Mol ki sharan me in Hindi Magazine by kaushlendra prapanna books and stories PDF | मॉल की शरण में

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मॉल की शरण में

मॉल की शरण में

कौशलेंद्र प्रपन्न

उदास हैं, खाली हैं या फिर अकेला तो मॉल की शरण में जाइए। यहां किसका इंतजार सा है। किसके पास वक्त हैै आपके अकेलेपन, खुशी, निराशा में साथ होने का। सब के सब अपने अपने अकेलेपन के साथ हैं। जो अकेला नहीं है वह भीड़ में है। भीड़ उसके अंदर इस कदर बैठ चुकी है ि कवह भीड़ से बाहर खुद को न देख पाता है और न पहचान पाता है।

अगर अकेला महसूस कर रहे हैं, निराश हैं, एकाकीपन से भरे हैं तो आपके पास शहर में भटकने और मॉल में घूमने के अलावा क्या कोई और जगह है जहां आप जा सकें। शायद यह हमारी आज की जिंदगी की सबसे बड़ी विड़म्बना है कि जैसे जैसे हम आधुनिक हुए हैं वस्तुओं से घर को दुकान बनाया है वैसे वैसे हम अंदर से इतने खाली और खोखले हो गए हैं कि हर वक्त हम बाहरी चीजों से उस खालीपन को भरने की कोशिश करते हैं।

अखबार में देख कर कि आज महा सेल है। ऑन लाइन और मॉल में भी बस सब कुछ छोड़कर मॉल जा पहुंचते हैं। जिन चीजों की जरूरत भी नहीं होती वह भी पचास और सत्तर प्रतिशत की छूट देखकर खरीद लाते हैं। खरीदते क्या हैं बस मन की बेचैनीयत को सामानों से दबाने का प्रयत्न करते हैं।

अकसर दो या तीन दिन की छुटि्‌टयां एक साथ आती हैं तब हम बाहर भागने का प्रयास करते हैं। दिल्ली की तमाम गाड़ियां उत्तराखंड़, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल की ओर दौड़ने लगती हैं। जिनकी जेबें मोटी हैं वे सिंगापुर, बैंकाक, थाईलैंड, श्रीलंका तक दौड़ आते हैं। दौड़ और रफ्‌तार में रहने वाली हमारी जिंदगी हर वक्त गतिमान रहती है। इस रफ्‌तार में हम बहुत कुछ खो रहे हैं बल्कि खो चुके हैं इसका एहसास शायद कुछ समय बाद हो या यह भी संभावना है कि इसका इल्म तक न हो और हम एक लंबी यात्रा पर निकल पड़ें।

संभव है यह खालीपन एक महानगरीय शहराती माहौल की उपज हो। लेकिन यह एकाकीपन बहुत तेजी से महानगरीय धड़कनों में घहराती जा रही है। यही कारण है कि युवा तो युवा वयस्क होती पीढ़ी भी अपने अंदर की रिक्कता को मॉल जैसे भीड़ में भरने की कोशिश कर रहे हैं। भला हो आज कल के फोन का जिसके जिस्म में कैमरे अच्छे समा गए हैं। कोई कहीं जाता है घूमता टहलता है उस क्षण को लेंस में कैद कर सब को बताता है कि देखो, जलो, चिढ़ों की वह अकेला नहीं है। कि देखो वह भी भीड़ में है। कि देखो वह भी सेल को लाभ उठा रहा है। कि देखो वह एकाकी नहीं है। जीवन की इस भाग दौड़ में वह भी शामिल है।

