चंद्रकांता
चोथा भाग
बयान - 1
वनकन्या को यकायक जमीन से निकल पैर पकड़ते देख वीरेन्द्रसिंह एकदम घबरा उठे। देर तक सोचते रहे कि यह क्या मामला है, यहां वनकन्या क्योंकर आ पहुंची और यह योगी कौन हैं जो इसकी मदद कर रहे हैं? आखिर बहुत देर तक चुप रहने के बाद कुमार ने योगी से कहा, "मैं इस वनकन्या को जानता हूं। इसने हमारे साथ बड़ा भारी उपकार किया है और मैं इससे बहुत कुछ वादा भी कर चुका हूं, लेकिन मेरा वह वादा बिना कुमारी चंद्रकान्ता के मिले पूरा नहीं हो सकता। देखिये इसी खत में, जो आपने दी है, क्या शर्त है? खुद इन्होंने लिखा है कि 'मुझसे और कुमारी चंद्रकान्ता से एक ही दिन शादी हो'और इस बात को मैंने मंजूर किया है, पर जब कुमारी चंद्रकान्ता ही इस दुनिया से चली गयी, तब मैं किसी से ब्याह नहीं कर सकता, इकरार दोनों से एक साथ ही शादी करने का है।"
योगी - (वनकन्या की तरफ देखकर) क्यों रे, तू मुझे झूठा बनाया चाहती है?
वनकन्या - (हाथ जोड़कर) नहीं महाराज, मैं आपको कैसे झूठा बना सकती हूं? आप इनसे यह पूछें कि इन्होंने कैसे मालूम किया कि चंद्रकान्ता मर गई?
योगी - (कुमार से) कुछ सुना! यह लड़की क्या कहती है? तुमने कैसा जाना कि कुमारी चंद्रकान्ता मर गई है?
कुमार - (कुछ चौकन्ने होकर) क्या कुमारी जीती है?
योगी - जो मैं पूछता हूं, पहले उसका तो जवाब दे लो?
कुमार - पहले जब मैं इस खोह में आया था तब इस जगह मैंने कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को देखा था, बल्कि बातचीत भी की थी। आज उन दोनों की जगह इन दो लाशों को देखने से मालूम हुआ कि ये दोनों...!(इतना कहा था कि गला भर आया।)
योगी - (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्या तुम्हारी अक्ल भी चरने चली गई? इन दोनों लाशों को देखकर इतना न पहचान सके कि ये मर्दों की लाशें हैं या औरतों की? इनकी लंबाई और बनावट पर भी कुछ ख्याल न किया!
तेज - (घबड़ाकर तथा दोनों लाशों की तरफ गौर से देख और शर्माकर) मुझसे बड़ी भूल हुई कि मैंने इन दोनों लाशों पर गौर नहीं किया, कुमार के साथ ही मैं भी घबड़ा गया। हकीकत में दोनों लाशें मर्दों की हैं, औरतों की नहीं।
योगी - ऐयारों से ऐसी भूल का होना कितने शर्म की बात है! इस जरा - सी भूल में कुमार की जान जा चुकी थी! (उंगली से इशारा करके) देखो उस तरफ उन दोनों पहाड़ियों के बीच में! इतना इशारा बहुत है, क्योंकि तुम इस तहखाने का हाल जानते हो, अपने ओस्ताद से सुन चुके हो।
तेजसिंह ने उस तरफ देखा, साथ ही टकटकी बंधा गयी। कुमार भी उसी तरफ देखने लगे, देवीसिंह और ज्योतिषीजी की निगाह भी उधर ही जा पड़ी। यकायक तेजसिंह घबड़ाकर बोले, "ओह, यह क्या हो गया?" तेजसिंह के इतना कहने से और भी सभी का ख्याल उसी तरफ चला गया।
कुछ देर बाद योगीजी से और बातचीत करने के लिए तेजसिंह उनकी तरफ घूमे मगर उनको न पाया, वनकन्या भी दिखाई न पड़ी, बल्कि यह भी मालूम न हुआ कि वे दोनों किस राह से आये थे और कब चले गये। जब तक वनकन्या और योगीजी यहां थे, उनके आने का रास्ता भी खुला हुआ था, दीवार में दरार मालूम पड़ती थी, जमीन फटी हुई दिखाई देती थी, मगर अब कहीं कुछ नहीं था।
बयान - 2
आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह से कहा, "मुझे अभी तक यह न मालूम हुआ कि योगीजी ने उंगली के इशारे से तुम्हें क्या दिखाया और इतनी देर तक तुम्हारा ध्यान कहां अटका रहा, तुम क्या देखते रहे और अब वे दोनों कहां गायब हो गये।
तेज - क्या बतावें कि वे दोनों कहां चले गये, कुछ खुलासा हाल उनसे न मिल सका, अब बहुत तरद्दुद करना पड़ेगा।
वीरेन्द्र - आखिर तुम उस तरफ क्या देख रहे थे?
तेज - हम क्या देखते थे इस हाल के कहने में बड़ी देर लगेगी और अब यहां इन मुर्दों की बदबू से रुका नहीं जाता। इन्हें इसी जगह छोड़ इस तिलिस्म के बाहर चलिये, वहां जो कुछ हाल है कहूंगा। मगर यहां से चलने के पहले उसे देख लीजिये जिसे इतनी देर तक मैं ताज्जुब से देख रहा था। वह दोनों पहाड़ियों के बीच में जो दरवाजा खुला नजर आ रहा है, सो पहले बंद था, यही ताज्जुब की बात थी। अब चलिये, मगर हम लोगों को कल फिर यहां लौटना पड़ेगा। यह तिलिस्म ऐसे राह पर बना हुआ है कि अंदर - अंदर यहां तक आने में लगभग पांच कोस का फासला मालूम पड़ता है और बाहर की राह से अगर इस तहखाने तक आवें तो पंद्रह कोस चलना पड़ेगा।
कुमार - खैर यहां से चलो, मगर इस हाल को खुलासा सुने बिना तबीयत घबड़ा रही है।
जिस तरह चारों आदमी तिलिस्म की राह से यहां तक पहुंचे थे उसी तरह तिलिस्म के बाहर हुए। आज इन लोगों को बाहर आने तक आधी रात बीत गई, इनके लश्कर वाले घबड़ा रहे थे कि पहले तो पहर दिन बाकी रहते बाहर निकल आते थे, आज देर क्यों हुई? जब ये लोग अपने खेमे में पहुंचे तो सबोंका जी ठिकाने हुआ। तेजसिंह ने कुमार से कहा, "इस वक्त आप सो रहें कल आपसे जो कुछ कहना है कहूंगा।”
बयान - 3
यह तो मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता जीती है, मगर कहां है और उस खोह में से क्योंकर निकल गई, वनकन्या कौन है, योगीजी कहां से आये,तेजसिंह को उन्होंने क्या दिखाया इत्यादि बातों को सोचते और ख्याल दौड़ाते कुमार ने सुबह कर दी, एक घड़ी भी नींद न आई। अभी सबेरा नहीं हुआ कि पलंग से उतर जल्दी के मारे खुद तेजसिंह के डेरे में गए। वे अभी तक सोये थे, उन्हें जगाया।
तेजसिंह ने उठकर कुमार को सलाम किया। जी में तो समझ ही गए थे कि वही बात पूछने के लिए कुमार बेताब हैं और इसी से इन्होंने आकर मुझे इतनी जल्दी उठाया है मगर फिर भी पूछा, "कहिए क्या है जो इतने सबेरे आप उठे हैं?"
कुमार – रातभर नींद नहीं आई,अब जो कुछ कहना हो, जल्दी कहो, जी बेचैनहै।
तेज - अच्छा आप बैठ जाइये, मैं कहता हूं।
कुमार बैठ गये और देवीसिंह तथा ज्योतिषीजी को भी उसी जगह बुलवा भेजा। जब वे आ गये, तेजसिंह ने कहना शुरू किया, "यह तो मुझे अभी तक मालूम नहीं हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता को कौन ले गया या वह योगी कौन थे और वनकन्या की मदद क्यों करने लगे, मगर उन्होंने जो कुछ मुझे दिखाया वह इतने ताज्जुब की बात थी कि मैं उसे देखने में ही इतना डूबा कि योगीजी से कुछ पूछ न सका और वे भी बिना कुछ खुलासा हाल कहे चलते बने। उस दिन पहले पहल जब मैं आपको खोह में ले गया, तब वहां का हाल जो कुछ मैंने अपने गुरुजी से सुना था आपसे कहा था, याद है?"
कुमार - बखूबी याद है।
तेज - मैंने क्या कहा था?
कुमार - तुमने यही कहा था कि उसमें बड़ा भारी खजाना है, मगर उस पर एक छोटा - सा तिलिस्म भी बंधा हुआ है जो बहुत सहज में टूट सकेगा,क्योंकि उसके तोड़ने की तरकीब तुम्हारे ओस्ताद तुम्हें कुछ बता गये हैं।
तेज - हां ठीक है, मैंने यही कहा था। उस खोह में मैंने आपको एक दरवाजा दो पहाड़ियों के बीच में दिखाया था, जिसे योगी ने मुझे इशारे से बताया था। उस दरवाजे को खुला देख मुझे मालूम हो गया कि उस तिलिस्म को किसी ने तोड़ डाला और वहां का खजाना ले लिया, उसी वक्त मुझे यह ख्यालआया कि योगी ने उस दरवाजे की तरफ इसीलिए इशारा किया कि जिसने तिलिस्म तोड़कर वह खजाना लिया है, वही कुमारी चंद्रकान्ता को भी ले गया होगा। इसी सोच और तरद्दुत में डूबा हुआ मैं एकटक उस दरवाजे की तरफ देखता रह गया और योगी महाराज चलते बने।
तेजसिंह की इतनी बात सुनकर बड़ी देर तक कुमार चुप बैठे रहे, बदहवासी - सी छा गई, इसके बाद सम्हलकर बैठे और फिर बोले :
कुमार - तो कुमारी चंद्रकान्ता फिर एक नई बला में फंस गई?
तेज - मालूम तो ऐसा ही पड़ता है।
कुमार - तब इसका पता कैसे लगे? अब क्या करना चाहिए?
तेज - पहले हम लोगों को उस खोह में चलना चाहिए। वहां चलकर उस तिलिस्म को देखें जिसे तोड़कर कोई दूसरा वह खजाना ले गया है। शायद वहां कुछ मिले या कोई निशान पाया जाय, इसके बाद जो कुछ सलाह होगी किया जायगा।
कुमार - अच्छा चलो, मगर इस वक्त एक बात का ख्याल और मेरे जी में आता है।
तेज - वह क्या?
कुमार - जब बद्रीनाथ को कैद करने उस खोह में गये थे और दरवाजा न खुलने पर वापस आए, उस वक्त भी शायद उस दरवाजे को भीतर से उसी ने बंद कर लिया हो जिसने उस तिलिस्म को तोड़ा है। वह उस वक्त उसके अंदर रहा होगा।
तेज - आपका ख्याल ठीक है, जरूर यही बात है, इसमें कोई शक नहीं बल्कि उसी ने शिवदत्त को भी छुड़ाया होगा।
कुमार - हो सकता है, मगर जब छूटने पर शिवदत्त ने बेईमानी पर कमर बांधी और पीछे मेरे लश्कर पर धावा मारा तो क्या उसी ने फिर शिवदत्त को गिरफ्तार करके उस खोह में डाल दिया? और क्या वह पुर्जा भी उसी का लिखा था जो शिवदत्त के गायब होने के बाद उसके पलंग पर मिला था?
तेज - हो सकता है।
कुमार - तो इससे मालूम होता है कि वह हमारा दोस्त भी है, मगर दोस्त है तो फिर कुमारी को क्यों ले गया?
तेज - इसका जवाब देना मुश्किल है, कुछ अक्ल काम नहीं करती, सिवाय इसके शिवदत्त के छूटने के बाद भी तो आपको उस खोह में जाने का मौका पड़ा था और हम लोग भी आपको खोजते हुए उस खोह में पहुंचे, उस वक्त चपला ने तो नहीं कहा कि इस खोह में कोई आया था जिसने शिवदत्त को एक दफे छुड़ा के फिर कैद कर दिया। उसने उसका कोई जिक्र नहीं किया, बल्कि उसने तो कहा था कि हम शिवदत्त को बराबर इसी खोह में देखते हैं, न उसने कोई खौफ की बात बतायी।
कुमार - मामला तो बहुत ही पेचीदा मालूम पड़ता है, मगर तुम भी कुछ गलती कर गये।
तेज - मैंने क्या गलती की?
कुमार - कल योगी ने दीवार से निकलकर मुझे कूदने से रोका, इसके बाद जमीन पर लात मारी और वहां की जमीन फट गई और वनकन्या निकल आई, तो योगी कोई देवता तो थे ही नहीं कि लात मार के जमीन फाड़ डालते। जरूर वहां पर जमीन के अंदर कोई तरकीब है। तुम्हें भी मुनासिब था कि उसी तरह लात मारकर देखते कि जमीन फटती है या नहीं।
तेज - यह आपने बहुत ठीक कहा, तो अब क्या करें?
कुमार - आज फिर चलो, शायद कुछ काम निकल जाय, अभी खोह में जाने की क्या जरूरत है?
तेज - ठीक है चलिए।
आज फिर कुमार और तीनों ऐयार उस तिलिस्म में गए। मालूमी राह से घूमते हुए उसी दलान में पहुंचे जहां योगी निकले थे। जाकर देखा तो वे दोनों सड़ी और जानवरों की खाई हुई लाशें वहां न थीं, जमीन धोई – धोई साफ मालूम पड़ती थी। थोड़ी देर तक ताज्जुब में भरे ये लोग खड़े रहे, इसके बाद तेजसिंह ने गौर करके उसी जगह जोर से लात मारी जहां योगी ने लात मारी थी।
फौरन उसी जगह से जमीन फट गई और नीचे उतरने के लिए छोटी - छोटी सीढ़ियां नजर पड़ीं। खुशी - खुशी ये चारों आदमी नीचे उतरे। वहां एकअंधेरी कोठरी में घूम - घूमकर इन लोगों को कोई दूसरा दरवाजा खोजना पड़ा मगर पता न लगा। लाचार होकर फिर बाहर निकल आए, लेकिन वह फटी हुई जमीन फिर न जुड़ी, उसी तरह खुली रह गयी। तेजसिंह ने कहा, "मालूम होता है कि भीतर से बंद करने की कोई तरकीब इसमें है जो हम लोगों को मालूम नहीं, खैर जो भी हो काम कुछ न निकला, अब बिना बाहर की राह इस खोह में आए कोई मतलब सिद्ध न होगा।"
चारों आदमी तिलिस्म के बाहर हुए। तेजसिंह ने ताला बंद कर दिया।
एक रोज टिककर कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह सेनापति को नायब मुकर्रर करके चुनार भेज देने के बाद नौगढ़ की तरफ कूच किया और वहां पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की। राजा सुरेन्द्रसिंह के इशारे से जीतसिंह ने रात को एकांत में तिलिस्म का हाल कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा। उसके जवाब में जो कुछ ठीक - ठीक हाल था कुमार ने उनसे कहा।
जीतसिंह ने उसी जगह तेजसिंह को बुलवाकर कहा, "तुम दोनों ऐयार कुमार को साथ लेकर खोह में जाओ और उस छोटे तिलिस्म को कुमार के हाथ से फतह करवाओ जिसका हाल तुम्हारे ओस्ताद ने तुमसे कहा था। जो कुछ हुआ है सब
इसी बीच में खुल जायगा। लेकिन तिलिस्म फतह करने के पहले दो काम करो, एक तो थोड़े आदमी ले जाओ और महाराज शिवदत्त को उनकी रानी समेत यहां भेजवा दो, दूसरे जब खोह के अंदर जाना तो दरवाजा भीतर से बंद कर लेना। अब महाराज से मुलाकात करने और कुछ पूछने की जरूरत नहीं, तुम लोग इसी वक्त यहां से कूच कर जाओ और रानी के वास्ते एक डोली भी साथ लिवाते जाओ।"
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने तीनों ऐयारों और थोड़े आदमियों को साथ ले खोह की तरफ कूच किया। सुबह होते - होते ये लोग वहां पहुंचे। सिपाहियों को कुछ दूर छोड़ चारों आदमी खोह का दरवाजा खोलकर अंदर गये।
सबेरा हो गया था, तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को खोह के बाहर लाकर सिपाहियों के सुपुर्द किया और महाराज शिवदत्त को पैदल और उनकी रानी को डोली पर चढ़ाकर जल्दी नौगढ़ पहुंचाने के लिए ताकीद करके फिर खोह के अंदर पहुंचे।
बयान - 4
राजा सुरेन्द्रसिंह के सिपाहियों ने महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को नौगढ़ पहुंचाया। जीतसिंह की राय से उन दोनों को रहने के लिए सुंदर मकान दिया गया। उनकी हथकड़ी - बेड़ी खोल दी गयी, मगर हिफाजत के लिए मकान के चारों तरफ सख्त पहरा मुकर्रर कर दिया गया।
दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह आपस में कुछ राय कर के पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल - इन चारों कैदी ऐयारों को साथ ले उस मकान में गये जिसमें महाराज शिवदत्त और उनकी महारानी को रखा था।
राजा सुरेन्द्रसिंह के आने की खबर सुनकर महाराज शिवदत्त अपनी रानी को साथ लेकर दरवाजे तक इस्तकबाल (अगवानी) के लिए आए और मकान में ले जाकर आदर के साथ बैठाया। इसके बाद खुद दोनों आदमी सामने बैठे। हथकड़ी और बेड़ी पहिरे ऐयार भी एक तरफ बैठाये गये। महाराज शिवदत्त ने पूछा, "इस वक्त आपने किसलिए तकलीफ की?"
राजा सुरेन्द्रसिंह ने इसके जवाब में कहा, "आज तक आपके जी में जो कुछ आया किया, क्रूरसिंह के बहकाने से हम लोगों को तकलीफ देने के लिए बहुत - कुछ उपाय किया, धोखा दिया, लड़ाई ठानी, मगर अभी तक परमेश्वर ने हम लोगों की रक्षा की। क्रूरसिंह, नाज़िम और अहमद भी अपनी सजा को पहुंच गये और हम लोगों की बुराई सोचते - सोचते ही मर गये। अब आपका क्या इरादा है? इसी तरह कैद में पड़े रहना मंजूर है या और कुछ सोचा है?"
महाराज शिवदत्त ने कहा, "आपकी और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बहादुरी में कोई शक नहीं, जहां तक तारीफ की जाय थोड़ी है। परमेश्वर आपको खुश रखे और पोते का सुख दिखलावे, उसे गोद में लेकर आप खिलावें और मैंने जो कुछ किया उसे आप माफ करें। मुझे राज्य की अब बिल्कुल अभिलाषा नहीं है। चुनार ेको आपने जिस तरह फतह किया और वहां जो कुछ हुआ मुझे मालूम है। मैं अब सिर्फ एक बात चाहता हूं, परमेश्वर के लिए तथा अपनी जवांमर्दी और बहादुरी की तरफ ख्याल करके मेरी इच्छा पूरी कीजिए।" इतना कह हाथ जोड़कर सामने खड़े हो गये।
राजा सुरेन्द्र - जो कुछ आपके जी में हो कहिए, जहां तक हो सकेगा मैं उसे पूरा करूंगा।
शिव - जो कुछ मैं चाहता हूं आप सुन लीजिए। मेरे आगे कोई लड़का नहीं है जिसकी मुझे फिक्र हो, हां चुनार के किले में मेरे रिश्तेदारों की कई बेवाएं हैं जिनकी परवरिश मेरे ही सबब से होती थी, उनके लिए आप कोई ऐसा बंदोबस्त कर दें जिससे उन बेचारियों की जिंदगी आराम से गुजरे। और भी रिश्ते के कई आदमी हैं, लेकिन मैं उनके लिए सिफारिश न करूंगा बल्कि उनका नाम भी न बतलाऊंगा, क्योंकि वे मर्द हैं, हर तरह से कमा - खा सकते हैं, और हमको अब आप कैद से छुट्टी दीजिए। अपनी स्त्री को साथ ले जंगल में चला जाऊंगा, किसी जगह बैठकर ईश्वर का नाम लूंगा, अब मुंह किसी को दिखाना नहीं चाहता, बस और कोई आरजू नहीं है।
सुरेन्द्र - आपके रिश्ते की जितनी औरतें चुनार में हैं सभी की अच्छी तरह से परवरिश होगी, उनके लिए आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं, मगर आपको छोड़ देने में कई बातों का ख्याल है।
शिव - कुछ नहीं, (जनेऊ हाथ में लेकर) मैं धर्म की कसम खाता हूं अब जी में किसी तरह की बुराई नहीं है, कभी आपकी बुराई न सोचूंगा।
सुरेन्द्र - अभी आपकी उम्र भी इस लायक नहीं हुई है कि आप तपस्या करें।
शिव - जो हो, अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दीजिये।
सुरेन्द्र - आपकी कसम का तो मुझे कोई भरोसा नहीं, मगर आप जो यह कहते हैं कि अगर आप बहादुर हैं तो मुझे छोड़ दें तो मैं छोड़ देता हूं, जहां जी चाहे जाइये और जो कुछ आपको खर्च के लिए चाहिए ले लीजिए।
शिव - मुझे खर्च की कोई जरूरत नहीं, बल्कि रानी के बदन पर जो कुछ जेवर हैं वह भी उतार के दिये जाता हूं।
यह कहकर रानी की तरफ देखा, उस बेचारी ने फौरन अपने बदन के बिलकुल गहने उतार दिये।
सुरेन्द्र - रानी के बदन से गहने उतरवा दिये यह अच्छा नहीं किया।
शिव - जब हम लोग जंगल में ही रहा चाहते हैं तो यह हत्या क्यों लिए जाये? क्या चोरों और डकैतों के हाथों से तकलीफ उठाने के लिए और रात भर सुख की नींद न सोने के लिए?
सुरेन्द्र - (उदासी से) देखो शिवदत्तसिंह, तुम हाल ही तक चुनार की गद्दी के मालिक थे, आज तुम्हारा इस तरह से जाना मुझे बुरा मालूम होता है। चाहे तुम हमारे दुश्मन थे तो भी मुझको इस बेचारी तुम्हारी रानी पर दया आती है। मैंने तो तुम्हें छोड़ दिया, चाहे जहां जाओ, मगर एक दफे फिर कहता हूं, अगर तुम यहां रहना कबूल करो तो मेरे राज्य का कोई काम जो चाहो मैं खुशी से तुमको दूं, तुम यहीं रहो।
शिव - नहीं, अब यहां न रहूंगा, मुझे छुट्टी दे दीजिए। इस मकान के चारों तरफ से पहरा हटा लीजिए, रात को जब मेरा जी चाहेगा चला जाऊंगा।
सुरेन्द्र - अच्छा जैसी तुम्हारी मर्जी!
महाराज शिवदत्त के चारों ऐयार चुपचाप बैठे सब बातें सुन रहे थे। बात खतम होने पर दोनों राजाओं के चुप हो जाने पर महाराज शिवदत्त की तरफ देखकर पंडित बद्रीनाथ ने कहा, "आप तो अब तपस्या करने जाते हैं, हम लोगों के लिए क्या हुक्म होता है?"
शिव - जो तुम लोगों के जी में आवे करो, जहां चाहो जाओ, हमने अपनी तरफ से तुम लोगों को छुट्टी दे दी, बल्कि अच्छी बात हो कि तुम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के साथ रहना पसंद करो, क्योंकि ऐसा बहादुर और धार्मिक राजा तुम लोगों को न मिलेगा।
बद्री - ईश्वर आपको कुशल से रखे, आज से हम लोग कुंअर वीरेन्द्रसिंह के हुए, आप अपने हाथों हम लोगों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दीजिए।
महाराज शिवदत्त ने अपने हाथों से चारों ऐयारों की हथकड़ी - बेड़ी खोल दी, राजा सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने कुछ भी न कहा कि आप इनकी बेड़ी क्यों खोलते हैं। हथकड़ी - बेड़ी खुलने के बाद चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए। जीतसिंह ने कहा, "अभी एक दफे आप लोग चारों ऐयार, मेरे सामने आइये फिर वहां जाकर खड़े होइये, पहले अपनी मामूली रस्म तो अदा कर लीजिए।"
मुस्कुराते हुए पं. बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल जीतसिंह के सामने आये और बिना कहे जनेऊ और ऐयारी का बटुआ हाथ में लेकर कसम खाकर बोले - "आज से मैं राजा सुरेन्द्रसिंह और उनके खानदान का नौकर हुआ। ईमानदारी और मेहनत से अपना काम किया करूंगा। तेजसिंह,देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अपना भाई समझूंगा। बस अब तो रस्म पूरी हो गयी?"
