Aaina Sach nahi bolta - 26 in Hindi Fiction Stories by Neelima Sharma books and stories PDF | आइना सच नही बोलता - २६

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आइना सच नही बोलता - २६

कथाकड़ी – 26

आइना सच नही बोलता

लेखिका

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया

जगार महोत्सव के सात दिन पलक झपकते ही बीत गए. अपने अंतिम दिन जगार महोत्सव,बुझते दिए की लौ सा कुछ अधिक ही जगमगा रहा था. लोगों का रेला लगा हुआ था. कई लोग जो पहले किसी पसंद की चीज को देख कर जा चुके थे, आज अंतिम दिन उसे अपने हाथों से फिसलता पाकर लपक लेना चाहते थे. यहाँ खरीदारी सिर्फ आवश्यकता या पसंद ही नहीं, अपनी अमीरी का, अपनी क्लासिक पसंद का दावा भी थी, दिखावा भी थी.

नंदिनी और चिराग को उनकी सोच से कहीं ज्यादा आर्डर मिले थे. दोनों ही आगे की योजना बनाने में लगे थे. जिलाध्यक्ष मैडम ने अपने बंगला ऑफिस के लिए कितनी ही चीजों के आर्डर दिए हैं, और यह जानकर कि वह स्वर्गीय चौधरी समरप्रताप सिंह की बहू है, अपने बंगले में उन्हें मिलने बुलाया है. राजधानी से आयीं संस्कृति संचालनालय की डायरेक्टर मैडम को तो उसकी लाल साड़ी इतनी पसंद आई कि वह उसे उसी वक्त ले जाने के लिए उत्सुक थीं. कितनी मुश्किल से उन्हें महोत्सव चलते तक स्टाल में लगे रहने देने के लिए वे मना पाये थे, फिर भी इस साड़ी के लिए कितने ऑर्डर्स वे नहीं ले भी नहीं पाये क्योंकि मैडम ने इसे सिर्फ अपने लिए बुक करने का निवेदन किया था, निवेदन क्या था मखमल की तहों में लिपटा आर्डर ही तो था, जिसकी सराहना और भुगतान में दिल्ली में दो महीने बाद होने वाले राज्य स्थापना समारोह में स्टाल देने का प्रस्ताव भी था. ऐसा सुनहरा भुगतान वे कैसे टाल सकते थे.

इसके अलावा और भी जिले के अधिकांश अधिकारियों से, गणमान्य नागरिकों से ढेरों-ढेर आर्डर मिले हैं. सब को समयसीमा में पूरा करना होगा. इतनी उत्साहित कर देने वाली प्रतिक्रिया की तो उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी बस अँधेरे में एक तीर चलाया था, तब उन्हें नहीं पता था कि निशाना इतना सटीक लगेगा.

बाहर से ग्राहकों से निपटने में, और अन्दर से इस उधेड़बुन में खोये हुए नंदिनी यह अहसास हुआ कि अब लोगों का रेला थमने लगा है, उसने चिराग से अब दुकान समेट लेने की बात की. स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को निर्देश देते हुए सभी सामानों को उनके सीरियल नंबर के साथ बैग में रखवा दिया. इसी सीरियल नंबर से ही तो पता चलना था कि किस चीज के कितने आर्डर हैं, किसके हैं, किस कलर में हैं. ड्राईवर को सभी महिलाओं को सुरक्षित घर तक पहुँचाने का निर्देश दे, सामान का बैग लेकर नंदिनी और चिराग घर के लिए निकल गये. नंदिनी इतने बड़े काम से हैरान- परेशान थी लेकिन उसके मन में बचपन में पढ़ी मेंढकी रानी की कहानी की पंक्ति गूँज रही थी.

“राजकुमार अभी रात हो गई है, सो जाइए, सुबह जरुर कोई तरकीब निकल आएगी.”

