Anjane Lakshy ki yatra pe - 4 in Hindi Adventure Stories by Mirza Hafiz Baig books and stories PDF | अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे -4

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अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे -4

इसके पूर्ववर्ती तीन भागों मे आपने पढ़ा__

किस प्रकार लालच मे आकर, व्यापारी एक बूढ़े ठग से अपनी सारी सम्पत्ति के बदले एक कुत्ता खरीदता है; जिस कुत्ते के बारे मे उस बूढ़े ने बताया कि यह कुत्ता सूंघकर खजाना ढूंढ लेता है । फ़िर किस प्रकार वह व्यापारी उस कुत्ते के कारण विदेश मे खतरनाक डाकुओं के चंगुल मे फ़ंस जाता है । किस लिये डाकू उसे वही बूढ़ा ठग समझते हैं ? किस प्रकार वह अपने वाक्चातुर्य के कारण डाकुओं से एक संधि करने मे सफ़ल होता है । लेकिन डाकुओं का सरदार अपने दो डाकुओं को उसके साथ कर देता है । वह डाकुओं का ध्यान बटाने के लिये एक कथा सुनाना आरम्भ करता है …

सही ढंग से समझने के लिये कृप्या पहले तीनो भाग ज़रूर पढ़ लें ।

आगे पढ़ें _ _

अनजाने लक्ष्य की यात्रा पे

चतुर्थ भाग

अनजान टापू पर

अब समझ मे आया कि रेत के नीचे किसी कपड़े का टुकड़ा धसा हुआ था, जिसके नीचे मेरा बाया पैर रेत मे धसा हुआ था और मेरा दाया पैर उसी कपड़े के ऊपर था और रेत के कारण कपड़े की सतह दिखाई नही दे रही थी ।

उत्सुकता वश मैने उस कपड़े को बाहर खीचने का प्रयास किया तब समझ मे आया कि कपड़ा काफ़ी मज़बूत था । थोड़ा ज़ोर लगाने और रेत हटाने से कपड़ा बाहर आ गया । यह तो किसी सैनिक वर्दी का ऊपरी हिस्सा था, जिसमे एक पट्टे के साथ एक शानदार चौड़े फाल वाला सैनिको वाला चाकू था । यह तो इस जगह मेरे लिये मानो ईश्वर का अप्रतिम उपहार था । मेरा काम इसके बिना भी चल सकता था या चलाना पड़ता । मुझे लगा यहां भी ईश्वर ने मुझे अकेला नही छोड़ा है । और यही छोटा सा अहसास उस समय मन को कितना ढाढस बंधाता है; इसे हम किसी दूसरी परिस्थिति मे कदापि नही समझ सकते । मैने वह पट्टा अपनी कमर पे कस लिया जिससे पाल का टुकड़ा जिसे मैने अपने शरीर से लपेट रखा था, वह शरीर पर कस गया फ़िर मैने चाकू निकालकर उसके फाल को चूमकर पट्टे मे टके हुये उसके खोल मे रख लिया ।

उस वर्दी को भी मैने कई बार झटका और पत्थर पर भी पटका, लेकिन वह रेत से अटी हुई थी और उसे रेतमुक्त करने की कोई सूरत भी नही थी । अत: यह तो स्पष्ट था इसे अभी पहना तो नही जा सकता था । पाल के जिस टुकड़े को मैने शरीर के गिर्द लपेट रखा था वह इससे साफ़ सुथरा होने के बावजूद शरीर मे चुभ रहा था । फिर भी इस वर्दी को फेकना उचित न जानकर मैने उसे अपने कंधे पर डाल लिया इस आशा से कि यह कुछ न कुछ काम तो अवश्य आयेगी ।

अब मै पेड़ की टूटी डाल से बनाई अपनी लाठी का सहारा लेते हुये सामने की चट्टान पर चढ़कर दूसरी तरफ़ उतर गया । इस प्रकार मैने जंगल मे प्रवेश किया ।

जैसा कि समुद्र के किनारो पर होता है, यहां भी जंगल के प्रारम्भ मे ही नारियल के पेड़ों की बहुतायात थी । लेकिन मुझे नारियल के पेड़ पर चढ़ना नही आता था अत: मैने ज़मीन पर गिरे हुये नारियलों मे से उपयुक्त नारियल तलाश करना ठीक समझा । पर यह उतना आसान नही था ।