"बस और कुछ बाकी नहीं।" इतना कहकर जीतसिंह ने चारों को गले से लगा लिया, फिर ये चारों ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के पीछे जा खड़े हुए।
राजा सुरेन्द्रसिंह ने महाराज शिवदत्त से कहा, "अच्छा अब मैं बिदा होता हूं। पहरा अभी उठाता हूं, रात को जब जी चाहे चले जाना, मगर आओ गले तो मिल लें।"
शिव - (हाथ जोड़कर) नहीं मैं इस लायक नहीं रहा कि आपसे गले मिलूं।
"नहीं जरूर ऐसा करना होगा!" कहकर सुरेन्द्रसिंह ने शिवदत्त को जबरदस्ती गले लगा लिया और उदास मुख से बिदा हो अपने महल की तरफ रवाना हुए। मकान के चारों तरफ से पहरा उठाते गये।
जीतसिंह,बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को साथ लिए राजा सुरेन्द्रसिंह अपने दीवानखाने में जाकर बैठे। घंटों तक महाराज शिवदत्त के बारे में अफसोस भरी बातचीत होती रही। मौका पाकर जीतसिंह ने अर्ज किया, "अब तो हमारे दरबार में और चार ऐयार हो गये हैं जिसकी बहुत ही खुशी है। अगर ताबेदार को पंद्रह दिन की छुट्टी मिल जाती तो अच्छी बात थी, यहां से दूर बेरादरी में कुछ काम है, जाना जरूरी है।"
सुरेन्द्र - इधर एक - एक दो - दो रोज की कई दफे तुम छुट्टी ले चुके हो।
जीत - जी हां, घर ही में कुछ काम था, मगर अबकी तो दूर जाना है इस लिए पंद्रह दिन की छुट्टी मांगता हूं। मेरी जगह पर पं. बद्रीनाथजी काम करेंगे, किसी बात का हर्ज न होगा।
सुरेन्द्र - अच्छा जाओ, लेकिन जहां तक हो सके जल्द आना।
राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो जीतसिंह अपने घर गये और बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को भी कुछ समझाने - बुझाने के लिए साथ लेते गये।
बयान - 5
कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों के साथ खोह के अंदर घूमने लगे। तेजसिंह ने इधर - उधर के कई निशानों को देखकर कुमार से कहा, "बेशक यहां का छोटा तिलिस्म तोड़ कोई खजाना ले गया। जरूर कुमारी चंद्रकान्ता को भी उसी ने कैद किया होगा। मैंने अपने ओस्ताद की जुबानी सुना था कि इस खोह में कई इमारतें और बाग देखने बल्कि रहने लायक हैं। शायद वह चोर इन्हीं में कहीं मिल भी जाय तो ताज्जुब नहीं।"
कुमार - तब जहां तक हो सके काम में जल्दी करनी चाहिए।
तेज - बस हमारे साथ चलिये, अभी से काम शुरू हो जाय।
यह कह तेजसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह को उस पहाड़ी के नीचे ले गये जहां से पानी का चश्मा शुरू होता था। उस चश्मे से उत्तार को चालीस हाथ नापकर कुछ जमीन खोदी।
कुमार से तेजसिंह ने कहा था कि "इस छोटे तिलिस्म के तोड़ने और खजाना पाने की तरकीब किसी धाातु पत्र पर खुदी हुई यहीं जमीन में गड़ी है।"मगर इस वक्त यहां खोदने से उसका कुछ पता न लगा, हां एक खत उसमें से जरूर मिली जिसको कुमार ने निकालकर पढ़ा। यह लिखा था :
"अब क्या खोदते हो! मतलब की कोई चीज नहीं है, जो था सो निकल गया, तिलिस्म टूट गया। अब हाथ मल के पछताओ।"
तेज - (कुमार की तरफ देखकर) देखिये यह पूरा सबूत तिलिस्म टूटने का मिल गया!
कुमार - जब तिलिस्म टूट ही चुका है तो उसके हर एक दरवाजे भी खुले होंगे?
"हां जरूर खुले होंगे", यह कहकर तेजसिंह पहाड़ियों पर चढ़ाते - घुमाते - फिराते कुमार को एक गुफा के पास ले गए जिसमें सिर्फ एक आदमी के जाने लायक राह थी।
तेजसिंह के कहने से एक - एक कर चारों आदमी उस गुफा में घुसे। भीतर कुछ दूर जाकर खुलासी जगह मिली, यहां तक कि चारों आदमी खड़े होकर चलने लगे, मगर टटोलते हुए क्योंकि बिल्कुल अंधेरा था, हाथ तक नहीं दिखाई देता था। चलते - चलते कुंअर वीरेन्द्रसिंह का हाथ एक बंद दरवाजे पर लगा जो धाक्का देने से खुल गया और भीतर बखूबी रोशनी मालूम होने लगी।
चारों आदमी अंदर गये, छोटा - सा बाग देखा जो चारों तरफ से साफ, कहीं तिनके का नाम - निशान नहीं, मालूम होता था अभी कोई झाड़ू देकर गया है। इस बाग में कोई इमारत न थी, सिर्फ एक फव्वारा बीच में था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि इसका हौज कहां है।
बाग में घूमने और इधर - उधर देखने से मालूम हुआ कि ये लोग पहाड़ी के ऊपर चले गये हैं। जब फव्वारे के पास पहुंचे तो एक बात ताज्जुब की दिखाई पड़ी। उस जगह जमीन पर जनाने हाथ का एक जोड़ा कंगन नजर पड़ा, जिसे देखते ही कुमार ने पहचान लिया कि कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ का है। झट उठा लिया, आंखों से आंसू की बूंदें टपकने लगीं, तेजसिंह से पूछा - "यह कंगन यहां क्योंकर पहुंचा? इसके बारे में क्या ख्याल किया जाय?" तेजसिंह कुछ जवाब दिया ही चाहते थे कि उनकी निगाह एक कागज पर जा पड़ी जो उसी जगह खत की तरह मोड़ा पड़ा हुआ था। जल्दी से उठा लिया और खोलकर पढ़ा, यह लिखा था :
"बड़ी होशियारी से जाना, ऐयार लोग पीछा करेंगे, ऐसा न हो कि पता लग जाय, नहीं तो तुम्हारा और कुमार दोनों का ही बड़ा भारी नुकसान होगा। अगर मौका मिला तो कल आऊंगी - वही।"
इस पुर्जे को पढ़कर तेजसिंह किसी सोच में पड़ गये, देर तक चुपचाप खड़े न जाने क्या - क्या विचार करते रहे। आखिर कुमार से न रहा गया, पूछा, "क्यों क्या सोच रहे हो? इस खत में क्या लिखा है?"
तेजसिंह ने वह खत कुमार के हाथ में दे दी, वे भी पढ़कर हैरान हो गए, बोले, "इसमें जो कुछ लिखा है उस पर गौर करने से तो मालूम होता है कि हमारे और वनकन्या के मामले में ही कुछ है, मगर किसने लिखा यह पता नहीं लगता।"
तेज - आपका कहना ठीक है पर मैं एक और बात सोच रहा हूं जो इससे भी ताज्जुब की है।
कुमार - वह क्या?
तेज - इन हरफों को मैं कुछ - कुछ पहचानता हूं, मगर साफ समझ में नहीं आता क्योंकि लिखने वाले ने अपना हरफ छिपाने के लिए कुछ बिगाड़कर लिखा है।
कुमार - खैर इस खत को रख छोड़ो, कभी - न - कभी कुछ पता लग ही जायगा, अब आगे का काम करो।
फिर ये लोग घूमने लगे। बाग में कोने में इन लोगों को छोटी - छोटी चार खिड़कियां नजर आईं जो एक के साथ एक बराबर - सी बनी हुई थीं। पहले चारों आदमी बाईं तरफ वाली खिड़की में घुसे। थोड़ी दूर जाकर एक दरवाजा मिला जिसके आगे जाने की बिल्कुल राह न थी क्योंकि नीचे बेढब खतरनाक पहाड़ी दिखाई देती थी।
इधर - उधर देखने और खूब गौर करने से मालूम हुआ कि यह वही दरवाजा है जिसको इशारे से उस योगी ने तेजसिंह को दिखाया था। इस जगह से वह दलान बहुत साफ दिखाई देता था जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बहुत दिनों तक बेबस पड़ी थीं।
ये लोग वापस होकर फिर उसी बाग में चले आये और उसके बगल वाली दूसरी खिड़की में घुसे जो बहुत अंधेरी थी। कुछ दूर जाने पर उजाला नजर पड़ा बल्कि हद तक पहुंचने पर एक बड़ा - सा खुला फाटक मिला जिससे बाहर होकर ये चारों आदमी खड़े हो चारों ओर निगाह दौड़ाने लगे।
लंबे - चौड़े मैदान के सिवाय और कुछ न नजर आया। तेजसिंह ने चाहा कि घूमकर इस मैदान का हाल मालूम करें। मगर कई सबबों से वे ऐसा न कर सके। एक तो धूप बहुत कड़ी थी दूसरे कुमार ने घूमने की राय न दी और कहा, "फिर जब मौका होगा इसको देख लेंगे। इस वक्त तीसरी व चौथी खिड़की में चलकर देखना चाहिए कि क्या है।"
चारों आदमी लौट आये और तीसरी खिड़की में घुसे। एक बाग में पहुंचते ही देखा वनकन्या कई सखियों को लिए घूम रही है, लेकिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह को देखते ही तेजी के साथ बाग के कोने में जाकर गायब हो गई।
चारों आदमियो ने उसका पीछा किया और घूम - घूमकर तलाश भी किया मगर कहीं कुछ भी पता न लगा, हां जिस कोने में जाकर वे सब गायब हुई थीं वहां जाने पर एक बंद दरवाजा जरूर देखा जिसके खोलने की बहुत तरकीब की मगर न खुला।
उस बाग के एक तरफ छोटी - सी बारहदरी थी। लाचार होकर ऐयारों के साथ कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस बारहदरी में एक ओर बैठकर सोचने लगे, "यह वनकन्या यहां कैसे आई? क्या उसके रहने का यही ठिकाना है? फिर हम लोगों को देखकर भाग क्यों गई? क्या अभी हमसे मिलना उसे मंजूर नहीं?" इन सब बातों को सोचते - सोचते शाम हो गई मगर किसी की अक्ल ने कुछ काम न किया।
इस बाग में मेवों के दरख्त बहुत थे। और एक छोटा - सा चश्मा भी था। चारों आदमियों ने मेवों से अपना पेट भरा और चश्मे का पानी पीकर उसी बारहदरी में जमीन पर ही लेट गये। यह राय ठहरी कि रात को इसी बारहदरी में गुजारा करेंगे, सबेरे जो कुछ होगा देखा जायगा।
देवीसिंह ने अपने बटुए में से सामान निकालकर चिराग जलाया, इसके बाद बैठकर आपस में बातें करने लगे।
कुमार - चंद्रकान्ता की मुहब्बत में हमारी दुर्गति हो गई, तिस पर भी अब तक कोई उम्मीद मालूम नहीं पड़ती।
तेज - कुमारी सही - सलामत हैं और आपको मिलेंगी इसमें कोई शक नहीं। जितनी मेहनत से जो चीज मिलती है उसके साथ उतनी ही खुशी में जिंदगी बीततीहै।
कुमार - तुमने चपला के लिए कौन - सी तकलीफ उठाई?
तेज - तो चपला ही ने मेरे लिए कौन - सा दुख भोगा? जो कुछ किया कुमारी चंद्रकान्ता के लिए।
ज्यो - क्यों तेजसिंह, क्या यह चपला तुम्हारी ही जाति की है?
तेज - इसका हाल तो कुछ मालूम नहीं कि यह कौन जात है, लेकिन जब मुहब्बत हो गई तो फिर चाहे कोई जात हो।
ज्यो - लेकिन क्या उसका कोई वली वारिस भी नहीं है? अगर तुम्हारी जाति की न हुई तो उसके मां - बाप कब कबूल करेंगे?
तेज - अगर कुछ ऐसा - वैसा हुआ तो उसको मार डालूंगा और अपनी भी जान दे दूंगा।
कुमार - कुछ इनाम दो तो हम चपला का हाल तुम्हें बता दें।
तेज - इनाम में हम चपला ही को आपके हवाले कर देंगे।
कुमार - खूब याद रखना, चपला फिर हमारी हो जायगी।
तेज - जी हां, जी हां, आपकी हो जायगी आपकी हो जायगी।
कुमार - चपला हमारी ही जाति की है। इसका बाप बड़ा भारी जमींदार और पूरा ऐयार था। इसको सात दिन का छोड़कर इसकी मां मर गयी। इसके बाप ने इसे पाला और ऐयारी सिखाई। अभी कुछ ही वर्ष गुजरे हैं कि इसका बाप भी मर गया। महाराज जयसिंह उसको बहुत मानते थे, उसने इनके बहुत बड़े -बड़े काम किये थे। मरने के वक्त अपनी बिल्कुल जमा - पूंजी और चपला को महाराज के सुपुर्द कर गया, क्योंकि उसका कोई वारिस नहीं था। महाराज जयसिंह इसको अपनी लड़की की तरह मानते हैं और महारानी भी इसे बहुत चाहती हैं। कुमारी चंद्रकान्ता का और इसका लड़कपन ही से साथ होने के सबब दोनों में बड़ी मुहब्बत है।
तेज - आज तो आपने बड़ी खुशी की बात सुनाई, बहुत दिनों से इसका खुटका लगा हुआ था पर कई बातों को सोचकर आपसे नहीं पूछा। भला यह बातें आपको मालूम कैसे हुईं?
कुमार - खास चंद्रकान्ता की जुबानी।
तेज - तब तो बहुत ठीक है।
तमाम रात बातचीत में गुजर गई, किसी को नींद न आई। सबेरे ही उठकर जरूरी कामों से छुट्टी पा उसी चश्मे में नहाकर संध्या - पूजा की और कुछ मेवा खा जिस राह से उस बाग में गये थे उसी राह से लौट आये और चौथी खिड़की के अंदर क्या है यह देखने के लिए उसमें घुसे। उसमें भी जाकर एक हरा - भरा बाग देखा जिसे देखते ही कुमार चौंक पड़े।
बयान - 6
तेजसिंह ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह से पूछा, "आप इस बाग को देखकर चौंके क्यों? इसमें कौन - सी अद्भुत चीज आपकी नजर पड़ी?"
कुमार - मैं इस बाग को पहचान गया।
तेज - (ताज्जुब से) आपने इसे कब देखा था?
कुमार - यह वही बाग है जिसमें मैं लश्कर से लाया गया था। इसी में मेरी आंखें खुली थीं, इसी बाग में जब आंखें खुलीं तो कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी और इसी बाग में खाना भी मिला था जिसे खाते ही मैं बेहोश होकर दूसरे बाग में पहुंचाया गया था। वह देखो, सामने वह छोटा - सा तालाब है जिसमें मैंने स्नान किया था, दोनों तरफ दो जामुन के पेड़ कैसे ऊंचे दिखाई दे रहे हैं।
तेज - हम भी इस बाग की सैर कर लेते तो बेहतर था।
कुमार - चलो घूमो, मैं ख्याल करता हूं कि उस कमरे का दरवाजा भी खुला होगा जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी।
चारों आदमी उस बाग में घूमने लगे। तीसरे भाग में इस बाग की पूरी कैफियत लिखी जा चुकी है, दोहराकर लिखना पढ़ने वालों का समय खराब करना है।
कमरे के दरवाजे खुले हुए थे, जो - जो चीजें पहले कुमार ने देखी थीं आज भी नजर पड़ीं। सफाई भी अच्छी थी, किसी जगह गर्द या कतवार का नाम - निशान न था।
पहली दफे जब कुमार इस बाग में आये थे तब इनकी दूसरी ही हालत थी, ताज्जुब में भरे हुए थे, तबीयत घबड़ा रही थी, कई बातों का सोच घेरे हुए था, इसलिए इस बाग की सैर पूरी तरह से नहीं कर सके थे, पर आज अपने ऐयारों के साथ हैं, किसी बात की फिक्र नहीं, बल्कि बहुत से अरमानों के पूरा होने की उम्मीद बंधा रही है। खुशी - खुशी ऐयारों के साथ घूमने लगे। आज इस बाग की कोई कोठरी, कोई कमरा, कोई दरवाजा बंद नहीं है, सब जगहों को देखते, अपने ऐयारों को दिखाते और मौके - मौके पर यह भी कहते जाते हैं - "इस जगह हम बैठे थे, इस जगह भोजन किया था, इस जगह सो गये थे कि दूसरे बाग में पहुंचे।"
तेजसिंह ने कहा, "दोपहर को भोजन करके सो रहने के बाद आप जिस कमरे में पहुंचे थे, जरूर उस बाग का रास्ता भी कहीं इस बाग में से ही होगा,अच्छी तरह घूम के खोजना चाहिए।"
कुमार - मैं भी यही सोचता हूं।
देवी - (कुमार से) पहली दफे जब आप इस बाग में आये थे तो खूब खातिर की गयी थी, नहाकर पहनने के कपड़े मिले, पूजा - पाठ का सामान दुरुस्त था, भोजन करने के लिए अच्छी - अच्छी चीजें मिली थीं, पर आज तो कोई बात भी नहीं पूछता, यह क्या?
कुमार - यह तुम लोगों के कदमों की बरकत है।
घूमते - घूमते एक दरवाजा इन लोगों को मिला जिसे खोल ये लोग दूसरे बाग में पहुंचे। कुमार ने कहा, "बेशक यह वही बाग है जिसमें दूसरी दफे मेरी आंख खुली थी या जहां कई औरतों ने मुझे गिरफ्तार कर लिया था, लेकिन ताज्जुब है कि आज किसी की भी सूरत दिखाई नहीं देती। वाह रे चित्रनगर, पहले तो कुछ और था आज कुछ और ही है। खैर चलो इस बाग में चलकर देखें कि क्या कैफियत है, वह तस्वीर का दरबार और रौनक बाकी है या नहीं। रास्ता याद है और मैं इस बाग में बखूबी जा सकता हूं।" इतना कह कुमार आगे हुए और उनके पीछे - पीछे चारों ऐयार भी तीसरे बाग की तरफ बढ़े।
बयान - 7
विजयगढ़ के महाराज जयसिंह को पहले यह खबर मिली थी कि तिलिस्म टूट जाने पर भी कुमारी चंद्रकान्ता की खबर न लगी। इसके बाद यह मालूम हुआ कि कुमारी जीती - जागती है और उसी की खोज में वीरेन्द्रसिंह फिर खोह के अंदर गए हैं। इन सब बातों को सुन - सुनकर महाराज जयसिंह बराबर उदास रहा करते थे। महल में महारानी की भी बुरी दशा थी। चंद्रकान्ता की जुदाई में खाना - पीना बिल्कुल छूटा हुआ था, सूख के कांटा हो रही थीं और जितनी औरतें महल में थीं सभी उदास और दु:खी रहा करती थीं।
एक दिन महाराज जयसिंह दरबार में बैठे थे। दीवान हरदयालसिंह जरूरी अर्जियां पढ़कर सुनाते और हुक्म लेते जाते थे। इतने में एक जासूस हाथ में एक छोटा - सा लिखा हुआ कागज लेकर हाजिर हुआ।
इशारा पाकर चोबदार ने उसे पेश किया। दीवान हरदयालसिंह ने उससे पूछा, "यह कैसा कागज लाया है और क्या कहता है?"
जासूस ने अर्ज किया, "इस तरह के लिखे हुए कागज शहर में बहुत जगह चिपके हुए दिखाई दे रहे हैं। तिरमुहानियों पर, बाजार में, बड़ी - बड़ी सड़कों पर इसी तरह के कागज नजर पड़ते हैं। मैंने एक आदमी से पढ़वाया था जिसके सुनने से जी में डर पैदा हुआ और एक कागज उखाड़कर दरबार में ले आया हूं। बाजार में इन कागजों को पढ़ - पढ़कर लोग बहुत घबड़ा रहे हैं।"
जासूस के हाथ से कागज लेकर दीवान हरदयालसिंह ने पढ़ा और महाराज को सुनाया। यह लिखा हुआ था -
"नौगढ़ और विजयगढ़ के राजा आजकल बड़े जोर में आये होंगे। दोनों को इस बात की बड़ी शेखी होगी कि हम चुनार फतह करके निश्चित हो गए, अब हमारा कोई दुश्मन नहीं रहा। इसी तरह वीरेन्द्रसिंह भी फूले न समाते होंगे। आजकल मजे में खोह की हवा खा रहे हैं। मगर यह किसी को मालूम नहीं कि उन लोगों का बड़ा भारी दुश्मन मैं अभी तक जीता हूं। आज से मैं अपना काम शुरू करूंगा। नौगढ़ और विजयगढ़ के राजों, सरदारों और बड़े - बड़े सेठ - साहूकारों को चुन - चुनकर मारूंगा। दोनों राज्य मिट्टी में मिला दूंगा और फिर भी गिरफ्तार न होऊंगा। यह न समझना कि हमारे यहां बड़े - बड़े ऐयार हैं, मैं ऐसे - ऐसे ऐयारों को कुछ भी नहीं समझता। मैं भी एक बड़ा भारी ऐयार हूं लेकिन मैं किसी को गिरफ्तार न करूंगा, बस जान से मार डालना मेरा काम होगा। अब अपनी - अपनी जान की हिफाजत चाहो तो यहां से भागते जाओ। खबरदार! खबरदार!! खबरदार!!
-ऐयारों का गुरुघंटाल - जालिमखां"
इस कागज को सुन महाराज जयसिंह घबरा उठे। हरदयालसिंह के भी होश जाते रहे और दरबार में जितने आदमी थे सभी कांप उठे। मगर सबों को ढाढ़स देने के लिए महाराज ने गंभीर भाव से कहा, "हम ऐसे - ऐसे लुच्चों के डराने से नहीं डरते! कोई घबराने की जरूरत नहीं। अभी शहर में मुनादी करा दी जाय कि जालिमखां को गिरफ्तार करने की फिक्र सरकार कर रही है। यह किसी का कुछ न बिगाड़ सकेगा। कोई आदमी घबराकर या डरकर अपना मकान न छोड़े! मुनादी के बाद शहर में पहरे का इंतजाम पूरा - पूरा किया जाय और बहुत से जासूस उस शैतान की टोह में रवाना किए जाएं।"
थोड़ी देर बाद महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। दीवान हरदयालसिंह भी सलाम करके घर जाना चाहते थे, मगर महाराज का इशारा पाकर रुक गए।
दीवान को साथ ले महाराज जयसिंह दीवानखाने में गए और एकांत में बैठकर उसी जालिमखां के बारे में सोचने लगे। कुछ देर तक सोच - विचारकर हरदयालसिंह ने कहा, "हमारे यहां कोई ऐयार नहीं है जिसका होना बहुत जरूरी है।" महाराज जयसिंह ने कहा, "तुम इसी वक्त एक खत यहां के हालचाल की राजा सुरेन्द्रसिंह को लिखो और वह विज्ञापन (इश्तिहार) भी उसी के साथ भेज दो, जो जासूस लाया था।"
महाराज के हुक्म के मुताबिक हरदयालसिंह ने खत लिखकर तैयार की और एक जासूस को देकर उसे पोशीदा तौर पर नौगढ़ की तरफ रवाना किया,इसके बाद महाराज ने महल के चारों तरफ पहरा बढ़ाने के लिए हुक्म देकर दीवान को बिदा किया।
इन सब कामों से छुट्टी पा महाराज महल में गए। रानी से भी यह हाल कहा। वह भी सुनकर बहुत घबराई। औरतों में इस बात की खलबली पड़ गई। आज का दिन और रात इस तरद्दुद में गुजर गई।
दूसरे दिन दरबार में फिर एक जासूस ने कल की तरह एक और कागज लाकर पेश किया और कहा, "आज तमाम शहर में इसी तरह के कागज चिपके दिखाई देते हैं।" दीवान हरदयालसिंह ने जासूस के हाथ से वह कागज ले लिया और पढ़कर महाराज को सुनाया, यह लिखा था:
"वाह वाह वाह! आपके किये कुछ न बन पड़ा तो नौगढ़ से मदद मांगने लगे! यह नहीं जानते कि नौगढ़ में भी मैंने उपद्रव मचा रखा है। क्या आपका जासूस मुझसे छिपकर कहीं जा सकता था? मैंने उसे खतम कर दिया। किसी को भेजिए उसकी लाश उठा लावे। शहर के बाहर कोस भर पर उसकी लाश मिलेगी।
- वही - जालिमखां"
इस इश्तिहार के सुनने से महाराज का कलेजा कांप उठा। दरबार में जितने आदमी बैठे थे सबों के छक्के छूट गये। अपनी - अपनी फिक्र पड़ गई। महाराज के हुक्म से कई आदमी शहर के बाहर उस जासूस की लाश उठा लाने के लिए भेजे गए, जब तक उसकी लाश दरबार के बाहर लाई जाय एक धाूम - सी मच गई। हजारों आदमियों की भीड़ लग गई। सबों की जुबान पर जालिमखां सवार था। नाम से लोगों के रोंए खड़े होते थे। जासूस के सिर का पता न था और जो खत वह ले गया था वह उसके बाजू से बंधी हुई थी।
जाहिर में महाराज ने सबों को ढाढ़स दिया मगर तबीयत में अपनी जान का भी खौफ मालूम हुआ। दीवान से कहा, "शहर में मुनादी करा दी जाय कि जो कोई इस जालिमखां को गिरफ्तार करेगा उसे सरकार से दस हजार रुपया मिलेगा और यहां के कुल हालचाल की खत पांच सवारों के साथ नौगढ़ रवाना की जाए।"
यह हुक्म देकर महाराज ने दरबार बर्खास्त किया। पांचों सवार जो खत लेकर नौगढ़ रवाना हुए, डर के मारे कांप रहे थे। अपनी जान का डर था। आपस में इरादा कर लिया कि शहर के बाहर होते ही बेतहाशा घोड़े फेंके निकल जायेंगे, मगर न हो सका।
दूसरे दिन सबेरे ही फिर इश्तिहार लिए हुए एक पहरे वाला दरबार में हाजिर हुआ। हरदयालसिंह ने इश्तिहार लेकर देखा, यह लिखा था :
"इन पांच सवारों की क्या मजाल थी जो मेरे हाथ से बचकर निकल जाते। आज तो इन्हीं पर गुजरी, कल से तुम्हारे महल में खेल मचाऊंगा। ले अब खूब सम्हलकर रहना। तुमने यह मुनादी कराई है कि जालिमखां को गिरफ्तार करने वाला दस हजार इनाम पावेगा। मैं भी कहे देता हूं कि जो कोई मुझे गिरफ्तार करेगा उसे बीस हजार इनाम दूंगा!!
