Devo ki Ghati - 17 in Hindi Children Stories by BALRAM AGARWAL books and stories PDF | देवों की घाटी - 17

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देवों की घाटी - 17

… खण्ड-16 से आगे

वसुधारा जल प्रपात

‘‘अभी-अभी तो यह बात मैं बता चुका हूँ।...’’ दादा जी बोले, ‘‘अब मैं तुमको वसुधारा प्रपात के बारे में बताता हूँ।’’

‘‘प्रपात का मतलब क्या है दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘झरना…वाटर फॉल1’’ इस बार जवाब दादा जी की बजाय सुधाकर ने दिया।

‘‘ओ…ऽ…नियाग्रा फॉल्स की तरह का?’’

‘‘हाँ लेकिन नियाग्रा फॉल्स अलग तरह का मामला है बेटे।’’ सुधाकर ने समझाया, ‘‘नियाग्रा फॉल्स तीन झरनों का समूह है जो अमेरिका और कनाडा की अन्तर्राष्ट्रीय सीमा पर है।’’

‘‘तीन झरनों का समूह?’’

‘‘हाँ। इनमें से एक का नाम है—हॉर्स शू फॉल्स; दूसरे का नाम है—अमेरिकन फॉल्स और तीसरे का—ब्राइडल वील फॉल्स। कनाडा के टोरंटो शहर से ये मात्र 1 घंटे की दूरी पर पड़ते हैं और कनाडा जाने वाले लोग इन्हें देखे बिना आ जाएँ, यह हो नहीं सकता। कनाडियन साइड से इन तीनों को आसानी से देखा भी जा सकता है।’’

‘‘सुधाकर, ’’ दादा जी ने बीच में टोका, ‘‘नियाग्रा अपने विस्तार के कारण भी चर्चा में अधिक है।’’

‘‘केवल विस्तार के कारण नहीं बाबू जी, ’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘जल के बहाव की अद्भुत गति के कारण भी। मैं आपको बताऊँ कि इनमें हॉर्स शू फॉल्स करीब 180 फुट की ऊँचाई से गिरता है। इसकी चौड़ाई करीब 2600 फुट है यानी 790 मीटर। पीक सीज़न में इससे गिरने वाले जल की गति लगभग सवा दो लाख क्यूबिक फुट प्रति सेकेंड होती है। इन तीनों में इसी को सबसे ज्यादा खूबसूरत माना जाता है। अमेरिकन फॉल 70 से 100 फुट के बीच की ऊँचाई से गिरता है। इसका पाट 1060 फुट यानी 320 मीटर चौड़ा बताया जाता है। इन दोनों के बीच करीब एक किलोमीटर से ऊपर का जलीय फासला बताया जाता है।’’

‘‘बेटे, वही बात मैं तुम्हें बता रहा हूँ—नियाग्रा की खूबसूरती उसके विस्तार में ही अधिक है।’’ दादा जी बोले, ‘‘मेरी बात को तुम नकारात्मक मत समझो। तुम हॉर्स शू फॉल्स को दुनिया का सबसे अधिक प्रसिद्ध जलप्रपात बता रहे हो। मैंने हालाँकि उसे देखा नहीं है, लेकिन मैं भी मान लेता हूँ कि वह बेहद खूबसूरत होगा। लेकिन वह गिरता कितनी ऊँचाई से है? सिर्फ 180 फुट की ऊँचाई से। और अपना यह वसुधारा जलप्रपात? यह गिरता है—लगभग तीन सौ पिचहत्तर फुट की ऊँचाई से। इसके जल-कणों के गिरने का विस्तार, मुझे नहीं मालूम किसी ने अभी तक नापा है या नहीं; लेकिन मुझे यकीन है कि वह भी कई सौ फुट के घेरे में अवश्य होगा। इतनी अधिक ऊँचाई से धरती पर गिरने वाला यह झरना अपनी खूबसूरती के लिए दुनियाभर में प्रसिद्ध है। हिन्दुस्तान के आखिरी गाँव माणा से यह ज्यादा नहीं, करीब 5 किलोमीटर ऊपर है। रास्ता कठिन है लेकिन है बहुत प्यारा।’’

‘‘आपकी इच्छा हो तो वसुधारा-दर्शन के लिए भी निकालें समय।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘इच्छा तो बहुत है बेटा, ’’ दादा जी ने कहा, ‘‘लेकिन मुझे साथ ले चलोगे तो परेशान ही ज्यादा रहोगे; आनन्द नहीं ले पाओगे यात्रा का। तुम ऐसा कर सकते हो कि कभी अकेले, या अपने कुछ दोस्तों के साथ मिलकर वसुधारा और इससे भी ऊपर की यात्रा का कार्यक्रम बना सकते हो।’’

