Mann ke moti - 2 in Hindi Short Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मन के मोती 2

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मन के मोती 2

मन के मोती

2

लेखक :- आशीष कुमार त्रिवेदी

आयाम

सपना घर में घुसी तो उसे तेज़ प्यास लग रही थी. फ़्रिज खोल कर उसने पानी की बोतल निकाली और एक सांस में आधी बोतल खाली कर दी. फिर जाकर वह सोफे पर पसर गई. आज सुबह से ही बहुत भाग दौड़ रही. पहले वह नकुल की टीचर से मिलने उसके स्कूल गई. फिर बिजली का बिल जमा किया. उसके बाद घर का कुछ सामान लेकर लौटते हुए दोपहर के बारह बज गए. वह बहुत थक गई थी. कुछ ही समय में नकुल स्कूल से लौटेगा. उससे पहले उसे खाना भी बनाना है. एक साथ घर बाहर उसे ही संभालना पड़ता है.

उसका पति मयंक एक प्राईवेट कंपनी में टेक्नीशियन के पद पर कार्यरत था. उसकी छोटी सी तनख्वाह से घर ठीक ठाक चल रहा था. लेकिन बचत अधिक नहीं हो पाती थी. ऐसे में अपने बेटे नकुल को लेकर दोनों चिंतित रहते थे. साल भर पहले जब मयंक एक दिन घर लौटा तो बहुत खुश था. उसने बताया कि उसे खाड़ी देश में एक अच्छा काम मिला है. पैसे भी अच्छे मिलेंगे. लेकिन तीन साल तक सपना और नकुल को अकेले रहना पड़ेगा. उसकी बात सुन कर सपना उदास हो गई थी. इससे पहले कभी भी अकेली नहीं रही थी. घर के सारे काम वह बखूबी कर लेती थी किंतु बाहर के काम मयंक के ही जिम्मे थे. वह अकेली सब कुछ कैसे संभालेगी सोंच कर वह घबरा गई. मयंक उसकी मनोस्थिति को भांप गया " तुम्हारी परेशानी मैं समझता हूँ. लेकिन नकुल के अच्छे भविष्य के लिए हमको ये तकलीफ झेलनी पड़ेगी. " नकुल के भविष्य का विचार कर वह मान गई लेकिन उसके मन में बहुत दुविधा थी कि वह सब संभाल पाएगी या नहीं. अभी तो वह छोटे छोटे निर्णय भी बिनी मयंक की मदद के नहीं ले पाती थी.

मयंक के जाने के बाद कुछ महीनों तक उसे बहुत मुश्किल हुई. अक्सर उसे लगता जैसे वह टूट जाएगी. प्रारंभ में उस से कुछ गल्तियां भी हुईं. पर उसने धैर्य नहीं छोड़ा. धीरे धीरे स्थितियां उसके काबू में आ गईं. अब वह बिना डरे सोंच समझकर निर्णय लेना सीख गई थी.

नकुल जब स्कूल से लौटा तो बहुत खुश था. आज स्कूल में उसके बनाए प्रोजेक्ट की बहुत तारीफ हुई थी. जब उसे यह प्रोजेक्ट मिला था तब उसे इस बात का दुख था कि उसके पापा उसके पास मौजूद नहीं हैं. लेकिन सपना ने उसकी हर संभव मदद की. सपना को यह खुशखबरी सुनाते हुए वह उससे लिपट गया और बोला " थैंक्यू मम्मी "

आज सपना बहुत खुश थी. नकुल भी अब उस पर विश्वास करने लगा था कि पापा के ना होने पर उसकी मम्मी मदद के लिए है.

