नैतिकता वनाम संग्राम
प्रदीप कुमार साह
कौआ और तोता दोनों मित्र पेड़ के एक डाली पर बैठे आपसी गपशप कर रहे थे. तभी उसी पेड़ के नीचे एक कुत्ता हाँफता हुआ आया. यह अपने दुम से जमीन के उस हिस्से की सफाई करने लगा जहाँ इसे बैठना था. कुत्ते का कार्य-व्यवहार देखकर तोता कौआ से कहा-"देखो, वह कितना नियमबद्घ है. काफी थका होने पर भी स्वच्छ्ता का कितना ध्यान रखता है."
"नियमबद्ध तो सभी पशु-पंक्षी होते हैं, किंतु वह तो नैतिकता, वफादारी और कर्तव्य-परायणता की प्रतिमूर्ति है."कौआ बोला.
"पशु-पंक्षियों में और भी कोई जीव हैं जिसे स्वच्छ्ता का महत्व पता है?" तोता को जिज्ञासा हुयी.
"वैसे जीव की कमी नही है जिसे स्वच्छ्ता पसंद हैं. भैंस और हाथी नित्य स्नान करते हैं, तुम्हें भोजन में स्वच्छता पसंद है और बिल्ली मौसी, उसे तो यह भी पता है कि मल-त्याग कहाँ करना चाहिए." यह कहते हुए कौआ उड़ चला.
"अरे मित्र, कहाँ जा रहे हो?" तोते ने आवाज दी. किंतु कौआ कुछ कहने के बजाय आगे बढ़ कर उस रास्ता से गुजरते एक राहगीर पर ऊपर से विष्टा त्याग कर दिया. राहगीर भी गुस्से में आकर कौआ पर ढ़ेला दे मारा. किंतु पहले से सतर्क कौआ भाग गया और दूसरे पेड़ पर जा बैठा. ढ़ेले का रुख अपनी तरफ देखकर तोता बेहद डर गया. अपने प्राण रक्षार्थ (बचाने) वह भी भागा. कौआ के पास जाकर उसने गुस्से में कहा,"मित्र, तुमने वह क्या किया?"
कौआ बोला-"मैंने प्रत्यक्ष प्रमाणित किया कि मुझे भी स्वच्छ्ता के अहसास हैं."
"क्या?"तोता बौखला गया.
"हाँ, यदि हम स्वयं सफाई करने में असमर्थ हैं तो वह आवश्य ही कर सकते हैं कि नियत स्थान अर्थात गंदी जगह अथवा कूड़ा के ढेर पर ही गंदगी डालें और स्वच्छता बनाये रखने में सहयोग करें."कौआ भोलेपन से जवाब दिया.
"तुम्हारा दिमाग फिर तो नहीं गये. वह मनुष्य था, कोई कूड़ा का ढेर नहीं. फिर मनुष्य-रूप में कई बार तो ईश्वर भी अवतार लिए." तोता गुस्से में बोला.
कौआ बोला-"समस्त योनी में नि:सन्देह मनुष्य योनी सर्वश्रेष्ठ है. ईश्वर उसे सर्वाधिक प्रतिभावान, सर्वगुण संपन्न और सर्वकार्य निष्पादन हेतु उपयुक्त एवं समर्थ बनाये. उसे विवेक दिये. इस तरह उसे प्रकृति (सृष्टि) का सिरमौर बनाया. इतना ही नहीं, समय-समय पर स्वयं उनके मार्ग-दर्शन और उनके आदर्श स्थापन हेतु मनुष्य-रूप में विविध अवतार लिए एवं विविध लीला तथा उपदेश द्वारा उनके कल्याण हेतु विविध नियम प्रतिपादित किये."
