Chandragupt - 11 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 11

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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 11

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(सिन्धु-तट पर दाण्ड्यायन का आश्रम)

दाण्ड्यायनः पवन एक क्षण विश्राम नहीं लेता, सिन्धु की जलधाराबही जा रही है, बादलों के नीचे पक्षियों का झुण्ड उड़ा जा रहा है, प्रत्येकपरमाणु न जाने किसी आकर्षण में खिंचे चले जा हे हैं। जैसे काल अनेकरूप में चल रहा है - यही तो...

(एनिसाक्रीटीज का प्रवेश)

एनिसाक्रीटीजः महात्मन्‌!

दाण्ड्यायनः चुप रहो, सब चले जा रहे हैं, तुम भी चले जाओ।अवकाश नहीं, अवसर नहीं।

एनिसाक्रीटीजः आप से कुछ...

दाण्ड्यायनः मुझसे कुछ मत कहो। कहो तो अपने-आप ही कहो,जिसे आवश्यकता होगी सुन लेगा। देखते हो, कोई किसी की सुनता है?

मैं कहता हूँ सिन्धु के एक बिन्द! धारा में न बहकर मेरी एक बात सुननेके लिए ठहर जा। वह सुनता है? कदापि नहीं।

एनिसाक्रीटीजः परन्तु देवपुत्र ने...

दाण्ड्यायनः देवपुत्र?

एनिसाक्रीटीजः देवपुत्र जगद्विजेता सिकन्दर ने आपका स्मरण

किया है। आपका यश सुनकर आपसे कुछ उपदेश ग्रहण करने की उनकीबलवती इच्छा है।

दाण्ड्यायनः (हँसकर) भूमा का सुख और उसकी महपा काजिसका आभासमात्र हो जाता है, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदर्शन नहींअभिभूत कर सकते, दूत! वह किसी बलवान की इच्छा का क्रीड़ा-कन्दुकनहीं बन सकता। तुम्हारा राजा अभी झेलम भी नहीं पार कर सका, फिरभी जगद्विजेता की उपाधि लेकर जगत्‌ को वञ्चित करता है। मैं लोभ से,सम्मान से या भय से किसी के पास नहीं जा सकता।

एनिसाक्रीटीजः महात्मन्‌! क्यों? यदि न जाने पर देवपुत्र दण्डदें?

दाण्ड्यायनः मेरी आवश्यकताएँ परमात्मा की विभूति प्रकृति पूरीकरती है। उसके रहते दूसरों का शासन कैसा? समस्त आलोक, चैतन्यऔर प्राणशक्ति, प्रभु की दी हुई है। मृत्यु के द्वारा वही इसको लौटा लेताहै। जिस वस्तु को मनुष्य दे नहीं सकता, उसे ले ेलने की स्पर्धा से बढ़करदूसरा दम्भ नहीं। मैं फल-मूल खाकर अंजलि से जलपान कर, तृण-शय्यपर आँख बन्द किये सो रहता हूँ। न मुझसे किसी को डर है और नमुझको डरने का कारण है। तुम ही यदि हठात्‌ मुझे ले जाना चाहो तोकेवल मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मेरी स्वतंत्र आत्मा पर तुम्हारेदेवपुत्र का भी अधिकार नहीं हो सकता।

अनिसाक्रीडीजः बड़े निर्भीत को ब्राह्मण! जाता हूँ, यही कहदूँगा। (प्रस्थान)

(एक ओर से अलका, दूसरी ओर से चाणक्य और चन्द्रगुप्त काप्रवेश। सब वन्दना करके सविनय बैठते हैं।)

अलकाः देव! मैं गांधार छोड़ कर जाती हूँ।

दाण्ड्यायनः क्यों अलके, तुम गाँधार की लक्ष्मी हो, ऐसा क्यों?

अलकाः ऋषे! यवनों के हाथ स्वाधीनता बेचकर उनके दान सेजीने की शक्ति मुझमें नहीं।

दाण्ड्यायनः तुम उपरापथ की लक्ष्मी हो, तुम अपना प्राण बचाकरकहाँ जाओगी? (कुछ विचार कर) अच्छा जाओ देवी! तुम्हारी आवश्यकताहै। मंगलमय विभु अनेक अमंगलों में कौन-कौन कल्याण छिपाये रहताहै, हम सब उसे नहीं समझ सकते। परन्तु जब तुम्हारी इच्छा हो,निस्संकोच चली आना।

अलकाः देव, हृदय में सन्देह है।

दाण्ड्यायनः क्या अलका?