‘‘अनन्त विस्तार है इस पर्वत-माला का।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऐसा कहा जाता है कि अपने अन्तिम समय में, पांडव जब स्वर्ग की ओर जाने लगे, तब अन्तिम बार माणा गाँव में ही रुके थे।’’

‘‘आप वसुधारा से ऊपर भी कुछ होने की बात बता रहे थे न1’’ सुधाकर ने टोका।

‘‘हाँ, ’’ दादा जी बोले, ‘‘लक्ष्मी-वन है उससे आगे।’’

‘‘लक्ष्मी-वन।’’

‘‘और भी कई जगहें हैं; लेकिन वहाँ पहुँचने के लिए ट्रेकर्स की मदद से जाना बेहतर है।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘लक्ष्मी वन तो वसुधारा से ज्यादा नहीं< सिर्फ 4 किलोमीटर ही और आगे है; लेकिन उससे भी आगे सतोपंथ ग्लेशियर है। उसी के रास्ते में, ग्लेशियर से पहले आती है सतोपंथ झील। न तो कहीं कोई बस्ती है और न ही कोई फलदार पेड़। इसलिए खाने और रुकने का इंतजाम अपने साथ लेकर चलना पड़ता है।’’

‘‘सतोपंथ ग्लेशियर1 लक्ष्मी वन11’’ सुधाकर रोमांच के साथ बुदबुदाया।

‘‘सतोपंथ झील, सतोपंथ ग्लेशियर और लक्ष्मी वन की तो बात ही अलग है; ’’ उसकी बुदबुदाहट पर ध्यान दिये बिना दादा जी बोलते रहे, ‘‘वसुधारा तक भी जाना हो तो एक सावधानी जरूर बरतनी चाहिए।’’

‘‘क्या/’’

‘‘एकदम सुबह निकल लेना चाहिए।’’ दादा जी बोले, ‘‘सतोपंथ झील बदरीनाथ से करीब 25 किलोमीटर दूर पड़ती है। ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए इस क्षेत्र में अनगिनत पाइंट हैं—एक से बढ़कर एक रोमांचक और दर्शनीय। यहाँ मत्था टेककर घर लौट जाने वालों के लिए अनेक तीर्थ भी हैं और प्रकृति मे सौंदर्य को देखने और उसी में रम जाने का हृदय रखने वाले पर्यटकों के लिए अनेक सौंदर्य-स्थल भी। हर जगह ऐसी कि यहीं रुक जाने को मन करने लगे।...बहुत से प्रकृति प्रेमी सदा-सदा के लिए यहाँ रुक भी जाते हैं। तुमने फूलों की घाटी का नाम तो सुन ही रखा होगा/’’

‘‘हाँ, आपने बताया भी था पीछे।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘उसकी खोज सन् 1931 में तीन अंग्रेज घुमक्कड़ों ने ही की थी।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘और वे उसे खोजने को यहाँ नहीं आए थे, वे तो पर्वतारोहण के समय रास्ता भटक गये थे और अचानक ही फूलों से भरी उस घाटी में पहुँच गये थे। उन्होंने ही दुनिया भर में उस इलाके को ‘फूलों की घाटी’ के नाम से मशहूर किया। एक बात और बताता हूँ—सन् 1939 में इंग्लैंड के क्यू नामक इलाके से जॉन मार्ग्रेट लेगी नाम की एक वनस्पति शोधार्थी उस घाटी में खिलने वाले फूलों पर शोध के लिए आई थी। उसने वहाँ से कितने ही तरह के फूलों के नमूने इकट्ठे किए। एक दिन एक चट्टान से अचानक पैर फिसल जाने की वजह से वह गहरी खाई में गिर गयी और वहीं उनकी मौत हो गयी।’’

‘‘ओह1’’ सुधाकर के साथ-साथ ममता के भी गले से निकला।

‘‘प्रकृति का प्रेम मनुष्य कि जुनूनी बना देता है बेटे।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘बाद के वर्षों में मार्गेट की बहन यहाँ घूमने आयी थी। अपनी बहन के मरने की जगह पर भी वह गयी और उसकी याद में उसकी समाधि उसने वहाँ बनवा दी।’’