छोटे और मंझोले शहरों की जिंदगी भी बदली है वह भी परिवर्तन के साथ कदम ताल कर रहे हैं। लेकिन जिस रफ्‌तार से महानगर में तब्दीली आई है उसके अनुपात में कम मान सकते हैं। क्योंकि वहां अभी भी दिन भर या शाम में करने के नाम पर घर में काम हुआ करता है। यूं तो घर पर काम यहां भी है लेकिन उसकी प्रकृति अलग है। रविवार की सुबह कामकाज वाली महिलाएं घर के तमाम काम निपटाती हैं। हां चूल्हे से दूर बाजार के खाने की ओर भागती बच्चों, पति की निगाहें पढ़कर चूल्हे का इस्तमाल चाय के लिए की जाती है। वहीं छोटे शहरों में अभी भी घर पर नाश्ता बनाने का चलन बचा हुआ है। लेकिन उन शहरों में भी तेजी से फास्ट फूड घरेलू नाश्तों, शाम के नाश्तों का गला घोट रही हैं। हर गली, मुहल्ले के मुहाने पर चाउमीन, बरगर, मोमोज्‌ की दुकानें बहुतायत में देखी जा सकती हैं।

कुछ अंतरराष्टीय ब्रांड खान—पान, वेशभूषा बनाने वाली कंपनियों ने छोटे और मंझेले शहर को निशाना बना रही हैं। आखिर वे भी तो सूचना और खबर की दुनिया के हिस्सा हैं उन्हें भी देश दुनिया के ब्रांडेड सामान देखने सुनने को मिल रहे हैं। इसलिए अब वो तमाम चीजें शहराें, कस्बों में भी उपलब्ध हैं जो कभी दिल्ली कोलकाता जैसे महानगरों के मुंह जोहना पड़ता था। इसने स्थानीय बाजार और दुकान की बिक्री को प्रभावित किया। दर्जी और चर्मकार की दुकानें खाली होने लगीं। सिलाकर शर्ट व पैंट पहनने का जमाना लद चुका। जूता बनवाकर पहनने वाले कब के बिला चुके। इन कर्मकारों को अपनी जिंदगी बसर करने के लिए अब कुछ और कामों की ओर मुड़ना पड़ रहा है। यही नहीं जेनरल स्टोर को अपनी पहचान और रोजगार बचाने के लिए अन्य सामानों की बिक्री भी करनी पड़ रही है। जब से एक छत के नीचे वातानुकूलित हवा खाते हुए शॉपिंग की लत लगी है तब से जेनरल स्टोर खाली होते चले गए।

हालांकि यह सच है कि परिवर्तन और विकास दोनों एक रेखीय नहीं होती। इसके बहुस्तरीय प्रभाव देखे जा सकते हैं। समाज का विकास और परिवर्तन दोनों एक साथ होते हैं। इसमें दौर में न केवल शहर का भूगोल पुनर्परिभाषित होता है बल्कि वहां की सांस्कृतिक थाती भी नए चोले में ढलती है। फिर इससे किसी को गुरेज नहीं होना चाहिए कि शहर की हवा ही खराब हो गई। बच्चे मॉलों में इश्क ला रहे हैं। बच्चों को महानगर की हवा लग गई। इसके लिए भी हमारी मानसिक जमीन तैयार होनी होगी कि शहर का भूगोल बदला है तो वहां का मिजाज भी बदलेगा। उपभोक्ता बाजार के लिए सिर्फ और सिर्फ उपभोक्ता होता है। बाजार को मुनाफा कमाना होता है। चाहे आपकी संस्कृति, संवेदना पिछले रास्ते से कूच कर जाए।

कभी वक्त था जब व्यक्ति उदास होता, अकेला होता तो घर परिवार या दोस्तों के बीच टहल आता। अपनों से अपनी बातें, कसक बांट आता लेकिन आज का दौर ही है कि आपकी बतियां सुनने को कोई तैयार नहीं। हम सब कुछ कहना और अभिव्यक्त करना चाहते हैं। मन की बेचैनी को कह देना चाहते हैं लेकिन सवाल है किससे कहें। हर कोई तो मॉल में सन्नाटा बुनने में लगा है। हर कोई अपने खालीपन को बाजार से भरने में व्यस्त है।