Deh ke dayre - 36 in Hindi Fiction Stories by Madhudeep books and stories PDF | देह के दायरे - 36

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देह के दायरे - 36

देह के दायरे

भाग - छतीस

देव बाबू ने अब धीरे-धीरे अपने भक्तों से मिलना भी बन्द कर दिया था | अब वह न तो किसी के प्रश्न का उत्तर देता था और न ही ज्ञानवार्ता करता था | उसकी उदासीनता को देखकर अब बहुत कम लोग मन्दिर में आने लगे थे | पहले जहाँ उसके दर्शनों को भीड़ एकत्रित हो जाती थी अब वहाँ मन्दिर में कुछ नियमित उपासक ही आते थे |

देव बाबू दिन-भर चुपचाप मन्दिर के एक कोने में बैठा रहता | उसे हर पल पूजा के वहाँ आने की प्रतीक्षा रहती थी मगर वह उस दिन के बाद पुनः लौटकर नहीं आयी थी | पंकज और करुणा उससे मिलने के लिए आते रहते थे | वे उससे घर लौट चलने की कहते तो वह मौन हो जाता | वे दोनों भी उसकी जिद के सामने विवश थे |

भक्तों से न मिलने के कारण अब खाना भी नहीं आ पाता था | जो कुछ वहाँ आता था वह उस मन्दिर के नियमित पुजारी के लिए ही पर्याप्त नहीं था | इस स्थिति को देखते हुए वे सेवक भी वहाँ से गायब हो गए थे जो अनायास ही पिछ्ले दिनों एकत्रित हो गए थे |

पंकज और करुणा द्वारा लायी हुई कोई भी वस्तु देव बाबू स्वीकार नहीं करता था | भिक्षा के लिए शहर में निकलना उसके वश में न था | अन्नाभाव के कारण उसका शरीर क्षीण होता जा रहा था | जिस शहर में उसके आगमन की धूम मच गयी थी, अब वहीँ उसके लिए सन्नाटा छा गया था परन्तु वह सन्नाटा भी तो उसके द्वारा स्वयं ही उत्पन्न किया गया था | लोगों को तो अब यह भी पता नहीं था कि वह साधू इसी शहर में है या यहाँ से चला गया है | एक तरह से वह इन दिनों एकान्तवास कर रहा था |

पूजा की प्रतीक्षा करते देव बाबू को एक मास से अधिक व्यतीत हो गया था | पिछ्ले दो दिनों से तो उसे ज्वर ने जकड़ लिया था मगर वह ज्वर में भी एक कोठरी में चटाई बिछाए चुपचाप लेता हुआ पूजा की प्रतीक्षा कर रहा था |

उसे दिन जब पंकज वहाँ से लौटकर घर पहुँचा तो उसने पूजा से देव बाबू के अस्वस्थ होने की बात बतायी | देव बाबू के ज्वर का समाचार सुनकर एक पल को तो वह हिल गयी |

“चलोगी न पूजा?” पंकज ने पूछा |

“नहीं पंकज | तुम उसके लिए दवा और फल ले जाना |” भरे दिल से पूजा ने कहा |

“लेकिन तुम क्यों नहीं चलतीं? उसे फल और दवा की नहीं तुम्हारी आवश्यकता है |”

“तू बहुत भोला है पंकज | समय आने दे...जब उन्हें मेरी आवश्यकता होगी, मैं अवश्य ही चलूँगी | अभी उन्हें मेरी आवश्यकता नहीं है |” शान्त स्वर में पूजा ने कहा |

“इस अवस्था में भी?” उत्तेजना से पंकज ने कहा |

“हाँ पंकज, इस समाज ने नारी को तुच्छ समझा है | हमें जुल्म सहकर क्षमा माँगने की प्रथा को समाप्त करना ही होगा |” पूजा ने भी उत्तेजित होते हुए कहा |

“लेकिन मुझसे तुम दोनों का दुःख देखा नहीं जाता |”

“यह तेरा प्यार है पंकज, मगर हम दुःख के सागर में से गुजरे बिना निर्मल नहीं हो सकते | यह हमारी परीक्षा है |”

“तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आती |”

“समझोगे पंकज | समय आने दो...सब समझ जाओगे |”

“मैं मन्दिर जा रहा हूँ |”

“जाओ, उसकी दवा का प्रबन्ध कर देना |”

“लेकिन वह स्वीकार नहीं करेगा |”

“उन्हें समझाना कि अपने शरीर के साथ अन्याय न करें |”

“अच्छा |” कहकर पंकज वहाँ से उठकर चल दिया |

सन्ध्या का हल्का अन्धकार मन्दिर के चारों ओर फैलता जा रहा था | मन्दिर की जिस कोठरी में देव बाबू लेता हुआ था उसका द्वार खुला था मगर पंकज उसे अन्धेरे में कुछ भी स्पष्ट नहीं देख सका | अन्दर से कराहने का स्वर आ रहा था | आज प्रातः ही वह देव बाबू को ज्वर की स्थिति में छोड़कर गया था | वह जान गया कि वह कराहट देव बाबू की ही है | वह दरवाजे से अन्दर चला गया |

देव बाबू दीवार का सहारा लिए अधलेटा-सा बैठा था | उसकी आँखें बन्द थीं | मुख से कराहट के मध्य अस्पष्ट-से शब्द निकल रहे थे...”काश, तुम मुझे क्षमा कर सकतीं पूजा!”

