मन के मोती 3
{लघु कथा संग्रह}
लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी
{1}
मेहनत की खुशबू
उसने पिता से विरासत में मिले जमीन के उस टुकड़े को देखा. ऊबड़ खाबड़. पत्थर ही पत्थर भरे थे. पत्नी ने व्यंग किया ‘जब किसी की किस्मत पर ही पत्थर पड़े हों तो क्या.’ किंतु उसने उसने व्यंग को अनसुना कर दिया. किस्मत से हार मानना तो उसने सीखा ही नहीं था. बहुत समय पहले उसने पढ़ा था कि इंसान की इच्छा शक्ति पहाड़ भी हिला सकती है. उसके मन में भी एक संकल्प था. वह जुट गया अपने लक्ष्य को पाने के लिए. रात दिन एक कर दिए. पसीने की बूंदों से कर्मबीज फलित हुए. चारों तरफ लहलहाते फूलों की छटा थी. बंजर जमीन चमन बन गई थी. पत्थरों से मेहनत की खुशबू आने लगी थी.
{2}
ऑक्सीजन
रवि पेशे से वकील था किंतु लेखन से उसे विशेष लगाव था. इंटरनेट पर अक्सर वह लिखा करता था. इस समय वह वायु प्रदूषण पर एक लेख लिख रहा था. लेख लिखते समय जो तथ्य उसके सामने थे उन्हें देख कर वह सोंचने लगा कि यदि यही हाल रहा तो कुछ सालों बाद सांस लेने के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों में मिलेगी. वह लिखने में व्यस्त था तभी सिन्हा जी आ गए. वह पुराने परिचितों में थे. रवि उन्हें चाचाजी कह कर बुलाता था. कुसलक्षेम पूंछने के बाद सिन्हा जी बोले "बेटा तुमसे मदद चाहिए. मुझे मेरा मकान बेंचना है. कोई ग्राहक बताओ. यह बात मैं सबसे नही कहना चाहता इसलिए तुम्हारी मदद ले रहा हूँ."
"पर मकान क्यों बेचना चाहते हैं. कोई आर्थिक संकट है क्या." रवि ने पूंछा.
"अब तुमसे क्या पर्दा. दरअसल मुझे मेरे बेटे नवीन पर अब भरोसा नही रहा. उसका और बहू का जो व्यवहार है उससे लगता है कि वह दोनों कुछ भी कर सकते है." सिन्हाजी ने अपनी व्यथा बताई. वह आगे बोले "अब जमा पूंजी इतनी है नही. मकान बेंच कर जो मिलेगा उससे अपने लिए छोटा मोटा कोई आसरा ढूंढ़ लूंगा. अब उनके साथ नही रह सकता."
रवि ने मदद का आश्वासन दिया. कुछ देर बैठ कर सिन्हाजी चले गए.
अभी आधा घंटा ही बीता होगा कि नवीन आ गया. मुद्दे की बात करते हुए बोला "पापा मकान बेंचना चाहते हैं. तुम तो वकील हो कोई तरकीब बताओ कि वह ऐसा ना कर सकें." फिर स्वयं ही उपाय बताते हुए बोला "क्या यह आधार ठीक रहेगा कि बताया जाए कि उनका मानसिक संतुलन ठीक नही. वैसे भी आज कल उनका चाल चलन कुछ ठीक नही है."
उसकी बात सुन कर रवि सोंचने लगा 'अब इन बीमार रिश्तों के लिए ऑक्सीजन कहाँ से लाई जाए.'
{3}
नींव
नीता का पारा चढ़ा हुआ था. विवेक नीता की नाराज़गी समझ रहा था. उसे मनाते हुए बोला "अब अपना मूड खराब मत करो. हंसो बोलो."
नीता ने घूर कर देखा फिर गुस्से से बोली "मुझे दो चेहरे रखने नही आते हैं. मेरा मूड खराब है और वह दिखेगा भी."