इसके बाद दादा जी ने सभी को अनेक पर्वत-चोटियाँ वहाँ खड़े होकर दिखाईं—चौखम्बा, नर और नारायण, और भी पता नहीं कौन-कौन-सी…। कहानियाँ सुनाते, जगहें दिखाते, घूमते-घुमाते दादा जी बच्चों को धर्मशाला में वापस ले आए।

सभी थक गए थे। इसलिए आराम करने के लिए बिस्तरों पर जा पड़े। ममता की तो साँस ही बुरी तरह फूल चुकी थी। कुछ देर बाद दादा जी की नजर अपनी कलाई-घड़ी पर पड़ी। उसे देखते ही वे चौंककर बोल उठे, ‘‘अरे! भगवान बदरी विशाल की शाम की आरती होने में एक ही घण्टा बाकी है। चलो-चलो, तैयारी करो। देर करोगे तो बेहद भीड़ बढ़ जाएगी द्वार पर।’’

यों कहकर उन्होंने नहाने के बाद पहनने वाले कपड़े जल्दी-जल्दी एक छोटे बैग में रखे और सबको साथ लेकर अग्नितीर्थ कहे जाने वाले गर्म पानी के कुण्डों की ओर चल पड़े।

अग्नितीर्थ यानी तप्त जलकुण्ड

अलकनन्दा के पुल को पार करके वे दूसरी ओर पहुँचे। दादा जी उन्हें तप्त जलकुण्डों की ओर ले गए।

‘‘गर्म पानी का स्रोत!’’ मणिका आँखें फाड़कर चीख उठी।

‘‘गर्म पानी की नहीं दीदी, खौलते पानी का।’’ निक्की बोला।

‘‘हाँ, और एकदम प्राकृतिक।’’ दादा जी बोले, ‘‘इस स्थान को अग्निपीठ भी कहते हैं। भगवान बदरी विशाल के दर्शन से पहले इन कुण्डों के जल से स्नान करना शुभ माना जाता है।’’

समीप पहुँचकर निक्की ने कुण्ड के जल में हाथ डाला और तुरन्त बाहर खींच लिया।

‘‘क्या हुआ?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘इतना गर्म पानी! एकदम खौलता हुआ, बाप रे!! ’’ निक्की चिल्लाया।

स्वयं नहाने से पहले दोनों बच्चों को नहला देना ठीक समझकर मणिका को ममता ने और निक्की को दादा जी ने नहलाना शुरू किया। कुण्ड से निकलकर जल खौलते पानी की तरह छलककर एक नाली से होता हुआ नीचे बहती अलकनन्दा में समाए जा रहा था। एक-एक मग में पानी लेकर फूँक से ठण्डा कर-करके दोनों बच्चों को नहलाया गया। उन्हें कपड़े पहनने को कहकर दादा जी, ममता और सुधाकर ने नहाना शुरू किया।

‘‘तुम भी इस गर्म जल से नहाने का आनन्द ले लो, अल्ताफ।’’ सुधाकर ने अल्ताफ के निकट जाकर धीमे-से कहा।

‘‘मन तो है सर जी,’’ वह बोला, ‘‘मैं तो इस संकोच में दूर खड़ा हूँ कि एक मुसलमान का यहाँ पर नहाना कहीं एतराज की वजह न बन जाए।’’

‘‘अबे, तेरे क्या माथे पर मुसलमान लिखा है? और ये कुण्ड क्या किसी के बाप ने खुदवाए हैं जो यह तय करेगा कि कौन इनके पानी से नहा सकता है कौन नहीं। कपड़े उतार और चुपचाप नहा ले।’’ उसके पास जाकर सुधाकर ने उसे लगभग डाँटते हुए फुसफुसाकर कहा; लेकिन अल्ताफ मन को मारे अलग ही खड़ा रहा, नहाया नहीं। वह बोला, ‘‘हम ड्राइवर लोग पूरे हिन्दुस्तान में घूमते हैं सर जी; लेकिन ऐसा कोई काम नहीं करते जिसमें किसी के एतराज की गुंजाइश बनती हो। आपने बराबर का समझने जितना प्यार दिखाया, यही बहुत है मेरे लिए।...’’