वही सूर्य का प्रकाश जो सुबह मुझे शक्ति प्रदान कर रहा था, अब मेरी शक्ति को चूसने लगा था । प्यास बढ़ती जारही थी और धूप लगातार शरीर से पानी को निचोड़ कर बहर निकाले जारही थी । शरीर की एक एक हरकत शरीर की उर्जा का ह्रास कर रही थी ।

मैने एक नारियल को उठाकर कान के पास लेजाकर हिलाया । इसमे पानी नही था । मैने उसे फ़ेक दिया । बहुत सोच समझकर दूसरा नारियल उठाया और कान के पास लेजाकर हिलाया । नतीजा वही ढ़ाक के तीन पात ।

इस प्रकार मैने कई नारियल फ़ेंके । अब निराशा ने मुझे घेर लिया । सच कहता हूं इस समय मै अपने अंत के सिवाय और कुछ नही सोच पा रहा था । लेकिन कोई शक्ति थी कोई चेतना थी जो संघर्ष करने को मजबूर कर रही थी । अब भी मै हर एक नारियल को बजा कर देखना चाहता था । और पता नही किस शक्ति के आधार पर मै यही कर रहा था । और यह सब कुछ मै यंत्रवत कर रहा था । शरीर मे तो प्राण थे ही नही । मस्तिष्क भी साथ छोड़ चला था । लेकिन मन है कि हार मानने का नाम ही नही लेता ।

आखिर आशा की एक किरण नज़र आई । एक नारियल से कुछ आवाज़ आई । मै समझ गया कि इसी मे पानी है । यकायक मै बच्चों की तरह खिल्खिला कर हसने लगा । यह प्रसन्नता का क्षण था । भीषण प्रसन्नता का । जब प्रसन्नता का ज्वार कुछ कम हुआ तो हक़ीकत सामने थी । इसे तोड़ना होगा । चाकू था, लेकिन शक्ति कहां बची थी ? फिर भी हारकर बैठ जाने से तो कुछ नही होगा । मै प्रयत्न किये बिना हार नही मानूगा । अगर मेरे प्राण ही निकलना हो तो संघर्ष करते हुये निकले । मै चुपचाप मृत्यु की प्रतीक्षा नही करूंगा । इस प्रकार से प्रण करने से मुझे प्रेरणा मिली । किंतु मेरी स्थिति यह थी कि मेरे पास एक चाकू थी लेकिन मै उसकी नोक को भी पेड़ से गिरे हुये बदरंग नारियल के बाहरी आवरण मे घुसा नही पा रहा था । मन मे एक बार विचार आया कि मैने चाकू के एवज मे धातु की वह नुकीली छड़ को वृथा ही फेंक दी; शायद वह यहां अधिक उपयुक्त होती । वह तो अब भी वहीं पड़ी होगी रेत मे । लेकिन वहां तक जाने की क्षमता ही कहां थी । यदि चला भी जाऊँ तो वापस नही आ सकूंगा ।

अत: मैने नारियल को अपने हाथों मे लेकर पटकना शुरू किया । आशा थी इससे उसकी जटाओं वाला आवरण और विरल हो जायेगा । फ़िर उसकी एक दरार मे चाकू की नोक घुसा कर, चाकू की मूठ को पत्थर पर पटकने लगा ताकि वह और धंस जाये । बहुत प्रयत्न के बाद वह चाकू की नोक उस दरार मे फस पाई । लेकिन अब उसे हिला भी नही पा रहा था । मेरी क्षमता तेज़ी से समाप्त होती जा रही थी । आखिर मैने अपने दातों का सहारा लेने की कोशिश की और अपने दांत, दोनो हाथ और पैरों की मदद से उसकी जटा के कुछ रेशे छील सका । इसी प्रकार कितना समय गुज़र गया मुझे पता ही नही चला । अब यकायक नारियल की जटा के कुछ काले काले जले हुये से रेशे बाहर आने लगे । क्या देखता हूं कि नारियल अंदर से तो बिल्कुल खराब हो चुका है और उस खोल के अंदर वही खड़-खड़ करके हिल रहा है; जिसकी आवाज़ से मुझे नारियल मे पानी होने का भ्रम हो गया था । आह ! ईश्वर इस संकट काल मे तूने भी धोखा दे ही दिया ? घोर निराशा क्षण और शारीरिक क्षीणता के वश मै भरभरा के गिर पड़ा और अचेत हो गया ।