- वही जालिमखां!!"
आज का इश्तिहार पढ़ने से लोगों की क्या स्थिति हुई वे ही जानते होंगे। महाराज के तो होश उड़ गये। उनको अब उम्मीद न रही कि हमारी खबर नौगढ़ पहुंचेगी। एक खत के साथ पूरी पल्टन को भेजना यह भी जवांमर्दी से दूर था। सिवाय इसके दरबार में जासूसों ने यह खबर सुनाई कि जालिमखां के खौफ से शहर कांप रहा है, ताज्जुब नहीं कि दो या तीन दिन में तमाम रियाया शहर खाली कर दे। यह सुनकर और भी तबीयत घबरा उठी।
महाराज ने कई आदमी उन सवारों की लाशों को लाने के लिए रवाना किये। वहां जाते उन लोगों की जान कांपती थी मगर हाकिम का हुक्म था, क्या करते लाचार जाना पड़ता था।
पांचों आदमियों की लाशें लाई गईं। उन सबों के सिर कटे हुए न थे, मालूम होता था फांसी लगाकर जान ली गई है, क्योंकि गर्दन में रस्से के दाग थे।
इस कैफियत को देखकर महाराज हैरान हो चुपचाप बैठे थे। कुछ अक्ल काम नहीं करती थी। इतने में सामने से पंडित बद्रीनाथ आते दिखाई दिये।
आज पंडित बद्रीनाथ का ठाठ देखने लायक था। पोर - पोर से फुर्तीलापन झलक रहा था। ऐयारी के पूरे ठाठ से सजे थे, बल्कि उससे फाजिल तीर - कमान लगाए, चुस्त जांघिया कसे, बटुआ और खंजर कमर से, कमंद पीठ पर लगाये पत्थरों की झोली गले में लटकती हुई, छोटा - सा डंडा हाथ में लिए कचहरी में आ मौजूद हुए।
महाराज को यह खबर पहले ही लग चुकी थी कि राजा शिवदत्त अपनी रानी को लेकर तपस्या करने के लिए जंगल की तरफ चले गये और पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह सब ऐयार राजा सुरेन्द्रसिंह के साथ हो गये हैं।
ऐसे वक्त में पंडित बद्रीनाथ का पहुंचना महाराज के वास्ते ऐसा हुआ जैसे मरे हुए पर अमृत बरसना। देखते ही खुश हो गए, प्रणाम करके बैठने का इशारा किया। बद्रीनाथ आशीर्वाद देकर बैठ गये।
जय - आज आप बड़े मौके पर पहुंचे।
बद्री - जी हां, अब आप कोई चिंता न करें। दो - एक दिन में ही जालिमखां को गिरफ्तार कर लूंगा।
जय - आपको जालिमखां की खबर कैसे लगी।
बद्री - इसकी खबर तो नौगढ़ ही में लग गई थी, जिसका खुलासा हाल दूसरे वक्त कहूंगा। यहां पहुंचने पर शहर वालों को मैंने बहुत उदास और डर के मारे कांपते देखा। रास्ते में जो भी मुझको मिलता था उसे बराबर ढाढ़स देता था कि 'घबराओ मत अब मैं आ पहुंचा हूं।' बाकी हाल एकांत में कहूंगा और जो कुछ काम करना होगा उसकी राय भी दूसरे वक्त एकांत में ही आपके और दीवान हरदयालसिंह के सामने पक्की होगी, क्योंकि अभी तक मैंने स्नान - पूजा कुछ भी नहीं किया है। इससे छु्रट्टी पाकर तब कोई काम करूंगा।
अब महाराज जयसिंह के चेहरे पर कुछ खुशी दिखाई देने लगी। दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि "पंडित बद्रीनाथ को आप अपने मकान में उतारिए और इनके आराम की कुल चीजों का बंदोबस्त कर दीजिए जिससे किसी बात की तकलीफ न हो, मैं भी अब उठता हूं।"
बद्री - शाम को महाराज के दर्शन कहां होंगे? क्योंकि उसी वक्त मेरी बातचीत होगी?
जय - जिस वक्त चाहो मुझसे मुलाकात होगी।
महाराज जयसिंह ने दरबार बर्खास्त किया, पंडित बद्रीनाथ को साथ ले दीवान हरदयालसिंह अपने मकान पर आये और उनकी जरूरत की चीजों का पूरा - पूरा इंतजाम कर दिया।
जो कुछ दिन बाकी था पंडित बद्रीनाथ ने जालिमखां के गिरफ्तार करने की तरकीब सोचने में गुजारा। शाम के वक्त दीवान हरदयालसिंह को साथ ले महाराज जयसिंह से मिलने गये, मालूम हुआ कि महाराज बाग की सैर कर रहे हैं, वे दोनों बाग में गये।
उस वक्त वहां महाराज के पास बहुत से आदमी थे, पंडित बद्रीनाथ के आते ही वे लोग बिदा कर दिए गए, सिर्फ बद्रीनाथ और हरदयाल महाराज के पास रह गये।
पहले कुछ देर तक चुनार के राजा शिवदत्तसिंह के बारे में बातचीत होती रही, इसके बाद महाराज ने पूछा कि "नौगढ़ में जालिमखां की खबर कैसे पहुंची?"
बद्री - नौगढ़ में भी इसी तरह के इश्तिहार चिपकाए हैं, जिनके पढ़ने से मालूम हुआ कि विजयगढ़ में वह उपद्रव मचावेगा, इसीलिए हमारे महाराज ने मुझे यहां भेजाहै।
महाराज - इस दुष्ट जालिमखां ने वहां तो किसी की जान न ली?
बद्री - नहीं, वहां अभी उसका दाव नहीं लगा, ऐयार लोग भी बड़ी मुस्तैदी से उसकी गिरफ्तारी की फिक्र में लगे हुए हैं।
महाराज - यहां तो उसने कई खून किए।
बद्री - शहर में आते ही मुझे खबर लग चुकी है, खैर देखा जायगा।
महाराज - अगर ज्योतिषीजी को भी साथ लाते तो उनके रमल की मदद से बहुत जल्द गिरफ्तार हो जाता।
बद्री - महाराज, जरा इसकी बहादुरी की तरफ ख्याल कीजिए कि इश्तिहार देकर डंके की चोट काम कर रहा है! ऐसे शख्स की गिरफ्तारी भी उसी तरह होनी चाहिए। ज्योतिषीजी की मदद की इसमें क्या जरूरत है।
महा - देखें वह कैसे गिरफ्तार होता है, शहर भर उसके खौफ से कांप रहाहै।
बद्री - घबराइए नहीं, सुबह - शाम में किसी न किसी को गिरफ्तार करता हूं।
महाराज - क्या वे लोग कई आदमी हैं?
बद्री - जरूर कई आदमी होंगे। यह अकेले का काम नहीं है कि यहां से नौगढ़ तक की खबर रखे और दोनों तरफ नुकसान पहुंचाने की नीयत करे।
महाराज - अच्छा जो चाहो करो, तुम्हारे आ जाने से बहुत कुछ ढाढ़स हो गई नहीं तो बड़ी ही फिक्र लगी हुई थी।
बद्री - अब मैं रुखसत होऊंगा बहुत कुछ काम करना है।
हरदयाल - क्या आप डेरे की तरफ नहीं जाएंगे?
बद्री - कोई जरूरत नहीं, मैं पूरे बंदोबस्त से आया हूं और जिधर जी चाहेगा चल दूंगा।
कुछ रात जा चुकी थी जब महाराज से बिदा हो बद्रीनाथ जालिमखां की टोह में रवाना हुए।
बयान - 8
बद्रीनाथ जालिमखां की फिक्र में रवाना हुए। वह क्या करेंगे, कैसे जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे इसका हाल किसी को मालूम नहीं। जालिमखां ने आखिरी इश्तिहार में महाराज को धामकाया था कि अब तुम्हारे महल में डाका मारूंगा।
महाराज पर इश्तिहार का बहुत कुछ असर हुआ। पहरे पर आदमी चौगुने कर दिए गए। आप भी रात भर जागने लगे, हरदम तलवार का कब्जा हाथ में रहता था। बद्रीनाथ के आने से कुछ तसल्ली हो गई थी, मगर जिस रोज वह जालिमखां को गिरफ्तार करने चले गए उसके दूसरे ही दिन फिर इश्तिहार शहर में हर चौमुहानियों और सड़कों पर चिपका हुआ लोगों की नजर पड़ा, जिसमें का एक कागज जासूस ने लाकर दरबार में महाराज के सामने पेश किया और दीवान हरदयालसिंह ने पढ़कर सुनाया - यह लिखा हुआ था :
"महाराज जयसिंह,
होशियार रहना, पंडित बद्रीनाथ की ऐयारी के भरोसे मत भूलना, वह कल का छोकड़ा क्या कर सकता है? पहले तो जालिमखां तुम्हारा दुश्मन था, अब मैं भी पहुंच गया हूं। पंद्रह दिन के अंदर इस शहर को उजाड़ कर दूंगा और आज के चौथे दिन बद्रीनाथ का सिर लेकर बारह बजे रात को तुम्हारे महल में पहुंचूंगा। होशियार! उस वक्त भी जिसका जी चाहे मुझे गिरफ्तार कर ले। देखूं तो माई का लाल कौन निकलता है? जो कोई महाराज का दुश्मन हो और मुझसे मिलना चाहे वह 'टेटी - चोटी' में बारह बजे रात को मिल सकता है।
- आफतखां खूनी"
इस इश्तिहार ने तो महाराज के बचे - बचाये होश भी उड़ा दिये। बस यही जी में आता था कि इसी वक्त विजयगढ़ छोड़ के भाग जायं, मगर जवांमर्दी और हिम्मत ऐसा करने से रोकती थी।
जल्दी से दरबार बर्खास्त किया, दीवान हरदयालसिंह को साथ ले दीवानखाने में चले गये और इस नए आफतखां खूनी के बारे में बातचीत करने लगे।
महाराज - अब क्या किया जाय! एक ने तो आफत मचा ही रखी थी अब दूसरे इस आफतखां ने आकर और भी जान सुखा दी। अगर ये दोनों गिरफ्तार न हुए तो हमारे राज्य करने पर लानत है।
हरदयाल - बद्रीनाथ के आने से कुछ उम्मीद हो गई थी कि जालिमखां को गिरफ्तार करेंगे! मगर अब तो उनकी जान भी बचती नजर नहीं आती।
महाराज - किसी तरकीब से आज की यह खबर नौगढ़ पहुचती तो बेहतर होता। वहां से बद्रीनाथ की मदद के लिए कोई और ऐयार आ जाता।
हरदयाल - नौगढ़ जिस आदमी को भेजेंगे उसी की जान जायगी, हां सौ दो सौ आदमियों के पहरे में कोई खत जाय तो शायद पहुंचे।
महाराज - (गुस्से में आकर) नाम को हमारे यहां पचासों जासूस हैं, बरसों से हरामखोरों की तरह बैठे खा रहे हैं मगर आज एक काम उनके किए नहीं हो सकता। न कोई जालिमखां की खबर लाता है न कोई नौगढ़ खत पहुंचाने लायक है!
हरदयाल - एक ही जासूस के मरने से सबों के छक्के छूट गये।
महाराज - खैर आज शाम को हमारे कुल जासूसों को लेकर बाग में आओ, या तो कुछ काम ही निकालेंगे या सारे जासूस तोप के सामने रखकर उड़ा दिये जायेंगे, फिर जो कुछ होगा देखा जायगा। मैं खुद उस हरामजादे को पकड़ूंगा।
हरदयाल - जो हुक्म!
महाराज - बस अब जाओ, जो हमने कहा है उसकी फिक्र करो।
दीवान हरदयालसिंह महाराज से बिदा हो अपने मकान पर गए, मगर हैरान थे कि क्या करें, क्योंकि महाराज को बेतरह क्रोध चढ़ आया था। उम्मीद तो यही थी कि किसी जासूस के किये कुछ न होगा और वे बेचारे मुफ्त में तोप के आगे उड़ा दिये जायेंगे। फिर वे यह भी सोचते थे कि जब महाराज खुद उन दुष्टों की गिरफ्तारी की फिक्र में घर से निकलेंगे तो मेरी जान भी गई, अब जिंदगी की क्या उम्मीद है!
बयान - 9
कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीसरे बाग की तरफ रवाना हुए, जिसमें राजकुमारी चंद्रकान्ता की दरबारी तस्वीर देखी थी और जहां कई औरतें कैदियों की तरह इनको गिरफ्तार करके ले गई थीं।
उसमें जाने का रास्ता इनको मालूम था। जब कुमार उस दरवाजे के पास पहुंचे जिसमें से होकर ये लोग उस बाग में पहुंचते तो वहां एक कमसिन औरत नजर पड़ी जो इन्हीं की तरफ आ रही थी। देखने में खूबसूरत और पोशाक भी उसकी बेशकीमती थी, हाथ में एक खत लिए कुमार के पास आकर खड़ी हो गई, खत कुमार के हाथ में दे दी। उन्होंने ताज्जुब में आकर खुद उसे पढ़ा, लिखा हुआ था -
"कई दिनों से आप हमारे इलाके में आए हुए हैं, इसलिए आपकी मेहमानी हमको लाजिम है। आज सब सामान दुरुस्त किया है। इसी लोंडी के साथ आइये और झोंपड़ी को पवित्र कीजिए। इसका अहसान जन्म - भर न भूलूंगा।
- सिद्धनाथ योगी।"
कुमार ने खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने पढ़कर कहा, "साधु हैं, योगी हैं इसी से इस खत में कुछ हुकूमत भी झलकती है।" देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी खत को पढ़ा।
शाम हो चुकी थी, कुमार ने अभी उस खत का कुछ जवाब नहीं दिया था कि तेजसिंह ने उस औरत से कहा, "हम लोगों को महात्माजी की खातिर मंजूर है, मगर अभी तुम्हारे साथ नहीं जा सकते, घड़ी भर के बाद चलेंगे, क्योंकि संध्या करने का समय हो चुका है।"
औरत - तब तक मैं ठहरती हूं आप लोग संध्या कर लीजिए, अगर हुक्म हो तो संध्या के समय के लिए जल और आसन ले आऊं?
देवी - नहीं कोई जरूरत नहीं।
औरत - तो फिर यहां संध्या कैसे कीजिएगा? इस बाग में कोई नहर नहीं, बावली नहीं।
तेज - उस दूसरे बाग में बावली है।
औरत - इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत है, मैं अभी सब सामान लिए आती हूं, या फिर मेरे साथ चलिए, उस बाग में संध्या कर लीजिएगा, अभी तो उसका समय भी नहीं बीत चला है।
तेज - नहीं, हम लोग इसी बाग में संध्या करेंगे, अच्छा जल ले आओ।
इतना सुनते ही वह औरत लपकती हुई तीसरे बाग में चली गई।
कुमार - इस खत के भेजने वाले अगर वे ही योगी हैं जिन्होंने मुझे कूदने से बचाया था तो बड़ी खुशी की बात है, जरूर वहां वनकन्या से भी मुलाकात होगी। मगर तुम रुक क्यों गए? उसी बाग में चलकर संध्या कर लेते! मैं तो उसी वक्त कहने को था मगर यह समझकर चुप हो रहा कि शायद इसमें भी तुम्हारा कोई मतलब हो।
तेज - जरूर ऐसा ही है।
देवी - क्यों ओस्ताद, इसमें क्या मतलब है?
तेज - देखो मालूम ही हुआ जाता है।
कुमार - तो कहते क्यों नहीं, आखिर कब बतलाओगे?
तेज - हमने यह सोचा कि कहीं योगीजी हम लोगों से धोखा न करें कि खाने - पीने में बेहोशी की दवा मिलाकर खिला दें, जब हम लोग बेहोश हो जायं तो उठवाकर खोह के बाहर रखवा दें और यहां आने का रास्ता बंद करवा दें, ऐसा होगा तो कुल मेहनत ही बरबाद हो जायगी। देखिए आप भी इसी बाग में बेहोश किए गए थे, जब कैदी बनाकर लाये थे और प्यास लगने पर एक कटोरा पानी पीया था, उसी वक्त बेहोश हो गए और खोह में ले जाकर रख दिये गये थे। अगर ऐसा न हुआ होता तो उसी समय कुछ न कुछ हाल यहां का मिल गया होता। फिर मैं यह भी सोचता हूं कि अगर हम लोग वहां जाकर भोजन से इनकार करेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि ज्याफत कबूल करके मौका पर खाने से इनकार कर जाना उचित नहीं है।
देवी - तो फिर इसकी तरकीब क्या सोची है?
तेज - (हंसकर) तरकीब क्या, बस वही तिलिस्मी गुलाब का फूल घिसकर सबों को पिलाऊंगा और आप भी पीऊंगा, फिर सात दिन तक बेहोश करने वाला कौनहै?
कुमार - हां ठीक है, पर वह वैद्य भी कैसा चतुर होगा जिसने दवाइयों से ऐसे काम के नायाब फूल बनाए।
तेज - ठीक ही है।
इतने में वही औरत सामने से आती दिखाई पड़ी, उसके पीछे तीन लौंडियां आसन, पंचपात्र, जल इत्यादि हाथों में लिए आ रही थीं।
उस बाग में एक पेड़ के नीचे कई पत्थर बैठने लायक रखे हुए थे, औरतों ने उन पत्थरो पर सामान दुरुस्त कर दिया, इसके बाद तेजसिंह ने उन लोगों से कहा, "अब थोड़ी देर के वास्ते तुम लोग अपने बाग में चली जाओ क्योंकि औरतों के सामने हम लोग संध्या नहीं करते।"
"आप ही लोगों की खिदमत करते जनम बीत गया, ऐसी बातें क्यों करते हैं। सीधी तरह से क्यों नहीं कहते कि हट जाओ। लो मैं जाती हूं!" कहती हुई वह औरत लौंडियों को साथ ले चली गई। उसकी बात पर ये लोग हंस पड़े और बोले - "जरूर ऐयारों के संग रहने वाली है!"
संध्या करने के बाद तेजसिंह ने तिलिस्मी गुलाब का फूल पानी में घिसकर सबों को पिलाया तथा आप भी पीया और तब राह देखने लगे कि फिर वह औरत आये तो उसके साथ हम लोग चलें।
थोड़ी देर के बाद वही औरत फिर आई, उसने इन लोगों को चलने के लिए कहा। ये लोग भी तैयार थे, उठ खड़े हुए और उसके पीछे रवाना होकर तीसरे बाग में पहुंचे। ऐयारों ने अभी तक इस बाग को नहीं देखा था मगर कुंअर वीरेन्द्रसिंह इसे खूब पहचानते थे। इसी बाग में कैदियों की तरह लाए गए थे और यहीं पर कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था मगर आज इस बाग को वैसा नहीं पाया, न तो वह रोशनी ही थी न उतने आदमी ही। हां पांच - सात औरतें इधर - उधर घूमती - फिरती दिखाई पड़ीं और दो - तीन पेड़ों के नीचे। कुछ रोशनी भी थी जहां उसका होना जरूरी था।
शाम हो गई थी बल्कि कुछ अंधेरा भी हो चुका था। वह औरत इन लोगों को लिए उस कमरे की तरफ चली जहां कुमार ने तस्वीर का दरबार देखा था। रास्ते में कुमार सोचते जाते थे, "चाहे जो हो आज सब भेद मालूम किए बिना योगी का पिण्ड न छोडूंगा। हाल मालूम हो जायगा कि वनकन्या कौन है,तिलिस्मी किताब उसने क्योकर पाई थी, हमारे साथ उसने इतनी भलाई क्यों की और चंद्रकान्ता कहां चली गई?"
दीवानखाने में पहुंचे। आज यहां तस्वीर का दरबार न था बल्कि उन्हीं योगीजी का दरबार था जिन्होंने पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को बचाया था। लंबा - चौड़ा फर्श बिछा हुआ था और उसके ऊपर एक मृगछाला बिछाये योगीजी बैठे हुए थे। बाईं तरफ कुछ पीछे हटकर वनकन्या बैठी थी और सामने की तरफ चार - पांच लौंडियां हाथ जोड़े खड़ी थीं।
कुमार को आते देख योगीजी उठ खड़े हुए, दरवाजे तक आकर उनका हाथ पकड़ अपनी गद्दी के पास ले गये और अपने बगल में दाहिने ओर मृगछाला पर बैठाया। वनकन्या उठकर कुछ दूर जा खड़ी हुई और प्रेम - भरी निगाहों से कुमार को देखने लगी।
सब तरफ से हटकर कुमार की निगाह भी वनकन्या की तरफ जा डटी। इस वक्त इन दोनों की निगाहों से मुहब्बत, हमदर्दी और शर्म टपक रही थी। चारों आंखें आपस में घुल रही थीं। अगर योगीजी का ख्याल न होता तो दोनों दिल खोलकर मिल लेते, मगर नहीं, दोनों ही को इस बात का ख्याल था कि इन प्रेम की निगाहों को योगीजी न जानने पावें। कुछ ठहरकर योगी और कुमार में बातचीत होने लगी।
योगी - आप और आपकी मंडली के लोग कुशल - मंगल से तो हैं?
कुमार - आपकी दया से हर तरह से प्रसन्न हैं, परंतु...
योगी - परंतु क्या?
