Jinko prem nahi karna tha in Hindi Poems by Surendra Raghuwanshi books and stories PDF | जिनको प्रेम नहीं करना था

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जिनको प्रेम नहीं करना था

जिनको प्रेम नहीं करना था
***

जिनको अपने ह्रदय की तरलता का
विलय नहीं करना था
धरती की विस्तृत तरलता में
बन नहीं जाना था उसकी सौंधी मिट्टी का हिस्सा
वे नदी में प्रवेश करने से ही बचते रहे

जिनको नहीं पढ़नी थी अपने ही बीच उपलब्ध संघर्ष गाथा
उनहोंने नहीं देखी खेतों की जुताई से लेकर
बुवाई , सिंचाई फिर उनके फूलने ,फलने ,पकने
और उन्हें प्राप्त कर लेने की सम्पूर्ण प्रक्रिया

जिन्हें नहीं करना था प्रेम
वे खाप पंचायतों का हिसा बन गये
कुछ गालियां लेकर कूद गए भीड़ में

जिन्हें नहीं करना था विरोध अत्याचारियों का
वे उनका गुणगान करने लगे
और यह उनके खुद अत्याचारी बनने की शुरूआत थी

पानी तो पानी है
***

सारे भ्रम अँधेरे में पनपे
अँधेरी रात में रास्ते में चलते हुए
हवा में पत्तों के खड़कने
या जंगली जानवर की आवाज़ को
भूत की आवाज़ मान लिया गया
और मन के आदिम भय को पंख लग गए
कहानियां तो सुन ही राखी थीं भूत प्रेतों की

पथ में अज्ञात अवरोधों की शंकाएं अलग
पता ही नहीं आगे कब और किससे टकरा जाएँ
अनिश्चितताओं से भरी ये कैसी यात्रा है

पर रोशनी ही यात्रा को आसान बना सकती है
विभाजन की संस्कृति का आधार मात्र अज्ञानता है
पानी तो पानी है किसी भी स्रोत से आता हुआ
सूखे कंठों . पेड़ों और खेतों की
प्यास बुझाने को आतुर हर पल

दायरे
***

उसने विस्तार के विरुद्ध संकुचन का मार्ग अपनाया
अपने चारों ओर अदृश्य और स्वघोषित सीमाओं में
वह मनुष्य से किसी प्राणी में तब्दील होता दिखा

उसके विश्वास की बर्फ स्वार्थ की घूप में पिघली
मन की लकड़ी को शंकाओं के घुन ने खाया
स्वनिर्मित दायरों में उसकी दुनिया कैद थी
वैश्विक व्यापकता को उसने फ़िज़ूल कहा
सौंदर्य को कहा बकवास
प्रेम को कहा ग़ैर ज़रूरी
प्रगतिगामियों को कहा आवारा
और जनवादियों को पागल और पथ भ्रष्ट

सुन्दर सुगन्धित फूलों के आमंत्रण को उसने ठुकराया हर बार
नदी के बहाव में नहीं बहे उसके विचार
पहाड़ों को टुकड़ों में तोड़कर पत्थरों को बेचने की
विविध कल्पनाएं उसके सपनों का हिस्सा बनीं

यथार्थ का सागर उसकी कल्पना से
बहुत गहरा और ज्यादा नीला था

समीक्षा
***

आलोचना अलग बात है
समीक्षा या स्वस्थ चर्चा भी स्वीकार्य होनी चाहिए
रचनाकार को पकना चाहिए अनुभवों की आग में
अपने कच्चेपन के ख़िलाफ़ मनुष्य बनने के लिए भी
ज़रूरी है यह उपक्रम कि हमारे भीतर न रह जाये
कोई आदिम भूख आत्ममुग्धता की यश के लिए

पर समीक्षा से पहले ही
पर्दे के पीछे से आ रही क्रूर हंसी
और पूर्वाग्रह से युक्त षड्यंत्रों में चमकते दांतों का क्या करूँ?
क्या करूँ आगत अट्टहास के निवारण हेतु ?