अगली सुबह घर में बातों का विषय स्टाल और जगार ही था. रमा चाची सिर्फ एक बार ही स्टाल में गई थी. उन्हें सारी बातें सुनने की उत्सुकता थी. जल्दी ही चिराग भी घर आया गया, फिर तो बातों की गंगा बह निकली. स्टाल में लोगों की तारीफें, किस्म-किस्म के अनुभव, डायरेक्टर मैडम का लाल साड़ी पर फ़िदा हो जाना और दिल्ली में स्टाल लगाने के लिए जरुरी तैयारियां. बातों की गंगा जब मुहाने पर पहुँचने लगी तो उसकी गति कम हो गई फिर गंभीरता से काम की योजना बनने लगी, किस आर्डर को कितनी संख्या में और किस-किस रंग में बनवाना है. क्या-क्या सामान लगेगा, कितना लगेगा. यूँ तो इन सब का हिसाब नंदिनी को ही लगाना था लेकिन नंदिनी ने कभी इतने बड़े लेवल पर काम किया नहीं था, वह उत्साह और दृढ संकल्प की नदी में बहते हुए थोड़ी घबरा भी रही थी.

अंतत: एक कामचलाऊ लिस्ट बनने के बाद तय हुआ कि नंदिनी दो दिन तक बारीकी से सोच कर लिस्ट तैयार कर ले फिर अमिता और नंदिनी चिराग के साथ दिल्ली जाकर सामान ले आयेंगे जिससे सामान सस्ता और अच्छा मिल सके. रमा दिवित को लेकर घर में रह जायेगीं.

देर रात तक नंदिनी लिस्ट में याद कर-कर सामान जोड़ती रही. खुद यादों में टूटती रही. कमरे से बाहर ठंड के मौसम में हरसिंगार की पत्तियों में ओस बरस रही थी अन्दर नंदिनी के दिल की गर्मी में न चाहने के बाद भी दीपक की यादें. एक असंभव सी बात की बिजली एक क्षण को फिर कौंधी - काश कि वह दीपक का पहला प्यार हो पाती, काश दीपक यूँ उसे छोड़ कर न जाता. काश सब कुछ शादी से पहले ही पता चल जाता.

इस बिजली के लपकने के बाद के अंधियारे में ही नंदिनी के दिल ने सच्चाई की रौशनी पाई कि- दीपक ने उसे कभी प्यार नहीं किया सिर्फ उपभोग किया, बस वह ही समझ नहीं पाई. एक हूक उठी दिल में कि- यदि शादी निभानी नहीं थी तो उसने शादी की क्यों? संपत्ति से बेदखल हो जाने का डर इतना बड़ा था कि उसने एक जिंदगी से खिलवाड़ कर लिया. सोचा था कि दीपक जी-जान से प्यार करेगा, उसने तो जीने की राह ही छीन ली, वहीँ देखो यह चिराग एक गैर होकर भी न सिर्फ जीने की राह दे रहा है बल्कि उस पर आगे बढ़ने का हौसला भी दे रहा है,

नंदिनी को आज दीपक से धोखा खाने की याद से खुद पर तरस की जगह गुस्सा आया. उसे बेहद शिद्दत से लगा कि- जब मैंने सोच लिया है कि मुझे अपना रास्ता खुद ही बनाना है दीपक से कोई आस नहीं रखनी है, तो फिर उसे या उसकी यादों को कोई हक़ नहीं कि वे मुझे दुखी कर सकें. आज अपने स्टाल की सफलता, अपनी पहली सफलता के इनाम में मैं खुद को दुखी करने वाली हर याद को खुद से दूर करती हूँ. अब यदि फिर भी मैं दीपक को याद कर रोती हूँ तो मुझ सा रीढ़ हीन कोई ना होगा. ना दीपक अब मुझे कमजोर नहीं बना सकता, कभी भी नहीं.

बाहर पत्ते से बह कर नोंक पर अटकी हुई ओस की बूँद पत्ते से टपक गई. हमेशा के लिए पत्ते से दूर हो गई. जब बूँद धरती से मिली तो अहसास हुआ कि उसकी मंजिल तो धरती थी, ये पत्ता तो उसे उसके सपने की मंजिल से दूर ही कर रहा था.

