौतुहल से सब कुछ देख रही थी. सुशील उसे लेकर बंगले के भीतर गया. वहाँ एक कमरे में एक स्थूलकाय औरत थी. उसके सामने ले जाकर सुशील बोला "यही है वह." उस महिला ने उसे सिर से पांव तक देखा. जैसे आंखों ही आंखों में उसे तौल रही हो. फिर एक लिफाफा सुशील को पकड़ा दिया. उसे जेब में रख मुस्कुराते हुए वह बाहर निकल गया. पूनम कुछ समझ नही पा रही थी.
जब तक उसे समझ आया बहुत देर हो गई थी. वह भयानक नर्क में फंस चुकी थी. रोज़ कुछ दरिंदे आकर उसे नोचते थे. कई दिनों तक उसकी चीखें उस बंगले के भीतर दम तोड़ती रहीं. फिर उसने चीखना भी बंद कर दिया. दिन भर उसे और उसके साथ अन्य लड़कियों को बंगले के सबसे ऊपरी हिस्से में क़ैद रखा जाता था. शाम को उन्हें तैयार कर हवस के भूखे भेड़ियों को सौंप दिया जाता था.
छह महिने हो गए थे उसे इस नर्क में आए जहाँ हर रात उसके लिए वेदना लेकर आती थी. किंतु इन सब के बीच भी उसके मन में एक आस थी कि एक दिन वह अपने गांव अवश्य जाएगी. आज इंद्रधनुष देख कर उसकी आस और मजबूत हो गई.
{9}
बंद मुठ्ठी
रश्मि सारा काम निपटा कर अपनी किताब लेकर बैठ गई. कुछ ही दिनों में बारहवीं की बोर्ड परीक्षाएं आरंभ होने वाली थीं. वह जी जान से तैयारी में जुटी थी. पढ़ लिख कर कुछ कर दिखाने की लगन थी उसके मन में. यही लगन थी कि इतनी समस्याओं के बावजूद भी उसने हिम्मत नहीं हारी थी.
आज फिर जब वह स्कूल से लौट रही थी तब लल्लन ने फिर उसका रास्ता रोक लिया. आए दिन वह उसे छेड़ता था. बस्ती में सभी अनपढ़ थे. ऐसे में एक लड़की का पढ़ना उन्हें रास नहीं आता था.
उस
उसकी माँ उसका सपना पूरा करने में उसके साथ थी. सदैव उसे आगे बढ़ने का हौसला देती थी. नहीं तो उसके शराबी बाप ने कब का पैसों के लालच में उसकी शादी अपने बूढ़े दोस्त से करा दी होती.
रश्मि इन सारी तकलीफों से घबराती नहीं थी. इस अंधेरे में भी उसके मन में आशा का इंद्रधनुष खिला था. सूरज को मुठ्ठी में कर लेने का सपना था.
{10}
आज़ादी
इस बड़े से मैदान का उपयोग धरना प्रदर्शन के लिए होता था. इसके एक कोने में एक शहीद सैनिक की विधवा अनशन पर बैठी थी. मुआवजे में मिली ज़मीन पर गुंडों ने कब्ज़ा कर लिया था और कोई सुनने वाला नही था. दूसरी तरफ कुछ सरकारी शिक्षक अपने वेतन की मांग को लेकर धरने पर बैठे थे. कहीं छात्रों का शोर था तो कहीं बूढ़े माता पिता अपनी उस बच्ची के लिए इंसाफ मांग रहे थे जिसकी अस्मत लूट कर मार दिया गया था.
मैदान के एक कोने में उस क्रातिकारी की प्रतिमा लगी थी. जिसने एक समतापूरक सुखी देश के लिए अपने प्राण गंवाए थे.
अपने समाचार पत्र के लिए रिपोर्टिंग करने गया मैं यह सब देख रहा था. उस प्रतिमा पर मेरी नज़र पड़ी तो मैं सोंचने लगा कि यदि यह प्रतिमा जीवित हो जाए तो देश में फैले इस अनाचार को देख कर उसे कितना धक्का लगेगा.