कल निश्चित है चक्रव्यूह रचना
और उसके अन्दर मैं यदि प्रवेश कर भी गया
तो महारथियों का अपने नैतिक और मानवीय
मूल्यों के आदर्श पर कायम रहना निश्चित नहीं
वे तैयार बैठे हैं निर्मम प्रहार के लिए
समीक्षा के नाम पर हो गई है व्यूह रचना

दया उनके शब्दकोश में नहीं
ईमान तो वे छोड़ ही बैठे हैं
अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु
उनके पास अपनी मित्र सैनाओं का गठबंधन है

पूर्वानुमान में ही परिणाम और हश्र दोनों दिख रहे हैं
तो क्यों न खारिज़ कर दूं उनका न्याय का सिद्धांत
और बाधित करने के लिए उनका विजयोत्सव
अनुपस्थित रहूँ उस रण नहीं षड्यंत्र क्षेत्र में

ज़िंदा जलाई गई लड़की
***

खाना बनाने के लिए ईंधन के रूप में
कंडे और लकड़ी को चूल्हे में जलते देखा था
माँ इसी तरह मिट्टी के चूल्हे पर रोटी बनाती
और हम भाई बहिन बैठ जाते चूल्हे के असपास

होली को जलते देखा हर साल
कूड़ा करकट को भी जलता देखा सफाई के लिए
जीवन की समाप्ति के पश्चात मृत देह को
ससम्मान अग्नि को समर्पित करने वाले
अनगिनित अंतिम संस्कारों में शामिल होकर
देख चुका हूँ जलते हुऐ मृत मानव शरीरों को
और हर बार शोक के सागर में डूवता रहा

पर ये बेहद दुःखद आश्चर्यजनक अविश्वसनीय
क्रूरतम और राक्षसी कुकर्म से भी बढ़कर है
कि यहाँ लकड़ी नहीं लड़की ज़िंदा जल रही है

सैकड़ों लोगों ने लड़की को घेरा बनाकर घेर रखा है
बीच में खड़ा कर उसे कुछ लोग बेरहमी से पीट रहे हैं
लड़की ज़मीन पर गिर जाती है
फिर उठकर भागने लगती है
लोग धक्का देकर फिर गिरा देते हैं ज़मीन पर
ऐसा कई बार होता है
उसके मुंह से बह रहा है खून
वह हाथ से खून पौंछती है बाल ठीक कर
जाने लगती है भीड़ से बाहर
उसको अपने बच निकलने की अब भी उम्मीद है
उसको खतरनाक आगत का बिल्कुल भी पता नहीं

उसे धक्का देकर एक आदमी ने फिर गिरा नीचे दिया
पर इस बार एक और दौड़ता हुआ आदमी आया
और उस पर पेट्रोल छिड़क गया
अगले आदमी ने माचिस की तीली जलाकर उस पर फेंक दी
अब लड़की जलने लगी और आग बुझाने हेतु
चिल्लाती हुई धरती पर लोट लगाने लगी

2

उठकर भागने की असफल कोशिश की फिर गिर गई

विवशता में निढाल और पस्त होकर लोग तालियां और सीटियां बजा रहे थे
एक और आदमी दौड़कर आया और उसके ऊपर
एक केन पेट्रोल और उड़ेल गया
और ज़िंदा लड़की लकड़ी बनकर जलने लगी
उसमें से होली से भी ऊंची लपटें उठने लगीं

आस पास के पेड़ों के पंक्षी उड़ गए सुदूर भयातुर
हांफते हुए भाग गए कुत्ते प्राण रक्षा में
पेड़ों ने आँखें बंद कर लीं

मनुष्यता के अंतरिक्ष से संवेदनाओं का
परिक्रमण पथ छोड़ अचानक
गिरकर नष्ट हो गया विस्वास का विशालकाय ग्रह