नंदिनी हमेशा से अपने हुनर से आकाश छूना चाहती थी, आज उसे इसका मौका मिला था. उसका सपना पूरा होने जा रहा था, लेकिन उसे कोई खास खुशी नहीं हो रही थी, बस एक राहत थी राह मिल जाने की. उसने इस राहत को अपनी खुशियों की नींव बना लिया.

चिराग भी तो इस राहत का माध्यम था. नंदिनी ने सोचा कि बिना चिराग के सहयोग के अब तक की राह असम्भव तो नहीं लेकिन कठिन जरुर होती. अचानक उसने एक ठंडी साँस ली और दीपक की बुरी याद के साथ चिराग की अच्छी याद को भी परे हटा दिया. बाहर की ठंडी हवा खिड़की से अन्दर आ रही थी. उसने उठ कर आँगन की ओर खुली खिड़की झटके से बंद कर, सांकल चढ़ा दी.

अल्लसुबह ही उठ गई नंदिनी, उसने प्यार से दिवित की ओर देखा जो पहली बार दिन भर माँ से अलग रहने से बेखबर नींद के सागर में सर्फिंग कर कर रहा था. उससे अलग रहने का सोच नंदिनी का दिल कैसा तो हो आया. उसने हौले से उसे एक चुम्बन दिया, दिवित का नींद में डूबा चेहरा मुस्कुराया और फिर नींद में डूब गया. नंदिनी मन कड़ा कर कमरे से बाहर चली आई.

अमिता रोज सुबह उठ जाती थीं, लेकिन आज नहीं उठी थीं. नंदिनी ने जाकर देखा तो वह तीव्र ज्वर में तप रही थीं. अब क्या हो ? नंदिनी ने जाना स्थगित करना चाहा, लेकिन अमिता आज ही चले जाने पर अड़ी रहीं, कि चिराग तो है ही साथ. उसके रहते नंदिनी को कोई परेशानी नहीं होगी. यूँ भी कम ही दिन हैं और इतना सारा काम पड़ा है. नंदिनी तैयार तो हो गई लेकिन उसका रुढ़िवादी संस्कारी मन कचोट रहा था. ऐसे कैसे वह किसी के साथ चले जाये, पिताजी सुनेंगे तो क्या कहेंगे ? पर अमिता की जिद के सामने उसकी एक ना चली.

पूरी राह वह किसी घोंघे सी खुद ही में सिमटी रही. चिराग खुद भी अमिता के न जाने का सुन असहज महसूस कर रहा था. उस पर नंदिनी का यूँ चुप बने रहना... उसे नंदिनी की चुप्पी में उसका दुःख दिखने लगा, दीपक का धोखा दिखने लगा, नंदिनी का तिल-तिल जलना दिखने लगा. बचपन में वह और दीपक एक ही स्कूल में पढ़ते थे, दीपक उस से वरिष्ठ होने की वज़ह से हमेशा उस पर रौब जमाया करता था. उसे अक्सर मारा करता था. बचपन की कुछ कड़वी यादों के लिए मन पेड़ के तने सा होता है, जिस पर खींची लकीरें मिटती नहीं समय के साथ और बड़ी होती जाती हैं. आज जब उसने कार में बैठे हुए साइड मिरर से नंदिनी को यूँ चुप-चुप बैठे देखा तो उसे लगा कि, बचपन का दीपक प्रताड़ित चिराग ही आज की नंदिनी है. उस एक पल उसे लगा कि वह दीपक के धोखे से जलती नंदिनी के दुःख पर नर्म फाहा बन रखा जाए, जेठ की धूप से झुलसती नंदिनी पर आषाढ़ की बारिश बन छा जाये.

नजरें नज़रों को खींचती हैं. अनायास ही नंदिनी की नजरें साइड मिरर पर पड़ी और चिराग की एकटक देखती नजरों से मिल गई. चिराग की नज़रों में था- फाहा, बारिश और दुःख से उबार सकने की एक मासूम सी इच्छा. नंदिनी ने चिराग की नज़रों में पायी, भाले सी चुभन, पति परित्यक्ता होने का उपहास और तरस. वह खुद में और भी सिमट आई, उधर चिराग भी कुछ अधिक ही असहज हो गया- ‘क्या सोच रही होगी नंदिनी. क्यूँ मैं किसी लफंगे सा देखे जा रहा था. मुझे इस तरह नहीं देखना चाहिए था.’

