I do not speak truth - 29 in Hindi Fiction Stories by Neelima Sharma books and stories PDF | आइना सच नहीं बोलता - २९

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आइना सच नहीं बोलता - २९

आइना सच नही बोलता

कथाकड़ी २९

लेखिका ___ नीलिमा शर्मा निविया

लाभ हानि, नफ़ा नुकसान, इस सबके बारे में कभी सोचा ही कहाँ था नंदिनी ने। और जीवन के बहीखाते में केवल घाटा ही तो दर्ज होता आया था अब तक। पर ऐसे कैसे चलेगा। जीवन तो जीवन है कोई बहीखाता नहीं। कुछ तो करना पड़ेगा। यूँ हार नहीं सकती नंदिनी। फिर अब उसकी जीत में सबकी जीत छिपी है, माँ, चाची, भाभी और दिवित। इन सबकी आशाओं की डोर थामी है नंदिनी के हाथों ने... तो कुछ करके दिखाना ही होगा। हाँ करेगी नंदिनी। जीत को हार में बदलेगी। अनुभवों के सागर से अबके खाली हाथ नहीं लौटेगी नंदिनी। सबकी जीत के लिए एक बार मनप्राण से फिर जूझने का फैसला किया नंदिनी ने।

सुबह काम से निपटकर सबको बुलाया नंदिनी ने। जब तक सब नहीं आये वह हिसाब की कॉपी में सर गड़ाये उसकी इबारत से जूझती रही। अंकों में डूबती उतराती रही। सब खंगाल डाला और इसके होंठों पर कुछ अस्फुट स्वर फूट पड़े, "कॉस्ट कटिंग" हाँ, भैया को कई दफ़ा फोन पर कहते सुना था, कॉस्ट कटिंग यानी यथा संभव बचत ।

इस बार की मीटिंग में माँ, चाची, भाभी और कुछ महिलाएं साथ बैठी थीं। सबको एक साथ बैठा देखकर नंदिनी ने बहुत हिम्मत करके कहा “ आप सब मेरे अपने हैं अभी तक हम सब बिना खर्च की परवाह किये काम कर रहे थे लेकिन हम यहाँ खुद के लिय सामान नही बना रहे | हमको यह सामान बेचना हैं आप सब भी अपने पारिश्रमिक की उम्मीद रखती हैं, मैंने सब हिसाब लगाया हम सब खर्च निकालने के बाद बहुत कम फायदे में हैं जो मुनासिब भी नही बहुत कम हैं “

अमिता ने बातचीत की डोर थामकर बात आगे बढ़ायी “ सब अपना खाना घर से लायेंगे ,जो जैसा और जितना काम करेगा उसके हिसाब से उसको पैसा दिया जायेगा | सप्ताह में एक ही छुट्टी मिलेगी और कच्चा माल कम से काम व्यर्थ जाए इसका प्रयास करना होगा और काम का पैसा महीने में एक बार मिलेगा “

कुछ महिलाओं के चेहरे उतर गये और कुछ ने हर्ष मिश्रित ख़ुशी से सब नियम स्वीकार किये | कच्चा माल तैयार करके दिल्ली मेले में भेजने की तैयारी की गयी और इस बार साक्षी सुनीता के साथ अमिता भी दिल्ली मेले में साथ स्टाल पर संकुचित सहमी सी सब देखती रही |

साक्षी और नंदिनी ने ५ दिन में ही अधिकतर साड़ियाँ बेच ली लेकिन उनके बनाये क्रोशिया के मेजपोश और कुशन कवर नही बिक पाए | मशीन से बुने मेजपोश और अन्य सामान उनके हाथ से बनाये सामान की अपेक्षा सस्ते और सुन्दर थे | मेले में कुछ नए लोगो से मुलाकात भी हुयी और कुछ नए लोगो ने उनके बनाये सामान में उत्साह दिखाया | कुछ लोगो ने उनको सामान की गुणवत्ता सम्बंधित सुझाव भी दिए |बचे हुए माल और साड़ियो के नए आर्डर के साथ वापिस लौटती नंदिनी ने बाजार की मांग के अनुसार माल तैयार करने के बारे में विचार किया |

रास्ते में उन्होंने कुछ फैशन पत्रिकाए खरीदी ताकि समय की मांग के अनुसार डिजायन चुनने में उनको मदद मिल सके | बचा हुआ सामान एक तरफ मुँह चिढ़ाता हुआ डिब्बो में बंद रखा हुआ था जिसे वही कसबे की महिलाओं को लागत मूल्य पर बेचने का सुझाव रमा चाची ने दिया ||