इसके बाद व्यापारी चुप हो गया ।

“फ़िर क्या हुआ ।“ एक डाकू ने पूछा ।

“आगे की कहानी कल सुनाऊंगा । अभी सो जाते हैं । नींद आ रही है ।“ व्यापारी बोला ।

आधी रात बीत चुकी थी । चांद पेड़ों की ओट छोड़ कर आकाश के मध्य मे आ चुका था । घेरे की आग अभी भी जल रही थी लेकिन उसकी लपटें मद्धम हो चुकी थीं । व्यापारी के चुप होते ही जंगल की आवाज़े साफ़ सुनाई देने लगीं । पेड़ों पर झिंगुर अपनी टांगों को रगड़ कर क्र्रररर की आवाज़ से अपनी प्रेयसीयों को प्रेम निमन्त्रण भेज रहे थे । कोई उल्लू अलसायी हुई आवाज़ मे पुकार लगाता है । दूर कही कोई सियार हुआSSS की आवाज़ लगाता है तो प्रत्युत्तर मे दूसरी ओर से भी हुआSSS की पुकार सुनाई देती है । एक डाकू उठकर आग के घेरे मे और इंधन डालता है ताकि आग सुबह तक जलती रहे तब वापस आकर अपने बिस्तर पर लेट जाता है । तीनो सो जाते हैं । शेरू अचानक आंखे खोलकर उनकी तरफ़ तकता है फ़िर अनमना होकर सो जाता है ।

“पता नही मै कितनी देर अचेत पड़ा रहा …”

व्यापारी ने अपनी कहानी सुनानी शुरू की …

पता नही मै कितनी देर अचेत पड़ा रहा । अचेतावस्था मे मै अपने शहर पहुंच गया था । वहां मै अपने युवावस्था के मित्रों के साथ मौज मस्ती मे चूर हूं । नाच गाने की महफ़िल चल रही है । सब मेरी प्रशंशा के कसीदे गढ़ रहे हैं । पिये जाओ दोस्तों … पिये जाओ … दौर पर दौर चलने दो …… लेकिन यह क्या ? मै ही प्यासा हूं । मेरा ही गला सूखा है । कोइ मुझे पूछता नही … कोई मुझे कुछ देता नही … कोई मुझे कुछ देता क्यों नही ? मेरी प्यास बढ़ रही है… कोई मुझे कुछ देता क्यों नही ? मेरा गला सूख रहा है … कोई मुझे कुछ देता क्यों नही ? मेरे गले मे कांटे उग आये हैं … अरे, मेरी भी तो सुनो … मुझे भी तो कुछ दो … मुझे भी… तभी बादल घिर आये हैं … अरे ! क्या यह सावन का महीना है ? मुझ पर सावन की पहली फ़ुहार पड़ती है … आSSSआह ! मन प्रफुल्लित हो जाता । बादल गरजते हैं और तेज़ झमाझम बारिश मुझे सराबोर कर जाती है ।

मै चौंक कर उठ बैठा ।

यह सचमुच की बरसात है; कोई सपना नही । मैने पड़े पड़े ही मुह खोल दिया । आह … पानी … लेकिन कुछ बूंदो के सिवा कुछ हासिल नही हुआ । मै झटपट उठा और नारियल के टूटे खोल मे पानी जमा करने लगा । तभी देखा पास वाली चट्टान की ढलान पर पानी बहा जा रहा है । मैने जल्दी जाकर अपने होठ उस चट्टन से सटा दिये और पानी को चूसने की कोशिश करने लगा । फ़िर मैने अपनी ज़्बान बाहर निकाली और उस बहते हुये पानी को सुड़पने लगा ।

यह अमृतपान था । हां, मै अमृत पी रहा था… ।

थोड़ी देर बाद बरसात रुक गई । बादल छंट गये और सूरज चमकने लगा । सबकुछ पूर्ववत लगने लगा । समुद्रक्षेत्र की बरसात ऐसी ही होती है । अकस्मिक और तीव्र ।

