Devo ki Ghati - 12 in Hindi Children Stories by BALRAM AGARWAL books and stories PDF | देवों की घाटी - 12

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देवों की घाटी - 12

… खण्ड-11 से आगे

कहानी कर्णप्रयाग की

‘‘यहाँ से चलकर हम कहाँ पहुँचते हैं दादा जी?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘जहाँ के लिए चलते हैं वहीं।’’ दादा जी बोले।

‘‘ओह दादा जी, ठीक-ठीक बताइए न।’’

‘‘ठीक-ठीक बताने के लिए मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ—कुन्ती कौन थी?’’

‘‘पाण्डवों की माँ।’’ निक्की तेजी से बोला।

‘‘कितने बेटे थे उनके?’’ दादा जी ने पुनः पूछा।

‘‘पाँच।’’ उसी तेजी के साथ निक्की पुनः बोला।

‘‘गलत।’’ मणिका बोली।

‘‘तुम बताओ।’’ दादा जी ने उससे पूछा।

‘‘तीन।’’ वह बोली, ‘‘युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन।’’

‘‘शाबाश।’’ दादा जी ने उसकी पीठ थपथपाई।

‘‘नकुल और सहदेव भी तो थे दादा जी।’’ निक्की ने याद दिलाया।

‘‘चल बुद्धू, वे तो माद्री के बेटे थे।’’ मणिका बोली।

‘‘मणिका ठीक कहती है निक्की।’’ दादा जी ने उसे समझाया, ‘‘महाराज पाण्डु की दो पत्नियाँ थीं—कुन्ती और माद्री। कुन्ती को बचपन से ही साधुओं-संन्यासियों की सेवा करने का शौक था। उसकी इस सेवा से प्रसन्न होकर एक संन्यासी ने उसे एक ऐसा मन्त्र सिखा दिया जिसे पढ़कर वह जिस देवता को चाहे अपने पास बुला सकती थी। कुन्ती बड़ी खुश हुई। संन्यासी के जाने के बाद उसने मन्त्र की शक्ति को जाँचने के लिए भगवान सूर्य का ध्यान करते हुए मन्त्र पढ़ा। सूर्यदेव तुरन्त उसके सामने प्रकट हो गए। बोले—जो कुछ चाहिए, माँग लो। उस समय बहुत-कम उम्र थी कुन्ती की...नासमझ थी। घबराकर बोली—बेटा चाहिए। बस, सूर्य भगवान एक बच्चा उसकी गोद में रखकर अन्तर्धान हो गए। उनके जाने के बाद कुन्ती एकदम डर गई। सोचने लगी—लोग क्या कहेंगे, एक कुँआरी कन्या के बेटा हो गया!! मन्त्र की बात पर तो कोई विश्वास करेगा नहीं। शर्म और बेइज्जती से बचने के लिए उसने एक टोकरी में उस बच्चे को अच्छी तरह से रखकर नदी में बहा दिया।’’

‘‘हाँ दादा जी,’’ निक्की इस बार फिर तेजी से बोल उठा, ‘‘आपने एक बार पहले भी सुनाई थी यह कहानी। कुन्ती के उस बेटे का नाम कर्ण रखा गया था।’’

‘‘शाबाश!’’ प्रसन्न होकर अबकी बार दादा जी ने निक्की के सिर पर हाथ फिराया, ‘‘बड़ा होकर इस कर्ण ने सूर्य भगवान की कड़ी तपस्या की थी। जिस जगह पर रहकर उसने तपस्या की थी, गौचर के बाद हम वहीं पहुँचेंगे—कर्णप्रयाग।’’

‘‘यह भी प्रयाग!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।

‘‘हाँ बेटे! ऋषिकेश की ओर से यात्रा शुरू करें तो देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग और विष्णुप्रयाग—बदरीनाथ यात्रा में उत्तराखंड के ये प्रमुख प्रयाग रास्ते में पड़ते हैं। इन्हें पंच प्रयाग कहा जाता है।’’ दादा जी बोले, ‘‘ये सभी अलग-अलग नदियों के संगम पर बसे हुए हैं। कर्णप्रयाग अलकनन्दा और पिंडर नदी के संगम पर बसा हुआ है।’’