अमिता की आँखे भर आई थी नंदिनी को यह सब सम्हालते हुए देखकर | लेकिन उन आसुंओं को भी उसने ऐसे छुपा लिया जैसे इन
विचारों को कई साल से छुपाती आ रही थी मन में। अमिता नहीं भूली थी कि
वो जहां रहती है वहां औरत की ख़ुशी कोई मायने नहीं रखती, उसे याद आया कि कैसे कुछ साल पहले तक जो लोग उसकी दहलीज़ पर खड़े नहीं होते थे वो ही तन कर खड़े हो गये थे कि "गाँव की इज़्ज़त ख़राब होगी, ऐसे गाँव की
बहू घूम घूम कर सिलाई कढ़ाई करने लगी तो" उस पल को याद कर अमिता डर जाती है जब सरपंच ने कहा "शाम को बहू को लेकर पंचायत में आना " डर कर
नंदिनी के मायके फ़ोन किया था न अमिता ने, उधर से नंदिनी के पिता ने
कितने बेरूख़े अंदाज़ में कह दिया था उस दिन 'आप और आप की बहू ने मेरी
इज़्ज़त की सोची होती तो आज जे दिन न देखना होता समधन ,आपने भी तो दुहाजू से मेरी बेटी का ब्याह करा दिया मैंने कहा था जायदाद ले ले केस करके लेकिन मेरी जाई ने ही मेरी नहीं सुनी “ |
लेकिन नंदिनी उसने जैसे सोच लिया था उतनी ही देर में कि उसे क्या करना है और वो सर पर पल्लू रखकर स्वर को विनम्र करते हुए बोली 'चलें पंचायत, अपने हैं और वो भी बुज़ुर्ग, उन्हें इंतज़ार करवाना ठीक नही होगा माँ !! !”

'जी ताऊ जी !! आप लोगो ने हमें बुलाया था'

“देख ! समर की बहू!! यह गाँव बहू को भी उतना मान देता आया जितना बेटी को | आजतक किसी बहू को काम करने की इज़ाज़त नही मिली | लेकिन चौधरी के बहुत अहसान इस गाँव पर और दीपक की गद्दारी का सबको मालूम , इसलिए मायके लौट जा “

“ ताऊ जी माँ ने कहा था डोली में जा रही हो अर्थी से निकलना उस घर से

आप ही बताओ माँ को किसके सहारे छोड़ दूँ और इस दिवित को “
सरपंच जी ने कुछ सोचा और मुस्कुरा कर कहा '”देख छोरी तू चालाक हैं “

ताऊ जी आज दिवित ही इस घर का पुरुष हैं और अभी बहुत ही छोटा भी उसके कमाने में अभी बहुत वक़्त हैं , माँ बाप भाई कब बेटियों को घर रखते हैं ब्याह के बाद , अब माँ और दिवित की जिम्मेदारी भी मुझपर हैं , आप मेरा कसूर बताये ? क्या गाँव भर के लोग मेरा और परिवार का खर्चा दिवित के बालिग़ होने तह उठा सकते हैं ? नंदिनी ने पंचायत में सवाल उठाकर सबको विस्मित कर दिया

पंचों ने आपस में मशवरा किया और सरपंच जी बोले ...

“सुन बिटिया ! मै तेरे बापू से बड़ी उम्र का हूँ, तो सुन कोई ऐसा काम न करना कि गाँव का मान घटे समझी, सिलाई कढाई कर, कपड़ो को जोड़ लेकिन कोई रीत न फाड़ डालना...... नहीं तो मैं भी बहुत ही ज़ाहिल सा सरपंच भी बन सकता हूँ'
यह कह के सरपंच ने नंदिनी को देखा एक सर्द नज़रो से लेकिन, ठिठक गया वो
जब नंदिनी की आँखो में ख़ुशी के आँसू संग मुँह से ये सुना
'ताऊ जी आप ने बहू से बेटी का मान दिया है मुझे और क्या चाहिए, और बेटियां कब कुछ फाड़ती या तोड़ती हैं, ताऊ जी हम तो खुद कतरनों में और टुकड़ो में जीती हैं और सारी उम्र अपनी ही कतरनों को सिलती और मन के टुकड़े जोड़ती खत्म हो जाती हैं
उस दिन के बाद से किसी ने नंदिनी से कोई सवाल नहीं किया और
न अमिता ने कभी उन दो बड़ी-बड़ी बिना काज़ल वाली आँखो में आँसू देखा ।