“पूजा ने तुम्हारे लिए फल और दवा भिजवायी है |” पास बैठते हुए पंकज ने कहा |

देव बाबू ने आँखें खोलीं | एक गहरी दृष्टि उसने पंकज पर डाली और फिर आँखें बन्द कर कहने लगा, “मैं दया के सहारे जीना नहीं चाहता पंकज | मुझे अपने अपराधों का प्रायश्चित करने दो |”

“यह तुम्हारा कैसा प्रायश्चित है देव बाबू! इससे तो पूजा को और अधिक कष्ट पहुँचता है | पिछ्ले तीन दिनों से उसने भी अन्न नहीं छुआ है |” पंकज की आँखें भय आयीं |

“लेकिन क्यों?” आश्चर्य और दुःख से देव बाबू ने कहा |

“यह तो मैं नहीं जानता मगर इतना अवश्य है कि तुम उसकी जान ले लेना चाहते हो | तुम शायद उस देवी को दोषी समझते हो |”

“ऐसा न कहो पंकज | उसे दोषी समझना मेरी मौत होगी | उसने तो चार वर्ष तक अपने पति की प्रतीक्षा करके एक उदहारण प्रस्तुत किया है | वह तो पूजनीय है पंकज |”

“लेकिन वह मर रही है देव बाबू | इधर तुम मर रहे हो | क्यों तुम दोनों ही स्वयं को नष्ट करने पर तुले हो!”

“शायद यही हमारी नियति है पंकज |”

“नहीं देव बाबू, यह नियति नहीं छलावा है | इधर तुम उसकी प्रतीक्षा कर रहे हो और उधर वह तुम्हारी, मगर तुम दोनों ने ही व्यर्थ में इसे स्वाभिमान का प्रश्न बना लिया है | न वह अपना हठ छोड़ने को तैयार है और न तुम | आज रात हम तुम्हारी प्रतीक्षा करेंगे देव | यदि तुम घर नहीं आए तो मैं करुणा के साथ प्रातः ही उसे घर को छोड़ दूँगा |”

“ऐसा न करना पंकज |”

“मैं क्या करूँ देव बाबू, मुझसे यह दुःख और अधिक नहीं देखा जाता |” कहते हुए वह अपने आँसुओं को अन्दर ही अन्दर पीता हुआ वहाँ से उठकर चल दिया |

पंकज देव बाबू को छोड़कर चला गया मगर वह वहाँ पड़ा सोचता रहा | ‘पूजा वहाँ मेरी प्रतीक्षा करती हुई स्वयं तो मिटा रही है मगर वह मुझसे मिलने क्यों नहीं आयी | पंकज ने कहा कई कि तुम दोनों ही एक-दुसरे की प्रतीक्षा कर रहे हो मगर तुम दोनों ने इसे स्वाभिमान का प्रश्न बना लिया है | तो यह पूजा का स्वाभिमान है जो वह मुझसे मिलने नहीं आयी?’ वह सोचे जा रहा था, ‘मगर मैं उससे मिलने क्यों नहीं गया? क्या मैं सचमुच ही इस बात की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि वह मुझे क्षमा करके लेने आए? लेकिन मैं वहाँ जाकर भी उससे क्षमा माँग सकता हूँ | क्या वह मुझे घर से निकाल देगी? नहीं, मेरे न जाने के मूल में भी शायद मेरा अहं छिपा है | कहीं न कहीं मेरी भी चाह यही है कि पूजा मुझे लेने आए तो मैं गर्व से जाऊँ | मगर वह मुझे लेने क्यों आए? उसने तो मुझे घर से नहीं निकाला था? इसमें उसका तो कोई दोष नहीं था जो मैं घर छोड़कर गया | दोष मेरा भी नहीं था मगर वह महान् है | मैंने उसे सिर्फ दुःख दिए हैं...अगर वह मिट गयी तो इसका उत्तरदायित्व भी मुझपर ही होगा | नहीं...नहीं...मुझे वहाँ जाना चाहिए...मैं वहाँ जाऊँगा |’

सोचकर देव बाबू खड़ा हो गया | कमजोरी के कारण उसके पाँव काँप रहे थे, मगर लाठी का सहारा लिए वह मन्दिर से बाहर आ गया |

रात्रि का गहरा सन्नाटा सड़क पर फैला हुआ था | हल्की-हल्की बूँदें पड़ रही थीं | रात एकदम काली थी परन्तु आसमान में चमकती बिजली से रह-रहकर सब कुछ चमक उठता था | धीरे-धीरे वर्षा की बौछारों में भीगता देव बाबू लाठी के सहारे सड़क पर बढ़ा जा रहा था | वर्षा की बूँदें उसके ज्वर से जलते शरीर पर गिरकर शूल-सी चूभो रही थीं | तेज हवा उसके शरीर को कंपा रही थी मगर तपस्वी की धोती लपेटे वह अर्धनग्न अपनी दिशा की ओर बढ़ा जा रहा था |