‘‘आप कर्ण की तपस्या के बारे में बता रहे थे न दादा जी।’’ निक्की ने याद दिलाया।

‘‘हाँ। कहते हैं कि कर्ण के शरीर पर जन्म से ही एक दिव्य ‘कवच’ था और उसके दोनों कानों में भी दिव्य ‘कुण्डल’ जन्म से ही थे। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर इसी क्षेत्र में सूर्यदेव ने कभी भी खाली न होने वाला एक तरकश यानी ‘अक्षय तूणीर’ भी उसे दिया था। इन तीन चीजों का स्वामी होने के कारण वह अपने समय का अजेय योद्धा था। इसके बावजूद भी वह दानप्रिय व्यक्ति था। कहते हैं कि कर्ण के दरवाजे से कोई भी याचक कभी खाली हाथ वापिस नहीं गया। उसके इसी गुण का लाभ भगवान् कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय उठाया था। उन्होंने एक दिन याचक के वेश में इन्द्र को उस समय कर्ण के सामने भेज दिया जब वह गंगानदी में खड़ा होकर संध्या-उपासना कर रहा था। इन्द्र ने दान में उससे उसके कवच और कुण्डल माँग लिए। ऐसी अद्भुत माँग सुनकर कर्ण समझ गया कि इस समय कोई साधारण याचक नहीं, स्वयं इन्द्र उसके सामने खड़े हैं। उसने कहा—भगवन्, मैं जान गया हूँ कि आप साधारण याचक के वेश में स्वयं देवराज इन्द्र हैं और अपने पुत्र अर्जुन के प्राणों की रक्षा के लिए मेरे शरीर से कवच और कुण्डल उतरवाने के लिए यहाँ आए हैं। पहचानकर भी, मैं आपको निराश नहीं करूँगा। यों कहकर उसने अपने जन्मजात कवच और कुण्डल उतारकर इन्द्र को दान कर दिए। ऐसे महादानी कर्ण का मन्दिर, कर्णशाला और कर्णकुण्ड अभी भी पिंडर नदी के किनारे पर कर्णप्रयाग में स्थित हैं।’’

‘‘सारे महापुरुष इसी इलाके में तपस्या क्यों करते थे दादा जी?’’

‘‘सारा हिमालय क्षेत्र तपस्वियों और संन्यासियों का क्षेत्र रहा है। यह क्षेत्र भी हिमालय की ही पर्वत शृंखला है। देवता तक यहाँ विचरण के लिए आते हैं। इसी कारण इसे देवभूमि और स्वर्गभूमि भी कहा जाता है।’’

‘‘कर्णप्रयाग में देखने-सुनने लायक और क्या-क्या है?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘बहुत-कुछ है...लेकिन कर्णप्रयाग का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि यहाँ केवल नदियों का नहीं, रास्तों का भी संगम होता है। कुमाऊँ के जिलों यानी अल्मोड़ा, रानीखेत, हल्द्वानी और नैनीताल आदि को गढ़वाल से जोड़ने वाला यह प्रमुख स्थान है। यहीं से हम नन्दादेवी धाम, आदिबदरी और रूपकुण्ड जैसी विश्वप्रसिद्ध जगहों के लिए भी जा सकते हैं।’’

‘‘रूपकुण्ड में क्या है दादा जी?’’ निक्की ने पूछा।

‘‘बेटे, प्राकृतिक सुषमा से प्रेम करने वालों के लिए रूपकुण्ड विशेष आकर्षण की जगह है। सागरतल से उसकी ऊँचाई करीब पन्द्रह हज़ार फुट है और गहराई!...उसका तो आज तक पता ही नहीं है। प्रकृति के प्रेमी वहाँ पहुँचकर अपना-आपा भूलकर उसी जगह के हो जाते हैं। संसारभर में ऐसी मनभावन जगहें गिनी-चुनी ही हैं। उसके पास ही बर्फ की एक नदी बहती है। चारों तरफ बर्फ से ढँकी ऊँची चोटियाँ हैं। एक तरफ त्रिशूली यानी तीन चोटियोंवाला पूरे वर्ष बर्फ से ढँका रहनेवाला पर्वत। उसकी गिनती हिमालय की ऊँची चोटियों वाले अनेक पर्वतों में होती है। अगर सही कहा जाय तो उस त्रिशूल पर्वत के नीचे ही ‘रूपकुण्ड’ है। त्रिशूल से निकलने वाली जलधारा ‘नन्दाकिनी’ नदी के नाम से जानी जाती है।

कर्णप्रयाग बातों-बातों में पीछे छूट गया था। हालाँकि कुछ खरीदने के लिए अल्ताफ ने टैक्सी को वहाँ थोड़ी देर के लिए रोका भी था। लेकिन बाहर के खुशनुमा दृश्यों और दादा जी द्वारा सुनाई जा रही रोचक व ज्ञानवर्द्धक कथाओं में बच्चे कुछ इस कदर तल्लीन थे कि वह जगह कब पीछे छूट गई, उन्हें कुछ पता ही नहीं चला।