नन्हा दिवित भी उम्र की सीढियां हौले हौले चढ़ रहा था और दिन प्रतिदिन शरारती होता जा रहा था | अमिता उसके पीछे दौढ़ते हुए मातृत्व को फिर से जी रही थी उसकी शरारते और बाते घर भर में एक जीवन्तता बनाये रखती | पिटा के साथ न रहने पर भी उसकी कई आदते दीपक जैसी थी जो वो अपने बचपन में किया करता था |

अमिता को रह रह कर दीपक याद आता लेकिन शब्दों से उसने कभी बाहर ना आने दिया | दीपक की बचपन की सहेजी स्वेटर चाह कर भी बाहर ना निकाल पाती नंदिनी के शांत होते मन को वह और उठला नही करना चाहती थी

२ माह हो गये थे सुनीता तो अब उस घर को अपना घर मानकर सब काम कुशलता से निपटा लेती थी लेकिन साक्षी अब खामोश रहने लगी थी | कई बार नंदिनी ने उसको रातो को जागते देखा था | कई बार फ़ोन पर घंटी बजते ही उठाने को दौड़ जाती थी , थोड़ी देर बाद लौट कर आती तो पूछने पर ब्लेंक कॉल या रोंग नम्बर कहकर चुपचाप काम करने लग जाती | अहम् दोनों का था | भाई भी उसको लिवाने नही आ रहे थे और साक्षी भी खुद से नही जाना चाहती थी | जबकि दिल ही दिल में दोनों एक दुसरे का साथ चाहते थे | समय ने एक दुसरे की कमी और प्यार का अहसास दिला दिया था शायद |

एक शाम छत पर साड़ियो पर एप्लिक के फूल बनाते हुए साक्षी गीत गुनगुना रही थी

ऐ मेरे हमसफ़र,

एक ज़रा इन्तज़ार

सुन सदाएं, दे रही हैं,

मंज़िल प्यार की

अचानक उसने सीढ़ियों पर भारी कदमो की आवाज़ सुनी, पलट कर जो देखा तो सामने पति को देख उसकी रुलाई फूट गयी | देर तलक दोनों बिना बोले हाथ थामे रोते रहे और” घर नही चलोगी साक्षी !! यह साड़ियाँ और उस पर बेलबूटे तो घर पर भी काढ़े जा सकते हैं न | “ सुनकर साक्षी लिपट गयी

सीढ़ी उतर कर जब नीचे आई तो नंदिनी और अमिता मेज पर खाना लगा रही थी | नंदिनी मंद मंद मुस्कुरा रही थी | विरह को उससे बेहतर कौन समझ सकता था| भाई को मनाकर बुलाने के लिए उसकी सहायता अमिता ने की थी | साक्षी और नंदिनी के बेटे रमा के साथ कमरे में खेल रहे थे | पिता को अचानक सामने देख साक्षी का बेटा पहले तो कुछ शरमाया फिर कूद कर पाSSSS पाSSSSSSSS कह गोद में चला गया | दिवित पा .....पा कह कर मामा की तरफ देखता रहा |

नंदिनी और अमिता की आँखे भर आई और अमिता ने दिवित को उठाकर अपने कमरे में लेजाकर समर प्रताप की फोटो के सामने खड़ा कर दिया और दिवित को दिखा कर बोली ............... पा SSSS पा

साक्षी अगली सुबह ससुराल लौट गयी जाते जाते अमिता ने उसको अपनी बेटियों की तरह नेग शगुन कपडे मिठाई के साथ विदा किया | साक्षी जाते जाते एप्लिक के लिय आई सब साड़ियाँ और सामान भी साथ ले गयी कि वहां से बनाकर भेज दूंगी |

साक्षी के लिए दूसरी मंजिल पर अलग घर का प्रबंध पहले से ही था क्यूकि जो घर नंदिनी को अपने पैरो पर खड़े होने की इज़ाज़त नही दे रहा था आज बहू को कैसे इज़ाज़त दे सकता था | लेकिन बेटे को अब समझ आ रही थी अपनी पत्नी का साथ चाहिए था उसे | अपने पति और पुत्र के मध्य सेतु का काम करते हुए नंदिनी की माँ ने पति से बेटे को अलग घर चौका बसाने की इज़ाज़त दे देने का पुरजोर आग्रह किया वर्ना बहू भी कही विद्रोही ना हो जाए समाज में बेटी का घर नही बसा इसलिए बहू भी उजाड़ दी जैसे जुमले ना सुनने को मिले | पतिपत्नी आपस में खुश रहेबस सबकी यही इच्छा थी |