इंसानियत जल रही थी
धर्म धुआँ बनकर आकाश में चला गया
दया पशुता के गटर में बह गयी
विचारों के मोती स्वार्थ के मल में गड गये
धरती डूव् गई पाताल मे और आकाश में बदलियाँ खत्म हो गईं
अराजकता की हवा में न्याय का चरम ज्वलन था यह
शर्मसार होकर समंदर में डूव गया था शब्द कोश
हत्यारों के लिए उसके पास नहीं बचे थे कोई शब्द
पूर्ण प्रलय हो गया हमारे देखते देखते

रिक्त स्थान की ओर
***

ज़िन्दगी के बड़े मैदान में
एक बड़ा स्थान रिक्त था खुशियों के लिए
पर लम्बे समय से उसको भरे जाने की कोशिशें
सफलता के दरवाज़े तक नहीं आ पा रहीं थीं

तरह-तरह के प्रयास विफलता की भेंट चढ़ रहे थे
विपन्न लोगों के पास तो यह खाली था ही
पर सम्पन्नों के पास भी नहीं भर पाया था ये स्थान
उनकी व्यापारिक उन्नतियां उन्हें
एक खतरनाक ऊंचाइयों तक ले जा रही थीं
जहाँ से नीचे गिरने का भय और संभावनाएं
जैसे उनके स्तंभों को ढहा रही हों

पर जब इस खाली स्थान में
सुरीले गीतों की कोई नदी लहराती हुई चली आई
किसी कविता ने छेड़ दी कोई तान
या उठाया कोई ज़रूरी प्रश्न
किसी चित्रकार ने भर दिया कोई कोरा कैनवास
सपनों ,उम्मीदों और उत्साह के विविध रंगों से
तब अचानक ही मेला लग गया खुशियों का
इस दीर्घावधि से खाली पड़े रिक्त स्थान में
जो आनंद के अनंत आकाश के नीचे
हवा की तरह बह रहा था

दो आवाज़
***

एक तऱफ वे थे अपनी ही धुन में मग्न
अपनी तिजोरियों का पेट भरने के लिए कटिबद्ध
दिन रात आरी चलाते हुए भावों के हरे-भरे उन पेड़ों पर
जो अपनीं मानवीयता की प्राकृतिक धरती पर खड़े थे

दूसरी ओर रेगिस्तान में हरियाली के गीत गाते हुए कुछ लोग थे
जो बार- बार आशा भरी नज़रों से
आसमान की बदलियों को ताकते
उनसे अपने हिस्से का जल मांगते
रोप देते फिर कोई पौधा , दूर से पानी लाकर सींचते

सामानांतर दो दुनियाऐं चलती रहीँ
एक जिनके घरों में कुल्हाड़ियाँ टिकी रहीं
और दूसरी जिनके घरों में पौधों के ढेर थे
हाथ ढूंढते रहे ज़मीन जिन्हें लगाये जाने के लिए

दोनों ही किताबों में मनुष्य की प्रजाति के रूप में दर्ज़ थे
एक जैसे थे शारीरिक संरचना में
एक वे थे जो सबके सिरों की चोटी अपने हाथ में रखते थे मजबूती से खींचकर
और एक वे जो अपने ही जैसे लोगों के सिरों पर हाथ फेरते थे दिलासा में उम्मीद की चरम गति से

खुद के कब्ज़े लिए ज़मीन तैयार करने हेतु
जंगल को भस्म करने के लिए उनके ह्रदय में आग है
इनके ह्रदय की धरा पर दया की कल -कल नदी बहती है
कि हिरणों सहित प्राणियों के सूखे कंठ बुला रहे हैं उसे

अपनी परस्पर विरुद्ध प्रवृतियों और प्रतिबद्धता से बंधे हुए दो समूह एक ही धरती पर विचरते रहे हैं
एक भ्रम की अमानुषिक कीचड़ में ही मस्त होते
और दूसरे मानवीय सरिता की तरलता में स्नान करते हुए
प्राचीन काल से निरंतरता में चलते हुए अब तक

