Chandragupt - 10 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 10

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चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 10

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


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(कानन-पथ में अलका)

अलकाः चली जा रही हूँ। अनन्त पथ है, कहीं पान्थशाला नहींऔर न तो पहुँचने का निर्दिष्ठ स्थान है। शैल पर से गिरा दी गयीस्रोतस्विनी के सदृश अविराम भ्रमण, ठोकरें और तिरस्कार! कानन में कहाँचली जा रही हूँ? - (सामने देखकर) - अरे! यवन!!

(शिकारी के वेश में सिल्यूकस का प्रवेश)

सिल्यूकसः तुम कहाँ सुन्दरी राजकुमारी!

अलकाः मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ हैं और मेरेजंगल हैं। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं के बने हैं! फिर मैं और कहाँ जाऊँगीयवन?

सिल्यूकसः यहाँ तो तुम अकेली हो सुन्दरी

अलकाः सो तो ठीक है। (दूसरी ओर देखकर सहसा) परन्तुदेखो वह सिंह आ रहा है!

(सिल्यूकस उधर देखता है, अलका दूसरी ओर निकल जाती है।)

सिल्यूकसः निकल गयी! (दूसरी ओर जाता है।)

(चाणक्य और चन्द्रगुप्त का प्रवेश)

चाणक्यः वत्स, तुम बहु थक गये होगे।

चन्द्रगुप्तः आर्य! नसों ने अपने बंधन ढीले कर दिये हैं, शरीर

अवसन्न हो रहा है, प्यास भी लगी है।

चाणक्यः और कुछ दूर न चल सकोगे?

चन्द्रगुप्तः जैसी आज्ञा हो।

चाणक्यः पास ही सिन्धु लहराता होगा, उसके तट पर ही विश्रामकरना ठीक होगा।

(चन्द्रगुप्त चलने के लिए पैर बढ़ाता है फिर बैठ जाता है।)

चाणक्यः (उसे पकड़ कर) सावधान, चन्द्रगुप्त!

चन्द्रगुप्तः आर्य! प्यास से कंठ सूख रहा है, चक्कर आ रहाहै!

चाणक्यः तुम विश्राम करो, मैं अभी जल लेकर आता हूँ।

(प्रस्थान)

(चन्द्रगुप्त पसीने से तर लेट जाता है। एक व्याघ्र समीप आतादिखाई पड़ता है। सिल्यूकस प्रवेश करके धनुष सँभालकर तीर चलाता है।व्याघ्र मरता है। सिल्यूकस की चन्द्रगुप्त को चैतन्य करने की चेष्टा।चाणक्य का जल लिये आना।)

सिल्यूकसः थोड़ा जल, इस सप्वपूर्ण पथिक की रक्षा करने केलिए थोड़ा चल चालिए।

चाणक्यः (जल के छींटे दे कर) आप कौन हैं?

(चन्द्रगुप्त स्वस्थ होता है।)

सिल्यूकसः यवन सेनापति! तुम कौन हो?

चाणक्यः एक ब्राह्मण।

सिल्यूकसः यह तो कोई बड़ा श्रीमान्‌ पुरुष है। ब्राह्मण! तुमइसके साथी हो?

चाणक्यः हाँ, मैं इस राजकुमरा का गुरू हूँ, शिक्षक हूँ।

सिल्यूकसः कहाँ निवास है?

चाणक्यः यह चन्द्रगुप्त मगध का निर्वासित राजकुमार है।

सिल्यूकसः (कुछ विचारता है।) अच्छा, अभी तो मेरे शिविर मंचलो, विश्राम करके फिर कहीं जाना।

चन्द्रगुप्तः यह सिंह कैसे मरा? ओह, प्यास से मैं हतचेत हो गयाथा - आपने मेरे प्राणों की रक्षा की, मैं कृतज्ञ हूँ। आज्ञा दीजिए, हमलोग फिर उपस्थित होंगे, निश्चय जानिए।

सिल्यूकसः जब तुम अचेत पड़े थे तब यह तुम्हारे पास बैठाथा। मैंने विपद समझ कर इसे मार डाला। मैं यवन सेनापति हूँ।

चन्द्रगुप्तः धन्यवाद! भारतीय कृतघ्न नहीं होते। सेनापति! मैंआपका अनुगृहीत हूँ, अवशअय आपके पास आऊँगा।

(तीनों जाते हैं, अलका का प्रवेश)

अलकाः आर्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त - ये भी यवनों के साथी!जब आँधी और करका-वृष्टि, अवर्षण और दावाग्नि का प्रकोप हो, तबदेश की हरी-भरी खेती का रक्षक कौन है? शून्य व्योम प्रश्न को बिनाउपर दिये लौटा देता है। ऐसे लोग भी आक्रमणकारियों के चंगुल में फँसरहे हों, तब रक्षा की क्या आशा। झेलम के पार सेना उतरना चाहती है।

उन्मप पर्वतेश्वर अपने विचारों में मग्न है। गांधार छोड़ कर चलूँ, नहीं,एक बार महात्मा दाण्ड्यायन को नमस्कार कर लूँ, उस शान्ति-संदेश सेकुछ प्रसाद लेकर तब अन्यत्र जाऊँगी।

(जाती है।)