"मूड खराब कर क्या मिलेगा." धीरे से बात चीत से हल निकल आएगा.
"उस दिन बॉलकनी की छत का प्लास्टर टूट कर गिर गया. कुछ क्षण पहले गिरता तो बबलू चोटिल हो जाता. धीरे धीरे के चक्कर में एक दिन छत सिर पर गिर जाएगी." नीता ने कटाक्ष किया.
कुछ सोंच कर विवेक बोला "ठीक है घर की मरम्मत और रंग रोगन करवा लेता हूँ."
"जो मर्ज़ी करिए. पर इस पुराने मकान की नींव ही कमज़ोर हो गई है. क्या फायदा होगा." नीता यह कहते हुए रसोंई में चली गई.
विवेक सोचने लगा कि नीता भी अपनी जगह सही है. मकान बहुत पुराना हो गया है. सालों से इसकी मरम्मत व पुताई भी नही हुई है. इतने बड़े भवन के रंग रोगन पर खर्च भी तो बहुत आता है. पीछे बागीचे के लिए कितनी जगह बेकार पड़ी है. अब कौन करे बागबानी. ना ही समय है और ना ही इतना पैसा.
मकान बड़ा था पर अधिकांश हिस्सा सही देखभाल के कारण प्रयोग के लायक नही रह गया था. फिर तीन प्राणियों को जगह भी कितनी चाहिए थी. बबलू भी दसवीं कर चुका था. उसकी इचछा इंजीनियर बनने की थी. उसकी पढ़ाई के लिए काफी पैसे की ज़रूरत पड़ेगी. प्रस्ताव मान लेने में कोई हानि नही थी. पर बड़े भइया ना मानने पर अड़े थे.
'गंगा सदन' करीब सत्तर साल पहले विवेक के दादजी ने बनवाया था. उनके पिता की मृत्यु के बाद यह घर विवेक और उसके बड़े भाई को मिला था. नीचे का हिस्सा बड़े भाई का था और ऊपर विवेक अपने परिवार के साथ रहता था.
स्थान के हिसाब से मकान की स्थिति बहुत अच्छी थी. इसी कारण कुछ दिन पहले एक बिल्डर ने इस मकान को खरीदने की इच्छा जताई. उसने प्रस्ताव दिया था कि यहाँ बनने वाली बहुमंज़िला इमारत में दोनों भाइयों को एक एक फ्लैट और कुछ रुपये दिए जाएंगे. नीता को यह प्रस्ताव बहुत पसंद आया था. परंतु उसके बड़े भाई राज़ी नही थे. उनका कहना था कि यह पुरखों की निशानी है. आज के समय में इतनी जगह कहाँ मिलती है. यहाँ खुलापन है. फ्लैट में तो बंद रहना पड़ेगा. वह चाहते थे कि दोनों भाई मिल कर उसकी देख रेख करें.
विवेक उनकी बात से इत्तेफ़ाक नही रखता था. किंतु नीता खुले रूप में इस फैसले के खिलाफ थी. उसका कहना था कि जेठ जी की तो सारी ज़िम्मेदारियां निपट चुकी हैं. पर उन्हें तो अभी बबलू के भविष्य के लिए सोंचना है. फिर पुराने पड़ते इस मकान में कब तक रहेंगे. यदि बिल्डर की बात मान लें तो पैसे भी मिलेंगे और फ्लैट भी.
विवेक नीता के पास गया. वह खाना बना कर आराम कर रही थी. उसके पास बैठ कर वह बोला "तुम ठीक कहती हो. बबलू के भविष्य के लिए हमें साफ साफ बात करनी ही पड़ेगी. कल संडे है. सुबह ही मैं भइया से बात करता हूँ."
नीता के चेहरे पर खुशी झलकने लगी.