मकान के सामने जाकर वह कुछ देर को ठिठक गया | बिलकुल वही कमरा, वही दरवाजा...कुछ भी तो नहीं बदला था मगर आज दरवाजा खटखटाते हुए देव बाबू के हाथ काँप रहे थे | साहस जुटा उसने किसी तरह द्वार खटखटाया |

द्वार पर पड़ती थपथपाहट से करुणा की नींद टूटी | पूजा का स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण आज वह नीचे उसीके पास सो रही थी | कमरे में हल्की रोशनी थी | सामने लगी घड़ी पर उसकी दृष्टि गयी तो सवा बारह बज रहे थे | इतनी रात को कौन दरवाजा खटखटा रहा है-यही सोचकर वह डर गयी | उसने पास के बिस्तर पर लेटी पूजा को जगा लिया |

तभी एक जोर का धक्का दरवाजे को लगा और उन्हें किसी के गिरने की आवाज सुनायी दी | पूजा ने उठकर ट्यूबलाइट जलाई और साहस कर आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया |

“आप...|” ट्यूबलाइट का प्रकाश देव बाबू के मुख पर पड़ा तो पूजा उसे पहचानकर कह उठी | उसका पति उसके दरवाजे पर लौट आया था मगर किस स्थिति में? उसका मन रो उठा | एक पल को वह वहीँ जड़ हो गयी |

“देव भईया!” करुणा ने आगे बढ़कर उन्हें उठाया तो पूजा मौन खड़ी देखती रह गयी | करुणा देव बाबू को सहारा देकर कमरे में ले गयी | उसने उन्हें बिस्तर पर लिटाया और उनपर गर्म कम्बल डाल दिया |

“क्या सोच रही हो भाभी! देव भईया लौट आए हैं |” करुणा ने आगे बढ़कर देखा, बुत बनकर खड़ी पूजा की आँखों से आँसू बह रहे थे |

“रो रही हो भाभी |” करुणा ने उसे पकड़ कर वहीँ चारपाई पर बैठा दिया |

“तुमने मुझे क्षमा नहीं किया पूजा?” गर्म कम्बल की गरमाई से देव बाबू की चेतना लौट आयी थी |

“.....” पूजा कुछ न कह सकी | उसकी दृष्टि पति की लम्बी बढ़ी हुई दाढ़ी और उलझे बालों में अटकी रही |

“मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं पूजा | मैं तो जैसे पाषाण हो गया था |” पश्चाताप के दो आँसू देव बाबू की आँखों से निकलकर दोनों ओर बह गए |

“आप जैसा कोमल ह्रदय कभी पाषाण नहीं बन सकता | वह तो मेरे भाग्य की विडम्बना थी देव |” खामोश पूजा के अधरों से स्वर फूटा |

“नहीं पूजा, मेरा ह्रदय मुझे मेरे अपराधों के लिए धिक्कार रहा है | मुझे क्षमा कर दो...|” कहकर देव बाबू धीरे-धीरे उठा और उसके हाथ पूजा के पाँवों की ओर बढ़ने लगे |

“ऐसा न करो देव! मेरा सौभाग्य आपको वापस लौटा लाया है |” पूजा ने उसे सहारा देकर फिर बिस्तर पर लिटा दिया |

करुणा उपर पंकज को सारी सूचना देकर नीचे रसोई घर में चाय बनाने लगी थी | सूचना पाकर पंकज भी नीचे आ गया था | वह कुर्सी पर मौन बैठा सिगरेट पी रहा था |

करुणा चाय बना लायी | पूजा अपने हाथों में प्याला थामे देव बाबू को चाय पिलाने लगी | उसके आँसू बहकर चाय के प्याले में गिरने लगे |

“इस शुभ अवसर पर रो रही हो भाभी!” करुणा ने उसके समीप बैठते हुए प्यार से कहा |

“मैं स्वयं को सम्भाल नहीं पा रही हूँ करुणा | इतनी खुशी मुझसे सम्भाली नहीं जाती |” कहते हुए पूजा फूट-फूटकर रो उठी | देव बाबू की आँखों में भी आँसू तैर आए थे | उसने पूजा के हाथ से चाय का प्याला लेकर नीचे रख दिया |

“आओ करुणा, हम ऊपर चलते हैं |” पंकज ने करुणा से कहा और वह उठकर उसके पीछे-पीछे चल दी |

पूजा ने अपने शरीर का सारा भार कमजोर देव बाबू के वक्ष पर डाल दिया | एक हुंकार सी रह-रहकर मन में उठ रही थी | वह फूट-फूटकर रो रही थी | बहते हुए आँसू मन का सन्ताप धोते जा रहे थे |