एक बूँद
***

अभी -अभी चलते हुए लू के जंगल में
मेरे सिर पर एक ठण्डी बूँद गिरी है पानी की
इस बूँद की अपनी एक भाषा है अपनी संरचना में

कौंधता है एक चमकता हुआ प्रश्न अचानक मन में
अकेली नहीं हो सकती यह बूँद
खुले आकाश के नीचे कहाँ से आ सकती है ये
ज़रूर मेरे ऊपर के आसमान में मौज़ूद इस बदली का
कोई सन्देश है ये मेरे लिए इस भीषण गर्मी में

यह एक राहत भरी खबर है इस पूरे क्षेत्र के लिए
जो अपनी हरियाली को लू की निर्मम झुलसन की
भेंट चढ़ते हुए देख रहा है असहाय सा

सूख चुके कुंए को बाल्टियों के आग्रह से
जगाने की निरंतर कोशिश करती पनिहारिनों के लिए
यह एक ख़ुशी का टुकड़ा है ज़रूरी

अपनी प्यास बुझाने के लिए मीलों सफ़र कर रहे
अकुलाहट में बेसब्र भागते सभी प्राणियों के लिए
धैर्य और उम्मीद रखने की सलाह है ये
तो धन्यवाद बदलियों !
कि तुम्हारा ज़रूरी सन्देश पहुँच गया मुझ तक

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ऋतु
***

सौंदर्य के शिखर पर
आत्मविस्वास से लवरेज
तुम कोई ऋतु हो सुहावनी
या किसी हिंदी फ़िल्म की नायिका हो

तुम्हारी आँखों की गहरी झील में
तैरती हैं सपनों की सुन्दर मछलियाँ रंग विरंगी
वे झटके के साथ मुड़ जाती हैं
किसी आकर्षक संसार की ओर

तुम्हारे चेहरे पर खिलते हैं
विस्वास के सुन्दर फूल
तुम्हारे दोनों रक्तिम होंठ
प्रेम में युगल का चरम मिलन है

तुम्हारे गालों की चिकनाई भरी
ढलान पर आकर फिसल ही जायेंगे दुःख

तुम्हारे सुरीले कंठ की स्वरलहरियां
आनंद की नदी में स्नान कराती हैं
तुम गाती हो तो उड़ जाते हैं तनाव के बवंडर
तुमसे अलग और बगैर दर्शन के तुम्हारे
सुख जैसी कोई चीज नहीं दुनिया में

जिसको तुम जी रही हो
शायद वही जीवन है
अपनी अनुकरणीय सम्पूर्णता में

दिन का पेड़
***

समय की धरती पर उग आता है नया दिन
और उठता है हवा में ऊपर
सपनों की कोंपलों के साथ
लहराता है निश्चिन्त होकर
जानते हुए भी अपने साथ अनापेक्षित उग आये
खरपतबारों की उपस्थिति

धूल भरी आँधी में वह अपनी आँखों को
ढक लेता है अपने धैर्य की पलकों से

झुलसा देने वाली लू में दोपहर के वक़्त
वह अपनी सारी शक्ति को केन्द्रित कर
खड़ा रहता है ध्यान मुद्रा में शांत
और देखता है हरियाली के अनंत सपने
धरती में पानी खोजतीं अपनी जड़ों के विस्वास के सहारे

दिन का पेड़ निरंतर अपनी वृद्धि के चक्र में घूमता है
धकियाते हुए अवर्षा,बाढ़ और अतिवर्षा को
कितने ही विषैले सर्पों को लादे खुद पर
वह मस्त रहता है पहाड़ की तरह
वह जानता है कि हिम्मत जब रूपांतरित हो जाती है पर्वत में
तब उसको कोई नहीं निगल सकता

– सुरेन्द्र रघुवंशी

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