साक्षी ने अपने नए घर में भी सब महिलाओं के साथ हाथ के काम की कारीगर महिलाओ का समूह बनाया और जोर शोर से कार्य करके माल तैयार करने लगी | सुबह शाम सास ससुर की बिटिया की तरह देखभाल और इज्ज़त भी करती सब अपनी अपनी परिधि में खुश थे | नंदिनी की जिन्दगी के लिय खुद को कसूरवार समझते हुए उसके पिता भी अब कुछ उदारमना हो गये थे |

अब दो स्थानों पर सामान तैयार हो रहा था | कुछ सामान पार्सल करके पूना चिराग के पास भी भिजवाया गया ताकि वहां से सैंपल दिखाकर नया आर्डर मिल सके तो कुछ सामान नंदिनी खुद बैग में भर कर शहर में रहते अफसरों की पत्नियों को दिखाने ले जाती | उनकी किट्टी पार्टी में यह साड़ियाँ हाथो हाथ बिक जाती और नए आर्डर भी मिल जाते थे |

नंदिनी की हर एक साड़ी का डिजायन एक दूसरे से अलग होता था | सफाई और नफासत से काढ़े फूल बूटियाँ बेल और मुकेश की मांग बढ़ रही थी | नए ज़माने के बदलते मापदंडो के साथ नंदिनी भी अपने मोटिफ और डिजाइन भी बदल देती थी कब किस कपडे की मांग हैं किस रंग का चलन हैं यह सब ध्यान में रखती थी पत्रिकाओं की मदद से नंदिनी अपने को अपडेट करती थी और हर माल को कड़ी जांच के बाद ही पैक करवाती थी \\ समय अपनी चाल से चल रहा था | काम की थकान से अकेली नंदिनी कई बार नींद में महसूस करती थी अपने इर्द गिर्द एक मजबूत बाहों का घेरा , जो उसकी थकान को क्षण मात्र में दूर कर देता था अगले ही पल पसीने पसीने होकर नींद खुल जाती उसकी और वो इस तरह के खयालो को गुनाह मान कर झटक देती थी |

एक रात उसे अचानक सुनाई दी धीमी धीमी सिसकियाँ सी , उसने सोचा यह सुनीता ही होगी जो पति को मायके को याद करके रोती रहती थी iउसके भाई भाभी ने तो उसकी कभी कोई सुध नही ली थी | सफ़ेद कपडे पहने सुनीता फ़ोन पकड़ क्यों रो रही है जानने के लिय उसने बत्ती जलानी चाही तो उसे सुनाई दिए धीमे शब्द ……

मुबारक हो एक और बेटे का जन्म

......

खुश हूँ तेरी हर संतान के लिए ,जुग जुग जिए

........

नही!! मैं नही आ सकती हूँ तेरे पास

.......

“, तुम्हारा मन नही करता क्या माँ को मिलने का ,तुम ही लौट आओ ..”

.........

“ हाँ नंदिनी अब मेरी बेटी हैं बहू नही “

........

दिवित नही जानता उसका पिता कौन हैं उसके लिए चौधरी साहेब ही पापा हैं “

.....

नहीं!! मैंने नंदिनी को तलाक के कागज़ नही दिए ‘

.....

‘नही !!!! मैं अपने जीते जी तो नंदिनी को नही छोड़ सकती तुम अपना परिवार देखो , मेरी चिता को आग लगाने वाला अब दिवित हैं ‘

बिना दूसरी तरफ के शब्द सुने भी नंदिनी समझ गयी थी दूसरी तरफ कौन हैं और क्या सवाल पूछे जा रहे थे |

नंदिनी पसोपेश में थी और बिस्तर पर आकर सोचने लगी ___ क्या उसने गुनाह किया हैं एक माँ और बेटे को अलग करके ? उसकी वज़ह से ही अमिता दीपक से दूर हैं वरना वो आराम से दीपक के पास अमेरिका जाकर रह सकती हैं | तो अगले पल उसको लगता कसूरवार वो नही हैं खुद अमिता हैं और चौधरी जी जिन्होंने अपने बेटे के विवाहित होने की बात जानकर उसका विवाह कराया सिर्फ एक वारिस की चाह में ......

