Chandragupt - 1 in Hindi Fiction Stories by Jayshankar Prasad books and stories PDF | चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 1

Featured Books
Categories
Share

चंद्रगुप्त - प्रथम अंक - 1

चन्द्रगुप्त

जयशंकर प्रसाद


© COPYRIGHTS

This book is copyrighted content of the concerned author as well as Matrubharti.

Matrubharti has exclusive digital publishing rights of this book.

Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.

Matrubharti can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.


पात्र-परिचय

पुरुष-पात्र

चाणक्य (विष्णुगुप्त) : मौर्य साम्राज्य का निर्माता

चन्द्रगुप्त : मौर्य सम्राट्‌

नन्द : मगध-सम्राट्‌

राक्षस : मगध का अमात्य

वररुचि (कात्यायन) : मगध का मन्त्री

आम्भीक : तक्षशिला का राजकुमार

सिंहरण : मालव गण-मुख्य का कुमार

पर्वतेश्वर : पंजाब का राजा (पोरस)

सिकन्दर : ग्रीक-विजेता

फिलिप्स : सिकन्दर का क्षत्रप

मौर्य-सेनापति : चन्द्रगुप्त का पिता

एनीजाक्रीटीज : सिकन्दर का सहचर

देवबल, नागदप, गण-मुख्य : मालव-गणतन्त्र के पदाधिकारी

साइबर्टियस, मेगास्थनीज : यवन-दूत

गान्धार-नरेश : आम्भीक का पिता

सिल्यूकस : सिकन्दर का सेनापति

दाण्ड्यायन : एक तपस्वी

स्त्री-पात्र

अलका : तक्षशिला की राजकुमारी

सुवासिनी : शकटार की कन्या

कल्याणी : मगध-राजकुमारी

नीला, लीला : कल्याणी की सहेलियाँ

मालविला : सिन्धु-देश की कुमारी

कार्नेलिया : सिल्यूकस की कन्या

मौर्य-पत्नी : चन्द्रगुप्त की माता

एलिस : कार्नेलिया की सहेली

प्रथम अंक

(स्थानः तक्षशिला के गुरुकुल का मठ)

(चाणक्य और सिंहरण)

चाणक्यः सौम्य, कुलपति ने मुझे गृहस्थ-जीवन में प्रवेश करनेकी आज्ञा दे दी। केवल तुम्हीं लोगों को अर्थशास्त्र पढ़ाने के लिए ठहराथा; क्योंकि इस वर्ष के भावी स्नातकों को अर्थशास्त्र का पाठ पढ़ाकरमुझ अकिञ्चन को गुरु-दक्षिणा चुका देनी थी।

सिंहरणः आर्य, मालवों को अर्थशास्त्र की उतनी आवश्यकता नहीं,जितनी अस्त्रशास्त्र की। इसलिए मैं पाठ में पिछड़ा रहा, क्षमाप्रार्थी हूँ।चाणक्यः अच्छा, अब तुम मालव जाकर क्या करोगे?

सिंहरणः अभी तो मैं मालव नहीं जाता। मुझे तक्षशिला कीराजनीति पर दृष्टि रखने की आज्ञा मिली है।

चाणक्यः मुझे प्रसन्नता होती है कि तुम्हारा अर्थशास्त्र पढ़नासफल होगा। क्या तुम जानते हो कि यवनों के दूत यहाँ क्यों आये हैं?

सिंहरणः मैं उसे जानने की चेष्टा कर रहा हूँ। आर्यावर्त्त काभविष्य लिखने के लिए कुचक्र और प्रतारणा की लेखनी और मसि प्रस्तुतहो रही है। उपरापथ के खण्ड राज-द्वेष से जर्जर हैं। शीघ्र भयानकविस्फोट होगा।

(सहसा आम्भीक और अलका का प्रवेश)

आम्भीकः कैसा विस्फोट? युवक, तुम कौन हो?