कुमार - परंतु कई बातों का भेद न खुलने से तबीयत को चैन नहीं है, फिर भी आशा है कि आपकी कृपा से हम लोगों का यह दुख भी दूर हो जायगा।
योगी - परमेश्वर की दया से अब कोई चिंता न रहेगी और आपके सब संदेह छूट जायेंगे। इस समय आप लोग हमारे साग - सत्तू को कबूल करें, इसके बाद रात - भर हमारे आपके बीच बातचीत होती रहेगी, जो कुछ पूछना हो पूछिएगा। ईश्वर चाहेंगे तो अब किसी तरह का दु:ख उठाना न पड़ेगा और आज ही से आपकी खुशी का दिन शुरू होगा।
योगी की अमृत भरी बातों ने कुमार और उनके ऐयारों के सूखे दिलों को हरा कर दिया। तबीयत प्रसन्न हो गई, उम्मीद बंधा गई कि अब सब काम पूरा हो जायगा। थोड़ी देर के बाद भोजन का सामान दुरुस्त किया गया। खाने की जितनी चीजें थीं सभी ऐसी थीं कि सिवाय राजे - महाराजे के और किसी के यहां न पाई जायं। खाने - पीने से निश्चित होने पर बाग के बीचो बीच पत्थर के खूबसूरत चबूतरे पर फर्श बिछाया गया और उसके ऊपर मृगछाला बिछाकर योगीजी बैठ गये, अपने बगल में कुमार को बैठा लिया, कुछ दूर पर हटकर वनकन्या अपनी दो सखियों के साथ बैठी, और जितनी औरतें थीं हटा दी गईं।
रात पहर से ज्यादा जा चुकी थी, चंद्रमा अपनी पूर्ण किरणों से उदय हो रहे थे। ठंडी हवा चल रही थी जिसमें सुगंधित फूलों की मीठी महक उड़ रही थी। योगी ने मुस्कराकर कुमार से कहा :
"अब जो कुछ पूछना हो पूछिये, मैं सब बातों का जवाब दूंगा और जो कुछ काम आपका अभी तक अटका है उसको भी कर दूंगा।"
कुंअर वीरेन्द्रसिंह के जी में बहुत - सी ताज्जुब की बातें भरी हुई थीं, हैरान थे कि पहले क्या पूछूं। आखिर खूब सम्हलकर बैठे और योगी से पूछने लगे।
बयान - 10
जो कुछ दिन बाकी था दीवान हरदयालसिंह ने जासूसों को इकट्ठा करने और समझाने - बुझाने में बिताया। शाम को सब जासूसों को साथ ले हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह के पास बाग में हाजिर हुए।
खुद महाराज जयसिंह ने जासूसों से पूछा, "तुम लोग जालिमखां का पता क्यो नहीं लगा सकते?"इसके जवाब में उन्होंने अर्ज किया, "महाराज, हम लोगों से जहां तक बनता है कोशिश करते हैं, उम्मीद है कि पता लग जायगा।"
महाराज ने कहा, "आफतखां एक नया शैतान पैदा हुआ? इसने अपने इश्तिहार में अपने मिलने का पता भी लिखा है, फिर क्यों नहीं तुम लोग उसी ठिकाने मिलकर उसे गिरफ्तार करते हो?"जासूसों ने जवाब दिया, "महाराज आफतखां ने अपने मिलने का ठिकाना 'टेटी - चोटी' लिखा है, अब हम लोग क्या जानें 'टेटी-चोटी' कहां है, कौन - सा मुहल्ला है, किस जगह को उसने इस नाम से लिखा है, इसका क्या अर्थ है तथा हम लोग कहां जायें?"
यह सुनकर महाराज भी 'टेटी-चोटी' के फेर में पड़ गए। कुछ भी समझ में न आया। जासूसों को बेकसूर समझ कुछ न कहा, हां डरा - धामका के और ताकीद करके रवाना किया।
अब महाराज को अपने जीने की उम्मीद कम रह गई, खौफ के मारे रात भर हाथ में तलवार लिये जागा करते, क्योंकि थोड़ा - बहुत जो कुछ भरोसा था अपनी बहादुरी ही का था।
दूसरे दिन इश्तिहार फिर शहर में चिपका हुआ पाया गया जिसे पहरे वालों ने लाकर हाजिर किया। दीवान हरदयालसिंह ने उसे पढ़कर सुनाया, यह लिखा था:
"देखना, खूब सम्हले रहना! बद्रीनाथ को गिरफ्तार कर चुका हूं, अपने पहले वादे के बमूजिब कल बारह बजे रात को उसका सिर लेकर तुम्हारे महल में हम लोग कई आदमी पहुंचेंगे। देखें कैसे गिरफ्तार करते हो!!
बयान - 11
विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी आपस में धीरे - धीरे बातचीत कर रहे हैं। चांदनी खूब छिटकी हुई है जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो दूसरे पत्थर पर बैठे हुए हैं एक की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लंबा कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुरता पहने हुए, तीर - कमान और ढाल - तलवार आगे रखे एक घुटना जमीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी - बड़ी काली और कड़ी मोछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूंखार आंखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है। इसका नाम जालिमखां है।
दूसरा शख्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफतखां है। दरम्याना कद, लंबी दाढ़ी, चुस्त पायजामा और कुरता पहने, गंडासा सामने और एक छोटी - सी गठरी बाईं तरफ रखे जालिमखां की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देताहै।
जालिमखां - तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया।
आफतखां - इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से! देखो यह गंडासा, (हाथ में लेकर) इसी से हजारों आदमियों की जानें जाएंगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हरबा नहीं रखता। यह जहर से बुझाया हुआ है, जिसे जरा भी इसका जख्म लग जाय फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं।
जालिम - बहुत हैरान होने पर तुमसे मुलाकात हुई!
आफत - मुझे तुमसे जरूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिए क्योंकि तुम लोगों का कोई ठिकाना तो था नहीं जहां खोजता, लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी जरूर जानते होगे, इसीलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया जिससे किसी दूसरे की समझ में न आवे कि कहां बुलाया है!
जालिम - ऐसी ही कुछ थोड़ी - सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में ओस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया!
आफत - ओस्ताद तो मैं कुछ नहीं, मगर हां बद्रीनाथ जैसे छोकड़े के लिए बहुत हूं।
जालिम - जो चाहो कहो मगर मैंने तुमको अपना ओस्ताद मान लिया, जरा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो।
आफत - हां - हां देखो, धाड़ तो उसका गाड़ दिया मगर सिर गठरी में बंधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले से तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाय।
इतना कह आफतखां ने अपनी बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बंधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे।
जालिम - यह शख्स बड़ा शैतान था।
आफत - लेकिन मुझसे बच के कहां जाता!
जालिम - मगर ओस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा।
आफत - बेढब क्या है देखो कैसा तमाशा होता है!
जालिम - मगर ओस्ताद, तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक्त वहां बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम लोग गिरफ्तार हो जाएं?
आफत - ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे?
जालिम - तो इसमें क्या फायदा है कि अपनी जान जोखिम में डाली जाय, वक्त टाल के क्यों नहीं चलते?
आफत - तुम तो गदहे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया?
जालिम - अब यह तो तुम जानो!
आफत - सुनो मैं बताता हूं। मेरी नीयत यह है कि जहां तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार - पीट सब मामला खतम कर दूं। उस वक्त वहां जितने आदमी मौजूद होंगे सबों को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ - पैर हिलाए सबों का काम तमाम करूं तो सही।
जालिम - भला ओस्ताद, यह कैसे हो सकता है!
आफत - (बटुए में से एक गोला निकालकर और दिखाकर) देखो, इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक - एक तुम लोगों के हाथ में दे दूंगा। बस वहां पहुंचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज देकर फूट जायेंगे और इनमें से बहुत - सा धुआं निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जायेंगे, आंखो में धुआ लगते ही अंधो हो जायेंगे और नाक के अंदर जहां गया कि उन लोगों की जान गई, ऐसा जहरीला यह धुआ होगा।
आफतखां की बात सुनकर सब - के - सब मारे खुशी के उछल पड़े। जालिमखां ने कहा, "भला ओस्ताद, एक गोला यहां पटक के दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जायगा।"
"हां देखो।" यह कह के आफतखां ने वह गोला जमीन पर पटक दिया, साथ ही एक आवाज देकर गोला फट गया और बहुत - सा जहरीला धुआं फैला जिसको देखते ही आफतखां, जालिमखां और उनके साथी लोग जल्दी से हट गए तिस पर भी उन लोगों की आंखें सूज गईं और सिर घूमने लगा। यह देखकर आफतखां ने अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सबों की आंखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मलकर सुंघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफतखां की तारीफ करने लगे।
जालिम - वाह ओस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज बनाई है!
आफत - क्यों अब तो महल में चलने का हौसला हुआ?
जालिम - शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया! जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज में कर सकते हो। वाह ओस्ताद वाह, अब तो हम लोग उछलते - कूदते महल में चलेंगे और सबों को दोजख में पहुंचाएंगे। लाओ एक - एक गोला सबों को दे दो।
आफत - अभी क्यों, जब चलने लगेंगे दे देंगे, कल का दिन जो काटना है।
जालिम - अच्छा, लेकिन ओस्ताद, तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दिया? आज का ही दिन अगर मुकर्रर किया होता तो मजा हो जाता।
आफत - हमने समझा कि बद्रीनाथ जरा चालाक है, शायद जल्दी हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया मगर यह तो निरा बोदा निकला!
जालिम - अब क्या करना चाहिए?
आफत - इस वक्त तो कुछ नहीं, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए।
जालिम - इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं। जब जो कहोगे करेंगे।
आफत - अच्छा तो आज यहां से टलकर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूं कि महल में जाकर बिना सबों का काम तमाम किए एक दाना मुंह में नहीं डालूंगा।
जालिम - ओस्ताद, ऐसा नहीं करना चाहिए, तुम कमजोर हो जाओगे।
आफत - बस चुप रहो, बिना खाये हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।
इसके बाद वे सब वहां से उठकर एक तरफ को रवाना हो गये।
बयान - 12
वह दिन आ गया कि जब बारह बजे रात को बद्रीनाथ का सिर लेकर आफतखां महल में पहुंचे। आज शहर भर में खलबली मची हुई थी। शाम ही से महाराज जयसिंह खुद सब तरह का इंतजाम कर रहे थे। बड़े - बड़े बहादुर और फुर्तीले जवांमर्द महल के अंदर इकट्ठा किए जा रहे थे। सबों में जोश फैलता जाता था। महाराज खुद हाथ में तलवार लिये इधर - से - उधर टहलते और लोगों की बहादुरी की तारीफ करके कहते थे कि ”सिवाय अपने जान - पहचान के किसी गैर को किसी वक्त कहीं देखो गिरफ्तार कर लो” और बहादुर लोग आपस में डींग हांक रहे थे कि यो पकडूंगा, यों काटूंगा! महल के बाहर पहरे का इंतजाम कम कर दिया गया, क्योंकि महाराज को पूरा भरोसा था कि महल में आते ही आफतखां को गिरफ्तार कर लेंगे और जब बाहर पहरा कम रहेगा तो वह बखूबी महल में चला आवेगा, नहीं तो दो - चार पहरे वालों को मारकर भाग जायगा। महल के अंदर रोशनी भी खूब कर दी गयी, तमाम मकान दिन की तरह चमक रहा था।
आधी रात बीता ही चाहती थी कि पूरब की छत से छ: आदमी धामाधाम कूदकर धाड़धाड़ाते हुए उस भीड़ के बीच में आकर खड़े हो गये, जहां बहुत से बहादुर बैठे और खड़े थे। सबके आगे वही आफतखां बद्रीनाथ का सिर हाथ में लटकाये हुए था।
बयान - 13
खोह वाले तिलिस्म के अंदर बाग में कुंअर वीरेन्द्रसिंह और योगीजी मे बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और इनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे।
कुमार - पहले यह कहिये चंद्रकान्ता जीती है या मर गई?
योगी - राम - राम, चंद्रकान्ता को कोई मार सकता है? वह बहुत अच्छी तरह से इस दुनिया में मौजूद है।
कुमार - क्या उससे और मुझसे फिर मुलाकात होगी?
योगी - जरूर होगी।
कुमार - कब?
योगी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) - जब यह चाहेगी।
इतना सुन कुमार वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त उसकी अजीब हालत थी। बदन में घड़ी - घड़ी कंपकंपी हो रही थी, घबराई - सी नजर पड़ती थी। उसकी ऐसी गति देखकर एक दफे योगी ने अपनी कड़ी और तिरछी निगाह उस पर डाली, जिसे देखते ही वह सम्हल गई। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने भी इसे अच्छी तरह से देखा और फिर कहा :
कुमार - अगर आपकी कृपा होगी तो मैं चंद्रकान्ता से अवश्य मिल सकूंगा।
योगी - नहीं यह काम बिल्कुल (वनकन्या को दिखाकर) इसी के हाथ में है, मगर यह मेरे हुक्म में है, अस्तु आप घबराते क्यों हैं। और जो - जो बातें आपको पूछनी हो पूछ लीजिये, फिर चंद्रकान्ता से मिलने की तरकीब भी बता दी जायगी।
कुमार - अच्छा यह बताइये कि यह वनकन्या कौन है?
योगी - यह एक राजा की लड़की है।
कुमार - मुझ पर इसने बहुत उपकार किये, इसका क्या सबब है?
योगी - इसका यही सबब है कि कुमारी चंद्रकान्ता में और इसमें बहुत प्रेम है।
कुमार - अगर ऐसा है तो मुझसे शादी क्यों किया चाहती है?
योगी - तुम्हारे साथ शादी करने की इसको कोई जरूरत नहीं और न यह तुमको चाहती ही है। केवल चंद्रकान्ता की जिद्द से लाचार है, क्योंकि उसको यही मंजूर है।
योगी की आखिरी बात सुनकर कुमार मन में बहुत खुश हुए और फिर योगी से बोले -
कुमार - जब चंद्रकान्ता में और इनमे इतनी मुहब्बत है तो यह उसे मेरे सामने क्यों नहीं लातीं?
योगी - अभी उसका समय नहीं है।
कुमार - क्यो
योगी - जब राजा सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह को आप यहां लावेंगे, तब यह कुमारी चंद्रकान्ता को लाकर उनके हवाले कर देगी।
कुमार - तो मैं अभी यहां से जाता हूं, जहां तक होगा उन दोनों को लेकर बहुत जल्द आऊंगा।
योगी - मगर पहले हमारी एक बात का जवाब दे लो।
कुमार - वह क्या?
योगी - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस लड़की ने तुम्हारी बहुत मदद की है और तुमने तथा तुम्हारे ऐयारों ने इसे देखा भी है। इसका हाल और कौन - कौन जानता है और तुम्हारे ऐयारों के सिवाय इसे और किस - किस ने देखा है?
कुमार - मेरे और फतहसिंह के सिवाय इन्हें आज तक किसी ने नहीं देखा। आज ये ऐयार लोग इनको देख रहे हैं।
वनकन्या - एक दफे ये (तेजसिंह की तरफ बताकर) मुझसे मिल गए हैं, मगर शायद वह हाल इन्होंने आपसे न कहा हो, क्योंकि मैंने कसम दे दी थी।
यह सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा। उन्होंने कहा, "जी हां, यह उस वक्त की बात है जब आपने मुझसे कहा था कि आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है। तब मैंने कोशिश करके इनसे मुलाकात की और कहा कि 'अपना पूरा हाल मुझसे जब तक न कहेंगी मैं न मानूंगा और आपका पीछा न छोड़ूंगा।' तब इन्होंने कहा कि 'एक दिन वह आवेगा कि चंद्रकान्ता और मै कुमार की कहलाऊंगी मगर इस वक्त तुम मेरा पीछा मत करो नहीं तो तुम्हीं लोगों के काम का हर्ज होगा।' तब मैंने कहा कि 'अगर आप इस बात की कसम खायें कि चंद्रकान्ता कुमार को मिलेंगी तो इस वक्त मैं यहां से चला जाऊं।' इन्होंने कहा कि 'तुम भी इस बात की कसम खाओ कि आज का हाल तब तक किसी से न कहोगे जब तक मेरा और कुमार का सामना न हो जाय।'आखिर इस बात की हम दोनों ने कसम खाई। यही सबब है कि पूछने पर भी मैंने यह सब हाल किसी से नहीं कहा, आज इनका और आपका पूरी तौर से सामना हो गया इसलिए कहता हूं।"
योगी - (कुमार से) अच्छा तो इस लड़की को सिवाय तुम्हारे तथा ऐयारों के और किसी ने नहीं देखा, मगर इसका हाल तो तुम्हारे लश्कर वाले जानते होंगे कि आजकल कोई नई औरत आई है जो कुमार की मदद कर रही है।
कुमार - नहीं, यह हाल भी किसी को मालूम नहीं, क्योंकि सिवाय ऐयारों के मैं और किसी से इनका हाल कहता ही न था और ऐयार लोग सिवाय अपनी मंडली के दूसरे को किसी बात का पता क्यों देने लगे। हां, इनके नकाबपोश सवारों को हमारे लश्कर वालों ने कई दफे देखा है और इनका खत लेकर भी जब - जब कोई हमारे पास गया तब हमारे लश्कर वालों ने देखकर शायद कुछ समझा हो।
योगी - इसका कोई हर्ज नहीं, अच्छा यह बताओ कि तुम्हारी जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह ने भी कुछ इसका हाल सुना है?
कुमार - उन्होंने तो नहीं सुना, हां, तेजसिंह के पिता जीतसिंहजी से मैंने सब हाल जरूर कह दिया था, शायद उन्होंने मेरे पिता से कहा हो।
योगी - नहीं, जीतसिंह यह सब हाल तुम्हारे पिता से कभी न कहेंगे। मगर अब तुम इस बात का खूब ख्याल रखो कि वनकन्या ने जो - जो काम तुम्हारे साथ किए हैं उनका हाल किसी को न मालूम हो।
कुमार - मैं कभी न कहूंगा, मगर आप यह तो बतावें कि इनका हाल किसी से न कहने में क्या फायदा सोचा है? अगर मैं किसी से कहूंगा तो इसमें इनकी तारीफ ही होगी।
योगी - तुम लोगों के बीच में चाहे इसकी तारीफ हो मगर जब यह हाल इसके मां - बाप सुनेंगे तो उन्हें कितना रंज होगा? क्योंकि एक बड़े घर की लड़की का पराये मर्द से मिलना और पत्र - व्यवहार करना तथा ब्याह का संदेश देना इत्यादि कितने ऐब की बात है।
कुमार - हां, यह तो ठीक है। अच्छा, इनके मां - बाप कौन हैं और कहां रहतेहैं।
योगी - इसका हाल भी तुमको तब मालूम होगा जब राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह यहां आवेंगे और कुमारी चंद्रकान्ता उनके हवाले कर दी जायगी।
कुमार - तो आप मुझे हुक्म दीजिए कि मैं इसी वक्त उन लोगों को लाने के लिए यहां से चला जाऊं।
योगी - यहां से जाने का भला यह कौन - सा वक्त है। क्या शहर का मामला है? रात - भर ठहर जाओ, सुबह को जाना, रात भी अब थोड़ी ही रह गई है, कुछ आराम करलो।
कुमार - जैसी आपकी मर्जी।
गर्मी बहुत थी इस वजह से उसी मैदान में कुमार ने सोना पसंद किया। इन सबों के सोने का इंतजाम योगीजी के हुक्म से उसी वक्त कर दिया गया। इसके बाद योगीजी अपने कमरे की तरफ रवाना हुए और वनकन्या भी एक तरफ को चली गई।
थोड़ी - सी रात बाकी थी, वह भी उन लोगों को बातचीत करते बीत गई। अभी सूरज नहीं निकला था कि योगीजी अकेले फिर कुमार के पास आ मौजूद हुए और बोले, "मैं रात को एक बात कहना भूल गया था सो इस वक्त समझाए देता हूं। जब राजा जयसिंह इस खोह में आने के लिए तैयार हो जायं बल्कि तुम्हारे पिता और जयसिंह दोनों मिलकर इस खोह के दरवाजे तक आ जायं, तब पहले तुम उन लोगों को बाहर ही छोड़कर अपने ऐयारों के साथ यहां आकर हमसे मिल जाना, इसके बाद उन लोगों को यहां लाना, और इस वक्त स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर तब यहां से जाओ।" कुमार ने ऐसा ही किया, मगर योगी की आखिरी बात से इनको और भी ताज्जुब हुआ कि हमें पहले क्यों बुलाया।
कुछ खाने का सामान हो गया। कुमार और उनके ऐयारों को खिला - पिलाकर योगी ने बिदा कर दिया।
दोहराके लिखने की कोई जरूरत नहीं, खोह में घूमते - फिरते कुंअर वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार जिस तरह इस बाग तक आये थे उसी तरह इस बाग से दूसरे और दूसरे से तीसरे में होते सब लोग खोह के बाहर हुए और एक घने पेड़ के नीचे सबो को बैठा देवीसिंह कुमार के लिए घोड़ा लाने नौगढ़ चले गये।
थोड़ा दिन बाकी था जब देवीसिंह घोड़ा लेकर कुमार के पास पहुंचे, जिस पर सवार होकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों के साथ नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।
नौगढ़ पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की और महल में जाकर अपनी माता से मिले। अपना कुल हाल किसी से नहीं कहा, हां, पन्नालाल वगैरह की जुबानी इतना हाल इनको मिला कि कोई जालिमखां इन लोगों का दुश्मन पैदा हुआ है जिसने विजयगढ़ में कई खून किए हैं और वहां की रियाया उसके नाम से कांप रही है, पंडित बद्रीनाथ उसको गिरफ्तार करने गये हैं, उनके जाने के बाद यह भी खबर मिली है कि एक आफतखां नामी दूसरा शख्स पैदा हुआ है जिसने इस बात का इश्तिहार दे दिया है कि फलाने रोज बद्रीनाथ का सिर लेकर महल में पहुंचूंगा, देखूं मुझे कौन गिरफ्तार करता है।
इन सब खबरों को सुनकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी बहुत घबराये और सोचने लगे कि जिस तरह हो विजयगढ़ पहुंचना चाहिए क्योंकि अगर ऐसे वक्त में वहां पहुंचकर महाराज जयसिंह की मदद न करेंगे और उन शैतानों के हाथ से वहां की रियाया को न बचावेंगे तो कुमारी चंद्रकान्ता को हमेशा के लिए ताना मारने की जगह मिल जायगी और हम उसके सामने मुंह दिखाने लायक भी न रहेंगे।
इसके बाद यह भी मालूम हुआ कि जीतसिंह पंद्रह दिनों की छुट्टी लेकर कहीं गये हैं। इस खबर ने तेजसिंह को परेशान कर दिया। वह इस सोच में पड़ गये कि उनके पिता कहां गये, क्योंकि उनकी बेरादरी में कहीं कुछ काम न था जहां जाते, तब इस बहाने से छुट्टी लेकर क्यों गये?
तेजसिंह ने अपने घर में जाकर अपनी मां से पूछा कि हमारे पिता कहां गये हैं! जिसके जवाब में उस बेचारी ने कहा, "बेटा, क्या ऐयारों के घर की औरतें इस लायक होती हैं कि उनके मालिक अपना ठीक - ठीक हाल उनसे कहा करें!"
इतना ही सुनकर तेजसिंह चुप हो रहे। दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर तेजसिंह ने इतना कहा कि "हम लोग कुमारी चंद्रकान्ता को खोजने के लिए खोह में गये थे, वहां एक योगी से मुलाकात हुई जिसने कहा कि अगर महाराज सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह को लेकर यहां आओ तो मैं चंद्रकान्ता को बुलाकर उसके बाप के हवाले कर दूं। इसी सबब से हम लोग आपको और महाराज जयसिंह को लेने आये हैं।"
राजा सुरेन्द्रसिंह ने खुश होकर कहा, "हम तो अभी चलने को तैयार हैं मगर महाराज जयसिंह तो ऐसी आफत में फंस गये हैं कि कुछ कह नहीं सकते। पंडित बद्रीनाथ यहां से गये हैं, देखें क्या होता है। तुमने तो वहां का हाल सुना ही होगा!"
तेज - मैं सब हाल सुन चुका हूं, हम लोगों को वहां पहुंचकर मदद करना मुनासिब है।
सुरेन्द्रसिंह - मैं खुद कहने को था। कुमार की क्या राय है, वे जायेंगे या नहीं?
तेज - आप खुद जानते हैं कि कुमार काल से भी डरने वाले नहीं, वह जालिमखां क्या चीज है!
राजा - ठीक है, मगर किसी वीर पुरुष का मुकाबला करना हम लोगों का धर्म है और चोर तथा डाकुओं या ऐयारों का मुकाबला करना तुम लोगों का काम है, क्या जाने वह छिपकर कहीं कुमार ही पर घात कर बैठे!
तेज - वीर और बहादुरों से लड़ना कुमार का काम है सही, मगर दुष्ट, चोर, डाकू या और किसी को भी क्या मजाल है कि हम लोगों के रहते कुमार का बाल भी बांका कर जाय 1
राजा - हम तो मान के आगे जान कोई चीज नहीं समझते, मगर दुष्ट घातियों से बचे रहना भी धर्म है। सिवाय इसके कुमार के वहां गए बिना कोई हर्ज भी नहीं है, अस्तु तुम लोग जाओ और महाराज जयसिंह की मदद करो। जब जालिमखां गिरफ्तर हो जाय तो महाराज को सब हाल कह - सुनकर यहां लेते आना, फिर हम भी साथ होकर खोह में चलेंगे।
राजा सुरेन्द्रसिंह की मर्जी कुमार को इस वक्त विजयगढ़ जाने देने की नहीं समझकर और राजा से बहुत जिद करना भी बुरा ख्याल करके तेजसिंह चुप हो रहे। अकेले ही विजयगढ़ जाने के लिए महाराज से हुक्म लिया और उनके खास हाथ की लिखी हुई खत का खलीता लेकर विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।
कुछ दूर जाकर दोपहर की धूप घने जंगल के पेड़ों की झुरमुट में काटी और ठंडे हो रवाना हुए। विजयगढ़ पहुंचकर महल में आधी रात को ठीक उस वक्त पहुंचे जब बहुत से जवांमर्दों की भीड़ बटुरी हुई थी और हर एक आदमी चौकन्ना होकर हर तरफ देख रहा था। यकायक पूरब की छत से धामाधाम छ: आदमी कूदकर बीचोंबीच भीड़ में आ खड़े हुए, जिनके आगे - आगे बद्रीनाथ का सिर हाथ में लिये आफतखां था।
तेजसिंह को अभी तक किसी ने नहीं देखा था, इस वक्त इन्होंने ललकारकर कहा - "पकड़ो इन नालायकों को, अब देखते क्या हो?" इतना कहकर आप भी कमंद फैलाकर उन लोगों की तरफ फेंका, तब तक बहुत से आदमी टूट पड़े। उन लोगों के हाथ में जो गेंद मौजूद थे, जमीन पर पटकने लगे, मगर कुछ नहीं, वहां तो मामला ही ठंडा था, गेंद क्या था धोखे की टट्टी थी। कुछ करते - धारते न बन पड़ा और सब - के - सब गिरफ्तार हो गये।
अब तेजसिंह को सबों ने देखा, आफतखां ने भी इनकी तरफ देखा और कहा - "तेज, मेमचे बद्री।" इतना सुनते ही तेजसिंह ने आफतखां का हाथ पकड़कर इनको सबों से अलग कर लिया और हाथ - पैर खोल गले से लगा लिया। सब गुल मचाने लगे - "हां - हां यह क्या करते हो, यह तो बड़ा भारी दुष्ट है, इसी ने तो बद्रीनाथ को मारा है। देखो, इसी के हाथ में बेचारे बद्रीनाथ का सिर है, तुम्हें क्या हो गया कि इसके साथ नेकी करते हो?" पर तेजसिंह ने घुड़ककर कहा - "चुप रहो, कुछ खबर भी है कि यह कौन हैं? बद्रीनाथ को मारना क्या खेल हो गया है?"
तेजसिंह की इज्जत को सब जानते थे। किसी की मजाल न थी कि उनकी बात काटता। आफतखां को उनके हवाले करना ही पड़ा, मगर बाकी पांचों आदमियों को खूब मजबूती से बांधा।
आफतखां का हाथ भी तेजसिंह ने छोड़ दिया और साथ - साथ लिये हुए महाराज जयसिंह की तरफ चले। चारों तरफ धूम मची थी, जालिमखां और उसके साथियों के गिरफ्तार हो जाने पर भी लोग कांप रहे थे, महाराज भी दूर से सब तमाशा देख रहे थे। तेजसिंह को आफतखां के साथ अपनी तरफ आते देख घबरा गये। म्यान से तलवार खींच लिया। तेजसिंह ने पुकारकर कहा, "घबराइये नहीं, हम दोनों आपके दुश्मन नहीं हैं। ये जो हमारे साथ हैं और जिन्हें आप कुछ और समझे हुए हैं, वास्तव में पंडित बद्रीनाथ हैं।" यह कह आफतखां की दाढ़ी हाथ से पकड़कर झटक दी जिससे बद्रीनाथ कुछ पहचाने गए।
आप महाराज जयसिंह का जी ठिकाने हुआ, पूछा, "बद्रीनाथ उनके साथ क्यों थे?"
बद्री - महाराज अगर मैं उनका साथी न बनता तो उन लोगों को यहां तक लाकर गिरफ्तार कौन कराता?
महा - तुम्हारे हाथ में यह सिर किसका लटक रहा है?
बद्री - मोम का, बिल्कुल बनावटी।
अब तो धूम मच गई कि जालिमखां को बद्रीनाथ ऐयार ने गिरफ्तार कराया। इनके चारों तरफ भीड़ लग गई, एक पर एक टूटा पड़ता था। बड़ी ही मुश्किल से बद्रीनाथ उस झुण्ड से अलग किये गए। जालिमखां वगैरह को भी मालूम हो गया कि आफतखां कृपानिधान बद्रीनाथ ही थे, जिन्होंने हम लोगों को बेढब धोखा देकर फंसाया, मगर इस वक्त क्या कर सकते थे? हाथ - पैर सभी के बंधे थे, कुछ जोर नहीं चल सकता था, लाचार होकर बद्रीनाथ को गालियां देने लगे। सच है जब आदमी की जान पर आ बनती है तब जो जी में आता है बकता है।
बद्रीनाथ ने उनकी गालियों का कुछ भी ख्याल न किया बल्कि उन लोगों की तरफ देखकर हंस दिया। इनके साथ बहुत से आदमी बल्कि महाराज तक हंस पड़े।
महाराज के हुक्म से सब आदमी महल के बाहर कर दिये गये, सिर्फ थोड़े से मामूली उमरा लोग रह गए और महल के अंदर ही कोठरी में हाथ - पैर जकड़ जालिमखां और उसके साथी बंद कर दिये गये। पानी मंगवाकर बद्रीनाथ का हाथ - पैर धुलवाया गया, इसके बाद दीवानखाने में बैठकर बद्रीनाथ से सब खुलासा हाल जालिमखां के गिरफ्तार करने का पूछने लगे जिसको सुनने के लिए तेजसिंह भी व्याकुल हो रहे थे।
बद्रीनाथ ने कहा, "महाराज, इस दुष्ट जालिमखां से मिलने की पहली तरकीब मैंने यह की कि अपना नाम आफतखां रखकर इश्तिहार दिया और अपने मिलने का ठिकाना ऐसी बोली में लिखा कि सिवाय उसके या ऐयारों के किसी को समझ में न आवे। यह तो मैं जानता ही था कि यहां इस वक्त कोई ऐयार नहीं है जो मेरी इस लिखावट को समझेगा।"
महा - हां ठीक है, तुमने अपने मिलने का ठिकाना 'टेटी - चोटी' लिखा था, इसका क्या अर्थ है?
बद्री - ऐयारी बोली में 'टेटी - चोटी' भयानक नाले को कहते हैं।
इसके बाद बद्रीनाथ ने जालिमखां से मिलने का और गेंद का तमाशा दिखला के धोखे का गेंद उन लोगों के हवाले कर भुलावा दे महल में ले आने का पूरा - पूरा हाल कहा, जिसको सुनकर महाराज बहुत ही खुश हुआ और इनाम में बहुत - सी जागीर बद्रीनाथ को देना चाहा, मगर उन्होंने उसको लेने से बिल्कुल इंकार किया और कहा कि बिना मालिक की आज्ञा के मैं आपसे कुछ नहीं ले सकता, उनकी तरफ से मैं जिस काम पर मुकर्रर किया गया था जहां तक हो सका उसे पूरा कर दिया।
इसी तरह के बहुत से उज्र बद्रीनाथ ने किये जिसको सुन महाराज और भी खुश हुए और इरादा कर लिया कि किसी और मौके पर बद्रीनाथ को बहुत कुछ देंगे जबकि वे लेने से इंकार न कर सकेंगे।
बात ही बात में सबेरा हो गया, तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से बिदा हो दीवान हरदयालसिंह के घर आये।
बयान - 14
सुबह को खुशी - खुशी महाराज ने दरबार किया। तेजसिंह और बद्रीनाथ भी बड़ी इज्जत से बैठाये गए। महाराज के हुक्म से जालिमखां और उसके चारों साथी दरबार में लाये गये जो हथकड़ी - बेड़ी से जकड़े हुए थे। हुक्म पा तेजसिंह जालिमखां से पूछने लगे :
तेजसिंह - क्यों जी, तुम्हारा नाम ठीक - ठीक जालिमखां है या और कुछ?
जालिम - इसका जवाब मैं पीछे दूंगा, पहले यह बताइये कि आप लोगों के यहां ऐयारों को मार डालने का कायदा है या नहीं?
तेज - हमारे यहां क्या हिंदुस्तान भर में कोई धार्मिष्ठ हिंदू राजा ऐयार को कभी जान से न मारेगा। हां वह ऐयार जो अपने कायदे के बाहर काम करेगा जरूर मारा जायगा।
जालिम - तो क्या हम लोग मारे जायेंगे?
तेज - यह खुशी महाराज की मगर क्या तुम लोग ऐयार हो जो ऐसी बातें पूछते हो?
जालिम - हां हम लोग ऐयार हैं।
तेज - राम - राम, क्यों ऐयारी का नाम बदनाम करते हो। तुम तो पूरे डाकू हो, ऐयारी से तुम लोगों का क्या वास्ता?
जालिम - हम लोग कई पुश्त से ऐयार होते आ रहे हैं कुछ आज नये ऐयार नहीं बने।
तेज - तुम्हारे बाप - दादा शायद ऐयार हुए हों, मगर तुम लोग तो खासे दुष्ट डाकुओं में से हो।
जालिम - जब आपने हमारा नाम डाकू ही रखा है, तो बचने की कौन उम्मीद हो सकती है!
तेज - जो हो खैर यह बताओ कि तुम हो कौन?
जालिम - जब मारे ही जाना है तो नाम बताकर बदनामी क्यों लें और अपना पूरा हाल भी किसलिए कहें? हां इसका वादा करो कि जान से न मारोगे तो कहें।
तेज - यह वादा कभी नहीं हो सकता और अपना ठीक - ठीक हाल भी तुमको झख मार के कहना होगा।
जालिम - कभी नहीं कहेंगे।
तेज - फिर जूते से तुम्हारे सिर की खबर खूब ली जायेगी।
जालिम - चाहे जो हो।
बद्री - वाह रे जूतीखोर।
जालिम - (बद्रीनाथ से) ओस्ताद, तुमने बड़ा धोखा दिया, मानता हूं तुमको!
बद्री - तुम्हारे मानने से होता ही क्या है, आज नहीं तो कल तुम लोगों के सिर धाड़ से अलग दिखाई देंगे।
जालिम - अफसोस कुछ करने न पाए!
तेजसिंह ने सोचा कि इस बकवाद से कोई मतलब न निकलेगा। हजार सिर पटकेंगे पर जालिमखां अपना ठीक - ठीक हाल कभी न कहेगा, इससे बेहतर है कि कोई तरकीब की जाय, अस्तु कुछ सोचकर महाराज से अर्ज किया, "इन लोगों को कैदखाने में भेजा जाय फिर जैसा होगा देखा जायगा, और इनमें से वह एक आदमी (हाथ से इशारा करके) इसी जगह रखा जाय।" महाराज के हुक्म से ऐसा ही किया गया।
तेजसिंह के कहे मुताबिक उन डाकुओं में से एक को उसी जगह छोड़ बाकी सबों को कैदखाने की तरफ रवाना किया। जाती दफे जालिमखां ने तेजसिंह की तरफ देख के कहा, "ओस्ताद, तुम बड़े चालाक हो। इसमें कोई शक नहीं कि चेहरे से आदमी के दिल का हाल खूब पहचानते हो, अच्छे डरपोक को चुन के रख लिया, अब तुम्हारा काम निकल जायगा।"
तेजसिंह ने मुस्कराकर जवाब दिया, "पहले इसकी दुर्दशा कर ली जाय फिर तुम लोग भी एक - एक करके इसी जगह लाए जाओगे।"
जालिमखां और उसके तीन साथी तो कैदखाने की तरफ भेज दिए गए, एक उसी जगह रह गया। हकीकत में वह बहुत डरपोक था। अपने को उसी जगह रहते और साथियों को दूसरी जगह जाते देख घबरा उठा। उसके चेहरे से उस वक्त और भी बदहवासी बरसने लगी जब तेजसिंह ने एक चोबदार को हुक्म दिया कि "अंगीठी में कोयला भरकर तथा दो - तीन लोहे की सींखें जल्दी से लाओ, जिनके पीछे लकड़ी की मूठ लगी हो।"
दरबार में जितने थे सब हैरान थे कि तेजसिंह ने लोहे की सलाख और अंगीठी क्यों मंगाई और उस डाकू की तो जो कुछ हालत थी लिखना मुश्किल है।
चार - पांच लोहे के सींखचे और कोयले से भरी हुई अंगीठी लाई गई। तेजसिंह ने एक आदमी से कहा, "आग सुलगाओ और इन लोहे की सींखों को उसमें गरम करो।" अब उस डाकू से न रहा गया। उसने डरते हुए पूछा, "क्यों तेजसिंह, इन सींखों को तपाकर क्या करोगे?"
तेज - इनको लाल करके दो तुम्हारी दोनों आंखों में, दो दोनों कानों में और एक सलाख मुंह खोलकर पेट के अंदर पहुंचाया जायगा।
डाकू - आप लोग तो रहमदिल कहलाते हैं, फिर इस तरह तकलीफ देकर किसी को मारना क्या आप लोगों की रहमदिली में बट्टा न लगावेगा?
तेज - (हंसकर) तुम लोगों को छोड़ना बड़े संगदिल का काम है, जब तक तुम जीते रहोगे हजारों की जानें लोगे, इससे बेहतर है कि तुम्हारी छुट्टी कर दी जाय। जितनी तकलीफ देकर तुम लोगों की जान ली जायगी उतना ही डर तुम्हारे शैतान भाइयों को होगा।
डाकू - तो क्या अब किसी तरह हमारी जान नहीं बच सकती?
तेज - सिर्फ एक तरह से बच सकती है।
डाकू - कैसे?
तेज - अगर अपने साथियों का हाल ठीक - ठीक कह दो तो अभी छोड़ दिए जाओगे।
डाकू - मैं ठीक - ठीक हाल कह दूंगा।
तेज - हम लोग कैसे जानेंगे कि तुम सच्चे हो?
डाकू - साबित कर दूंगा कि मैं सच्चा हूं।
तेज - अच्छा कहो।
डाकू - सुनो कहता हूं।
इस वक्त दरबार में भीड़ लगी हुई थी। तेजसिंह ने आग की अंगीठी क्यों मंगाई? ये लोहे की सलाइयें किस काम आवेंगी? यह डाकू अपना ठीक - ठीक हाल कहेगा या नहीं? यह कौन है? इत्यादि बातों को जानने के लिए सबों की तबीयत घबड़ा रही थी। सभी की निगाहें उस डाकू के ऊपर थीं। जब उसने कहा कि 'मैं ठीक - ठीक हाल कह दूंगा' तब और भी लोगों का ख्याल उसी की तरफ जम गया और बहुत से आदमी उस डाकू की तरफ कुछ आगे बढ़ आये।
उस डाकू ने अपने साथियों का हाल कहने के लिए मुस्तैद होकर मुंह खोला ही था कि दरबारी भीड़ में से एक जवान आदमी म्यान से तलवार खींचकर उस डाकू की तरफ झपटा और इस जोर से एक हाथ तलवार का लगाया कि उस डाकू का सिर धाड़ से अलग होकर दूर जा गिरा, तब उसी खून भरी तलवार को घुमाता और लोगों को जख्मी करता वह बाहर निकल गया।
उस घबड़ाहट में किसी ने भी उसे पकड़ने का हौसला न किया, मगर बद्रीनाथ कब रुकने वाले थे, साथ ही वह भी उसके पीछे दौड़े।
बद्रीनाथ के जाने के बाद सैकड़ों आदमी उस तरफ दौड़े, लेकिन तेजसिंह ने उसका पीछा न किया। वे उठकर सीधो उस कैदखाने की तरफ दौड़ गए जिसमें जालिमखां वगैरह कैद किये गये थे। उनको इस बात का शक हुआ कि कहीं ऐसा न हो कि उन लोगों को किसी ने ऐयारी करके छुड़ा दिया हो। मगर नहीं, वे लोग उसी तरह कैद थे। तेजसिंह ने कुछ और पहरे का इंतजाम कर दिया और फिर तुरंत लौटकर दरबार में चले आये।
पहले दरबार में जितनी भीड़ लगी हुई थी अब उससे चौथाई रह गई। कुछ तो अपनी मर्जी से बद्रीनाथ के साथ दौड़ गए, कितनों ने महाराज का इशारा पाकर उसका पीछा किया था। तेजसिंह के वापस आने पर महाराज ने पूछा, "तुम कहां गए थे?"
तेज - मुझे यह फिक्र पड़ गई थी कि कहीं जालिमखां वगैरह तो नहीं छूट गए, इसलिए कैदखाने की तरफ दौड़ा गया था। मगर वे लोग कैदखाने में ही पाए गए।
महा - देखें बद्रीनाथ कब तक लौटते हैं और क्या करके लौटते हैं?
तेज - बद्रीनाथ बहुत जल्द आवेंगे क्योंकि दौड़ने में वे बहुत ही तेज हैं।
आज महाराज जयसिंह मामूली वक्त से ज्यादा देर तक दरबार में बैठे रहे। तेजसिंह ने कहा भी - "आज दरबार में महाराज को बहुत देर हुई?" जिसका जवाब महाराज ने यह दिया कि "जब तक बद्रीनाथ लौटकर नहीं आते या उनका कुछ हाल मालूम न हो ले हम इसी तरह बैठे रहेंगे।"
बयान - 15
दो घंटे बाद दरबार के बाहर से शोरगुल की आवाज आने लगी। सबों का ख्याल उसी तरफ गया। एक चोबदार ने आकर अर्ज किया कि पंडित बद्रीनाथ उस खूनी को पकड़े लिए आ रहे हैं।
उस खूनी को कमंद से बांधो साथ लिए हुए पंडित बद्रीनाथ आ पहुंचे।
महा - बद्रीनाथ, कुछ यह भी मालूम हुआ कि यह कौन है?
बद्री - कुछ नहीं बताता कि कौन है और न बताएगा।
महा - फिर?
बद्री - फिर क्या? मुझे तो मालूम होता हेै कि इसने अपनी सूरत बदल रखी है।
पानी मंगवाकर उसका चेहरा धुलवाया गया, अब तो उसकी दूसरी ही सूरत निकल आई।
भीड़ लगी थी, सबों में खलबली पड़ गई, मालूम होता था कि इसे सब कोई पहचानते हैं। महाराज चौंक पड़े और तेजसिंह की तरफ देखकर बोले, "बस - बस मालूम हो गया, यह तो नाज़िम का साला है, मैं ख्याल करता हूं कि जालिमखां वगैरह जो कैद हैं वे भी नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार ही होंगे। उन लोगों को फिर यहां लाना चाहिए।"
महाराज के हुक्म से जालिमखां वगैरह भी दरबार में लाए गए।
बद्री - (जालिमखां की तरफ देखकर) अब तुम लोग पहचाने गये कि नाज़िम और अहमद के रिश्तेदार हो, तुम्हारे साथी ने बता दिया।
जालिमखां इसका कुछ जवाब दिया ही चाहता था कि वह खूनी (जिसे बद्रीनाथ अभी गिरफ्तार करके लाए थे) बोल उठा, "जालिमखां, तुम बद्रीनाथ के फेर में मत पड़ना। यह झूठे हैं, तुम्हारे साथी को हमने कुछ कहने का मौका नहीं दिया, वह बड़ा ही डरपोक था, मैंने उसे दोजख में पहुंचा दिया। हम लोगों की जान चाहे जिस दुर्दशा से जाय मगर अपने मुंह से अपना कुछ हाल कभी न कहना चाहिए।"
जालिम - (जोर से) ऐसा ही होगा।
इन दोनों की बातचीत से महाराज को बड़ा क्रोध आया। आंखें लाल हो गईं, बदन कांपने लगा। तेजसिंह और बद्रीनाथ की तरफ देखकर बोले, "बस हमको इन लोगों का हाल मालूम करने की कोई जरूरत नहीं, चाहे जो हो, अभी, इसी वक्त, इसी जगह, मेरे सामने इन लोगों का सिर धाड़ से अलग कर दिया जाये।
हुक्म की देर थी, तमाम शहर इन डाकुओं के खून का प्यासा हो रहा था, उछल - उछलकर लोगों ने अपने - अपने हाथों की सफाई दिखाई। सबों की लाशें उठाकर फेंक दी गईं। महाराज उठ खड़े हुए। तेजसिंह ने हाथ जोड़कर अर्ज किया -
"महाराज, मुझे अभी तक कहने का मौका नहीं मिला कि यहां किस काम के लिए आया था और न अभी बात कहने का वक्त है।"
महा - अगर कोई जरूरी बात हो तो मेरे साथ महल में चलो!
तेज - बात तो बहुत जरूरी है मगर इस समय कहने को जी नहीं चाहता, क्योंकि महाराज को अभी तक गुस्सा चढ़ा हुआ है और मेरी भी तबीयत खराब हो रही है, मगर इस वक्त इतना कह देना मुनासिब समझता हूं कि जिस बात के सुनने से आपको बेहद खुशी होगी मैं वही बात कहूंगा।
तेजसिंह की आखिरी बात ने महाराज का गुस्सा एकदम ठंडा कर दिया और उनके चेहरे पर खुशी झलकने लगी। तेजसिंह का हाथ पकड़ लिया और महल में ले चले, बद्रीनाथ भी तेजसिंह के इशारे से साथ हुए।
तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए महाराज अपने खास कमरे में गए और कुछ देर बैठने के बाद तेजसिंह के आने का कारण पूछा।
सब हाल खुलासा कहने के बाद तेजसिंह ने कहा - "अब आप और महाराज सुरेन्द्रसिंह खोह में चलें और सिद्धनाथ योगी की कृपा से कुमारी को साथ लेकर खुशी - खुशी लौट आवें।"
तेजसिंह की बात से महाराज को कितनी खुशी हुई इसका हाल लिखना मुश्किल है। लपककर तेजसिंह को गले लगा लिया और कहा, "तुम अभी बाहर जाकर हरदयालसिंह को हमारे सफर की तैयारी करने का हुक्म दो और तुम लोग भी स्नान - पूजा करके कुछ खाओ - पीओ। मैं जाकर कुमारी की मां को यह खुशखबरी सुनाताहूं।
आज के दिन का तीन हिस्सा तरद्दुद - रंज, गुस्से और खुशी में गुजर गया, किसी के मुंह में एक दाना अन्न नहीं गया था।
तेजसिंह और बद्रीनाथ महाराज से बिदा हो दीवान हरदयालसिंह के मकान पर गये और महाराज ने महल में जाकर कुमारी चंद्रकान्ता की मां को कुमारी से मिलने की उम्मीद दिलाई।
अभी घंटे भर पहले वह महल और ही हालत में था और अब सबों के चेहरे पर हंसी दिखाई देने लगी। होते - होते यह बात हजारों घरों में फैल गयी कि महाराज कुमारी चंद्रकान्ता को लाने के लिए जाते हैं।
यह भी निश्चय हो गया कि आज थोड़ी - सी रात रहते महाराज जयसिंह नौगढ़ की तरफ कूच करेंगे।
बयान - 16
पाठक, अब वह समय आ गया कि आप भी चंद्रकान्ता और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को खुश होते देख खुश हों। यह तो आप समझते ही होंगे कि महाराज जयसिंह विजयगढ़ से रवाना होकर नौगढ़ जायेंगे और वहां से राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार को साथ लेकर कुमारी से मिलने की उम्मीद में तिलिस्मी खोह के अंदर जायेंगे। आपको यह भी याद होगा कि सिद्धनाथ योगी ने तहखाने (खोह) से बाहर होते वक्त कुमार को कह दिया था कि जब अपने पिता और महाराज जयसिंह को लेकर इस खोह में आना तो उन लोगों को खोह के बाहर छोड़कर पहले तुम आकर एक दफे हमसे मिल जाना। उन्हीं के कहे मुताबिक कुमार करेंगे। खैर इन लोगों को तो आप अपने काम में छोड़ दीजिए और थोड़ी देर के लिए आंखें बंद करके हमारे साथ उस खोह में चलिए और किसी कोने में छिपकर वहां रहने वालों की बातचीत सुनिये। शायद आप लोगों के जी का भ्रम यहां निकल जाय और दूसरे तीसरे भाग के बिल्कुल भेदों की बातें भी सुनते ही सुनते खुल जायं, बल्कि कुछ खुशी भी हासिल हो।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह वगैरह तो आज वहां तक पहुंचते नहीं मगर आप इसी वक्त हमारे साथ उस तहखाने (खोह) में बल्कि उस बाग में पहुंचिए जिसमें कुमार ने चंदकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था और जिसमें सिद्धनाथ योगी और वनकन्या से मुलाकात हुई थी।
आप उसी बाग में पहुंच गये। देखिए अस्त होते हुए सूर्य भगवान अपनी सुंदर लाल किरणों से मनोहर बाग के कुछ ऊंचे - ऊंचे पेड़ों के ऊपरी हिस्सों को चमका रहे हैं। कुछ - कुछ ठंडी हवा खुशबूदार फूलों की महक चारों तरफ फैला रही है। देखिए इस बाग के बीच वाले संगमर्मर के चबूतरे पर तीन पलंग रखे हुए हैं, जिनके ऊपर खूबसूरत लौंडियां अच्छे - अच्छे बिछौने बिछा रही हैं; खास करके बीच वाले जड़ाऊ पलंग की सजावट पर सबों का ज्यादा ध्यान है। उधरदेखिये वह घास का छोटा - सा रमना कैसे खुशनुमा बना हुआ है। उसमें की हरी - हरी दूब कैसे खूबसूरती से कटी हुई है, यकायक सब्ज मखमली फर्श में और इसमें कुछ भेद नहीं मालूम होता, और देखिए उसी सब्ज दूब के रमने के चारों तरफ रंग - बिरंगे फूलों से खूब गुथे हुए सीधो - सीधो गुलमेंहदी के पेड़ों की कतार पल्टनों की तरह कैसी शोभा दे रही है।
उसके बगल की तरफ ख्याल कीजिए, चमेली का फूला हुआ तख्ता क्या ही रंग जमा रहा है और कैसे घने पेड़ हैं कि हवा को भी उसके अंदर जाने का रास्ता मिलना मुश्किल है, और इन दोनों तख्तों के बीच वाला छोटा - सा खूबसूरत बंगला क्या मजा दे रहा है तथा उसके चारों तरफ नीचे से ऊपर तक मालती की लता कैसी घनी चढ़ी हुई और फूल भी कितने ज्यादे फूले हुए हैं। अगर जी चाहे तो किसी एक तरफ खड़े होकर बिना इधर - उधर हटे हाथ भर का चंगेर भर लीजिये। पश्चिम तरफ निगाह दौड़ाइये, फूली हुई मेंहदी की टट्टी के नीचे जंगली रंग - बिरंगे पत्तों वाले हाथ डेढ़ हाथ ऊंचे दरख्तों (करोटन) की चौहरी कतार क्या भली मालूम होती है, और उसके बुंदकीदार, सुर्खी लिए हुए सफेद लकीरों वाले, सब्ज धारियों वाले, लंबे घूंघरवाले बालों की तरह ऐंठे हुए पत्तो क्या कैफियत दिखा रहे हैं और इधर-उधर हट के दोनों तरफ तिरकोनिया तख्तों की भी रंगत देखिये जो सिर्फ हाथ भर ऊंचे रंगीन छिटकती हुई धारियों वाले पत्तो के जंगली पेड़ों (कौलियस) के गमलों से पहाड़ीनुमा सजाये हुए हैं और जिनके चारों तरफ रंग - बिरंगे देशी फूल खिले हुए हैं।
अब तो हमारी निगाह इधर - उधर और खूबसूरत क्यारियो, फूलों और छूटते हुए फव्वारों का मजा नहीं लेती, क्योंकि उन तीन औरतों के पास जाकर अटक गयी है, जो मेंहदी के पत्तो तोड़कर अपनी झोलियों में बटोर रही हैं। यहां निगाह भी अदब करती है, क्योंकि उन तीनों औरतों में से एक तो हमारी उपन्यास की ताज वनकन्या है और बाकी दोनों उसकी प्यारी सखियां हैं।
वनकन्या की पोशाक तो सफेद है, मगर उसकी दोनों सखियों की सब्ज और सुर्ख।
वे तीनों मेंहदी की पत्तियां तोड़ चुकीं, अब इस संगमर्मर के चबूतरे की तरफ चली आ रही हैं। शायद इन्हीं तीनों पलंगों पर बैठने का इरादा हो।
हमारा सोचना ठीक हुआ। वनकन्या मेंहदी की पत्तियां जमीन पर उझलकर थकावट की मुद्रा में बिचले जड़ाऊ पलंग पर लेट गयी और दोनों सखियां अगल - बगल वाले दोनों पंलगों पर बैठ गयीं। पाठक, हम और आप भी एक तरफ चुपचाप खड़े होकर इन तीनों की बातचीत सुनें।
वनकन्या - ओफ, थकावट मालूम होती है!
सब्ज कपड़े वाली सखी - घूमने में क्या कम आया है?
सुर्ख कपड़े वाली सखी - (दूसरी सखी से) क्या तू भी थक गयी है?
सब्ज सखी - मैं क्यों थकने लगी? दस - दस कोस का रोज चक्कर लगाती रही, तब तो थकी ही नहीं।
सुर्ख सखी - ओफ, उन दिनों भी कितना दौड़ना पड़ा था। कभी इधर तो कभी उधर, कभी जाओ तो कभी आओ।
सब्ज - आखिर कुमार के ऐयार हम लोगों का पता नहीं ही लगा सके।
सुर्ख - खुद ज्योतिषीजी की अक्ल चकरा गयी जो बड़े रम्माल और नजूमी कहलाते थे, दूसरों की कौन कहे!
वनकन्या - ज्योतिषीजी के रमल को तो इन यंत्रों ने बेकार कर दिया, जो सिद्धनाथ बाबा ने हम लोगों के गले में डाल दिया है और अभी तक जिसे उतारने नहीं देते।
सब्ज - मालूम नहीं इस तावीज (यंत्र) में कौन - सी ऐसी चीज है जो रमल को चलने नहीं देती!
वनकन्या - मैंने यही बात एक दफे सिद्धनाथ बाबाजी से पूछी थी, जिसके जवाब में वे बहुत कुछ बक गये। मुझे सब तो याद नहीं कि क्या - क्या कह गये हां, इतना याद है कि रमल जिस धातु से बनाई जाती है और रमल के साथी ग्रह, राशि, नक्षत्र, तारों वगैरह के असर पड़ने वाली जितनी धातुएं हैं, उनसबों को एक साथ मिलाकर यह यंत्र बनाया गया है इसलिए जिसके पास यह रहेगा, उसके बारे में कोई नजूमी या ज्योतिषी रमल के जरिये से कुछ नहीं देख सकेगा।
सुर्ख - बेशक इसमें बहुत कुछ असर है। देखिये मैं सूरजमुखी बनकर गयी थी, तब भी ज्योतिषीजी रमल से न बता सके कि यह ऐयार है।
वनकन्या - कुमार तो खूब ही छके होंगे?
सुर्ख - कुछ न पूछिये, वे बहुत ही घबराये कि यह शैतान कहां से आयी और क्या शर्त करा के अब क्या चाहती है?
सब्ज - उसी के थोड़ी देर पहले मैं प्यादा बनकर खत का जवाब लेने गयी थी और देवीसिंह को चेला बनाया था। यह कोई नहीं कह सका कि इसे मैं पहचानता हूं।
सुर्ख - यह सब तो हुई मगर किस्मत भी कोई भारी चीज है। देखिये जब शिवदत्त के ऐयारों ने तिलिस्मी किताब चुरायी थी और जंगल में ले जाकर जमीन के अंदर गाड़ रहे थे, उसी वक्त इत्तिफाक से हम लोगों ने पहुंचकर दूर से देख लिया कि कुछ गाड़ रहे हैं, उन लोगों के जाने के बाद खोदकर देखा तो तिलिस्मी किताब है।
वनकन्या - ओफ, बड़ी मुश्किल से सिद्धनाथ ने हम लोगों को घूमने का हुक्म दिया था, तिस पर भी कसम दे दी थी कि दूर - दूर से कुमार को देखना, पास मत जाना।
सुर्ख - इसमें तुम्हारा ही फायदा था, बेचारे सिद्धनाथ कुछ अपने वास्ते थोड़े ही कहते थे।
वनकन्या - यह सब सच है, मगर क्या करें बिना देखे जी जो नहीं मानता।
सब्ज - हम दोनों को तो यही हुक्म दे दिया था कि बराबर घूम - घूमकर कुमार की मदद किया करो। मालिन रूपी बद्रीनाथ से कैसा बचाया था।
सुर्ख - क्या ऐयार लोग पता लगाने की कम कोशिश करते थे? मगर यहां तो ऐयारों के गुरुघंटाल सिद्धनाथ हरदम मदद पर थे, उनके किए हो क्या सकता था? देखो गंगाजी में नाव के पास आते वक्त तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कैसा छके, हम लोगों ने सभी कपड़े तक ले लिए।
सब्ज - हम लोग तो जान - बूझकर उन लोगों को अपने साथ लाये ही थे।
वनकन्या - चाहे वे लोग कितने ही तेज हों, मगर हमारे सिद्धनाथ को नहीं पा सकते। हां, उन लोगों में तेजसिंह बड़ा चालाक है!
सुर्ख - तेजसिंह बहुत चालाक हैं तो क्या हुआ, मगर हमारे सिद्धनाथ तेजसिंह के भी बाप हैं।
वनकन्या - (हंसकर) इसका हाल तो तुम ही जानो।
सुर्ख - आप तो दिल्लगी करती हैं।
सब्ज - हकीकत में सिद्धनाथ ने कुमार और उनके ऐयारों को बड़ा भारी धोखा दिया। उन लोगों को इस बात का ख्याल तक न आया कि इस खोह वाले तिलिस्म को सिद्धनाथ बाबा हम लोगों के हाथ फतह करा रहे हैं।
सुर्ख - जब हम लोग अंदर से इस खोह का दरवाजा बंद कर तिलिस्म तोड़ रहे थे तब तेजसिंह बद्रीनाथ की गठरी लेकर इसमें आए थे, मगर दरवाजा बंद पाकर लौट गये।
वनकन्या - बड़े ही घबराये होंगे कि अंदर से इसका दरवाजा किसने बंद कर दिया?
सुर्ख - जरूर घबराये होंगे। इसी में क्या और कई बातों में हम लोगों ने कुमार और उनके ऐयारों को धोखा दिया था। देखिये मैं उधर सूरजमुखी बनकर कह आयी कि शिवदत्त को छुड़ा दूंगी और इधर इस बात की कसम खिलाकर कि कुमार से दुश्मनी न करेगा, शिवदत्त को छोड़ दिया। उन लोगों ने भी जरूर सोचा होगा कि सूरजमुखी कोई भारी शैतान है।
वनकन्या - मगर फिर भी हरामजादे शिवदत्त ने धोखा दिया और कुमार से दुश्मनी करने पर कमर बांधी, उसके कसम का कोई एतबार नहीं।
सुर्ख - इसी से फिर हम लोगों ने गिरफ्तार भी तो कर लिया और तिलिस्मी किताब पाकर फिर कुमार को दे दी। हां, क्रूरसिंह ने एक दफे हम लोगों को पहचान लिया था। मैंने सोचा कि अब अगर यह जीता बचा तो सब भंडा फूट जायगा, बस लड़ ही तो गयी। आखिर मेरे हाथ से उसकी मौत लिखी थी मारा गया।
सब्ज - उस मुए को धुन सवार थी कि हम ही तिलिस्म फतह करके खजाना ले लें।
वनकन्या - मुझको तो इसी बात की खुशी है यह खोह वाला तिलिस्म मेरे हाथ से फतह हुआ।
सुर्ख - इसमें काम ही कितना था, तिस पर सिद्धनाथ बाबा की मदद!
वनकन्या - खैर एक बात तो है।
बयान - 17
अपनी जगह पर दीवान हरदयालसिंह को छोड़ तेजसिंह और बद्रीनाथ को साथ लेकर महाराज जयसिंह विजयगढ़ से नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। साथ में सिर्फ पांच सौ आदमियों का झमेला था। एक दिन रास्ते में लगा, दूसरे दिन नौगढ़ के करीब पहुंचकर डेरा डाला।
राजा सुरेन्द्रसिंह को महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। उसी वक्त अपने मुसाहबों और सरदारों को साथ ले इस्तकबाल के लिए गये और अपने साथ शहर में आये।
महाराज जयसिंह के लिए पहले से ही मकान सजा रखा था, उसी में उनका डेरा डलवाया और ज्याफत के लिए कहा, मगर महाराज जससिंह ने ज्याफत से इंकार किया और कहा कि "कई वजहों से मैं आपकी ज्याफत मंजूर नहीं कर सकता, आप मेहरबानी करके इसके लिए जिद न करें बल्कि इसका सबब भी न पूछें कि ज्याफत से क्यों इनकार करता हूं।"
राजा सुरेन्द्रसिंह इसका सबब समझ गए और जी में बहुत खुश हुए।
रात के वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और बाकी के ऐयार लोग भी महाराज जयसिंह से मिले। कुमार को बड़ी खुशी के साथ महाराज ने गले लगाया और अपने पास बैठाकर तिलिस्म का हाल पूछते रहे। कुमार ने बड़ी खूबसूरती के साथ तिलिस्म का हाल बयान किया।
रात को ही यह राय पक्की हो गयी कि सबेरे सूरज निकलने के पहले तिलिस्मी खोह में सिद्धनाथ बाबा से मिलने के लिए रवाना होंगे। उसी मुताबिक दूसरे दिन तारों की रोशनी रहते ही महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल वगैरह हजार आदमी की भीड़भाड़ लेकर तिलिस्मी तहखाने की तरफ रवाना हुए। तहखाना बहुत दूर न था, सूरज निकलते तक उस खोह (तहखाने) के पास पहुंचे।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह से हाथ जोड़कर अर्ज किया, "जिस वक्त सिद्धनाथ योगी ने मुझे आप लोगों को लाने के लिए भेजा था उस वक्त यह भी कह दिया था कि 'जब वे लोग इस खोह के पास पहुंच जायं तो तब अगर हुक्म दें तो तुम उन लोगों को छोड़कर पहले अकेले आकर हमसे मिल जाना।' अब आप कहें तो योगीजी के कहे मुताबिक पहले मैं उनसे जाकर मिल आऊं।"
महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, "योगीजी की बात जरूर माननी चाहिए, तुम जाओ उनसे मिलकर आओ, तब तक हमारा डेरा भी इसी जंगल में पड़ताहै।"
कुंअर वीरेन्द्रसिंह अकेले सिर्फ तेजसिंह को साथ लेकर खोह में गये। जिस तरह हम पहले लिख आए हैं उसी तरह खोह का दरवाजा खोल कई कोठरियों,मकानों और बागों में घूमते हुए दोनों आदमी उस बाग में पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे या जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार कुमार ने देखा था।
बाग के अंदर पैर रखते ही सिद्धनाथ योगी से मुलाकात हुई जो दरवाजे के पास पहले ही से खड़े कुछ सोच रहे थे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को आते देख उनकी तरफ बढ़े और पुकार के बोले, "आप लोग आ गए ?"
पहले दोनों ने दूर से प्रणाम किया और पास पहुंचकर उनकी बात का जवाब दिया :
कुमार - आपके हुक्म के मुताबिक महाराज जयसिंह और अपने पिता को खोह के बाहर छोड़कर आपसे मिलने आया हूं।
सिद्धनाथ - बहुत अच्छा किया जो उन लोगों को ले आये, आज कुमारी चंद्रकान्ता से आप लोग जरूर मिलोगे।
तेज - आपकी कृपा है तो ऐसा ही होगा।
सिद्धनाथ - कहो और तो सब कुशल है? विजयगढ़ और नौगढ़ में किसी तरह का उत्पात तो नहीं हुआ था।
तेज - (ताज्जुब से उनकी तरफ देखकर) हां उत्पात तो हुआ था, कोई जालिमखां नामी दोनों राजाओं का दुश्मन पैदा हुआ था।
सिद्धनाथ - हां यह तो मालूम है, बेशक पंडित बद्रीनाथ अपने फन में बड़ा ओस्ताद है, अच्छी चालाकी से उसे गिरफ्तार किया। खूब हुआ जो वे लोग मारे गये, अब उनके संगी - साथियों का दोनों राजों से दुश्मनी करने का हौसला न पड़ेगा। आओ टहलते - टहलते हम लोग बात करें।
कुमार - बहुत अच्छा।
तेज - जब आपको यह सब मालूम है तो यह भी जरूर मालूम होगा कि जालिमखां कौन था?
सिद्धनाथ - यह तो नहीं मालूम कि वह कौन था मगर अंदाज से मालूम होता है कि शायद नाज़िम और अहमद के रिश्तेदारों में से कोई होगा।
कुमार - ठीक है जो आप सोचते हैं वही होगा।
सिद्धनाथ - महाराज शिवदत्त तो जंगल में चले गये?
कुमार - जी हां, वे तो हमारे पिता से कह गए हैं कि अब तपस्या करेंगे।
सिद्धनाथ - जो हो मगर दुश्मन का विश्वास कभी नहीं करना चाहिए।
कुमार - क्या वह फिर दुश्मनी पर कमर बांधोंगे?
सिद्धनाथ - कौन ठिकाना!
कुमार - अब हुक्म हो तो बाहर जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को ले आऊं।
सिद्धनाथ - हां मगर पहले यह तो सुन लो कि हमने तुमको उन लोगों से पहले क्यों बुलाया।
कुमार - कहिये।
सिद्धनाथ - कायदे की बात यह है कि जिस चीज को जी बहुत चाहता है अगर वह खो गयी हो और बहुत मेहनत करने या बहुत हैरान होने पर यकायक ताज्जुब के साथ मिल जाय, तो उसका चाहने वाला उस पर इस तरह टूटता है जैसे अपने शिकार पर भूखा बाज। यह हम जानते हैं कि चंद्रकान्ता और तुममें बहुत ज्यादा मुहब्बत है, अगर यकायक दोनों राजाओं के सामने तुम उसे देखोगे या वह तुम्हें देखेगी तो ताज्जुब नहीं कि उन लोगों के सामने तुमसे या कुमारी चंद्रकान्ता से किसी तरह की बेअदबी हो जाय या जोश में आकर तुम उसके पास ही जा खड़े हो तो भी मुनासिब न होगा। इसलिए मेरी राय है कि उन लोगों के पहले ही तुम कुमारी से मुलाकात कर लो। आओ हमारे साथ चले आओ।
अहा, इस वक्त तो कुमार के दिल की हुई! मुद्दत के बाद सिद्धनाथ बाबा की कृपा से आज उस कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी जिसके वास्ते दिन - रात परेशान थे, राजपाट जिसकी एक मुलाकात पर न्यौछावर कर दिया था, जान तक से हाथ धो बैठे थे। आज यकायक उससे मुलाकात होगी - सो भी ऐसे वक्त पर जब किसी तरह का खुटका नहीं, किसी तरह का रंज या अफसोस नहीं, कोई दुश्मन बाकी नहीं। ऐसे वक्त में कुमार की खुशी का क्या कहना! कलेजा उछलने लगा। मारे खुशी के सिद्धनाथ योगी की बात का जवाब तक न दे सके और उनके पीछे - पीछे रवाना हो गए।
थोड़ी दूर कमरे की तरफ गए होंगे कि एक लौंडी फूल तोड़ती हुई नजर पड़ी जिसे बुलाकर सिद्धनाथ ने कहा, "तू अभी चंद्रकान्ता के पास जा और कह कि कुंअर वीरेन्द्रसिंह तुमसे मुलाकात करने आ रहे हैं, तुम अपनी सखियों के साथ अपने कमरे में जाकर बैठो।"
यह सुनते ही वह लौंडी दौड़ती हुई एक तरफ चली गई और सिद्धनाथ कुमार तथा तेजसिंह को साथ ले बाग में इधर- धर घूमने लगे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह दोनों अपनी - अपनी फिक्र में लग गए। तेजसिंह को चपला से मिलने की बड़ी खुशी थी। दोनों यह सोचने लगे कि किस हालत में मुलाकात होगी, उससे क्या बातचीत करेंगे, क्या पूछेंगे, वह हमारी शिकायत करेगी तो क्या जवाब देंगे? इसी सोच में दोनों ऐसे लीन हो गये कि फिर सिद्धनाथ योगी से बात न की, चुपचाप बहुत देर तक योगीजी के पीछे - पीछे घूमते रह गये।
घूम - फिरकर इन दोनों को साथ लिए हुए सिद्धनाथ योगी उस कमरे के पास पहुंचे जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था। वहां पर सिद्धनाथ ने कुमार की तरफ देखकर कहा :
"जाओ इस कमरे में कुमारी चंद्रकान्ता और उसकी सखियों से मुलाकात करो, मैं तब तक दूसरा काम करता हूं।"
कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस कमरे में अंदर घुसे। दूर से कुमारी चंद्रकान्ता को चपला और चंपा के साथ खड़े दरवाजे की तरफ टकटकी लगाए देखा।
देखते ही कुंवर वीरेन्द्रसिंह कुमारी की तरफ झपटे और चंद्रकान्ता कुमार की तरफ, अभी एक - दूसरे से कुछ दूर ही थे कि दोनों जमीन पर गिरकर बेहोश हो गए।
तेजसिंह और चपला की भी आपस में टकटकी बंधा गई। बेचारी चंपा कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता की यह दशा देख दौड़ी हुई दूसरे कमरे में गई और हाथ में बेदमुश्क के अर्क से भरी हुई सुराही और दूसरे हाथ में सूखी चिकनी मिट्टी का ढेला लेकर दौड़ी हुई आई।
दोनों के मुंह पर अर्क का छींटा दिया और थोड़ा - सा अर्क उस मिट्टी के ढेले पर डाल हलका लखलखा बनाकर दोनों को सुंघाया।
कुछ देर बाद तेजसिंह और चपला की भी टकटकी टूटी और ये भी कुमार और चंद्रकान्ता की हालत देख उनको होश में लाने की फिक्र करने लगे।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता दोनों होश में आए, दोनों एक - दूसरे की तरफ देखने लगे, मुंह से बात किसी के नहीं निकलती थी। क्या पूछें, कौन - सी शिकायत करें, किस जगह से बात उठावें, दोनों के दिल में यही सोच था। पेट से बात निकलती थी मगर गले में आकर रुक जाती थी, बातों की भरावट से गला फूलता था, दोनों की आंखें डबडबा आई थीं बल्कि आंसू की बूंदें बाहर गिरने लगीं।
घंटों बीत गये, देखा - देखी में ऐसे लीन हुए कि दोनों को तनोबदन की सुधा न रही। कहां हैं, क्या कर रहे हैं, सामने कौन है, इसका ख्याल तक किसी को नहीं।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता के दिल का हाल अगर कुछ मालूम है तो तेजसिंह और चपला को, दूसरा कौन जाने, कौन उनकी मुहब्बत का अंदाजा कर सके, सो वे दोनों भी अपने आपे में नहीं थे। हां, बेचारी चंपा इन लोगो का हद दर्जे तक पहुंचा हुआ प्रेम देखकर घबरा उठी, जी में सोचने लगी कि कहीं ऐसा न हो कि इसी देखा - देखी में इन लोगों का दिमाग बिगड़ जाय। कोई ऐसी तरकीब करनी चाहिए कि जिससे इनकी यह दशा बदले और आपस में बातचीत करने लगें। आखिर कुमारी का हाथ पकड़ चंपा बोली -
"कुमारी, तुम तो कहती थीं कि कुमार जिस रोज मिलेंगे उनसे पूछूंगी कि वनकन्या किसका नाम रखा था? वह कौन औरत है? उससे क्या वादा किया है? अब किसके साथ शादी करने का इरादा है? क्या वे सब बातें भूल गईं, अब इनसे न कहोगी?"
किसी तरह किसी की लौ तभी तक लगी रहती है जब तक कोई दूसरा आदमी किसी तरह की चोट उसके दिमाग पर न दे और उसके ध्यान को छेड़कर न बिगाड़े इसीलिये योगियों को एकांत में बैठना कहा है। कुंअर वीरेन्द्रसिंह और कुमारी चंद्रकान्ता की मुहब्बत बाजारू न थी, वे दोनों एक रूप हो रहे थे; दिल ही दिल में अपनी जुदाई का सदमा एक ने दूसरे से कहा और दोनों समझ गए मगर किसी पास वाले को मालूम न हुआ, क्योंकि जुबान दोनों की बंद थी। हां चंपा की बात ने दोनों को चौंका दिया, दोनों की चार आंखें जो मिल - जुलकर एक हो रही थीं हिल - डोलकर नीचे की तरफ हो गईं और सिर नीचा किए हुए दोनों कुछ - कुछ बोलने लगे। क्या जाने वे दोनों क्या बोलते थे और क्या समझते, उनकी वे ही जानें। बेसिर - पैर की टूटी - फूटी पागलों की - सी बातें कौन सुने, किसके समझ में आए। न तो कुमारी चंद्रकान्ता को कुमार से शिकायत करते बनी और न कुमार उनकी तकलीफ पूछ सके।
वे दोनों पहरों आमने - सामने बैठे रहते तो शायद कहीं जुबान खुलती, मगर यहां दो घंटे बाद सिद्धनाथ योगी ने दोनों को फिर अलग कर दिया। लौंडी ने बाहर से आकर कहा, "कुमार, आपको सिद्धनाथ बाबाजी ने बहुत जल्द बुलाया है, चलिए देर मत कीजिए।"
कुमार की यह मजाल न थी कि सिद्धनाथ योगी की बात टालते, घबराकर उसी वक्त चलने को तैयार हो गए। दोनों के दिल की दिल ही में रह गई।
कुमारी चंद्रकान्ता को उसी तरह छोड़ कुमार उठ खड़े हुए, कुमारी को कुछ कहा ही चाहते थे, तब तक दूसरी लौंडी ने पहुंचकर जल्दी मचा दी। आखिर कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस कमरे के बाहर आए। दूर से सिद्धनाथ बाबा दिखाई पड़े जिन्होंने कुमार को अपने पास बुलाकर कहा -
"कुमार, हमने तुमको यह नहीं कहा था कि दिन भर चंद्रकान्ता के पास बैठे रहो। दोपहर हुआ चाहती है, जिन लोगों को खोह के बाहर छोड़ आए हो वे बेचारे तुम्हारी राह देखते होंगे।"
कुमार - (सूरज की तरफ देखकर) जी हां दिन तो...
बाबा - दिन तो क्या?
कुमार - (सकपकाये से होकर) देर तो जरूर कुछ हो गई, अब हुक्म हो तो जाकर अपने पिता और महाराज जयसिंह को जल्दी से ले आऊं?
बाबा - हां जाओ उन लोगों को यहां ले आओ। मगर मेरी तरफ से दोनों राजाओं को कह देना कि इस खोह के अंदर उन्हीं लोगों को अपने साथ लायें जो कुमारी चंद्रकान्ता को देख सकें या जिसके सामने वह हो सके।
कुमार - बहुत अच्छा।
बाबा - जाओ अब देर न करो।
कुमार - प्रणाम करता हूं।
बाबा - इसकी कोई जरूरत नहीं, क्योंकि आज ही तुम फिर लौटोगे।
तेज - दण्डवत।
बाबा - तुमको तो जन्म भर दण्डवत करने का मौका मिलेगा, मगर इस वक्त इस बात का ख्याल रखना कि तुम लोगों की जबानी कुमारी से मिलने का हालखोह के बाहर वाले न सुनें और आती वक्त अगर दिन थोड़ा रहे तो आज मत आना।
तेज - जी नहीं हम लोग क्यों कहने लगे!
बाबा - अच्छा जाओ।
दोनों आदमी सिद्धनाथ बाबा से बिदा हो उसी मालूमी राह से घूमते - फिरते खोह के बाहर आए।
बयान - 18
दिन दोपहर से कुछ ज्यादे जा चुका था। उस वक्त तक कुमार ने स्नान - पूजा कुछ नहीं की थी।
लश्कर में जाकर कुमार राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह से मिले और सिद्धनाथ योगी का संदेशा दिया। दोनों ने पूछा कि बाबाजी ने तुमको सबसे पहले क्यों बुलाया था? इसके जवाब में जो कुछ मुनासिब समझा कहकर दोनों अपने - अपने डेरे में आए और स्नान - पूजा करके भोजन किया।
राजा सुरेन्द्रसिंह तथा महाराज जयसिंह एकांत में बैठकर इस बात की सलाह करने लगे कि हम लोग अपने साथ किस - किस को खोह के अंदर ले चलें।
सुरेन्द्र - योगीजी ने कहला भेजा है कि उन्हीं लोगों को अपने साथ खोह में लाओ जिनके सामने कुमारी हो सके।
जयसिंह - हम, आप, कुमार और तेजसिंह तो जरूर ही चलेंगे। बाकी जिस - जिसको आप चाहें ले चलें।
सुरेन्द्र - बहुत आदमियों को साथ ले चलने की कोई जरूरत नहीं हां, ऐयारों को जरूर ले चलना चाहिए क्योंकि इन लोगों से किसी किस्म का पर्दा रह नहीं सकता, बल्कि ऐयारों से पर्दा रखना ही मुनासिब नहीं।
जयसिंह - आपका कहना ठीक है, इन ऐयारों के सिवाय और कोई इस लायक नहीं कि जिसे अपने साथ खोह में ले चलें!
बातचीत और राय पक्की करते दिन थोड़ा रह गया, सुरेन्द्रसिंह ने तेजसिंह को उसी जगह बुलाकर पूछा कि "यहां से चलकर बाबाजी के पास पहुंचने तक राह में कितनी देर लगती है?" तेजसिंह ने जवाब दिया, "अगर इधर - उधर ख्याल न करके सीधो ही चले चलें तो पांच - छ: घड़ी में उस बाग तक पहुंचेंगे जिसमें बाबाजी रहते हैं, मगर मेरी राय इस वक्त वहां चलने की नहीं है क्योंकि दिन बहुत थोड़ा रह गया है और इस खोह में बड़े बेढब रास्ते से चलना होगा। अगर अंधेरा हो गया तो एक कदम आगे चल नहीं सकेंगे।"
कुमारी को देखने के लिए महाराज जयसिंह बहुत घबरा रहे थे मगर इस वक्त तेजसिंह की राय उनको कबूल करनी पड़ी और दूसरे दिन सुबह को खोह में चलने की ठहरी।
बयान - 19
बहुत सबेरे महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह और कुमार अपने कुल ऐयारों को साथ ले खोह के दरवाजे पर आये। तेजसिंह ने दोनों ताले खोले जिन्हें देख महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह बहुत हैरान हुए। खोह के अंदर जाकर तो इन लोगों की और ही कैफियत हो गयी, ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखते और तारीफ करते थे।
घुमाते - फिराते कई ताज्जुब की चीजों को दिखाते और कुछ हाल समझाते, सबों को साथ लिए हुए तेजसिंह उस बाग के दरवाजे पर पहुंचे जिसमें सिद्धनाथ रहते थे। इन लोगों के पहुंचने के पहले ही से सिद्धनाथ इस्तकबाल (अगुवानी) के लिए द्वार पर मौजूद थे।
तेजसिंह ने महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह को उंगली के इशारे से बताकर कहा, "देखिये सिद्धनाथ बाबा दरवाजे पर खड़े हैं।"
दोनों राजा चाहते थे कि जल्दी से पास पहुंचकर बाबाजी को दण्डवत करें मगर इसके पहले ही बाबाजी ने पुकारकर कहा, "खबरदार, मुझे कोई दण्डवत न करना नहीं तो पछताओगे और मुलाकात भी न होगी।"
इरादा करते रह गये, किसी की मजाल न हुई कि दण्डवत करता। महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह हैरान थे कि बाबाजी ने दण्डवत करने से क्यों रोका। पास पहुंचकर हाथ मिलाना चाहा, मगर बाबाजी ने इसे भी मंजूर न करके कहा, "महाराज, मैं इस लायक नहीं, आपका दर्जा मुझसे बहुत बड़ा है।"
सुरेन्द्र - साधुओं से बढ़कर किसी का दर्जा नहीं हो सकता।
बाबाजी - आपका कहना बहुत ठीक है, मगर आपको मालूम नहीं कि मैं किस तरह का साधु हूं।
सुरेन्द्र - साधु चाहे किसी तरह का हो पूजने ही योग्य है।
बाबाजी - किसी तरह का हो, मगर साधु हो तब तो!
सुरेन्द्र - तो आप कौन हैं?
बाबाजी - कोई भी नहीं।
जय - आपकी बातें ऐसी हैं कि कुछ समझ ही में नहीं आतीं और हर बात ताज्जुब, तरद्दुद, सोच और घबराहट बढ़ाती है।
बाबाजी - (हंसकर) अच्छा आइये इस बाग में चलिए।
सबों को अपने साथ लिए सिद्धनाथ बाग के अंदर गये।
पाठक, घड़ी - घड़ी बाग की तारीफ करना तथा हर एक गुल - बूटे और पत्तियों की कैफियत लिखना मुझे मंजूर नहीं, क्योंकि इस छोटे से ग्रंथ को शुरू से इस वक्त तक मुख्तसर ही में लिखता चला आया हूं। सिवाय इसके इस खोह के बाग कौन बड़े लंबे - चौड़े हैं जिनके लिए कई पन्ने कागज के बरबाद किए जाएं, लेकिन इतना कहना जरूरी है कि इस खोह में जितने बाग हैं चाहे छोटे भी हो मगर सभी की सजावट अच्छी है और फूलों के सिवाय पहाड़ी खुशनुमा पत्तियों की बहार कहीं बढ़ी - चढ़ी है।
महाराज जयसिंह, राजा सुरेन्द्रसिंह, कुमार वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को साथ लिए घूमते हुए बाबाजी उसी दीवानखाने में पहुंचे जिसमें कुमारी का दरबार कुमार ने देखा था बल्कि ऐसा क्यों नहीं कहते कि अभी कल ही जिस कमरे में कुमार खास कुमारी चंद्रकान्ता से मिले थे।
जिस तरह की सजावट आज इस दीवानखाने की है, इसके पहले कुमार ने नहीं देखी थी। बीच में एक कीमती गद्दी बिछी हुई थी, बाबाजी ने उसी पर राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और कुंअर वीरेन्द्रसिंह को बिठाकर उनके दोनों तरफ दर्जे - ब - दर्जे ऐयारों को बैठाया और आप भी उन्हीं लोगों के सामने एक मृगछाला पर बैठ गये जो पहले ही बिछा हुआ था, इसके बाद बातचीत होने लगी।
बाबाजी - (महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर) आप लोग कुशल से तो हैं।
दोनों राजा - आपकी कृपा से बहुत आनंद है, और आज तो आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई।
बाबाजी - आप लोगों को यहां तक आने में तकलीफ हुई, उसे माफ कीजियेगा।
जयसिंह - यहां आने के ख्याल ही से हम लोगों की तकलीफ जाती रही। आपकी कृपा न होती और यहां तक आने की नौबत न पहुंचती तो न मालूम कब तक कुमारी चंद्रकान्ता के वियोग का दु:ख हम लोगों को सहना पड़ता।
बाबा - (मुस्कराकर) अब कुमारी की तलाश में आप लोग तकलीफ न उठावेंगे।
जयसिंह - आशा है कि आज आपकी कृपा से कुमारी को जरूर देखेंगे।
बाबा - शायद किसी वजह से अगर आज कुमारी को देख न सकें तो कल जरूर आप लोग उससे मिलेंगे। इस वक्त आप लोग स्नान - पूजा से छुट्टी पाकर कुछ भोजन कर लें, तब हमारे आपके बीच बातचीत होगी।
बाबाजी ने एक लौंडी को बुलाकर कहा कि "हमारे मेहमान लोगों के नहाने का सामान उस बाग में दुरुस्त करो जिसमें बावली है।"
बाबाजी सबों को लिए उस बाग में गये जिसमें बावली थी। उसी में सबों ने स्नान किया और उत्तार तरफ वाले दलान में भोजन करने के बाद उस कमरे में बैठे जिसमें कुंअर वीरेन्द्रसिंह की आंख खुली थी। आज भी वह कमरा वैसा ही सजा हुआ है जैसा पहले दिन कुमार ने देखा था, हां इतना फर्क है कि आज कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर उसमें नहीं है।
जब सब लोग निश्चित होकर बैठे तब राजा सुरेन्द्रसिंह ने सिद्धनाथ योगी से पूछा:
"यह खूबसूरत पहाड़ी जिसमें छोटे - छोटे कई बाग हैं हमारे ही इलाके में है, मगर आज तक कभी इसे देखने की नौबत नहीं पहुंची। क्या इस बाग से ऊपर - ही - ऊपर कोई और रास्ता भी बाहर जाने का है?"
बाबा - इसकी राह गुप्त होने के सबब से यहां कोई आ नहीं सकता था, हां जिसे इस छोटे से तिलिस्म की कुछ खबर है वह शायद आ सके। एक रास्ता तो इसका वही है जिससे आप आये हैं, दूसरी राह बाहर आने - जाने की इस बाग में से है, लेकिन वह उससे भी ज्यादे छिपी हुई है।
सुरेन्द्र - आप कब से इस पहाड़ी में रह रहे हैं।
बाबाजी - मैं बहुत थोड़े दिनों से इस खोह में आया हूं सो भी अपनी खुशी से नहीं आया, मालिक के काम से आया हूं।
सुरेन्द्र - (ताज्जुब से) आप किसके नौकर हैं?
बाबाजी - यह भी आपको बहुत जल्दी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (सुरेन्द्रसिंह की तरफ इशारा करके) महाराज की जुबानी मालूम होता है कि यह दिलचस्प पहाड़ी चाहे इनके राज्य में हो मगर इन्हें इसकी खबर नहीं और यह जगह भी ऐसी नहीं मालूम होती जिसका कोई मालिक न हो, आप यहां के रहने वाले नहीं हैं तो इस दिलचस्प पहाड़ी और सुंदर - सुंदर मकानों और बागीचों का मालिक कौन है?
महाराज जयसिंह की बात का जवाब अभी सिद्धनाथ बाबा ने नहीं दिया था कि सामने से वनकन्या आती दिखाई पड़ी। दोनों बगल उसके दो सखियां और पीछे - पीछे दस - पंद्रह लौंडियों की भीड़ थी।
बाबा - (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस जगह की मालिक यही है।
सिद्धनाथ बाबा की बात सुनकर दोनों महाराज और ऐयार लोग ताज्जुब से वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक्त कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह भी हैरान हो वनकन्या की तरफ देख रहे थे। सिद्धनाथ की जुबानी यह सुनकर कि इस जगह की मालिक यही है, कुमार और तेजसिंह को पिछली बातें याद आ गईं। कुंअर वीरेन्द्रसिंह सिर नीचा कर सोचने लगे कि बेशक कुमारी चंद्रकान्ता इसी वनकन्या की कैद में है। वह बेचारी तिलिस्म की राह से आकर जब इस खोह में फंसी तब इन्होंने कैद कर लिया, तभी तो इस जोर की खत लिखी थी कि बिना हमारी मदद के तुम कुमारी चंद्रकान्ता को नहीं देख सकते, और उस दिन सिद्धनाथ बाबा ने भी यही कहा था कि जब यह चाहेगी तब चंद्रकान्ता से तुमसे मुलाकात होगी। बेशक कुमारी को इसी ने कैद किया है, हम इसे अपना दोस्त कभी नहीं कह सकते, बल्कि यह हमारी दुश्मन है क्योंकि इसने बेफायदे कुमारी चंद्रकान्ता को कैद करके तकलीफ में डाला और हम लोगों को भी परेशान किया।
नीचे मुंह किये इसी किस्म की बातें सोचते - सोचते कुमार को गुस्सा चढ़ आया और उन्होंने सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा।
कुमार के दिल में चंद्रकान्ता की मुहब्बत चाहे कितनी ही ज्यादा हो मगर वनकन्या की मुहब्बत भी कम न थी। हां इतना फर्क जरूर था कि जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता की याद में मग्न होते थे उस वक्त वनकन्या का ख्याल भी जी में नहीं आता था, मगर सूरत देखने से मुहब्बत की मजबूत फांसें गले में पड़ जाती थीं। इस वक्त भी उनकी यही दशा हुई। यह सोचकर कि कुमारी को इसने कैद किया है एकदम गुस्सा चढ़ आया मगर कब तक? जब तक कि जमीन की तरफ देखकर सोचते रहे, जहां सिर उठाकर वनकन्या की तरफ देखा, गुस्सा बिल्कुल जाता रहा, ख्याल ही दूर हो गये, पहले कुछ सोचा था अब कुछ और ही सोचने लगे :
"नहीं - नहीं, यह बेचारी हमारी दुश्मन नहीं है। राम - राम, न मालूम क्यों ऐसा ख्याल मेरे दिल में आ गया! इससे बढ़कर तो कोई दोस्त दिखाई ही नहीं देता। अगर यह हमारी मदद न करती तो तिलिस्म का टूटना मुश्किल हो जाता, कुमारी के मिलने की उम्मीद जाती रहती, बल्कि मैं खुद दुश्मनों के हाथ पड़ जाता।"
कुमार क्या सबो के ही दिल में एकदम यह बात पैदा हुई कि इस बाग और पहाड़ी की मालिक अगर यह है तो इसी ने कुमारी को भी कैद कर रखा होगा। आखिर महाराज जयसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखकर पूछा :
"बेचारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसकर इन्हीं की कैद में पड़ गई होगी?"
बाबा - नहीं, जिस वक्त कुमारी चंद्रकान्ता इस खोह में फंसी थी उस वक्त यहां का मालिक कोई न था, उसके बाद यह पहाड़ी बाग और मकान इनको मिला है।
सिद्धनाथ बाबा की इस दूसरी बात ने और भ्रम में डाल दिया, यहां तक कि कुमार का जी घबराने लगा। अगर महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह यहां न होते तो जरूर कुमार चिल्ला उठते, मगर नहीं - शर्म ने मुंह बंद कर दिया और गंभीरता ने दोनों मोढ़ों पर हाथ धारकर नीचे की तरफ दबाया!
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह से न रहा गया, सिद्धनाथ की तरफ देखा और गिड़गिड़ाकर बोले, "आप कृपा कर के पेचीली और बहुत से मानी पैदा करने वाली बातों को छोड़ दीजिए और साफ कहिए कि यह लड़की जो सामने खड़ी है कौन है, यह पहाड़ी इसे किसने दी और चंद्रकान्ता कहां है?"
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह की बात सुनकर बाबाजी मुस्कुराने लगे और वनकन्या की तरफ देख इशारे से उसे अपने पास बुलाया। वनकन्या अपनी अगल - बगल वाली दोनों सखियों को जिनमें से एक की पोशाक सुर्ख और दूसरी की सब्ज थी, साथ लिए हुए सिद्धनाथ के पास आई। बाबाजी ने उसके चेहरे पर से एक झिल्ली जैसी कोई चीज जो तमाम चेहरे के साथ चिपकी हुई थी खींच ली और हाथ पकड़कर महाराज जयसिंह के पैर पर डाल दिया और कहा, "लीजिए यही आपकी चंद्रकान्ता है!"
चेहरे पर की झिल्ली उतर जाने से सबो ने कुमारी चंद्रकान्ता को पहचान लिया, महाराज जयसिंह पैर से उसका सिर उठाकर देर तक अपनी छाती से लगाये रहे और खुशी से गद्गद् हो गए।
सिद्धनाथ योगी ने उसकी दोनों सखियों के मुंह पर से भी झिल्ली उतार दी! लाल पोशाक वाली चपला और सब्ज पोशाक वाली चंपा साफ पहचानी गईं।
मारे खुशी के सबो का चेहरा चमक उठा, आज की - सी खुशी कभी किसी ने नहीं पाई थी। महाराज जयसिंह के इशारे से कुमारी चंद्रकान्ता ने राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर सिर रखा, उन्होंने उसका सिर उठाकर सूंघा।
घंटों तक मारे खुशी के सबों की अजब हालत रही। कुंअर वीरेन्द्रसिंह की दशा तो लिखनी ही मुश्किल है। अगर सिद्धनाथ योगी इनको पहले ही कुमारी से न मिलाये रहते तो इस समय इनको शर्म और हया कभी न दबा सकती, जरूर कोई बेअदबी हो जाती।
महाराज जयसिंह की तरफ देखकर सिद्धनाथ बाबा बोले, "आप कुमारी को हुक्म दीजिए कि अपनी सखियों के साथ घूमे - फिरे या दूसरे कमरे में चली जाय और आप लोग इस पहाड़ी और कुमारी का विचित्र हाल मुझसे सुनें।"
जयसिंह - बहुत दिनों के बाद इसकी सूरत देखी है, अब कैसे अपने से अलग करूं, कहीं ऐसा न हो कि फिर कोई आफत आए और इसको देखना मुश्किल हो जाय।
बाबा - (हंसकर) नहीं, नहीं, अब यह आपसे अलग नहीं हो सकती।
जयसिंह - खैर जो हो, इसे मुझसे अलग मत कीजिए और कृपा करके इसका हाल शुरू से कहिए।
बाबा - अच्छा, जैसी आपकी मर्जी।
बयान - 20
महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर सिद्धनाथ बाबा ने इस दिलचस्प पहाड़ी और कुमारी चंद्रकान्ता का हाल कहना शुरू किया।
बाबाजी - मुझे मालूम था कि यह पहाड़ी एक छोटा - सा तिलिस्म है और चुनार के इलाके में भी कोई तिलिस्म है। जिसके हाथ से वह तिलिस्म टूटेगा उसकी शादी जिसके साथ होगी उसी के दहेज के सामान पर यह तिलिस्म बंधा है और शादी होने के पहले ही वह इसकी मालिक होगी।
सुरेन्द्र - पहले यह बताइए कि तिलिस्म किसे कहते हैं और वह कैसे बनाया जाता है?
बाबा - तिलिस्म वही शख्स तैयार कराता है जिसके पास बहुत माल - खजाना हो और वारिस न हो। तब वह अच्छे - अच्छे ज्योतिषी और नजूमियों से दरियाफ्त करता है कि उसके या उसके भाइयों के खानदान में कभी कोई प्रतापी या लायक पैदा होगा या नहीं? आखिर ज्योतिषी या नजूमी इस बात का पता देते हैं कि इतने दिनों के बाद आपके खानदान में एक लड़का प्रतापी होगा, बल्कि उसकी एक जन्म लिखकर तैयार कर देते हैं। उसी के नाम से खजाना और अच्छी - अच्छी कीमती चीजों को रखकर उस पर तिलिस्म बांधाते हैं।
आजकल तो तिलिस्म बांधाने का यह कायदा है कि थोड़ा - बहुत खजाना रखकर उसकी हिफाजत के लिए दो - एक बलि दे देते हैं, वह प्रेत या सांप होकर उसकी हिफाजत करता है और कहे हुए आदमी के सिवाय दूसरे को एक पैसा लेने नहीं देता, मगर पहले यह कायदा नहीं था। पुराने जमाने के राजाओं को जब तिलिस्म बांधाने की जरूरत पड़ती थी तो बड़े - बड़े ज्योतिषी, नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग इकट्ठे किए जाते थे। उन्हीं लोगों के कहे मुताबिक तिलिस्म बांधाने के लिए जमीन खोदी जाती थी, उसी जमीन के अंदर खजाना रखकर ऊपर तिलिस्मी इमारत बनायी जाती थी। उसमें ज्योतिषी,नजूमी, वैद्य, कारीगर और तांत्रिक लोग अपनी ताकत के मुताबिक उसके छिपाने की बंदिश करते थे मगर साथ ही इसके उस आदमी के नक्षत्र और ग्रहों का भी ख्याल रखते थे जिसके लिए वह खजाना रखा जाता था। कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने एक छोटा - सा तिलिस्म तोड़ा है, उनकी जुबानी आप वहां का हाल सुनिए और हर एक बात को खूब गौर से सोचिए तो आप ही मालूम हो जायगा कि ज्योतिषी, नजूमी, कारीगर और दर्शन - शास्त्र के जानने वाले क्या काम कर सकते थे।
जयसिंह - खैर इसका हाल कुछ - कुछ मालूम हो गया, बाकी कुमार की जुबानी तिलिस्म का हाल सुनने और गौर करने से मालूम हो जायगा। अब आप इस पहाड़ी और मेरी लड़की का हाल कहिए और यह भी कहिए कि महाराज शिवदत्त इस खोह से क्योंकर निकल भागे और फिर क्योंकर कैद हो गये?
बाबा - सुनिए मैं बिल्कुल हाल आपसे कहता हूं। जब कुमारी चंद्रकान्ता चुनार के तिलिस्म में फंसकर इस खोह में आईं तो दो दिनों तक तो इस बेचारी ने तकलीफ से काटा। तीसरे रोज खबर लगने पर मैं यहां पहुंचा और कुमारी को उस जगह से छुड़ाया जहां वह फंसी हुई थी और जिसको मैं आप लोगों को दिखाऊंगा।
सुरेन्द्र - सुनते हैं तिलिस्म तोड़ने में ताकत की भी जरूरत पड़ती है?