मुंशी नसरुद्दीन उर्फ़ बाबा बदरुद्दीन

‘‘अल्ताफ, घर से निकलने से लेकर यहाँ पहुँचने तक बाबू जी ने अनगिनत जानकारियाँ हम सब को दी हैं; लेकिन एक जानकारी ऐसी है जो या तो इन्हें मालूम नहीं है या उसे ये बताना भूल गए हैं।’’ सुधाकर ने उससे कहा।

‘‘कौन-सी जानकारी?’’ उसकी बात पर दादा जी ने तुरन्त पूछा।

‘‘बाबू जी, यह जानकारी पिछले दिनों आपके दोस्त बी. मोहन नेगी जी से फोन पर बातें करते हुए मुझे अचानक ही मिली।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘हाँ-हाँ, लेकिन वह जानकारी है कौन-सी?’’ दादा जी जानने को उत्सुक स्वर में बोले।

‘‘बताता हूँ।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘इस अल्ताफ के संकोच की वजह से वह बात मुझे एकाएक याद आ गई। नेगी अंकल ने बताया था कि नन्दप्रयाग के रहने वाले नसरुद्दीन जी ने सन् 1867 में ‘श्री बद्री महात्म्य’ नाम से भगवान बद्रीनाथ की आरतियों आदि का संग्रह छपवाने के लिए अंग्रेजी शासन से रजिस्टर्ड कराया था। कोई भी किताब छपवाने से पहले उन दिनों सरकार से इजाजत लेनी पड़ती थी। वह किताब सन् 1889 के आसपास छपकर आई थी और अब लगभग दुर्लभ है। वे इस इलाके के डाकखाने में मुंशी थे। भगवान बद्रीनाथ में गहरी श्रद्धा होने के कारण लोग उन्हें मुंशी नसरुद्दीन की बजाय बाबा बदरुद्दीन ही कहने लगे थे। बहुत-से लोग तो यह भी मानते हैं कि भगवान बद्रीनाथ जी की जो आरती इन दिनों गाई जाती है, वह मुंशी नसरुद्दीन की ही लिखी हुई है, लेकिन इस बात का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।’’ इतना बताकर वह पुनः अल्ताफ से मुखातिब हुआ, ‘‘इसलिए अपने मुसलमान होने के डर को तू दिल से निकाल दे। ‘हरि को भजै सो हरि का होई’ याद रख और निडर होकर कुण्ड के जल से नहा।’’

‘‘यह रहस्य तो वाकई मुझे भी आज ही पता चला है।’’ सुधाकर की यह बात सुनकर दादा जी ने कहा।

‘‘अच्छा, एक बात तुझे और बता दूँ, ’’ सुधाकर ने पुनः अल्ताफ से कहा, ‘‘दुनियाभर में गर्म पानी निकालने वाले ऐसे लाखों स्रोत हैं। अनपढ़ लोगों के सामने धन्धेबाज लोग इन्हें भगवान का चमत्कार बताकर पैसे ऐंठते हैं। असलियत यह है कि यह धरती के भीतर होने वाली कुछ रासायनिक उथल-पुथल का करिश्मा है, भगवान का चमत्कार नहीं। दरअसल, जमीन के भीतर गन्धक वगैरा की अधिकता के कारण यह पानी गर्म होकर निकलता है और उसी की वजह से दाद-खुजली वगैरा चमड़ी की बीमारियों को ठीक भी करता है। अगर तुझे दाद-खाज है तो चल, उसे ठीक करने के लिए ही नहा ले।’’

उसकी इस दलील पर अल्ताफ हल्का-सा मुस्करा दिया और बोला, ‘‘नहीं सर जी, ऊपर वाले की दुआ से मैं पूरी तरह निरोग हूँ। आप इंजोय करिए।’’

जय हो...

स्नान से निवृत्त होकर वे सब भगवान बदरी विशाल के दर्शन के लिए मन्दिर के सिंहद्वार पर लगी श्रद्धालुओं की लम्बी लाइन में जा खड़े हुए। लाइन जैसे-जैसे आगे खिसकती रही, वैसे-वैसे उनका तन और मन दोनों रोमांच महसूस करने लगे। जैसे ही सिंह-द्वार पर पहुँचे, उन्होंने अपना-अपना माथा वहाँ टेक दिया। फिर खड़े होकर दादा जी अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर अभिभूत स्वर में बोले—

‘‘आपकी शरण में आ गए हैं, हे बाबा बदरी विशाल! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!!’’

नहाने से पहले पहने हुए इन सबके कपड़ों से भरा बैग कन्धे पर लटकाए अल्ताफ श्रद्धालुओं की लाइन से काफी अलग कुछ दूर खड़ा था। यह सब देखकर श्रद्धावश उसने भी अपने हाथ जोड़ दिए।

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