थोड़ा ठहर कर कौआ पुन: कहने लगा,"किंतु मनुष्य! वह लोभवश अज्ञानी बने रहते हैं. लोभ-पूर्ति नही होने पर क्रोधी बन जाते हैं. क्रोध करने से उनका विवेक खो जाता है और वे हिंसक बन जाते हैं. विवेक नष्ट हो जाने से नैतिकता भी चली जाती है. तब वह मनुष्य अनैतिक-अधम हो जाता है. ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा और सर्वकार्य निष्पादन में समर्थ शक्ति का दुरूपयोग करने लगता है. फिर वह अधमाधम ही प्रकृति (सृष्टि) हेतु अभिशाप बन जाता है. पुनः मनुष्य का जीवन उतना ही है जब तक उसमें मनुष्यता अर्थात विवेक और नैतिकता है. नैतिकता रहित उस अधम शरीर और गंदी जगह में क्या अंतर हो सकता है?"
कौआ की बात सुनकर तोते का क्रोध शांत हो गया. पुन: उसमें जिज्ञासा भी जगी कि प्रकृति क्या है, उसके गुण-धर्म क्या हैं और मनुष्य का क्या कर्तव्य है?
कौआ बोला-"संसार के गोचर-अगोचर प्रत्येक वस्तु सृष्टि के अंश हैं और स्वयं में लघु सृष्टि भी हैं. वही प्रकृति के अंग और अंश हैं. अतः सभी वस्तु के सम्मिलन से प्रकृति अथवा सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण होता है. प्रकृति में एक विलक्षण क्षमता है. प्रकृति के सभी चीज सह-अस्तित्व पर निर्भर हैं. प्रकृति नीरा भोग्य वस्तु नही है. यहाँ प्रत्येक चीज वह जड़ अथवा चेतन जो कुछ है प्रकृति के हिस्सा हैं, और प्राकृतिक संतुलन में भागीदार बन कर अपने विकास का मार्ग स्वयं प्रशस्त करते हैं. "
कौआ लंबी साँस लेता हुआ आगे बताया-"मनुष्य सर्वाधिक प्रतिभाशील, विवेकवान और सर्वकार्य निष्पादन हेतु समर्थ जीव हैं .किंतु मनुष्य का अस्तित्व भी प्रकृति पर आश्रित है. अत: मनुष्य मात्र का कर्तव्य भी बनता है कि प्रकृति का केवल दोहन ना करें, प्रकृति से उतना ही ले जितना उसे दे सके. प्रकृति का बिना हानि पहुँचाए संतुलित उपभोग करे. वह मनुष्य मात्र की नैतिकता है."
संग्राम (व्यंग)-प्रदीप कुमार साह
प्रत्येक दिन शाम के समय गाँव के कुछ लड़के गाँव के बिलकुल मध्य में अवस्थित इस विशाल वट वृक्ष के नीचे घँटों बैठ कर आपस में बतियाते (गप-शप करते) रहते थे. वैसा करना इन लड़कों के दैनिक दिनचर्या का एक हिस्सा था. इन लड़कों में एक मैं भी था और मेरा परम् मित्र दीपक भी. प्रतिदिन शाम में उस वट वृक्ष के नीचे नियत समय पर पहुँचना हम सभी लड़के के स्वभाव में मानो रच-बस गये थे. अभी मैं नियत समय पर वहाँ पहुँचा तो देखता हूँ कि वहाँ पहले से कई लड़के मौजूद हैं. किंतु उनमें कोई मेरा परम् मित्र दीपक नहीं थे.
वहाँ मैं भी लड़कों के उस झुंड में शामिल हो गया और गप-शप करने लगा. किंतु दीपक की अनुपस्थिति मुझे खल रहा था और बार-बार मेरा ध्यान उसके अनुपस्थिति पर चला जाता. दीपक की अनुपस्थिति में मेरा मन वहाँ नहीं लग रहा था. प्रतीत होता था कि मेरे सुर-ताल में किसी चीज की कमी हो गई है. करीब घँटे भर अंदर ही अंदर इंतजार करने के पश्चात मुझे अजीब सी बेचैनी होने लगी. वैसा आज तक नहीं हुआ था कि वह यहाँ कभी अनुपस्थित रहा हो. फिर आज क्या हो गया उसे? अबतक किस कारण से वह यहाँ नहीं पहुँच सका.