लम्बी और महत्त्वपूर्ण यात्राओं में एक आदमी अगर सम्बन्धित स्थानों की जानकारी देनेवाला साथ में हो तो यात्रा का आनन्द असीम हो जाता है। यात्रा की इस जरूरत ने ही ऐतिहासिक महत्त्व की जगहों के बारे में यात्रियों को विस्तार से बताने वाले गाइडों का चलन शुरू किया होगा।

पीला पहाड़

‘‘आप तो चुप बैठ गए दादा जी।’’ अल्ताफ ने जब टैक्सी को एक जगह अचानक ब्रेक लगाए तो उससे उत्पन्न झटके से ध्यान भंग होने पर निक्की ने कहा।

‘‘आप लोग भी तो चुप थे!’’ दादा जी मुस्कराए।

‘‘तो क्या हुआ, आप बताते रहिए न!’’ मणिका बोली।

‘‘यह खूब रही! आप सब तो बाहर प्रकृति का मज़ा लेते रहें और मैं कुछ न देखूँ!...बकझक किए जाऊँ!!’’

‘‘अपने बच्चों को ज्ञान की बातें बताने को ‘बकझक’ कैसे कह सकते हैं आप?’’ मणिका ने निक्की का पक्ष लेते हुए दादा जी को टोका।

‘‘अच्छा बाबा, ठीक है।’’ उसके इस तर्क के आगे हार ही गए दादा जी, ‘‘सुनो, अब हमारी टैक्सी नन्दप्रयाग पहुँचेगी।’’

‘‘इसको भगवान कृष्ण के नन्दबाबा ने बसाया होगा।’’ निक्की तुरन्त बोला, ‘‘या फिर यहाँ पर उन्होंने तपस्या की होगी।’’

‘‘नहीं।’’ दादा जी मुस्कराकर बोले, ‘‘तुक्का हर जगह फिट बैठ जाए, जरूरी नहीं है। पीछे मैंने त्रिशूल पर्वत और रूपकुण्ड की बात बताई थी।’’

‘‘जी दादा जी।’’

‘‘त्रिशूल से निकलने वाली नन्दाकिनी नदी के बारे में भी बताया था।’’

‘‘जी।’’

‘‘उस नन्दाकिनी और इस अलकनन्दा का जहाँ संगम होता है, उस स्थान पर ही यह नन्दप्रयाग बसा है।’’

‘‘दीदी,’’ अचानक निक्की चिल्लाया, ‘‘उधर...वहाँ देख—पीला पहाड़!’’

‘‘अरे वाह!!’’ पीला पहाड़ देखकर मणिका पुलकित स्वर में चीख-सी पड़ी।

‘‘ऐसे अलग-अलग रंगों वाले बहुत-से पहाड़ तुमको आगे भी नजर आएँगे।’’ दादा जी बताने लगे, ‘‘दरअसल घास के साथ ही इस पहाड़ पर एकाध पौधा गैंदा का भी उग आया होगा। कच्चे फूलों को तोड़ने के लिए कोई चढ़ता तो है नहीं पहाड़ पर। इसलिए पक जाने पर उनकी पंखुड़ियाँ वहीं पर झर जाती हैं और अनुकूल मौसम आने पर अंकुरित होकर अनेक पौधे बन जाती हैं जिन पर पहले की तुलना में कई गुना फूल खिलते हैं। इस तरह खिलते, पकते, झरते और अंकुरित होकर बढ़ते-बढ़ते दो-तीन सालों में फूलों के ये पौधे पूरी पहाड़ी पर छा जाते हैं। यह सामने वाला पहाड़ भी गैंदे के फूलों से लदा-फदा है।’’

दादा जी के मुख से यह तर्कपूर्ण रहस्योद्घाटन सुनकर बच्चों के साथ-साथ ममता और सुधाकर भी उत्सुकतापूर्वक ऐसी अन्य पहाड़ियाँ तलाशने को निगाहें चारों ओर घुमाने लगे। नन्दप्रयाग अब आने ही वाला था।

नन्दप्रयाग और दसौली

‘‘नन्दप्रयाग के निकट ही दसौली गाँव पड़ता है।’’ दादा जी ने आगे बताया, ‘‘कहते हैं कि लंका के राजा रावण ने इसी जगह पर शंकर भगवान को प्रसन्न करके दस सिर पाए थे। बस, तभी से इस जगह का नाम दसौली पड़ गया।’’

बातें करते, पहाड़ों की नैसर्गिक सुन्दरता का आनन्द लेते वे नन्दप्रयाग पहुँच गए। टैक्सी को एक ओर रुकवाकर सुधाकर ने ठण्डे पानी की बोतलें खरीदीं क्योंकि उनके पास जो पानी था वह काफी गर्म हो गया था। थोड़ा-बहुत बच्चों को भी इधर-उधर घुमाकर उन्होंने टैक्सी को आगे बढ़वाया।

‘‘एक बात बताइए सर!’’ टैक्सी को आगे बढ़ाते हुए अल्ताफ ने पूछा, ‘‘इस इलाके में बोली कौन-सी बोली जाती है?’’