सिंहरणः एक मालव।

आम्भीकः नहीं, विशेष परिचय की आवश्यकता है।

सिंहरणः तक्षिला गुरुकुल का एक छात्र।

आम्भीकः देखता हूँ कि तुम दुर्विनीत भी हो।

सिंहरणः कदापि नहीं राजकुमार! विनम्रता के साथ निर्भीक होनामालवों का वंशानुगत चरित्र है, और मुझे तो तक्षशिला की शिक्षा का भीगर्व है।

आम्भीकः परन्तु तुम किसी विस्फोट की बातें अभी कर रहे थे।और चाणक्य, क्या तुम्हारा भी इसमें कुछ हाथ है?

(चाणक्य चुप रहता है)

आम्भीकः (क्रोध से) बोलो ब्राह्मण, मेरे राज्य में ह कर, मेरेअन्न से पल कर, मेरे ही विरुद्ध कुचक्रों का सृजन!

चाणक्यः राजकुमार, ब्राह्मण न किसी के राज्य में रहता है औरन किसी के अन्न से पलता है; स्वराज्य में विचरता है और अमृत होकर जीता है। वह तुम्हारा मिथ्या गर्व है। ब्राह्मण सब कुछ सामर्थ्य रखनेपर भी, स्वेच्छा से इन माया-स्तूपों को ठुकरा देता है, प्रकृति के कल्याणके लिए अपने ज्ञान का दान देता है।

आम्भीकः वह काल्पनिक महत्व माया-जाल है; तुम्हारे प्रत्यक्षनीच कर्म उस पर पर्दा नहीं डाल सकते।

चाणक्यः सो कैसे होगा अविश्वासी क्षत्रिय! इसी ने दस्यु औरम्लेच्छ साम्राज्य बना रहे हैं और आर्य-जाति पतन के कगार पर खड़ीएक धक्के की राह देख रही है।

आम्भीकः और तुम धक्का देने का कुचक्र विद्यार्थियों को सिखारहे हो!

सिंहरणः विद्यार्थी और कुचक्र! असम्भव। यह तो वे ही करसकते हैं, जिनके हाथ में अधिकार हो - जिनता स्वार्थ समुद्र से भीविशाल और सुमेरु से भी कठो हो, जो यवनों की मित्रता के लिए स्वयंवाल्हीक तक...

आम्भीकः बस-बस दुर्धर्ष युवक! बता, तेरा अभिप्राय क्या है?

सिंहरणः कुछ नहीं।

आम्भीकः नहीं, बताना होगा। मेरी आज्ञा है।

सिंहरणः गुरुकुल में केवल आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य होती है;अन्य आज्ञाएँ, अवज्ञा के कान से सुनी जाती है राजकुमार!

अलकाः भाई! इस वन्य निर्झर के समान स्वच्छ और स्वच्छंदहृदय में कितना बलवान वेग है! यह अवज्ञा भी स्पृहणीय है। जाने दो।

आम्भीकः चुप रहो अलका, यह ऐसी बात नहीं है, जो यों हीउड़ा दी जाय। इसमें कुछ रहस्य है।

(चाणक्य चुपचाप मुस्कराता है)

सिंहरणः हाँ-हाँ, रहस्य है! यमन-आक्रमणकारियों के पुष्कलस्वर्ण से पुलकित होकर, आर्यावर्त्त की सुख-रजनी की शान्ति-निद्रा मेंउपरापथ की अगला धीरे से खोल देने का रहस्य है। क्यों राजकुमार!

सम्भवतः तक्षशिलाधीश वाल्हीक तक इसी रहस्य का उद्‌घाटन करने गयेथे?

आम्भीकः (पैर पटक कर) ओह, असह्य! युवक तुम बन्दी हो।

सिंहरणः कदापि नहीं; मालव कदापि बन्दी नहीं हो सकता।

(आम्भीक तलवार खींचता है।)

चंद्रगुप्तः (सहसा प्रवेश करके) ठीक है, प्रत्येर निरपराध आर्यस्वतंत्र है, उसे कोई बन्दी नहीं बना सकता है। यह क्या राजकुमार! खड्‌गको कोश में स्थान नहीं है क्या?

सिंहरणः (व्यंग्य से) वह तो स्वर्ण से भर गया है!

आम्भीकः तो तुम सब कुचक्र में लिप्त हो। और इस मालवको तो मेरा अपमान करने का प्रतिफल-मृत्यु-दण्ड अवश्य भोगना पड़ेगा।

चंद्रगुप्तः क्यों, वह क्या एक निस्सहाय छात्र तुम्हारे राज्य में शिक्षापाता है और तुम एक राजकुमार हो - बस इसीलिए?