अभी मैं इस संबंध में सोच ही रहा था कि वहाँ दीपक आ पहुँचा. उसका चेहरा बुझा-बुझा सा था और रंगत धुला-धुलाया सा बिलकुल सफेद. उसके हाव-भाव से धुलाई की गहरी सफेदी तो तार-तार होकर दिख ही रही थी, किंतु रंगत से चमक भी गायब थी. वह मेरे पास आया तो मैं ने उसका हाथ पकड़ कर वट वृक्ष के छाँह तले ला कर बैठाया. फिर उसके उदासी का कारण पूछा, किंतु वह चुप रहा. बारंबार पूछने पर उसने अपनी चुप्पी तोड़ी और दबी जबान में जो कुछ बताया, पूरी बात मेरे समझ में तो नहीं आया किंतु इतना जरूर समझ गया कि उसकी बुरे तरीके से धुलाई हुई है.
पूरा माजरा समझने के लिये मैं ने दुबारा पूछा,"श्री राम चरित मानस के किसी चौपाई पर शास्त्रार्थ का आयोजन और मानस प्रेमियों की धोबीपाट वाली धुलाई! माजरा कुछ समझ में नहीं आया, थोड़ा विस्तार में बताइयो."
दीपक थोड़ा झिझकते हुये बोला,"आज के शास्त्रार्थ आयोजन में बहुत से सुप्रसिद्ध ग्रंथ ज्ञानी विद्वान पधारे थे. शास्त्रार्थ हेतु विषय-वस्तु था चौपाई "ढ़ोल, गंवार, पशु, शुद्र, नारी..." का दुरुपयोग रोकने की चुनौती. शास्त्रार्थ स्थल पर विद्वानों के बैठने हेतु समुचित प्रबंध थे. मंच पर एक तरफ उपरोक्त सम्मानीय चौपाई के समर्थन में ग्रंथ ज्ञानी विद्वान् के बैठने की जगह निर्धारित थी जो पूरी तरह सुप्रसिद्ध विद्वानों से खचाखच भरा था. दूसरे तरफ उक्त चौपाई का विरोध करने वाले खेमे के बैठने के लिये जगह मुक्कमल करी (रखी) गई थी जो काफी इंतजार के पश्चात भी बिलकुल मानुस रहित ही रहा."
जिस तरह श्वान अपना नथुना हवा के रुख की तरफ करते हुये सूँघ कर संभावित खतरा भांपने की कोशिश करता है ठीक उसी तरह दीपक ने साँस अंदर खींची और पुनः बताने लगा,"काफी इंतजार के पश्चात अंततः मंच पर आसीन विरोधी खेमा रहित ग्रंथ ज्ञानी विद्वानों से ही उनके अपने-अपने विचार रखने का आग्रह किया गया. सदैव सौम्य, मधुर, तर्क-संगत और सर्व-मंगल की कामना से ओत-प्रोत विचार-व्यवहार के लिये ज्ञात और सद्भावना के मान्य प्रणेता ग्रंथ ज्ञानी विद्वानों में से एक अति सुप्रसिद्ध विद्वान् उपरोक्त चौपाई के विरोध करने वालों को चुनौती पेश करते हुये अपने विचार वक्तव्य का प्रारंभ अग्रोक्त वाक्य से किया.
"अनपढ़, जाहिल, समाज-द्रोही दलित चिंतकों और वाम पंथियों को चुनौती, चुनौती और खुली चुनौती कि वे उपरोक्त चौपाई का भ्रष्ट, कुंठित और साजिशन उपभोग करना बंद करें. वह जो साजिश करते हैं कि सत्ता सुख प्राप्ति हेतु येन-केन प्रकारेण सत्ता पर काबिज रहें और हिन्दू समाज को पथ-भ्रष्ट करते रहें, उसे हरगिज कामयाब नहीं होने देंगे." ग्रंथ ज्ञानी महानुभाव के उपरोक्त वाक्य के पूर्णता पर शीघ्रता से मंच के सामने श्रोता के बैठने हेतु निर्धारित निचले स्थल से बड़ी संख्या में विराजमान सुमान्य दलित चिंतक और माननीय वामपंथी प्रतिनिधि जो दलित सम्मान के बारहमासिक कविताएँ प्रतिदिन गाते फिरते हैं बढ़-चढ़कर सामूहिक करतल ध्वनि किये.