सुबह उठकर नंदिनी ने माँ की लाल आँखे देखी लेकिन कुछ नही पूछा | उसने रमा चाची और माँ को धीमे स्वर में बाते करते देखा तो चुपके से उठकर माँ के कमरे में जाकर अलमारी खोली ... लाकर में उसने तलाकनामा देखा जिस पर दीपक के हस्ताक्षर थे | सिर्फ एक कागज के टुकड़े पर अपना नाम लिख कर अलग हो जाना क्या इतना सहज होता | क्या दीपक से तलाक के बाद उसको अपना कंवारापन वापिस मिल सकता \\ उस कोरी देह की मासूमियत लौट सकती जिस पर एक ही स्पर्श अंकित हुआ | उसने जो फलक तक उड़ान के सपने संजोये थे क्या इस कागज के अक्षरों तले उनकी मृत देह नही थी |

आँखों के सामने लाल जोड़ा , सिंदूर घूम गया और देह पर हलके रंग के कपड़ो की पोशाक पहने वो सबकी नजरो में आज भी दीपक की पत्नी ही थी चाहे पति किसी और के साथ पति धर्म निभा रहा था | और अब तो वो स्त्री उसके बच्चे की भी माँ बन चुकी हैं |

बेरंगी सी हो गयी थी उसकी जिन्दगी | कहीं किसी कोने में उसे आस थी शायद बेटे का मोह उसे वापिस ले आये लेकिन अब वो आस भी टूट गयी थी | आईने के सामने खड़े होकर उसने खुद को देखा

“ सचमुच एक पुरुष को नही रिझा कर रोक पायी वो “

फिल्मो में देखा था उसने .शायद उसके रिझाने ने ही उसकी झोली में दिवित दिया था लेकिन प्रेम देह से नही टिकता मन में होना चाहिए और दीपक दिल से किसी और को प्रेम करता था |

दीपक उन कमजोर पलो का शिकार ही क्यों बना उसने तो प्रेम किया था ना सिल्विया से | फिर कैसेऔर क्यों उसकी देह से खेलता रहा...... सिर्फ जायदाद के लिए | किसको दोषी माने ? समाज , माता बाबा या सास ससुर को .... काश वो स्वयं कुछ कर पाती कह पाती उसे खुद के लिए कभी लड़ना ही नही आया | बचपन में भी माँ भाई को कुछ ना कहती थी उसे ही चुप कराया जाता था |

दीपक और सिल्विया कितने खुश होंगे ना | कितना खुश किस्मत होगा वो बच्चा जिसे माँ बाबा का प्यार मिलेगा | कम से कम सिल्विया को तो हक मिल रहा हैं | अनजानी सी उस लड़की के लिए उसके मन में प्यार उमड़ आया

सोचे अनंत तक उड़ती रही लेकिन उनकी कोई मंजिल नही थी | उसने भारी मन से उन तलाक़ के कागज पर दीपक के नाम के नीचे अपना नाम लिखा और मिटा दिया अपने हाथ की लकीरों से उसका नाम ..और कागज चुपचाप माँ की अलमारी में वापिस रख आई

मायके में माँ की तबियत ख़राब रहने लगी थी छोटे भाई का विवाह भी तय हो चुका था | लड़की बहुत अमीर परिवार की नही थी परन्तु सुसंकृत फौजी परिवार की लड़की थी | शादी में नंदिनी की सोबर और साक्षी की चटख कलात्मक साड़ियो की चर्चा सब तरफ हो रही थी | उनकी परिष्कृत रूचि के चर्चे सब तरफ थे | दो सखियों की भांति ननद भाभी काम को आगे बढ़ा रही थी | सब का व्यवहार भी बदल चुका था |

सुनीता भी अब पैकिंग छोड़ कर आगे बढ़कर सूट पर कढाई करने जैसे कार्यो को करने लगी थी | अब उनका काम मेजपोश और कुशन से हटकर साड़ियों और सूट पर कढाई पर केन्द्रित होने लगा था | हाथ के अलावा अब मशीन पर काम करने वाले कुछ पुरुष कारीगर भी साथ जुड़ गये थे काम और तेजी से होने लगा था |