{4}
खोखली व्यवस्था
स्थानांतरण पर जब निखिल अपने शहर वापस आया तो अपने बेटे कमल के दाखिले के लिए अपने पुराने स्कूल का चुनाव किया. छात्रों को संस्कार, मर्यादा एवं अनुशासन का पाठ पढ़ाना ही स्कूल का प्रमुख लक्ष्य था. शिक्षक छात्रों के विकास पर उसी प्रकार ध्यान देते थे जैसे माता पिता देते हैं. यही कारण था कि उसके जैसा औसत छात्र इस मुकाम तक पहुँच सका था.
कमल का स्कूल में दाखिला करा कर वह निश्चिंत था कि उसका बेटा सही हाथों में है. किंतु तिमाही परीक्षा का परिणाम देख वह बहुत निराश हुआ. कमल गणित में फेल था. निखिल ने उसे डांट लगाई "तुम्हारा मन अब पढ़ने में नहीं लगता है."
कमल सहमते हुए बोला "मैं बहुत कोशिश करता हूँ. पर कुछ पाठ मेरी समझ नहीं आते."
"तो टीचर से क्यों नहीं पूंछते."
"मैं पूंछता हूँ तो वह बताते नहीं हैं." कमल ने अपनी बात रखी.
निखिल को लगा कि वह झूठ बोल रहा है. उसे डांटते हुए बोला "चुप करो. खुद की गल्ती मानने की बजाय टीचर को दोष दे रहे हो."
कमल चुप हो गया और अपने कमरे में चला गया.
अगले दिन निखिल स्कूल जाकर कमल के गणित के टीचर से मिला और उनसे कमल की समस्या बताई.
टीचर सफाई देते हुए बोले "देखिए क्लास में इतने बच्चों पर ध्यान देना कठिन है."
"मैंनें तो आप लोगों के हवाले अपने बेटे को कर दिया है. अब आप उसे देखिए." निखिल ने हाथ जोड़ते हुए कहा.
"ठीक है मैं देखता हूँ कि क्या हो सकता है."
निखिल नमस्कार कर बाहर आ गया. तभी पीछे से गणित के टीचर की आवाज़ आई "ज़रा ठहरिए."
निखिल रुक गया. पास आकर गणित के टीचर ने कहा "कमल पर विशेष ध्यान देने की आवश्यक्ता है. यहाँ यह मुमकिन नहीं है." अपनी जेब से एक कार्ड निकाल कर निखिल को पकड़ा दिया. "कमज़ोर बच्चों के लिए मैं ट्यूशन क्लास चलाता हूँ. आप कमल को वहाँ भेज सकते हैं." यह कहकर वह चले गए.
वहाँ खड़ा निखिल सोंच रहा था. स्कूल का आदर्श कहीं खो गया था. अब केवल एक खोखली व्यवस्था रह गई थी.
{5}
मलाल
हर शाम सिन्हाजी इस समय नदी के किनारे आकर बैठ जाते थे. डूबते हुए सूरज को देखते हुए आत्म मंथन करते थे. अपने बीते हुए जीवन का विश्लेषण करते थे.
अपने जीवन से वह संतुष्ट थे. सारी इच्छाएं तो कभी भी पूरी नही होती पर जीवन ने उन्हें निराश नही किया था. हाँ संघर्ष सदैव ही उनके साथ रहा. अभी माँ की गोद को सही प्रकार से पहचान भी नही पाए थे कि वह उन्हें छोड़ कर चली गईं. किशोरावस्था में कदम रखा ही था कि पिता का साया भी सर से उठ गया. चाचा के घर शरण मिली पर प्यार नही. हाथ पैर मार कर अपने पैरों पर खड़े हुए. मेहनत से वह सब हांसिल किया जो जीवन जीने के लिए आवश्यक था.
पारिवारिक जीवन में भी कोई शिकायत नही रही. जीवन संगिनी ने हर मुसीबत में डट कर साथ निभाया. बच्चे भी अपने कैरियर में व्यवस्थित हो गए. सब कुछ ठीक रहा. बस इन सबके बीच अपने बारे में सोंचने की फुर्सत नही मिली.