इसके बाद मुझमे इतनी ताकत तो आ चुकी थी कि मै अपने लिये भोजन हेतु कुछ ढूंढ सकूं । तो मै जंगल की ओर चल पड़ा । मेरे कपड़े गीले थे और शरीर पर बोझ लग रहे थे । जूते तो भीग कर पैर का पत्थर बन गये थे । इन्हे सुखाने के लिये अभी मेरे पास समय था नही । मुझे तो जल्द से जल्द खाने के लिये कुछ ढूंढना था । मैने वह जो वर्दी कन्धो पर डाल रखी थी उसे उतार कर एक चट्टान पर बिछा दिया और उस पर एक पत्थर रख दिया ताकि वह उड़ न जाये । अशा थी वापस लौटने तक वह सूख जायेगी ।

जंगल बहुत घना तो नही था लेकिन बहुत ऊबड़-खाबड़ था । उसमे चलना बहुत ही मुश्किल काम था । कोई रास्ता या पगडंडी का नाम ओ निशान नही था । मै किसी तरह रास्ता बनाते आगे बढ़ता रहा । मुझे यह भी आशा थी कि इस टापू पर शेर चीता जैसे कोई जानवर नही होंगे क्योंकि टापू इतना बड़ा था ही नही कि जहां वे शिकार कर सकें । इसलिये भी मै निर्द्वंद था ।

मुझे ज़्यादह भटकना भी नही पड़ा कि मुझे कुछ झाड़ियां मिल गयीं जिनमे बेर जैसे फलों के गुच्छे लटक रहे थे । लेकिन क्या पता ये फल जहरीले हों । क्योंकि अपने जीवन मे मैने इन फलों को चखना तो दूर देखा तक नही था । लेकिन चखे बिना तो पता नही चल सकता । इस जगह मेरी अवस्था तो उस शिशु जैसी थी जो दुनिया से पहले पहल परीचित होने के लिये हर एक चीज़ को चखकर देखता है । तो क्यों न इसे चखने का जोखिम लिया जाये । इसके अलावा मेरे पास और कोई रास्ता भी तो नही था । मै अभी उन फलों से लदी झाड़ियों की ओर बढ़ने की सोच ही रहा था कि, पर फ़ड़फ़ड़ाता हुआ एक पक्षी कही से आकर उस झाड़ी पर उतरा और उन फलों पर चोंच मारने लगा । ओह, तो यह एक तरीका है … जब यह इस पक्षी के लिये निरापद है तो निश्चित तौर पर मै भी इसे खा सकता हूं । सच तो यह है कि प्रकृति के पास आपके हर प्रश्न का उत्तर होता है । जो प्रकृति को समझने की कोशिश करते हैं, उनके लिये किसी भी समस्या का समाधान मुश्किल नही ।

तो मैने उस झाड़ी से कुछ फल तोड़े और उन्हे लेकर एक खुली जगह, एक पत्थर पर बैठकर खाने लगा । मुझे भूख बहुत तेज़ लगी थी, लेकिन मेरे लिये पेट भरकर खाना खतरनाक हो सकता है । मुझे यहां से बच निकलने के लिये ज़रूरी था कि स्वस्थ और सक्रिय रहूं । और ग्रंथों मे बताया गया है भूख से एक तिहाई खाओ, एक तिहाई भूख पानी से मिटाओ और एक तिहाई भूख बनाये रखो । सो मैने बाकी फ़ल अपने दामन मे समेट लिया ताकि बाद मे खा सकूं, और वापस किनारे की ओर चल पड़ा ताकि पीने के पानी का भी कुछ उपाय कर सकूं ।

वापस पहुंच कर मैने पाया कि नारियल के खोल जो मैने बरसात का पानी जमा करने के लिये रखे थे उनमे कुछ पानी जमा हो गया था । मैने उसे पी लिया और नरियल के खोल फ़िर से उसी अवस्था मे जमा दिया ताकि अगर बरसात हो तो फ़िर से पीने लायक पानी मिल जाये; क्योंकि यह तो तय था कि यहां पानी का जो भी स्रोत होगा वह पीने लायक पानी नही होगा । और यह भी कि यहां ज़मीन से निकलने वाला पानी भी दरअसल यही समुद्री पानी होगा ।