‘‘इस इलाके की अपनी बोली को गढ़वाली कहते हैं अल्ताफ। कुछ नेपाली मजदूर भी गढ़वाल में रहते हैं; वे लोग नेपाली में बातें करते हैं। उसे गोरखाली भी कहते हैं। पूरे उत्तराखण्ड की बात करें तो गढ़वाल वाले इलाके में बोली जाने वाली बोली को गढ़वाली कहते हैं और कुमाऊँ इलाके में बोली जाने वाली बोली को कुमायूँनी।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘लेकिन गढ़वाली, कुमायूँनी या गोरखाली को ये लोग आपस में, अपने लोगों के साथ ही बोलते हैं। हमारे-तुम्हारे साथ ये हिन्दी में ही बातें करते हैं।’’

चमोली

‘‘नन्दप्रयाग के बाद अब चमोली आएगा।’’ आगे बढ़े, तो दादा जी खुद ही बताने लगे, ‘‘जिस तरह हम रुद्रप्रयाग से गौरीकुण्ड के रास्ते केदारनाथ को जा सकते हैं, उसी तरह चमोली भी केदारनाथ और बदरीनाथ को जाने वाले रास्तों का संगम है। चमोली से गोपेश्वर, ऊखीमठ आदि के रास्ते हम केदारनाथ पहुँच सकते हैं और पीपलकोटी, जोशीमठ आदि के रास्ते से बदरीनाथ जाते हैं।’’

‘‘चमोली तो जिला है न बाबू जी?’’ सुधाकर ने पूछा।

‘‘हाँ बेटे,’’ दादा जी बोले, ‘‘लेकिन कुछ अजीब तरह से।’’

‘‘सो कैसे?’’

‘‘सो ऐसे कि चमोली नामभर को ही जिला रह गया है। इसके सारे के सारे प्रशासनिक मुख्यालय ऊपर गोपेश्वर में ही हैं।’’

‘‘तो चमोली में कुछ नहीं है क्या?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘है। बाज़ार है। जिला जेल है और... अलकनन्दा का पावन किनारा है।’’

‘‘दीदी!’’ निक्की अचानक एक बार पुनः चहका।

‘‘क्या!!’’ मणिका ने टैक्सी की विंडो से बाहर झाँकते हुए पूछा।

‘‘उधर देख, ऊपर। कितने छोटे-छोटे घर!’’

‘‘ओह दादा जी, कितने छोटे-छोटे घर, देखिए।’’ एक पहाड़ी पर ऊपर की ओर उँगली से इशारा करती हुई मणिका भी चहकी।

‘‘इसका मतलब है कि इस समय हम चमोली के निकट ही हैं।’’ दादा जी ने बताया।

‘‘आपने कैसे जाना?’’ मणिका ने पूछा।

‘‘आप लोग जिन्हें छोटे-छोटे मकान कह रहे हैं वह चमोली से गोपेश्वर की ओर जाते हुए रास्ते की एक पहाड़ी पर बसा गाँव है—नेग्वाड़।’’ दादा जी बोले, ‘‘अपनी जवानी के दिनों में, तुम्हारे डैडी जब तुमसे भी कम उम्र के और बुआजी मणिका जितनी थी, तब हम लोग उस नेग्वाड़ में ही किराए का एक मकान लेकर रहते थे।’’

‘‘अच्छा! और चाचाजी कितने बड़े थे?’’

‘‘चाचाजी तब तक पैदा नहीं हुए थे। मकान की बालकनी में बैठकर हम लोग इस अलकनन्दा से पैदा होकर आसमान की ओर उठते बादलों को देखने का आनन्द लूटा करते थे।’’ दादा जी अतीत को याद कर उठे, ‘‘दू...ऽ...र पहाड़ों के पीछे से त्रिशूल की बर्फीली चोटी दिखाई देती थी। कभी लाल, कभी पीली तो कभी हंस के परों-सी सफेद। जिस तरह इस जगह से उन छोटे मकानों को देखकर तुम खुश हो रहे हो, उसी तरह उस बालकनी में बैठकर इस सड़क पर दौड़ने वाली बसें और कारें हमको खिलौनों-सी दिखाई देती थीं। संसारभर में कुछ गिने-चुने भाग्यशालियों को ही यह सब देखने का सुख मिलता है बेटे।’’

खण्ड-13 में जारी…