नीतू मीतु भी अपने पतियों और बच्चो के संग माँ को मिलने आती थी लेकिन नीतू मीतु अब ज्यादा ना रुक पाती उनको अपने पति की निगाहें जब सुनीता और नंदिनी के इर्द गिर्द घूमती नजर आती | बिना पति के स्त्री को सब अपनी बपौती मान लेने को जैसे तैयार थे | वो जानती थी माँ अब ठीक हैं नंदिनी की साथ .. पति के ताने दोनों बहनों को अक्सर सुनने को मिलते थे दीपक की कारगुजारियो की वज़ह से और कभी माँ की वज़ह से .... अगर माँ दीपक के साथ चली जाती तो शायद भाई कभी ना कभी बहन बहनोई और बच्चो को अमेरिका घुमने बुला लेता . अब तो नेग भी गिन कर मिलता था ... ..... लड़की होना दर्द ही देता हैं . आज समझती थी वो नंदिनी का दर्द और उन्हें उसका आत्मविश्वासी और स्वालंबी होना बहुत अच्छा लगता था | पति के डर से दोनों कार्य करने में समर्थ नही थी लेकिन अक्सर अपनी परिचित महिलाओं की साड़ियो का आर्डर फ़ोन पर नंदिनी को दिलाती रहती थी ....

समय की चाल तेज हो रही थी और दिवित भी अब पांच बरस का होने लगा था |दिन भर शरारते करता दिवित अब घर से बाहर बच्चो से खेलता तो हमेशा नए शब्द सीख कर आता तो कभी गाली भी सीख आता था | नंदिनी को अब उसकी शिक्षा की फ़िक्र होने लगी | कसबे के अच्छे स्कूल में उस का नाम लिखवा दिया गया | फार्म पर पिता का नाम जरुरी था ................ दीपक लिखते हुए मन में टीस भर आई |

नंदिनी को हैरानी हुयी जब सब बच्चे माँ से लिपट कर रो रहे थे उनको स्कूल नही जाना कहकर | लेकिन दिवित ने स्कूल जाने के समय कोई जिद नही की | कक्षा में जाकर वो सब बच्चो के संग व्यस्त हो गया |नंदिनी १२ बजे छुट्टी होने तक स्कूल के बाहर ही कार में बैठी रही और वापिस आते दिवित को देख ममत्व उमड़ आया |
नन्हा दिवित अब बड़ा हो गया था पिता की अनुपस्तिथि ने शायद उसको भी समझदार बना दिया था | माँ की गोद में मुंह छिपाते दिवित ने माँ को स्कूल की बच्चो की बाते बतानी शुरू कर दी | रास्ते भर बेटे को दुलारती सहलाती नंदिनी का भी अपनी माँ को तो कभी सास जो अब माँ से ज्यादा प्यारी थी को याद करता | उन दोनों का स्नेह ही था जो उसे अब दिवित को लौटाना था |

घर आते ही उसने देखा चिराग अमिता के कमरे में बैठा हैं और उसके हाथ में एक सुनहरा सा कार्ड था | अमिता ने बर्फी की प्लेट थमाते हुए चिराग की सगाई की सूचना दी तो उसने बधाई देते हुए चिराग की तरफ देखा
और पूछा
“कौन हैं वो भाग्यशाली लड़की “
“आपने तो नही खोज कर दी अपने जैसी कोई तो मैंने अपने साथ काम करने वाली एक लड़की से शादी कर लेने का अनुरोध किया “
कहकर चिराग जोर से हंस पड़ा
नंदिनी ने मिठाई का टुकडा उठाया और बोली ..”हे भगवान्!! हमारी तो कोई छोटी बहन भी नही थी जो आपको ब्याह देते ... चलिए आपकी पत्नी को ही हम अपनी छोटी बहन बना लेंगे | “

कहकर नंदिनी ने चुहल की

लेकिन जूते छिपाई में नेग नही दूंगा आपको “ कहकर चिराग ने भी ठहाका लगाया

अमिता सहज थी उन दोनों की सहजता देखकर ...... दिवित ने चिराग को और अमिता को स्कूल के किस्से बताने आरम्भ कर दिए .......

अमिता / नंदिनी की आँखों की चमक से जैसी घर भर में रौनक लौट आई

चिराग नंदिनी से काम के बारे में पूछने लगा लेकिन उसकी आँखों की चमक कुछ और ही चुगली कर रही थी जैसे वो कुछ सरप्राइज देने वाला हो ......

क्रमश :

लेखिका_ नीलिमा शर्मा निविया\\ आशा पाण्डेय

सूत्रधार नीलिमा शर्मा