जब मयंक ने फोन पर उससे पूंछा कि कोई परेशानी तो नहीं है तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ बोली " नहीं कोई परेशानी नहीं है. होगी तो मैं निपट लूंगी. आप अपना ध्यान रखिए. "

मुखौटा

शहर के मशहूर ऑडिटोरियम में महिलाओं के सशक्तिकरण पर एक सेमीनार चल रहा था. कई वक्ताओं ने इस विषय पर अपने विचार रखे थे. अब शहर की जानी मानी समाज सेविका सुमित्रादेवी की बारी थी. उनके नाम की घोषणा होते ही सारा हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. सुमित्रादेवी एक शानदार व्यक्तित्व की मालकिन थीं. पोडियम पर आकर उन्होंने बोलना आरंभ किया “ आज नारी घर में क़ैद कोई गुड़िया नही है जो केवल घर की शोभा बढ़ाए। आज उसका अपना वजूद है. वह पुरूष का साया नही बल्की उसके समकक्ष है. बल्की कई मामलों में तो उससे बेहतर है. “ उनकी रौबदार आवाज़ पूरे हॉल में गूंज रही थी. सभी बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे थे. महिलाओं के हक़ में वह बहुत ज़ोरदार तरीके से बोल रही थीं. उनका भाषण समाप्त हेने पर एक बार फिर तालियां बज उठीं. सुमित्रादेवी आकर अपने स्थान पर बैठ गईं. अपना मोबाइल देखा तो डॉक्टर बेटे का संदेश था ‘ फिर वही परिणाम ‘. उन्होंने उत्तर लिखा ‘ तो वही इलाज करो ‘ .

संदेश मिलते ही उनका बेटा अपनी पत्नी के एक और गर्भपात की तैयारी करने लगा.

चाकलेट्स और लाल गुलाब

प्रतिमा और सचिन अभी अभी डिनर करके लौटे थे. आज उनकी शादी की दूसरी वर्षगांठ थी. पिछली बार की तरह इस बार भी वही हुआ. दोनों रेस्टोरेंट पहुंचे खाना आर्डर किया और चुप चाप डिनर लेकर लौट आये. दो एक औपचारिक बातों के सिवा उनके बीच कोई बात नहीं हुई. घर लौटते समय सचिन ने कहा " तुम तो जानती हो की मेरे पास वक़्त नहीं रहता और फिर मैं खरीददारी के मामले में कच्चा हूँ तुम ही अपने लिए कुछ ले लेना."

सभी कहते हैं की प्रतिमा बहुत भाग्यशाली है. तभी तो उसे इतना अच्छा पति मिला है. अच्छी नौकरी है, सुदर्शन है, फिर कोई ऐब भी नहीं. फिर भी कुछ है जो प्रतिमा को खटकता है. उसने अपने जीवन की बहुत रूमानी परिकल्पना की थी. शायद किशोरावस्था में पढ़े गए रोमांटिक उपन्यासों का असर था की अपने जीवन साथी के तौर पर उसने एक ऐसे पुरुष की कल्पना की थी जो उसे बात बे बात सरप्राइज तोहफे दे, उसके साथ प्यार भरी बातें करे, उसे लाँग ड्राइव पर लेकर जाये. किन्तु सचिन का व्यक्तित्व ठीक उल्टा था वह मितभाषी और रिज़र्व किस्म का व्यक्ति था.

विवाह के प्रारंभिक दिनों में अक्सर प्रतिमा सोंचती की शायद कुछ दिन साथ रहने के बाद सचिन उससे खुल जायेगा. फिर उसके साथ बहुत सारा वक़्त बिताएगा. किन्तु सचिन की व्यस्तता बढती गयी. वह ज्यादा से ज्यादा वक़्त अपने काम को देने लगा. अकेलेपन को दूर करने के लिए प्रतिमा ने एक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी कर ली. छोटे बच्चों के साथ वक़्त बिताना उसे अच्छा लगता था. यहीं उसकी दोस्ती मंजरी से हो गयी. मंजरी के विवाह को अभी कुछ ही महीने हुए थे. मंजरी अक्सर प्रतिमा को बताती की वो और उसके पति कहाँ घूमने गए, उसके पति ने उसे क्या तोहफा दिया. यह सब सुन कर प्रतिमा का मन अवसाद से भर जाता. उसे अपने और सचिन के रिश्ते में घुटन सी महसूस होने लगी थी.

दो दिनों बाद सचिन को अपनी कंपनी का प्रतिनिधित्व करने सिंगापूर जाना था जहाँ उसे एक डेलीगेशन को संबोधित करना था. यह एक बहुत बड़ा अवसर था जिसे लेकर वह बहुत उत्साहित था. प्रतिमा को सचिन के लिए पैकिंग करते हुए स्कूल जाने में देर हो गई थी. अतः वह तेज़ी से कार चलाकर स्कूल जा रही थी. वह स्कूल के पास पहुंची ही थी की अचानक एक कुत्ता दौड़ता हुआ सामने आ गया. उसे बचाने के चक्कर में वह कार को संभाल नहीं पाई और एक पेड़ से टकरा गयी.

जब उसे होश आया तो वह अस्पताल में थी. नर्स ने बताया की उसके पैर में फ्रैक्चर है और कंधे में भी चोट लगी है. कोई खतरे की बात नहीं किन्तु उसे कुछ दिन आराम करना होगा. प्रतिमा डर रही थी की सचिन उससे नाराज़ होगा इतना अच्छा अवसर मिला था जो उसकी वजह से बेकार हो जायेगा. सचिन ने कमरे में प्रवेश किया. उसकी आँखों में चिंता की झलक थी " कैसी हो, बहुत दर्द है क्या " उसने प्यार से सर पर हाँथ फेरते हुए पूंछा. प्रतिमा ने रुंधे हुए गले से कहा " मेरी वजह से आप सिंगापूर नहीं जा पाएंगे. कितना बड़ा अवसर था आपके लिए." सचिन ने आत्मीयता के साथ उसका हाँथ पकड़ा " यदि मैं मेहनत करूंगा तो ऐसे बहुत से अवसर मिलेंगे, किन्तु विवाह के समय सुख दुःख में साथ निभाने का वचन दिया था, तुम्हें इस तकलीफ में कैसे छोड़ दूं." प्रतिमा की आँखों से आंसू की अविरल धारा बहने लगी. वो इस प्रेम को पहचान नहीं पाई. सचिन प्यार से उसके सर पर हाँथ फेरता रहा और वह सो गयी.

अगले दिन जब प्रतिमा सोकर उठी तो साइड टेबल पर रखा कैलेंडर 14 फरवरी की तारीख दिखा रहा था. पास ही चाकलेट्स का एक डब्बा और लाल गुलाबों का एक बुके था. बुके पर एक कार्ड लगा था ' मेरी पत्नी के लिए जिसे मैं बहुत चाहता हूँ.'

मुक्तिबोध

पाँच साल गुजर गए लेकिन आज भी उपेंद्र के सीने पर एक बोझ था. अपराध बोध से वह मुक्त नही हो पा रहा था. हलांकि जो हुआ था वह महज़ एक हादसा था. लेकिन वह खुद को ही दोष देता था.

सुबोध उसकी मौसी के देवरानी का बेटा था. वह उससे कुछ ही माह बड़ा था. उसके दोनों मौसेरे भाई उससे काफी बड़े थे. अतः सुबोध से उसकी बहुत पटती थी. दोनों अच्छे दोस्त थे. इत्तेफ़ाक से उपेंद्र का स्थानांतरण उसी शहर में हो गया जहाँ सुबोध अपना ट्रैवेल एजेंसी का व्यापार चला रहा था. दोनो का विवाह नही हुआ था अतः जब भी फुर्सत मिलती दोनों एक दूसरे के साथ वक्त बिताते थे. दिनों दिन दोनो की दोस्ती और गहरी होने लगी थी.

उपेंद्र का विवाह उसके ऑफिस की कुलीग निकिता से हो गया. साथ काम करते हुए दोनों में प्रेम हो गया. घर वालों की रज़ामंदी भी मिल गई. उनका विवाह हो जाने पर भी सुबोध और उपेंद्र के बीच के रिश्ते में कोई फ़र्क नही पड़ा. निकिता उस रिश्ते का तीसरा कोंण बन गई.

उपेंद्र का प्रमोशन हुआ था. उसने नई कार खरीदी थी. इसका जश्न मनाने के लिए उसने सुबोध को घर बुलाया. सुबोध ने कहा कि अच्छा हो कि वह निकिता को लेकर उसके घर आ जाए. निकिता ने कहा कि वह कुछ आराम करना चाहती है इसलिए वह अकेला चला जाए.

उपेंद्र जब सुबोध के घर पहुँचा तो वह उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. उसने निकिता के बारे में पूंछा तो उपेंद्र ने बता दिया कि वह थकी हुई थी इसलिए नही आई. उपेंद्र ने सुझाव दिया कि क्यों ना आज उस ढाबे में चल कर खाना खाया जाय जहाँ वह दोनो अक्सर जाया करते थे. सुबोध को सुझाव पसंद आया. ढाबा शहर से दूर था. मौसम अच्छा था. ढाबे पर दोनो ने मनपसंद खाना खाया और बीते दिनों को याद करते रहे. इन सब में बहुत देर हो गई.

लौटते समय अचानक ही बारिश होने लगी. बारिश तेज़ होती जा रही थी. कार चलाना मुश्किल हो रहा था. तभी अचानक सामने से एक कार आती दिखाई दी. उसे अचानक सामने देख कर उपेंद्र ने अपनी कार काट कर किनारे करनी चाही किंतु वहाँ पहले से एक खराब ट्रक खड़ा था. उसकी कार जाकर ट्रक से टकरा गई.

अस्पताल में जब होश आया तो पता चला कि उसे तो कुछ चोटें ही आई थीं किंतु सुबोध की रीढ़ की हड्डी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी. डॉक्टरों का कहना था कि उसे आगे का जीवन व्हीलचेयर पर ही बिताना पड़ेगा.

कुछ दिनों में उपेंद्र को अस्पताल से छुट्टी मिल गई. सुबोध सर्जरी के लिए अमेरिका चला गया. दो वर्ष वहाँ रह कर अपना इलाज कराया. फिर वहीं बस गया. सुबोध चलने फिरने से मोहताज हो गया था किंतु उसने हार नही मानी. अपने अनुभवों को उसने दूसरों के साथ साझा करना शुरू कर दिया. एक अच्छे लेखक व वक्ता के रूप में वह दूसरों को कठिनाइयों से लड़ने की प्रेरणा देने लगा.

इस दौरान सुबोध उपेंद्र के साथ फोन व इंटरनेट के ज़रिए संपर्क में रहा. उसने कई बार उपेंद्र को अमेरिका आकर उससे मिलने को कहा किंतु वह नही आया. उसे उपेंद्र के मन की ग्लानि का भान था. वह अक्सर उसे समझाता कि जो हुआ उसमें उसका दोष नही था. यह भगवान की मर्ज़ी थी. वह उसके जीवन को नई दिशा देना चाहते थे. निकिता भी उसे अक्सर यही समझाती थी किंतु उपेंद्र अपराधबोध से मुक्त नही हो पा रहा था.

उपेंद्र को लगता था यदि उस दिन वह ढाबे पर जाने की बात ना करता तो यह हादसा नही होता. दुर्घटना के बाद से उसने सुबोध को नही देखा था. वह डरता था कि उसे इस हालत में कैसे देखेगा.

आखिरकार सुबोध ने ही भारत आने का फैसला किया. उपेंद्र निकिता के साथ उसे लेने एयरपोर्ट गया. इसके लिए निकिता ने ही उसे मनाया था.

दोनों सुबोध की प्रतीक्षा करने लगे. कुछ देर में वह दिखाई दिया. उपेंद्र को देखते ही वह मुस्कुरा दिया.

अपनी स्वचालित व्हीलचेयर में वह उसके सामने आया. उपेंद्र उसके सामने घुटनों के बल बैठ गया. दोनों हाथ जोड़ कर बोला "मुझे माफ कर दो." सुबोध ने हल्के से मुस्कुरा कर अपनी बाहें फैला दीं. उपेंद्र उसके गले लग गया. कुछ देर तक दोनों गले लगे हुए रोते रहे. उपेंद्र के सीने का बोझ उतर गया था. उसे मुक्तिबोध हो रहा था.

रिश्ते

एक बड़े से बंगले के सामने आकर भुल्लर साहब ऑटो से उतरे. गेट पर तख्ती लगी थी 'सांझा सदन'. दरबान ने उन्हें सलाम किया और गेट खोल दिया.

भुल्लर साहब का मन भारी था. वह बंगले के गार्डन की बेंच पर बैठ गए. पिछले तीन साल से वह यहाँ रह रहे थे. इतने दिनों में पहली बार वह बेटे बहू से मिलने गए थे. उनकी शादी की सालगिरह थी. अतः उन्होंने योजना बनाई थी कि दो दिन वह उनके साथ बिताएंगे. परंतु जब वह वहाँ पहुँचे तो पाया कि वो दोनों कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे.

बेटे ने पांव छूते हुए कहा "आना था तो पहले से बता देते. हम लोग तो बाहर जा रहे हैं."

"इस साल एनवर्सरी बाहर मनाने का प्लान है." बहू ने सफाई दी.

"आए हैं तो कुछ देर बैठिए." बेटे ने कहा. एक आवश्यक फोन करने के बहाने वह बाहर चला गया.

बहू ने नौकरानी को चाय नाश्ता लाने का आदेश दिया. "आप चाय पीजिए तब तक मैं भी कुछ पैकिंग कर लूँ."

भुल्लर साहब अकेले रह गए. हॉल में रखे कीमती सामान के बीच वह असहजता महसूस करने लगे. बिना किसी से कुछ कहे वह वहाँ से चले आए. दिन भर इधर उधर भटकने के बाद सांझा सदन वापस आ गए.

दरवाज़ा खुला और उनके साथी बाहर आते दिखाई दिए. सभी रात की सैर के लिए निकल रहे थे.

"अरे भुल्लर" जैन साहब बोले और सभी बेंच की तरफ भागे. वहाँ पहुँच कर खान साहब ने पूंछा "क्या हुआ."

भुल्लर साहब ने उदास नज़रों से उनकी तरफ देखा. कोई कुछ नही बोला. गुप्ता जी उनके बगल में बैठ गए और उनके कंधे पर अपना हाथ रख दिया. भुल्लर साहब भावुक हो गए और रोने लगे. सभी उन्हें सांत्वना दे रहे थे. अपनेपन की आँच से मन का सारा अवसाद पिघल गया. अब वह हल्का महसूस कर रहे थे. मुस्कुरा कर बोले "मुझे यूं ही घेरे रहोगे या घर के भीतर भी ले चलोगे. मुझे भूख लगी है."

"हाँ भीतर चल कर खाना खा लो. फिर हम सब आईसक्रीम खाने चलेंगे." कहते हुए जैन साहब घर के अंदर चल दिए. सब उनके पीछे हो लिए.

बूढ़ा तोता

सभी की निगाहें अचानक नीरजा पर टिक गईं. उनका फैसला चौंकाने वाला था. पैंतालिस साल की उम्र में जब बच्चों के बच्चे स्कूल जाने लगे तब वह आगे की पढ़ाई करने की बात कर रही थीं.

बहू के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी. बेटे ने विरोध किया "कैसी बातें कर रही हो मम्मी. यह उम्र है पढ़ने की."

नीरजा को अपनी दादी की बात याद आ गई 'सोलह की हो गई. क्या करेगी पढ़ कर। ब्याह कर दो इसका.'

छोटी उम्र में विवाह हो गया. आगे पढ़ने की इच्छा को मन में दबा कर वह गृहस्ती के कामों में डूब गई. पर दिल में दबी इच्छा मरी नहीं. सोचा था कि जिम्मेदारियां पूरी कर अपनी इच्छा पूरी करेगी. जब बच्चों के दायित्व से मुक्त हुई तो पति की मृत्यु हो गई. बात फिर टल गई. पर अब उसने तय कर लिया था कि वह अपनी इच्छा अवश्य पूरी करेगी. वह किसी पर निर्भर नही थी.

दृढ़ स्वर में नीरजा बोलीं "पढ़ने की कोई उम्र नही होती. मेरा फैसला अटल है."

अपना फैसला सुना कर वह अपने कमरे में चली गईं.

कठफोड़वा

सूरज दूसरी बार भी पुलिस की भर्ती परीक्षा में पास नहीं हो सका. भाभी के तंज और आस पड़ोस के बेवजह सवालों से वह तंग आ गया था. हताशा उस पर हावी हो गई थी. उसने मन बना लिया कि अब वह और प्रयास नहीं करेगा. सोंचने लगा यदि माँ जीवित होती तो उसके दुखी मन को सांत्वना देती. पर माँ को गुज़रे तो कई साल बीत गए.

अपने परेशान मन को शांत करने के लिए वह नदी किनारे आकर बैठ गया. मंद पवन के झोंके बहुत सुखद लग रहे थे. उसे लगा जैसे माँ उसके माथे को थीरे धीरे सहला रही हो. उसे झपकी लग गई.

कुछ झणों के पास जब वह जागा तो उसने देखा कि एक कठफोड़वा पेड़ के तने पर लगातार चोंच से प्रहार कर रहा था. उसके मन में विचार आया कि प्रकृति ने भी कैसे कैसे जीव बनाए हैं. लगातार प्रयास से यह पक्षी तने में छेद कर अपना घोंसला बनाएगा. वह प्रकृति की इस आश्चर्यजनक रचना पर मुग्ध था. तभी मन से आवाज़ आई 'तुम तो दूसरे प्रयास में ही हार मान गए.'

मन की सारी हताशा दूर हो गई. अब उसे किसी के तानों या उपहास की परवाह नहीं थी. एक इरादे के साथ वह उठा और अपना मस्तक भूमि पर लगा कर प्रकृति माँ को प्रणाम किया.

बिकाऊ माल

प्रकाशक के दफ्तर में बैठे सत्यप्रकाश ने अपने नए उपन्याय की पांडुलिपि पर प्रतिक्रिया मांगी.

कुछ सोंचते हुए प्रकाशक ने कहा "अच्छा लिखा है किंतु ज़रा कुछ आज के समय को ध्यान में रख कर लिखें."

"पर मेरा उपन्यास तो आज के हालात पर ही आधारित है." सत्यप्रकाश ने आश्चर्य से कहा.

कुछ मुस्कुराते हुए प्रकाशक बोला "अजी आज टीवी सिनेमा फेसबुक आदि में उलझे पाठकों के लिए. समझ गए ना आप."

"मतलब" सत्यप्रकाश ने जानते बूझते प्रश्न किया.

"आप तो लेखक हैं कल्पनाओं के घोडे़ दौड़ा कर कुछ ऐसा लिखिए कि पढ़ने वाले को आनंद आ जाए." अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ प्रकाशक ने कहा.

सत्यप्रकाश आवेश में बोला "मैं साहित्यकार हूँ मदारी नही."

सत्यप्रकाश के चेहरे पर उभरे आक्रोश को देख कर प्रकाशक ढिटाई से बोला "मैं भी व्यापारी हूँ. वही छापूँगा जो बिकेगा."

सत्यप्रकाश ने पांडुलिपि उठाई और दफ्तर के बाहर आ गया.