अब अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं की चिंता दूर होने के बाद मै यहा से निकलने के बारे मे सोचने लगा । क्या मै यहां से किसी जहाज़ के गुज़रने की प्रतीक्षा करूं या खुद कोई उपाय करूं । किसी जहाज़ के गुज़रने वाली बात तो असम्भव सी जान पड़ती थी । मै इस टापू के किनारों पर पड़े अवशेष देख ही रहा था । यह निश्चित रूप से तूफ़ान जनित क्षेत्र है । इसके दूर दराज़ मे भयंकर तूफ़ान आते ही रहते होंगे । और मै स्वयं भी कैसे इसे पार कर सकता हूं । छोड़ो कल सोचा जायेगा । क्योकि दिन ढलने लगा था और सूरज इस टापू के मध्य मे स्थित पहाड़ की दूसरी ओर जा चुका था । मुझे रात के लिये सुरक्षित जगह भी ढूंढ़नी थी ।

मैने एक धूप मे सूखने के लिये जो वर्दी रखी थी वह भी सूख चुकी थी और बरसात के कारण कुछ-कुछ धुली हुई सी लग रही थी । उसपे रेत अब भी चिपकी हुई थी । कुछ कम ज़रूर हुई थी लेकिन रेत अब भी थी । यह मेरे ओढ़ने के काम आ सकती थी । एक चट्टान के ऊपर दो शिलाखण्डो की ओट मे मुझे सोने के लिये उपयुक्त स्थान का चयन भी कर लिया था । नीचे पेड़ों के आस पास से जितनी सूखी पत्तियां जमा हो सकती थी, लाकर बिछौना भी तैयार कर लिया ।

समुद्र का जल स्तर बढ़ने लगा था । इससे पहले कि बिखरे हुये अवशेषों तक पानी पहुंच जाये मैने एक चक्कर लगा कर कोई उपयोगी चीज़ मिलती है तो उठा लाना उचित समझा ।

मै तट पर टहलता हुआ वहां इधर उधर बिखरी हुई चीज़ो का निरीक्षण कर रहा था । थोड़ी ही देर मे आकाश समुद्री पक्षियों के शोर से गूंज उठा ।

मैने सिर उठा कर आकाश की तरफ़ देखा । हज़ारों की संख्या मे पक्षी उड़े चले आरहे थे । वे मेरे आस पास से होकर गुज़र रहे थे और कई तो मेरे आस पास ही उतर रहे थे । कुछ जंगल के पेड़ो पर पहाड़ो पर और चट्टानो पर उतर रहे थे । आकाश के नीले रंग मे लालिमा घुल चुकी थी और रात के अंधकार ने दस्तक दे दी थी । मेरे सामने टापू के बीचोंबीच सीना ताने, गर्व से सर उठाये पहाड़ खड़ा था जिसके पीछे सूरज डूब चुका था और हल्की-हल्की किरणे पहाड़ के पीछे से आकाश पर अपनी आभा बिखेर रही थी । लेकिन यह क्या … ? अचानक मेरे रोंगटे खड़े होगये । उस पहाड़ के ऊपर एक दैत्य की सी आकृति उभर आई । वह धीरे धीरे ऊपर की ओर बढ़ रहा था । ऊपर पहुंच कर वह रुका और निश्चल खड़ा हो गया । प्रकाश उसके पीछे होने के कारण वह सिर्फ़ एक छाया सा प्रतीत हो रहा था । उसका लम्बा कद और चौड़े कंधे और बेतरतीब बिखरे हुये बालों वाला उसका सर देखकर मै बुरी तरह घबरा गया । मुझे लगा वह मेरी ही तरफ़ देख रहा है । उसकी अदृश्य आंखे मुझे ही घूर रही हैं । मै एक चट्टान के पीछे छिप गया । वह साया धीरे-धीरे अन्धेरे मे विलीन हो गया ।

क्रमश: _ _ _

आगे जानने के लिये अगले भाग मे पढ़े ‘दैत्य के चंगुल मे’

मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग की कृति ।