उन्हें घर से निकले काफी समय हो गया था. चिराग ने कार एक रेस्टोरेंट में रुका दी,

“आप चाहें तो फ्रेश हो जाइये, फिर चाय पीकर चलते हैं.”

नन्दिनी तो यही चाह रही थी बस कह नहीं पा रही थी. चाय पीते हुए चिराग ने सिर्फ इतना कहा कि हम दिल्ली में दरियागंज चलेंगे. वहां कुछ दुकानों का पता किया है जो थोक में और सस्ते में सामान देते हैं. आप सामान देख लीजियेगा, और जो पसंद आये वो मुझे बता दीजियेगा, बाकी सब मैं संभाल लूँगा.

चिराग ने सोचा था कि वह नंदिनी को खरीदारी कराने लेकर आया है लेकिन नंदिनी को दुकानदारों बात करते, मोलभाव करते देख वह हैरान रह गया. नंदिनी ने लगभग सारी चीजें दुकान में बताये दर से आधी कीमतों पर ली. चिराग को अहसास हुआ कि वह सिर्फ नंदिनी को दुकान बताने आया है, साथ देने आया है. इसके अलावा उसकी कोई भूमिका नहीं है.

आर्डर पूरे करने के लिए सामान कितने सारे और छोटे-छोटे थे. कपडे ही नहीं, धागे, बटन, लेस, सितारे, मकैश सब कुछ. इन दुकानों में पहुँच नंदिनी को महसूस हुआ जैसे वह स्वप्नलोक में पहुँच गई हो. उसके सुनहरे सपने पूरे करने के सतरंगे सामानों की दुनिया.

वह अपने सतरंगे सामान देखती रही, पसंद करती रही, चिराग उसे सामान पसंद करते हुए देखता रहा. उस की हर छोटी-छोटी जरुरत के लिए ध्यान देता रहा- कब नंदिनी को भूख लगी होगी, कब प्यास लगी होगी, कब उसे किसी चीज की जरुरत होगी... सब कुछ उसके कहने से पहले ही, कह दी जाती रही. शाम तक नंदिनी हैरान होने लगी कि कोई कैसे किसी का इतना ख्याल रख सकता है? ये अंतिम खरीदारी थी इसके बाद उन्हें वापस निकलना था. चिराग दुकानदार को भुगतान कर रहा था. नंदिनी काउंटर से टिकी खड़ी थी. नंदिनी को न कहते हुए भी याद आया, दीपक के साथ किया पहला लम्बा सफ़र. जब उस छः घंटे लम्बे सफ़र में एक बार भी दीपक ने उससे चाय के लिए तो क्या पानी के लिए भी नहीं पूछा था. जबकि उसका सर दर्द से फटा जा रहा था, वह रह-रह कर अपना सर पकड़ ले रही थी.

उस दिन को याद कर नंदिनी का सिर भारी सा लगने लगा, दिन भर की थकान भी थी. दुनिया से बेखबर, दीपक की कड़वी याद की कड़वाहट अपने चेहरे पर उगाये, वह अपनी उँगलियों से कनपटी दबाने लगी. चिराग ने उसके पास आकर कहा,

“क्या हुआ ? आपका सिर दर्द कर रहा है क्या ? थक भी गई होंगी, डिस्प्रीन ले लेते हैं.”

उसके दिल की झील में एक टिटहरी चीख उठी,

‘काश दीपक चिराग सा होता.’

एक बेमतलब पर बेलगाम इच्छा मन के दौड़ते घोड़े पर सवार हो गई. आँखें छलछला आईं, आंसुओं को नंदिनी ने पलकें झपका कर अन्दर ही अन्दर सूखा लिया और एक मुस्कराहट चिपका ली,

“नहीं बस यूँ ही... आप चिंता न कीजिये. बस अब चलते हैं, दिवित इन्तजार कर रहा होगा.” नंदिनी ने कहा और आगे बढ़ गई.