बाबा - यह ठीक है, मगर इस तिलिस्म में कुमारी को कुछ भी तकलीफ न हुई और न ताकत की जरूरत पड़ी, क्योंकि इसका लगाव उस तिलिस्म से था जिसे कुमार ने तोड़ा है। वह तिलिस्म या उसके कुछ हिस्से अगर न टूटते तो यह तिलिस्म भी न खुलता।
कुमार - (सिद्धनाथ की तरफ देखकर) आपने यह तो कहा ही नहीं कि कुमारी के पास किस राह से पहुंचे? हम लोग जब इस खोह में आए थे और कुमारी को बेबस देखा था तब बहुत सोचने पर भी कोई तरकीब ऐसी न मिली थी जिससे कुमारी के पास पहुंचकर इन्हें उस बला से छुड़ाते।
बाबा - सिर्फ सोचने से तिलिस्म का हाल नहीं मालूम हो सकता है। मैं भी सुन चुका था कि इस खोह में कुमारी चंद्रकान्ता फंसी पड़ी है और आप छुड़ाने की फिक्र कर रहे हैं मगर कुछ बन नहीं पड़ता। मैं यहां पहुंचकर कुमारी को छुड़ा सकता था लेकिन यह मुझे मंजूर न था, मैं चाहता था कि यहां का माल - असबाब कुमारी के हाथ लगे।
कुमार - आप योगी हैं, योगबल से इस जगह पहुंच सकते हैं, मगर मैं क्या कर सकता था।
बाबा - आप लोग इस बात को बिल्कुल मत सोचिए कि मैं योगी हूं, जो काम आदमी के या ऐयारों के किए नहीं हो सकता उसे मैं भी नहीं कर सकता। मैं जिस राह से कुमारी के पास पहुंचा और जो - जो किया सो कहता हूं, सुनिए।
बयान - 21
सिद्धनाथ योगी ने कहा, "पहले इस खोह का दरवाजा खोल मैं इसके अंदर पहुंचा और पहाड़ी के ऊपर एक दर्रे में बेचारी चंद्रकान्ता को बेबस पड़े हुए देखा। अपने गुरु से मैं सुन चुका था कि इस खोह में कई छोटे - छोटे बाग हैं जिनका रास्ता उस चश्मे में से है जो खोह में बह रहा है, खोह के अंदर आने पर आप लोगों ने उसे जरूर देखा होगा, क्योंकि खो हमें उस चश्मे की खूबसूरती भी देखने के काबिल है।"
सिद्धनाथ की इतनी बात सुनकर सभी ने 'हूं हूं' कह के सिर हिलाया। इसके बाद सिद्धनाथ योगी कहने लगे -
सिद्ध - मैं लंगोटी बांधाकर चश्मे में उतर गया और इधर से उधर और उधर से इधर घूमने लगा। यकायक पूरब तरफ जल के अंदर एक छोटा - सा दरवाजा मालूम हुआ, गोता लगाकर उसके अंदर घुसा। आठ - दस हाथ तक बराबर जल मिला इसके बाद धीरे - धीरे जल कम होने लगा, यहां तक कि कमर तक जल हुआ। तब मालूम पड़ा कि यह कोई सुरंग है जिसमें चढ़ाई के तौर पर ऊंचे की तरफ चला जा रहा हूं।
आधा घंटा चलने के बाद मैंने अपने को इस बाग में (जिसमें आप बैठे हैं) पश्चिम और उत्तार के कोण में पाया और घूमता - फिरता इस कमरे में पहुंचा, (हाथ से इशारा करके) यह देखिए दीवार में जो अलमारी है, असल में वह अलमारी नहीं दरवाजा है, लात मारने से खुल जाता है। मैंने लात मारकर यह दरवाजा खोला और इसके अंदर घुसा। भीतर बिल्कुल अंधकार था, लगभग दो सौ कदम जाने के बाद दीवार मिली। इसी तरह यहां भी लात मारकर दरवाजा खोला और ठीक उसी जगह पहुंचा जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बेबस पड़ी रो रही थीं। मेरे बगल से ही एक दूसरा रास्ता उस चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को गया था, जिसके एक टुकड़े को कुमार ने तोड़ा है।
मुझे देखते ही ये दोनों घबरा गईं। मैंने कहा, "तुम लोग डरो मत, मैं तुम दोनों को छुड़ाने आया हूं।" यह कहकर जिस राह से मैं गया था, उसी राह से कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को साथ ले इस बाग में लौट आया। इतना हाल, इतनी कैफियत, इतना रास्ता तो मैं जानता था, इससे ज्यादे इस खोह का हाल मुझे कुछ भी मालूम न था। कुमारी और चपला को खोह के बाहर कर देना या घर पहुंचा देना मेरे लिए कोई बड़ी बात न थी, मगर मुझको यह मंजूर था कि यह छोटा - सा तिलिस्म कुमारी के हाथ से टूटे और यहां का माल - असबाब इनके हाथ लगे।
मैं क्या सभी कोई इस बात को जानते होंगे और सबो को यकीन होगा कि कुमारी चंद्रकान्ता को इस कैद से छुड़ाने के लिए ही कुमार चुनारगढ़ वाले तिलिस्म को तोड़ रहे थे, माल - खजाने की इनको लालच न थी। अगर मैं कुमारी को यहां से निकालकर आपके पास पहुंचा देता तो कुमार उस तिलिस्म को तोड़ना बंद कर देते और वहां का खजाना भी यों ही रह जाता। मैं आप लोगों की बढ़ती चाहने वाला हूं। मुझे यह कब मंजूर हो सकता था कि इतना माल - असबाब बरबाद जावे और कुमार या कुमारी चंद्रकान्ता को न मिले।
मैंने अपने जी का हाल कुमारी और चपला से कहा और यह भी कहा कि अगर मेरी बात न मानोगी तो तुम्हें इसी बाग में छोड़कर मैं चला जाऊंगा। आखिर लाचार होकर कुमारी ने मेरी बात मंजूर की और कसम खाई कि मेरे कहने के खिलाफ कोई काम न करेगी।
मुझे यह तो मालूम ही न था कि यहां का माल - असबाब क्यों कर हाथ लगेगा, और इस खजाने की ताली कहां है, मगर यह यकीन हो गया कि कुमारी जरूर इस तिलिस्म की मालिक होगी। इसी फिक्र में दो रोज तक परेशान रहा। इन बागीचों की हालत बिल्कुल खराब थी, मगर दो - चार फलों के पेड़ ऐसे थे कि हम तीनों ने तकलीफ न पाई।
तीसरे दिन पूर्णिमा थी। मैं उस बावली के किनारे बैठा कुछ सोच रहा था, कुमारी और चपला इधर - उधर टहल रही थीं, इतने में चपला दौड़ी हुई मेरे पास आई और बोली, "जल्दी चलिए, इस बाग में एक ताज्जुब की बात दिखाई पड़ी है।"
मैं सुनते ही खड़ा हुआ और चपला के साथ वहां गया जहां कुमारी चंद्रकान्ता पूरब की दीवार तले खड़ी गौर से कुछ देख रही थी। मुझे देखते ही कुमारी ने कहा, "बाबाजी, देखिए इस दीवार की जड़ में एक सूराख है जिसमें से सफेद रंग की बड़ी - बड़ी चिउंटियां निकल रही हैं! यह क्या मामला है?"
मैंने अपने ओस्ताद से सुना था कि सफेद चिउंटियां जहां नजर पड़ें समझना कि वहां जरूर कोई खजाना या खजाने की ताली है। यह ख्याल करके मैंने अपनी कमर से खंजर निकाल कुमारी के हाथ में दे दिया और कहा कि तुम इस जमीन को खोदो। अस्तु मेरे कहे मुताबिक कुमारी ने उस जमीन को खोदा। हाथ ही भर के बाद कांच की छोटी - सी हांडी निकली जिसका मुंह बंद था। कुमारी के ही हाथ से वह हांडी मैंने तोड़वाई। उसके भीतर किसी किस्म का तेल भरा हुआ था जो हांडी टूटते ही बह गया और ताली का एक गुच्छा उसके अंदर से मिला जिसे पाकर मैं बहुत खुश हुआ।
दूसरे दिन कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ में ताली का गुच्छा देकर मैंने कहा, "चारों तरफ घूम - घूमकर देखो, जहां ताला नजर पड़े, इन तालियों में से किसी ताली को लगाकर खोलो, मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं।"
मुख्तसर ही में बयान करके इस बात को खत्म करता हूं। उस गुच्छे में तीस तालियां थीं, कई दिनों में खोजकर हम लोगों ने तीसों ताले खोले। तीन दरवाजे तो ऐसे मिले, जिनसे हम लोग ऊपर - ऊपर इस तिलिस्म के बाहर हो जायं। चार बाग और तेईस कोठरियां असबाब और खजाने की निकलीं जिसमें हर एक किस्म का अमीरी का सामान और बेहद खजाना मौजूद था।
जब ऊपर ही ऊपर तिलिस्म से बाहर हो जाने का रास्ता मिला, तब मैं अपने घर गया और कई लौंडियां और जरूरी चीजें कुमारी के वास्ते लेकर फिर यहां आया।कई दिनों में यहां के सब ताले खोले गये, तब तक यहां रहते - रहते कुमारी की तबीयत घबड़ा गई, मुझसे कई दफे उन्होंने कहा कि "मैं इस तिलिस्म के बाहर घूमा - फिरा चाहती हूं।"
बहुत जिद करने पर मैंने इस बात को मंजूर किया। अपनी कारीगरी से इन लोगों की सूरत बदली और दो - तीन घोड़े भी ला दिये जिन पर सवार होकर ये लोग कभी - कभी तिलिस्म के बाहर घूमने जाया करतीं। इस बात की ताकीद कर दी थी कि अपने को छिपाये रहें जिससे कोई पहचानने न पावे। इन्होंने भी मेरी बात पूरे तौर पर मानी और जहां तक हो सका अपने को छिपाया। इस बीच में धीरे –धीरे में इन बागों की भी दुरुस्ती की गई।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म का खजाना हासिल किया और यहां का माल - असबाब जो कुछ छिपा था कुमारी को मिल गया। (जयसिंह की तरफ देखकर) आज तक यह कुमारी चंद्रकान्ता मेरी लड़की या मालिक थी, अब आपकी जमा आपके हवाले करता हूं।
महाराज शिवदत्त की रानी पर रहम खाकर कुमारी ने दोनों को छोड़ दिया था और इस बात की कसम खिला ली थी कि कुमार से किसी तरह की दुश्मनी न करेंगे। मगर उस दुष्ट ने न माना, पुराने साथियों से मुलाकात होने पर बदमाशी पर कमर बांधी और कुमार के पीछे लश्कर की तबाही करने लगा। आखिर लाचार होकर मैंने उसे गिरफ्तार किया और इस खोह में उसी ठिकाने फिर ला रखा जहां कुमार ने उसे कैद करके डाल दिया था। अब और जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं सब हाल कह आप लोगों की शंका मिटाऊं।
सुरेन्द्र - पूछने को तो बहुत - सी बातें थीं मगर इस वक्त इतनी खुशी हुई है कि वे तमाम बातें भूल गया हूं, क्या पूछूं? खैर फिर किसी वक्त पूछ लूंगा। कुमारी की मदद आपने क्यों की?
जयसिंह - हां यही सवाल मेरा भी है, क्योंकि आपका हाल जब तक नहीं मालूम होता तबीयत की घबड़ाहट नहीं मिटती, तिस पर आप कई दफे कह चुके हैं कि 'मैं योगी महात्मा नहीं हूं' यह सुनकर हम लोग और भी घबड़ा रहे हैं कि अगर आप वह नहीं हैं जो सूरत से जाहिर है तो फिर कौन हैं!
बाबा - खैर यह भी मालूम हो जायगा।
जयसिंह - (कुमारी चंद्रकान्ता की तरफ देखकर) बेटी, क्या तुम भी नहीं जानतीं कि यह योगी कौन हैं?
चंद्रकान्ता - (हाथ जोड़कर) मैं तो सब - कुछ जानती हूं मगर कहूं क्यों कर! इन्होंने तो मुझसे सख्त कसम खिला ली है, इसी से मैं कुछ भी नहीं कह सकती!
बाबा - आप जल्दी क्यों करते हैं! अभी थोड़ी देर में मेरा हाल भी आपको मालूम हो जायगा, पहले चलकर उन चीजों को तो देखिए जो कुमारी चंद्रकान्ता को इस तिलिस्म से मिली हैं।
जयसिंह - जैसी आपकी मर्जी।
बाबाजी उसी वक्त उठ खड़े हुए और सबो को साथ ले दूसरे बाग की तरफ चले।
बयान - 22
बाबाजी यहां से उठकर महाराज जयसिंह वगैरह को साथ ले दूसरे बाग में पहुंचे और वहां घूम - फिरकर तमाम बाग, इमारत, खजाना और सब असबाबों को दिखाने लगे जो इस तिलिस्म में से कुमारी ने पाया था।
महाराज जयसिंह उन सब चीजों को देखते ही एकदम बोल उठे, "वाह - वाह, धन्य थे वे लोग जिन्होने इतनी दौलत इकट्ठी की थी। मैं अपना बिल्कुल राज्य बेचकर भी अगर इस तरह के दहेज का सामान इकट्ठा करना चाहता तो इसका चौथाई भी न कर सकता!!"
सबसे ज्यादा खजाना और जवाहिरखाना उस बाग और दीवानखाने के तहखाने में नजर पड़ा जहां कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर का दरबार देखा था।
तीसरे और चौथे भाग के शुरू में पहाड़ी बाग, कोठरियों और रास्ते का कुछ हाल हम लिख चुके हैं। दो - तीन दिनों में सिद्ध बाबा ने इन लोगों को उन जगहों की पूरी सैर कराई। जब इन सब कामों से छुट्टी मिली और सब कोई दीवानखाने में बैठे उस वक्त महाराज जयसिंह ने सिद्ध बाबा से कहा :
"आपने जो कुछ मदद कुमारी चंद्रकान्ता की करके उसकी जान बचाई, उसका एहसान तमाम उम्र हम लोगों के सिर रहेगा। आज जिस तरह हो आप अपना हाल कहकर हम लोगों के तरद्दुद को दूर कीजिए, अब सब्र नहीं किया जाता।"
महाराज जयसिंह की बात सुन सिद्ध बाबा मुस्कराकर बोले, "मैं भी अपना हाल आप लोगों पर जाहिर करता हूं जरा सब्र कीजिए।" इतना कहकर जोर से जफील (सीटी) बजाई। उसी वक्त तीन - चार लौंडियां दौड़ती हुई आकर उनके पास खड़ी हो गईं। सिद्धनाथ बाबा ने हुक्म दिया, "हमारे नहाने के लिए जल और पहिरने के लिए असली कपड़ों का संदूक (उंगली का इशारा करके) इस कोठरी में लाकर जल्द रखो। आज मैं इस मृगछाले और लंबी दाढ़ी को इस्तीफा दूंगा।"
थोड़ी ही देर में सिद्ध बाबा के हुक्म की तामील हो गई। तब तक इधर - उधर की बातें होती रहीं। इसके बाद सिद्ध बाबा उठकर उस कोठरी में चले गए जिसमें उनके नहाने का जल और पहिरने के कपड़े रखे हुए थे।
थोड़ी ही देर बाद नहा - धो और कपड़े पहिर सिद्ध बाबा उस कोठरी के बाहर निकले। अब तो इनको सिद्ध बाबा कहना मुनासिब नहीं, आज तक बाबाजी कह चुके बहुत कहा, अब तो तेजसिंह के बाप जीतसिंह कहना ठीक है।
अब पूछने या हाल - चाल मालूम करने की फुरसत कहां! महाराज सुरेन्द्रसिंह तो जीतसिंह को पहचानते ही उठे और यह कह के कि 'तुम मेरे भाई से भी हजार दर्जे बढ़ के हो' गले लगा लिया और कहा, "जब महाराज शिवदत्त और कुमार से लड़ाई हुई तब तुमने सिर्फ पांच सौ सवार लेकर कुमार की मदद की थी। आज तो तुमने कुमार से भी बढ़कर नाम पैदा किया और पुश्तहापुश्त के लिए नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों राज्यों के ऊपर अपने अहसान का बोझ रखा!" देर तक गले लगाए रहे, इसके बाद महाराज जयसिंह ने भी उन्हें बराबरी का दर्जा देकर गले लगाया। तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने भी बड़ी खुशी से पूजा की।
अब मालूम हुआ कि कुमारी चंद्रकान्ता की जान बचाने वाले, नौगढ़ और विजयगढ़ दोनों की इज्जत रखने वाले, दोनों राज्यों की तरक्की करने वाले,आज तक अच्छे - अच्छे ऐयारों को धोखे में डालने वाले, कुंअर वीरेन्द्रसिंह को धोखे में डालकर विचित्र तमाशा दिखाने वाले, पहाड़ी से कूदते हुए कुमार को रोककर जान बचाने और चुनार राज्य में फतह का डंका बजाने वाले सिद्धनाथ योगी बने हुए यही महात्मा जीतसिंह थे।
इस वक्त की खुशी का क्या अंदाजा है। अपने - अपने में सब ऐसे मग्न हो रहे हैं कि त्रिवन की संपत्ति की तरफ हाथ उठाने को जी नहीं चाहता। कुंअर वीरेन्द्रसिंह को कुमारी चंद्रकान्ता से मिलने की खुशी जैसी भी थी आप खुद ही सोच - समझ सकते हैं, इसके सिवाय इस बात की खुशी बेहद हुई कि सिद्धनाथ का अहसान किसी के सिर न हुआ, या अगर हुआ तो जीतसिंह का, सिद्धनाथ बाबा तो कुछ थे ही नहीं।
इस वक्त महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह का आपस में दिली प्रेम कितना बढ़ - चढ़ रहा है वे ही जानते होंगे। कुमारी चंद्रकान्ता को घर ले जाने के बाद शादी के लिए खत भेजने की ताब किसे? जयसिंह ने उसी वक्त कुमारी चंद्रकान्ता के हाथ पकड़ के राजा सुरेन्द्रसिंह के पैर पर डाल दिया और डबडबाई आंखों को पोंछकर कहा, "आप आज्ञा कीजिए कि इस लड़की को मैं अपने घर ले जाऊं और जात - बेरादरी तथा पंडित लोगों के सामने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की लौंडी बनाऊं।"
राजा सुरेन्द्रसिंह ने कुमारी को अपने पैर से उठाया और बड़ी मुहब्बत के साथ महाराज जयसिंह को गले लगाकर कहा, "जहां तक जल्दी हो सके आप कुमारी को लेकर विजयगढ़ जायं क्योंकि इसकी मां बेचारी मारे गम के सूखकर कांटा हो रही होगी!"
इसके बाद महाराज सुरेन्द्रसिंह ने पूछा, "अब क्या करना चाहिए?"
जीत -अब सबों को यहां से चलना चाहिए, मगर मेरी समझ में यहां से माल - असबाब और खजाने को ले चलने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि अव्वल तो यह माल - असबाब सिवाय कुमारी चंद्रकान्ता के किसी के मतलब का नहीं, इसलिए कि दहेज का माल है, इसकी तालियां भी पहले से ही इनके कब्जे में रही हैं, यहां से उठाकर ले जाने और फिर इनके साथ भेजकर लोगों को दिखाने की कोई जरूरत नहीं, दूसरे यहां की आबोहवा कुमारी को बहुत पसंद है, जहां तक मैं समझता हूं, कुमारी चंद्रकान्ता फिर यहां आकर कुछ दिन जरूर रहेंगी, इसलिए हम लोगों को यहां से खाली हाथ सिर्फ कुमारी चंद्रकान्ता को लेकर बाहर होना चाहिए।
बहादुर और पूरे ऐयार जीतसिंह की राय को सबों ने पसंद किया और वहां से बाहर होकर नौगढ़ और विजयगढ़ जाने के लिए तैयार हुए।
जीतसिंह ने कुल लौंडियों को जिन्हें कुमारी की खिदमत के लिए वहां लाए थे, बुला के कहा, "तुम लोग अपने - अपने चेहरे को साफ करके असली सूरत में उस पालकी को लेकर जल्द यहां आओ जो कुमारी के लिए मैंने पहले से मंगा रखी है।"
जीतसिंह का हुक्म पाकर वे लौंडियां जो गिनती में बीस होंगी दूसरे बाग में चली गईं और थोड़ी ही देर बाद अपनी असली सूरत में एक निहायत उम्दा सोने की जड़ाऊ पालकी अपने कंधो पर लिये हाजिर हुईं।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह ने अब इन लौंडियों को पहचाना। तेजसिंह ने ताज्जुब में आकर कहा :
"वाह - वाह, अपने घर की लौंडियों को आज तक मैंने न पहचाना। मेरी मां ने भी यह भेद मुझसे न कहा!"
बयान - 23
जिस राह से कुंअर वीरेन्द्रसिंह वगैरह आया - जाया करते थे और महाराज जयसिंह वगैरह आये थे वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी - घोड़े या पालकी पर सवार होकर आए और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाजे तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मंगाई मगर दोनों महाराज और कुंअर वीरेन्द्रसिंह किस पर सवार होंगे अब वे सोचने लगे।
वहां खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाये गये थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मंगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।
उसी बाग के दक्खिन तरफ एक बड़ा फाटक था जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियां थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुंचे और उसकी दाहिनी आंख में उंगली डाली, साथ ही उसका पेट दो पल्ले की तरह खुल गया और बीच में चांदी का एक मुट्ठा नजर पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया। जैसे - जैसे मुट्ठा घुमाते थे तैसे - तैसे वह फाटक जमीन में घुसता जाता था, यहां तक कि तमाम फाटक जमीन के अंदर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्जी से भरा हुआ मैदान नजर पड़ा।
फाटक खुलने के बाद जीतसिंह फिर इन लोगों के पास आकर बोले, "इसी राह से हम लोग बाहर चलेंगे।"
दिन आधी घड़ी से ज्यादा न बीता होगा जब महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चंद्रकान्ता की पालकी आगे कर फाटक के बाहर हुए।
दोनों महाराजों के बीच में दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।
पहर भर चलने के बाद ये लोग उस लश्कर में पहुंचे जो खोह के दरवाजे पर उतरा हुआ था। रात भर उसी जगह रहकर सुबह को कूच किया। यहां से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहिर कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए मगर वे लौंडियां भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहां तक कि उनकी पालकी उठाकर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेन्द्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गयीं।
राजा सुरेन्द्रसिंह कुमार को साथ लिए हुए नौगढ़ पहुंचे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह पहले महल में जाकर अपनी मां से मिले और कुलदेवी की पूजा करके बाहर आये।
अब तो बड़ी खुशी से दिन गुजरने लगे, आठवें ही रोज महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुंचा और बड़ी धुमधाम से वीरेन्द्रसिंह को चढ़ाया गया।
पाठक! अब तो कुंअर वीरेन्द्रसिंह और चंद्रकान्ता का वृत्तात समाप्त ही हुआ समझिए। बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी। इस वक्त तक सब किस्से को मुख्तसर लिखकर सिर्फ बारात के लिए कई वर्क कागज के रंगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखा चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, केवड़े के जल से छिड़काव किया गया, दोनों तरफ बिल्लौरी हांडियां रोशन की गईं, इत्यादि। आप खुद ख्याल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक - माशूक की बारात किस धुमधाम की होगी, तिस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की एक - एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल - खजाना पाने की खुशी ने और दिमाग बढ़ा रखा था। मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसंद करता हूं कि अच्छी सायत में कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात बड़े धुमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।
बारात को मुख्तसर ही में लिखकर बला टाली मगर एक आखिरी दिल्लगी लिखे बिना जी नहीं मानता, क्योंकि वह पढ़ने के काबिल है।
विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी - चढ़ी थी। बारात पहुंचने के पहले ही समां बंधा हुआ था, अच्छी - अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रण्डियों से महफिल भरी हुई थी, मगर जिस वक्त बारात पहुंची अजब झमेला मचा।
बारात के आगे - आगे महाराज शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपेंच बांधो कमर से दोहरी तलवार लगाये, हाथ में झण्डा लिए, जनवासे के दरवाजे पर पहुंचे, इसके बाद धीरे - धीरे कुल जलूस पहुंचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर गए।
कुमार वीरेन्द्रसिंह का घोड़े से उतरकर जनवासे के अंदर जाना ही था कि बाहर हो - हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेजी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुंह से यही आवाज निकल रही है कि 'हमारी मदद को कोई न आवे, सब दूर से तमाशा देखें।' एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी - अभी सरपेंच बांधो हाथ में झण्डा लिए घोड़े पर सवार आए थे और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहिरे हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।
थोड़ी ही देर में हमारे शिवदत्त को (जो झण्डा उठाये घोड़े पर सवार आये थे) इतना मौका मिला कि कमर में से कमंद निकाल अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बांधा लिया और घसीटते हुए जनवासे के अंदर चले। पीछे - पीछे बहुत से आदमियों की भीड़ भी इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अंदर पहुंची।
हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहिरे हुए महाराज शिवद्त्त को एक खंभे के साथ खूब कसकर बांधा दिया और एक मशालची के हाथ से जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल लेकर उनके हाथ में थमा आप कुंवर वीरेन्द्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने का जड़ाऊ बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रखा था, उससे रूमाल तर करके हमारे महाराज ने अपना मुंह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपेंच वही, मगर सूरत तेजसिंह बहादुर की!!
अब तो मारे हंसी के पेट में बल पड़ने लगा। पाठक, आप तो इस दिल्लगी को खूब समझ गए होंगे, लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया तो मैं लिखे देता हूं।
हमारे तेजसिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपेंच (फतह का सरपेंच जो देवीसिंह लाए थे) बांधा झंडा ले कुमार की बारात के आगे - आगे चले थे, उधर असली महाराज शिवदत्त जो महाराज सुरेन्द्रसिंह से जान बचा तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गये थे कुंअर वीरेन्द्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आए। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खुटाई गई नहीं थी।
महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आये मगर आगे - आगे झंडा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गए कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रीपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को सम्हाल न सके, तलवार निकालकर लड़ ही गए। आखिर नतीजा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की शादी खुशी - खुशी कुमारी चंद्रकान्ता के साथ हो गई।
समाप्त