अलकाः ये दोनों महाशय, जो आपके सम्मुख बैठे हैं - जिनपर पहले मेरा पूर्ण विश्वास था; वे ही अब यवनों के अनुगत क्यों होनाचाहते हैं।

(दाण्ड्यायन चाणक्य की ओर देखता है और चाणक्य कुछविचारने लगता है।)

चन्द्रगुप्तः देवि! कृतज्ञता का बन्धन अमोघ है।

चाणक्यः राजकुमारी! उस परिस्थिति पर आपने विचार नहीं

किया है, आपकी शंका निर्मूल है।

दाण्ड्यायनः सन्देह न करो अलका! कल्याणकृत को पूर्ण विश्वासीहोना पड़ेगा। विश्वास सुफल देगा, दुर्गति नहीं।

(यवन सैनिक का प्रवेश)

यवनः देवपुत्र आपकी सेवा में आना चाहते हैं, क्या आज्ञा है?

दाण्ड्यायनः मैं क्या आज्ञा दूँ सैनिक! मेरा कोई रहस्य नहीं,निभृत मन्दिर नहीं, यहाँ पर सबका प्रत्येक क्षण स्वागत है।

(सैनिक जाता है।)

अलकाः तो मैं जाती हूँ, आज्ञा हो।

दाण्ड्यायनः कोई आतंक नहीं है, अलका! ठहरो तो।

चाणक्यः महात्मन्‌, हम लोगों को आज्ञा है? किसी दूसरे समयउपस्थित हों?

दाण्ड्यायनः चाणक्य! तुमको तो कुछ दिनों तक इस स्थान पररहना होगा, क्योंकि सब विद्या के आचार्य होने पर भी तुम्हें उसका फलनहीं मिला - उद्वेग नहीं मिटा। अभी तक तुम्हारे ृदय में हलचल मचीहै, यह अवस्था सन्तोषजनक नहीं।

(सिकन्दर का सिल्यूकस, कार्नेलिया, एनिसाक्रीटीज इद्यादि सहचरोंके साथ प्रवेश, सिकन्दर नमस्कार करता है, सब बैठते हैं।)

दाण्ड्यायनः स्वागत अलक्षेन्द्र! तुम्हें सद्बुद्धि मिले।

सिकन्दरः महात्मन्‌! अनुगृहीत हुआ, परन्तु मुझे कुछ औरआशीर्वाद चाहिए।

दाण्ड्यायनः मैं और आशीर्वाद देने में असमर्थ हूँ। क्योंकि इसकेअतिरिक्त जितने आशीर्वाद होंगे, वे अमंगलजनक होंगे।

सिकन्दरः मैं आपके मुख से जय सुनने का अभिलाषी हूँ।

दाण्ड्यायनः जयघोष तुम्हारे चारण करेंगे, हत्या, रक्तपात औरअग्निकांड के लिए उपकरण जुटाने में मुझे आनन्द नहीं। विजय-तृष्णा काअन्त पराभव में होता है, अलक्षेन्द्र! राजसपा सुव्यवस्था से बढ़े तो बढ़सकती है, केवल विजयों से नहीं। इसलिए अपनी प्रजा के कल्याण मेंलगो।

सिकन्दरः अच्छा (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) यह तेजस्वी युवक कौनहै?

सिल्यूकसः यह मगध का एक निर्वासित राजकुमार है।

सिकन्दरः मैं आपका स्वागत करने के लिए अपने शिविर मंनिमन्त्रित करता हूँ।

चन्द्रगुप्तः अनुगृहीत हुआ। आर्य लोग किसी निमन्त्रण कोअस्वीकार नहीं करते।

सिकन्दरः (सिल्यूकस से) तुमसे इनसे कब परिचय हुआ?

सिल्यूकसः इनसे तो मैं पहले ही मिल चुका हूँ।

चन्द्रगुप्तः आपका उपकार मैं भूला नहीं हूँ। आपने व्याघ्र से मेरीरक्षा की थी, जब मैं अचेत पड़ा था।

सिकन्दरः अच्छा तो आप लोग पूर्व-परिचित भी हैं। तब तोसेनापति, इनके आतिथ्य का भार आप ही पर रहा।

सिल्यूकसः जैसी आज्ञा।

सिकन्दरः (महात्मा से) महात्मन्‌! लौटती बार आपका फिर दर्शनकरूँगा, जब भारत-विजय कर लूँगा।

दाण्ड्यानः अलक्षेन्द्र, सावधान! (चन्द्रगुप्त को दिखाकर) देखो,यह भारत का भावी सम्राट्‌ तुम्हारे सामने बैठा है।

(सब स्तब्ध होकर चन्द्रगुप्त को देखते हैं और चन्द्रगुप्त आश्चर्यसे कार्नेलिया को देखने लगता है। एक दिव्य आलोक)

(पटाक्षेप)