(आम्भीक तलवार चलाता है। चन्द्रगुप्त अपनी तलवार पर उसेरोकता है; आम्भीक की तलवार छूट जाती है। वह निस्सहाय होकरचंद्रगुप्त के आक्रमण की प्रतीक्षा करता है। बीच में अलका आजातीहै।)

सिंहरणः वीर चन्द्रगुप्त, बस। जाओ राजकुमार, यहाँ कोई कुचक्रनहीं है, अपने कुचक्रों से अपनी रक्षा स्वयं करो।

चाणक्यः राजकुमारी, मैं गुरुकुल का अधिकारी हूँ। मैं आज्ञा देताहूँ कि तुम क्रोधाभिभूत कुमार को लिवा जाओ। गुरुकुल में शस्त्रों काप्रयोग शिक्षा के लिए होता है, द्वंद्व-युद्ध के लिए नहीं। विश्वास रखना,इस दुर्व्यवहार का समाचार महाराज के कानों तक न पहुँचेगा।

अलकाः ऐसा ही हो। चलो भाई!

(क्षुब्ध आम्भीक उसके साथ जाता है।)

चाणक्यः (चन्द्रगुप्त से) तुम्हारा पाठ समाप्त हो चुका है औरआज का यह काण्ड असाधारण है। मेरी सम्मति है कि तुम शीघ्र तक्षशिलाका परित्याग कर दो। और सिंहरण, तुम भी।

चन्द्रगुप्तः आर्य, हम मागध हैं और यह मालव। अच्छा होता कियहीं गुरुकुल में हम लोग शस्त्र की परीक्षा भी देते।

चाणक्यः क्या यही मेरी शिक्षा है? बालकों की-सी चपलतादिखलाने का यह स्थल नहीं। तुम लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोगकरना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीति-विरुद्ध है।

चन्द्रगुप्तः आर्य! संसार-भर की नीति और शिक्षा का अर्थ मैंनेयही समझा है कि आत्म-सम्मान के लिए मर-मिटना ही दिव्य जीवन है।सिंहरण मेरा आत्मीय है, मित्र है, उसका मान मेरा ही मान है।

चाणक्यः देखूँगा कि इस आत्म-सम्मान की भविष्य-परीक्षा में तुमकहाँ तक उपीर्ण होते हो!

सिंहरणः आपके आशीर्वाद से हम लोग अवश्य सफल होंगे।

चाणक्यः तुम मालव हो और यह मागध, यही तुम्हारे मान काअवसान है न? परन्तु आत्म-सम्मान इतन ही से सन्तुष्ट नहीं होगा। मालवऔर मागध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वहमिलेगा। क्या तुम नहीं देखते हो कि आगामी दिवसों में, आर्यावर्त के सबस्वतंत्र राष्ट्र एक के अनन्तर दूसरे विदेशी विजेता से पददलित होंगे? आजजिस व्यंग्य को लेकर इतनी घटना हो गयी है, वह बात भावी गांधारनरेशआम्भीक के हृदय में, शल्य के समान चुभ गयी है। पञ्चनन्द-नरेशपर्वतेश्वर के विरोध के कारण यह क्षुद्र-हृदय आम्भीक यवनों का स्वागतकरेगा और आर्यावर्त का सर्वनाश होगा।

चन्द्रगुप्तः गुरुदेव, विश्वास रखिए; यह सब कुछ नहीं होनेपावेगा। यह चंद्रगुप्त आपके चरणों की शपथपूर्वक प्रतिज्ञा करता है, कियवन यहाँ कुछ न कर सकेंगे।

चाणक्यः तुम्हारी प्रतिज्ञा अचल हो। परन्तु इसके लिए पहले तुममगध जाकर साधन-सम्पन्न बनो। यहाँ समय बिताने का प्रयोज नहीं। मैंभी पञ्चनन्द-नरेश से मिलता हुआ मगध आऊँगा। और सिंहरण, तुम भीसावधान!

सिंहरणः आर्य, आपका आशीर्वाद ही मेरा रक्षक है।

(चंद्रगुप्त और चाणक्य का प्रस्थान)

सिंहरणः एक अग्निमय गन्धक का स्रोत आर्यावर्त के लौह अस्त्रागार में घुसकर विस्फोट करेगा। चञ्चला रण-लक्ष्मी इन्द्र-धनुष-सीविजयमाला हाथ में लिये उस सुन्दर नील-लोहित प्रलय-जलद में विचरणकरेगी और वीर-हृदय मयूर-से नाचेंगे। तब आओ देवि! स्वागत!!

अलकाः मालव-वीर, अभी तुमने तक्षशिला का परित्याग नहींकिया?

सिंहरणः क्यों देवि? क्या मैं यहाँ रहने के उपयुक्त नहीं हूँ?

अलकाः नहीं, मैं तुम्हारी सुख-शान्ति के लिए चिन्तित हूँ! भाईने तुम्हारा अपमान किया है, पर वह अकारण न था; जिसका जो मार्गहै उस पर वह चलेगा। तुमने अनधिकार चेष्टा की था! देखती हूँ प्रायःमनुष्य, दूसरों को अपने मार्ग पर चलाने के लिए रुक जाता है, औरअपना चलना बन्द कर देता है।

सिंहरणः परन्तु भद्रे, जीवन-काल में भिन्न-भिन्न मार्गों की परीक्षाकरते हुए, जो ठहरता हुआ चलता है, वह दूसरों को लाभ ही पहुँचाताहै। यह कष्टदायक तो है; परन्तु निष्फल नहीं।

अलकाः किन्तु मनुष्य को अपने जीवन और सुख का भी ध्यानरखान चाहिए।

सिंहरणः मानव कब दानव से भी दुर्दान्त, पशु से भी बर्बर औरपत्थर से भी कठोर, करुणा के लिए निरवकाश हृदयवाला हो जाएगा, नहींजाना जा सकता। अतीत सुखों के लिए सोच क्यों, अनागत भविष्य केलिए भय क्यों और वर्तमान को मैं अपने अनुकूल बना ही लूँगा; फिरचिन्ता किस बात की?

अलकाः मालव, तुम्हारे देश के लिए तुम्हारा जीवन अमूल्य है,और वही यहाँ आपपि में है।

सिंहरणः राजकुमारी, इस अनुकम्पा के लिए कृतज्ञ हुआ। परन्तुमेरा देश मालव ही नहीं, गांधार भी है। यही क्या, समग्र आर्यावर्त है,इसलिए मैं...

अलकाः (आश्चर्य से) क्या कहते हो?

सिंहरणः गांधार आर्यावर्त से भिन्न नहीं है, इसीलिए उसके पतनको मैं अपना अपमान समझता हूँ।

अलकाः (निःश्वास लेकर) इसका मैं अनुभव कर रही हूँ। परन्तुजिस देश में ऐसे वीर युवक हों, उसका पतन असम्भव है। मालववीर,तुम्हारे मनोबल में स्वतंत्रता है और तुम्हारी दृढ़ भुजाओं में आर्यावर्त केरक्षण की शक्ति है; तुम्हें सुरक्षित रहना ही चाहिए। मैं भी आर्यावर्त कीबालिका हूँ - तुमसे अनुरोध करती हूँ कि तुम शीघ्र गांधार छोड़ दो।

मैं आम्भीक को शक्ति भर, पतन से रोकूँगी; परन्तु उसके न मानने परतुम्हारी आवश्यकता होगी। जाओ वीर!

सिंहरणः अच्छा राजकुमारी, तुम्हारे स्नेहानुरोध से मैं जाने के लिएबाध्य हो रहा हूँ। शीघ्र ही चला जाऊँगा देवि! किन्तु यदि किसी प्रकारसिन्धु की प्रखर धारा को यवन सेना न पार कर सकती...।

अलकाः मैं चेष्टा करूँगी वीर, तुम्हारा नाम?

सिंहरणः मालवगण के राष्ट्रपति का पुत्र सिंहरण।

अलकाः अच्छा, फिर कभी।

(दोनों एक-दूसरे को देखते हुए प्रस्थान करते हैं।)