अवकाशग्रहण के बाद अब फुर्सत की कमी नही थीं. सारी ज़िम्मेदारियां पूरी हो गई थीं. अब अपनी बरसों की अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए उनके पास समय था. अपने जीवन में संजोए हुए अनुभवों को वह पुस्तक की शक्ल देने की कोशिश कर रहे थे. इसीलिए रोज़ शाम नदी किनारे बैठ कर अपने अनुभवों को एक लड़ी में पिरोते थे.
सिन्हाजी अपने विचारों में खोए थे तभी उन्होंने देखा कि मंदिर के कुछ लोग बोरी में भरे हुए सूखे फूल नदी में प्रवाहित कर रहे थे. वह सोंचने लगे कभी यह फूल किसी बागीचे की शोभा बढ़ा रहे थे. वहाँ से तोड़ कर उन्हें देवता के चरणों में अर्पित किया गया. आज उन्हें जल में प्रवाहित किया जा रहा था. इन फूलों ने जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर लिया था.
'क्या मैंने भी जीवन को संपूर्ण रूप से जिया है.' यह सवाल उनके मन में उठा. वह सोंचने लगे अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को उन्होंने पूरी ईमानदारी से निभाया. जो मिला उसका खुशी से उपभोग किया. अब अपने सपने को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने महसूस किया कि उन्हें जीवन से कोई मलाल नही था.
{6}
मौन बर्फ
पुलिस हिरासत में बैठी दीप्ती पूर्णतया मौन थी. उसके भीतर का तूफान थम चुका था. उसने जो किया उसके लिए उसे कोई अफसोस नहीं था. वह अपने पिछले जीवन के बारे में सोंचने लगी.
वह बी. ए. के अंतिम वर्ष में थी जब दिलीप ने एक विवाह समारोह में उसे देखा था. पहली ही नज़र में वह उसे पसंद करने लगा था. दोनों के बीच मुलाकातों का दौर शुरू हो गया. हर मुलाकात उन्हें एक दूसरे के और करीब ले आती थी. दोनों ने विवाह करने का निश्चय किया. दिलीप का इस दुनिया में कोई नहीं था. अतः उसने स्वयं ही दीप्ती के माता पिता से दोनों के रिश्ते की बात चलाई. उसकी सौम्यता दीप्ती के पिता को बहुत अच्छी लगी. बिजनेस भी अच्छा चल रहा था. अतः दीप्ती के माता पिता ने उनके विवाह के लिए हाँ कर दी.
दीप्ती और दिलीप ने मिलकर खुशियों भरा एक संसार बसाया. दिलीप उसे पलकों पर बिठा कर रखता था. उसकी हर ख़्वाहिश पूरी करता था. उनके इस खूबसूरत संसार में उनकी बेटी परी के प्रवेश से माहौल और भी ख़ुशनुमा हो गया. इस तरह का सुखपूर्वक दस साल बीत गए. किंतु उनकी खुशियों को अचानक जैसे किसी की नज़र लग गई. एक बिजनेस टूर से लौटते हुए सड़क हादसे में दिलीप की मृत्यु हो गई.
इस अचानक आई विपदा से दीप्ती का जीवन बिखर गया. वह भावनात्मक रूप से टूट गई थी. उसे किसी के सहारे की आवश्यक्ता थी. इस मुश्किल दौर में दिलीप का बिजनेस मैनेजर सुधीर मदद के लिए आगे आया. उसने आश्वासन दिया कि वह बिजनेस की सारी ज़िम्मेदारी संभाल लेगा. दीप्ती को व्यापार के संचालन की कोई जानकारी नहीं थी. अतः उसने सुधीर का प्रस्ताव मान लिया. सुधीर ने बिजनेस का सारा काम संभाल लिया. कुछ आवश्यक फैसलों को छोड़ कर अधिकांश फैसले वह स्वयं ही लेता था.
बिजनेस के काम के लिए सुधीर अक्सर ही उसके घर आता था. उसके आने से परी बहुत खुश होती थी. थोड़े से समय में ही वह उससे घुलमिल गई थी. दीप्ती भी उसे पसंद करती थी. सुधीर सदैव उसका हौंसला बढ़ाता रहता था. उसे उसके दुख से बाहर निकालने की पूरी कोशिश करता था. दीप्ती उसमें अपना एक सच्चा हमदर्द देखने लगी थी.
अपनेपन और हमदर्दी की आँच से दीप्ती के मन का दर्द पिघलने लगा. वह धीरे धीरे अपने दुख से बाहर आने लगी. अब कभी परी को लेकर तो कभी अकेली सुधीर के संग घूमने या फिल्म देखने जाने लगी थी. ऐसे ही एक बार जब परी को घर पर छोड़ वह सुधीर के साथ डिनर पर गई थी तो सुधीर ने उसके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. वैसे तो वह भी सुधीर की तरफ आकर्षित होने लगी थी. किंतु वह बिना सोंचे समझे वह कोई फैसला नहीं करना चाहती थी. उसने सुधीर से कुछ समय मांग लिया.
उस रात वह सो नहीं सकी. वह पशोपश में थी. यह फैसला उसके और परी के जीवन में बहुत गहरा असर करने वाला था. एक तरफ उसे लगता था कि किशोरावस्था की ओर बढ़ती उसकी बेटी के सर पर पिता का साया आवश्यक है. सुधीर और परी के संबंध बहुत दोस्ताना थे. उसे पिता के रूप में स्वीकार करना परी के लिए मुश्किल नहीं होगा. लेकिन जब अपने विषय में सोंचती थी तो उसे अपराधबोध महसूस होता था. दिलीप को गए अभी एक साल ही हुआ था. उसे लगता था कि सुधीर से विवाह करके वह दिलीप के साथ अन्याय तो नहीं करेगी. बहुत देर तक अनेक सवालों से जूझने के बाद उसने परी की खातिर रिश्ते के लिए हाँ करने का मन बना लिया.
एक सादे समारोह में सुधीर और दीप्ती का विवाह हो गया. एक पति और पिता के तौर पर सुधीर ने सब कुछ अच्छे से संभाल लीं. परी को कुछ समय लगा पर उसने भी उसे स्वीकार कर लिया. अब दीप्ती आँख मूंद कर उस पर यकीन करने लगी थी. पहले तो सुधीर बिजनेस के मामले में अक्सर उससे सलाह लेता था पर अब उसे कुछ भी नहीं बताता था. केवल कुछ कागज़ातों पर उससे दस्तख़त लेता रहता था.
छह महीनों में ही सुधीर ने अपना रंग बदल दिया. अब अक्सर देर रात से घर आता था. कुछ पूंछने पर दीप्ती से झगड़ा करता था. परी की तरफ कोई ध्यान नहीं देता था. दीप्ती से उसका रिश्ता केवल शरीर तक ही सीमित रह गया था.
कल रात भी सुधीर देर से लौटा. दीप्ती ने तबीयत ठीक ना होने का बहाना कर उसे टाल दिया. वह बिना किसी विरोध के चुपचाप चला गया. दीप्ती लेटे हुए सोंच रही थी. पहली बार ऐसा हुआ था कि सुधीर अपनी संतुष्टि किए बिना चुप चाप कमरे से चला गया. उसे उसकी किसी तकलीफ से कोई मतलब नही रहता था. दीप्ती केवल उसके मन बहलाव का साधन थी. आज उसने सर दर्द की शिकायत की तो बिना कुछ कहे निकल गया. पिछले कई दिनों से उसे महसूस हो रहा था कि सुधीर अब उसमें कम दिलचस्पी लेता था. वह सोंचने लगी लगता है कोई और मछली फंसा ली है उसने.
दीप्ती पछता रही थी. सुधीर पर यकीन कर उसने भारी भूल की थी.
वह समझ गई थी कि उससे विवाह करना महज़ एक जाल था. अब उसके पति की जायदाद पर भी उसका अधिकार हो गया था. दीप्ती उसके हाथ का खिलौना बन कर रह गई थी. अपनी बच्ची के भविष्य के बारे में सोंच कर वह पिछले कुछ महीनों से सब कुछ चुप चाप सह रही थी.
वह अपने विचारों में उलझी थी कि अचानक दीप्ती को अपनी बच्ची की चीख सुनाई दी. 'सुधीर' उसके मन में यह खयाल आते ही वह तेज़ी से अपनी बेटी के कमरे की तरफ भागी. रास्ते में डाइनिंग टेबल से उसने फलों को काटने का चाकू उठा लिया. शेरनी की तरह भागती हुई वह कमरे में पहँची. वहाँ का नज़ारा देख उसकी नसों में लावा दौड़ने लगा. बिजली की गति से वह सुधीर पर झपट पड़ी. वह पूरी ताकत से उस पर वार कर रही थी.
अगले दिन अखबार मे सुर्खियां थीं. 'पहाड़ों पर शांत बर्फ ने ढाया तूफान'
'पत्नी ने की अपने पति की हत्या'. उसे गिरफ्तार कर पुलिस थाने ले आई थी. परी को दीप्ती के माता पिता अपने साथ ले गए थे.
दीप्ती के मन में कोई मलाल नहीं था. एक राक्षस से उसने अपनी बेटी को बचा लिया था.
{7}
कदम
बहुत दिनों तक सोंचने के बाद आरूषि ने अपना फैसला अपनी माँ को सुनाया. वह आश्चर्यचकित रह गईं.
उसकी माँ ने कुछ गुस्से में कहा "तुम आज के बच्चे कुछ सोंचते भी हो या नही. शादी नही करनी है ना सही. अब बच्चा गोद लेने की बात. अकेली कैसे पालोगी उसे."
आरुषि शांत स्वर में बोली "मम्मी तुम जानती हो कि मैं बिना सोंचे कुछ नही करती. जहाँ तक अकेले पालने का सवाल है तो जीजा जी के ना रहने पर दीदी भी तो बच्चों को अकेले पाल रही है."
"पर जरूरत क्या है." उसकी माँ ने विरोध किया.
आरुषि ने समझाते हुए कहा "जरूरत है मम्मी. मुझे भी अपने जीवन में कोई चाहिए."
"लोगों को क्या कहेंगे." उसकी माँ ने फिर अपनी बात कही.
"वह मैं देख लूंगी." अपनी माँ के कुछ कहने से पहले ही वह कमरे से बाहर चली गई.
आरुषि एक स्वावलंबी लड़की थी. वह शांत और गंभीर थी. अपने निर्णय स्वयं लेती थी. उसने निश्चय किया था कि वह अविवाहित रहेगी. इसलिए दबाव के बावजूद भी उसने अपना निर्णय नही बदला. लेकिन अब वह अपने आस पास कोई ऐसा चाहती थी जिसे वह अपना कह सके. एक बच्चा जिसे वह प्यार दे सके. वह ऐसा बच्चा चाहती थी जिसका अपना कोई ना हो. जिसे अपना कर वह उसे अच्छी परवरिश दे सके.
कुछ दिन पहले उसके आफिस में काम करने वाली एक महिला एक बच्ची को जन्म देकर मर गई. वह अकेली थी और बच्ची को अपनाने वाला कोई नही था. आरुषि ने उस बच्ची को अपनाने का फैसला किया.
अपने इस निर्णय को लेकर भी वह अडिग थी. लोगों के लिए भले ही यह विवादास्पद निर्णय हो किंतु उसके लिए एक नया कदम था.