अब घर वापसी के राह में भी कार में दो द्वीप सवार बैठे थे. चिराग की नजरें फिर-फिर साइड मिरर की ओर चली जाती जहाँ सुबह एक उदास चेहरा था वहां अब सिर्फ अंधियारा था. हां जब कभी सामने से हाई बीम वाली कोई गाडी गुजरती तो वहां वही चेहरा रोशन हो उठता, लेकिन अब उसे वहां उदासी नहीं दिख रही थी. बस थकान दिख रही थी, थकान, जिसे देख कर इच्छा हो कि कैसे भी इसे मिटा कर एक मुस्कान खिला देना है. दरअसल एक द्वीप बेकल था. जैसे अंतस में भूकंप उठ रहे हों. अचानक उस द्वीप का किनारा टूटा. चिराग ने पीछे मुड़ कर कहा,

“ये आप के लिए.”

नंदिनी ने देखा रुमाल का एक सेट था, जिसपर सुन्दर बूटियों से ‘एन’ लिखा हुआ था. वह असमंजस में पड़ गई, वह इसे कैसे ले सकती है लेकिन मना भी कैसे करे कि बुरा न लगे. उसने मुस्कुराते हुए कहा,

“धन्यवाद ! लेकिन मैं नहीं ले सकती. हमारे तरफ मानते हैं कि रुमाल देने से दोस्ती टूट जाती है. कभी भी रुमाल उपहार में नहीं दिया जाता.”

“मतलब हम दोस्त हैं, तब तो इसे बिलकुल भी मत लीजिये.?”

चिराग ने खिसियाई हंसी में एक कोमल पुलक सँभालते हुए, रुमाल वापस अपनी जेब में रख लिया. उसके मन की कंदराओं में ‘रुमाल देने से दोस्ती टूट जाती है’ किसी जलतरंग सा बजता रहा. बगैर यह कि जाने वह जलतरंग की ध्वनि थी या किसी पहाड़ी से टकरा कर आती प्रतिध्वनि.

कार के साथ चाँद भी सफ़र कर रहा था उस चाँद को एकटक निहारती नंदिनी उसे अपनी बनाई बीरबहूटी सी लाल मखमली साड़ी का घूंघट ओढ़ा कर देख रही थी कि घूंघट में चाँद कैसा लगेगा. सितारों को वह उस साड़ी में टांक रही थी. चांदनी के धागों से आसमान के रेशमी दुपट्टे पर बेल-बूटे उकेर रही थी, शटल के, क्रोशिया के नमूने बुन रही थी. आसमान के काले-नीले पन्ने पर ड्रेस डिजाईन कर रही थी. वो वकील बनना चाहती थी लेकिन बहस करनी उसको नही आती थी अपने हक के लिय लड़ना उसको नही आता जो दुसरो के हक की लडाई लडती . ईश्वर ही नही चाहता था वो वकील बने तो ईश्वर ही शायद यह चाहता था कि वो अपना शौंक पूरा करे ..जो कभी उसका मनपसंद काम था किताबे पढने के बाद लेकिन यह दीपक का उसको धोखे से ब्याहना भी ईश्वर की मर्ज़ी थी ...सोचे थी जो सोचो में से सोच निकाल रही थी ..... चार तेज गति से घर की तरफ से चली जा रही थी और नंदिनी का मन ..........................

लेखिका

परिचय-

नाम- श्रध्दा

जन्म तिथि- ०१/०१/१९७९

वर्तमान निवास- रायपुर, छत्तीसगढ़

शिक्षा- एम.एस.सी. (वनस्पतिशास्त्र),

रुचियाँ- साहित्य के अध्ययन एवं लेखन में रूचि,

सम्प्रति- राज्य वित्त सेवा अधिकारी, छत्तीसग

मोबाइल नं.- 09424202798

ई-मेल-

सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया