Bachpan aur Javani in Hindi Adventure Stories by Divana Raj bharti books and stories PDF | बचपन और जवानी

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बचपन और जवानी

बचपन और जवानी

लेखन :-दिवाना राज भारती

1

सुबह सो के उठा घड़ी देखा तो दस बज चुके थे। घर से बाहर निकला तो देखा की मौसम आज भी खराब थी। जनवरी के मौसमों मे धुप लेट से निकलती है या निकलती भी नहीं। आज पांच दिन के बाद थोड़ा धुप निकला था। मै फ़ेश हुआ और नहाने चला गया। क्योकि तीन दिनों से नहाया नहीं था। नहाने के बाद मै अपने दोस्त से मिलने उनके रूम पे आ गया। वे लोग थे नही कही गये हुये थे तो मै छट पे उनका इंतजार करने लगा। मै धुप का मजा ले हि रहा था की तभी मुझे निचे से शोरगुल की आवाज सुनाई दी। निचे झाँक के देखा तो बच्चे थे। शायद किसी स्कुल मे छुट्टी हुई थी और बच्चे घर जा रहे थे। हर बच्चे के साथ मे कोई न कोई थे जो उन्हें स्कुल से लेने आये थे। जैसे किसी के पापा, किसी की मम्मी, किसी का दादा, तो किसी का भाई इत्यादि। कितना अच्छा होता है हमारा ये बचपन। सुबह सुबह मां का जगाना। तैयार करना, टिफिन दे के स्कुल तक छोड़ कर आना। फिर घर वापस लाना। कोई गलती करने पे उनका डांटना, मनाना। और रात को जबरदस्ती दुध पिला के सुलाना। मुझे आज भी याद है जब मै पहली बार स्कुल गया था। तो मेरे दादाजी ने मुझ से वादा किये कि वो मुझे रोज स्कुल छोड़ने जायेगें। तब जा के मै माना था। स्कुल मे बहुत मजा आता है खासकर आप पढने मे अच्छे हो। और मै पढने मे अच्छा था।

उन दिनों कि हमारी सारी काम समय-सारणी के अनुकूल हि होती है। जैसे शुबह को जल्दी जागना, फ्रेश होना, नहाना, नाश्ता और सोना। समय पे स्कुल जाना और स्कुल से आते हि, बैग्स फेखा और चले खेलने। और इसी खेल मे हमारी अक्सर लड़ाई भी होती कभी मार खा के आते तो कभी मार के। कभी घर आने मे देरी हो जाती तो मार पड़ती। फिर भी हम कहां मानते थे। जब हम छोटे होते है तो पढाई के आलावा भी कोई काम होता है जिसमे हम माहिर होते है। कोई खेलने मे तो कोई टीवी देखने मे। हम टीवी देखने मे माहिर थे। बस बता दो कहां टीवी चल रही है। मेरी स्थिति ऐसी हो गयी थी। अगर आप मुझे घर ढुँढने जाओ और हम न मिले तो हम वही मिलेगे जहाँ टीवी चल रही हो। ठिक ऐसी स्थिति आज कल के बच्चे कि विडियो-गेम या स्मार्टफोन के वजह से होती है।

बचपन होती ही ऐसी है जिसमे हम खुल के जिते है। जिसमे होती है मनकी मस्ती और रुठने कि पुरी आजादी। न कल का फ्रिकर और न कोई सपने टुटने का डर। होमवर्क करना भले भुल भी जाते थे लेकिन खेलना कभी नही भुलाते थे। जब छोटे थे तो रोज का दिन याद रहता था। क्योकि रविवार का जो इंतजार रहता था। अब कब रविवार गुजरता है पताः भी नहीं चलता। हमारे बचपन के दोस्त बनाने के तरिके और झगड़ने के बडे अजीब होते थे।

बचपन कि हरकतें भी अजीब अजीब होती थी। जब हम अपने कमीज मे हाथ छुपाते थे। और लोगो से कहते फिरते थे, देख मैने जादू से हाथ गायब कर दिये। हम दरवाजे के पिछे छुपते थे ताकि कोई आये तो डरा सके। जब हम चाँद से रेस लगाते थे इस उम्मीद मे कि मै उसे पिछे छोड़ दुँगा। फल का बिज इस डर से नही खाते थे की कही हमारे पेट मे पेड़ न उग आये।

फिर भी इन हरकतों मे हमारी मासूमियत ही नजर आती थी।

बचपन कि वो अमीरी न जाने कहाँ खो गयी,

वरना बारिशों के पानी मे,

हमारा भी जहाज दौरा करता था।

2

कहाँ गये वो दिन, कहाँ गये वो रातें,

बहुत याद आती है, बचपन कि वो बातें।

वो छोटे से दिन, वो लम्बी सी रातें,

पापा कि ऊँगली, वो मम्मी कि आँखे॥

वो दोस्तो के साथ मस्ती करना,

माँ से बालों मे कंधी करवाना,

शुबह शुबह माँ का जगाना नाश्ता करवाना,

माँ के हाथों से खाना हो तो झुठ मुठ का रुठना।।

बोर्ड पे टीचर का तसवीर बनाना,

अबसेंट होने का नया बहाना,

एग्जाम का फीभर और नोट्स का न होना,

टीचर के आगे जोर-जोर से रोना ॥

कड़ी धूप मे अपने घर से निकलना,

चिड़िया बुलबुल और तितली का पकड़ना,

झूलों से गिरना और गिर के संभलना

छोटे-छोटे बातें पे बार-बार घबराना ॥

मिट्टी का वो खिलोना बनाना,

साथी से वो लड़ना झगड़ना।

गलियों मे वो टायर का चलाना,

बारिशों मे वो शोर मचाना॥

खेतों मे पापा हल को चलाते,

बैलों की पीठ को थे थपथपाते,

अच्छे संस्कार हमेशा थे सिखाते,

जब हम रूठ जाते बडे प्यार से मनाते॥

बचपन मे देखे अपनो के साथ जो सपने,

बडे हो के छुट गये वो अपने,

देखे थे हमने जो ख्वाब और सपने,

टूट रहे है आज वो ख्वाब और सपने॥

वो गुडे-गुड़िया वो गर्मी की छुट्टीयाँ,

वो रबड़ी मलाई वो चाचा की सगाई,

जब हम दोस्तो के साथ खेलते थे छुपन छुपाई,

याद करके यारो आज आँख भर आईं॥

छोटे बातो पे रोते थे जिभर,

नन्ही खुशी से हँसते थे दिनभर,

बचपन था वो कितना सुहाना,

न कोई गम न कोई फँसाना॥

3

जब बचपन था तो जवानी एक सपना था। जब घर मे रहते थे तो आजादी अच्छी लगती थी। आज आजादी है फिर भी घर जाने कि जल्दी रहती है। कभी होटल मे जाना, नाश्ता करना पसंद था। आज घर पर आना और माँ के हाथ का खाना पसंद है। स्कूल मे लड़ते थे जिनके साथ आज उनको तलाशते है।खुशी किसमें थी ये तो पता अब चला है। बचपन क्या था उसका एहसास अब हुआ है।

बचपन मे छोटे -छोटे दु:ख के लिए जी भर के रोते थे। अब तो बड़ी-बड़ी तकलीफ हँस के सहना पड़ता है। बचपन मे कोई तकलीफ होता तो माँ के पास दौरा चला जाता था। आज पास कोई नही जिसे अपनी तकलीफ दिखा पाता।

काश

मुझे रोता देख माँ दौड़ी चली आती,

प्यार से मुझे फिर वो गले लगाती,

बार-बार डाँट के फिर वो पुचकारती,

बचपन के दु:ख कितने अच्छे थे,

तब बस खिलोना टूटा करते थे,

अब तो दिल भी टूट जाया करते है।

वो खुशी भी क्या खुशी थी,

तितली को पकड़ के उछाला करते थे।

पाँव मार के खुद बारिशों के पानी मे,

अपने आप को भिगोया करते थे।

अब तो एक आँसू भी रुसवाई कर जाती है।

बचपन मे दिल खोल के रोया करते थे।

अब न खुशियाँ है न निंदो कि रातें,

न सर कि छड़ी न उनकी डाँटे।

अब शुबह कब होती है, पता भी नही चलता।

पिछली बार नाश्ता कब किया याद भी नही।

अब न खाना खाने का समय है और न सोने कि आजादी। माँ कभी डाँटटी तो रुठ जाता था।

आज बौस का डाँट भी प्यारा लगता है। जब माँ के साथ था तो उनकी अहमियत समझ मे नही आती थी। आज समझ मे आयी तो, उनसे बात करने का वक्त भी नही है हमारे पास। घर से दुर रहके क्या पाया ये तो पता नही लेकिन कितना कुछ खोये है आज हम।

अब ये बे रंग जवानी जी रहे है जहर पी-पी के।

बचपन मे तो माँ -बाप भी साथ हुआ करते थे।

अब तो दोस्त भी साथ छोड़ दिया करते है।

अब कल की है फिक्रर और अधूरे है सपने,

मुड़ के देखा तो बहुत दुर है अपने,

मंजिलों को ढूंढते कहां खो गये हम,

आखिर इतने बडे क्यो हो गये हम।।

*****