करतल ध्वनि से उत्साहित महानुभाव अपने विचार बड़े जोश में व्यक्त करते रहे और दलित चिंतकों एवं वामपंथियों से प्रोत्साहन पाते रहे. सुमान्य दलित चिंतक और माननीय वामपंथी भी ग्रंथ ज्ञानी मान्यवर का प्रोत्साहन और आपस में कानाफूसी करते रहे. पता नहीं, दोनों पक्ष में कौन सा पक्ष सत्ता अथवा राजसी सुख के लिये ललायित थे, किंतु महानुभाव ने अपने लंबे-चौड़े व्याख्यान का सफलता पूर्वक समापन किया. व्याख्यान के समापनोपरांत भी करतल ध्वनि की गड़गड़ाहट हुई. किंतु एक सीधी-सादी महिला को पता नहीं क्या सूझा कि उसने स्त्री के साथ भेद-भाव और आदि काल से उसके दयनीय स्थिति के मुद्दा पर कुछ पूछ लिया.
अब महानुभाव की त्यौरियां चढ़ गई. महिला को लगभग डाँटते हुये उन्होंने कहा,"विदुषी भारती जी, आपके प्रश्न हल करने में तो आदि शंकराचार्य जी भी अयोग्य साबित हुये. इसलिये आपको किसी मंडन मिश्र का सहचर्य ढूँढना चाहिये." महिला चुप बैठ गई, क्योंकि उसे प्रोत्साहित करने वाला वहाँ कोई नहीं था. क्योंकि वहाँ केवल पुरुष-प्रधान सवर्ण या दलित अथवा पंथी मात्र थे. वहाँ मौजूद जो अन्य महिला थीं, वह भी स्त्री अस्मिता समर्थक नहीं अपितु किसी वर्ण अथवा पंथ समर्थक ही थीं. किंतु उस महिला के प्रतिरोध ने औरों में साहस भर दिये.
एक दुःसाहसी युवक साहस कर बोला,"श्री मानस की रचना अवधी में हुई, इसलिये यहाँ ताड़ना शब्द संस्कृत के नहीं, अपितु अवधी में है..."युवक अपनी बात पूरा-पूरा कहता कि इससे पूर्व ही मंच पर आसीन अन्य विद्वान् क्रोध करते हुये और अपने मुख से अपशब्द उच्चारते हुये अपनी-अपनी पगड़ी युवक पर उछालने लगे. उधर दलित चिंतकों और वामपंथीयों को युवक उनके वोट बैंक का सेंधमार मात्र नजर आने लगा. इसलिये वह सब भी युवक का पुरजोड़ विरोध करने लगे. युवक के हालात संयुक्त राष्ट्र और मित्र राष्ट्र के संदेह के दो पाट के बीच पिसते पंचशील सिद्धांत का अनुपालन करने वाली भारतवर्ष जैसी हो गई.
इधर शास्त्रार्थ आयोजक मंडली के पसीना छूटने लगा कि वर्णवाद अखाड़ा रचने के षड्यंत्र का ठीकरा उसके सिर न फूट जाय. बढ़ते कोलाहल रोकने के उपाय ढूँढने निमित्त वेसब मंतव्य करने लगे. किंतु मंडली के युवा सदस्यों को कुछ भी युक्ति नहीं सूझी. तब मंडली के अत्यंत वृद्ध सदस्य ने एक युक्ति सुझाई. किंतु वह स्वयं उस युक्ति के कार्यान्वयन में शारीरिक अक्षमता की वजह से असमर्थ थे और अन्य सदस्य उस युक्ति के कार्यान्वयन का साहस नहीं कर पाये. तभी उनकी नजर मुझ पर पड़ी और मेरे लड़कपन का उन्होंने अनुचित लाभ लिया."दीपक रुआंसा होकर बोला.
मैं ने पीठ पर थपकी देकर अपने परम् मित्र दीपक का ढाढ़स बंधाया, तब उसने आगे जो रहस्योद्घाटन किया वह सुनकर तो मेरा दिमाग भी चकरा गया. उसने बताया,"उन्होंने पुण्य-लाभ का प्रलोभन, आस-भरोसा और भय-भेद दिखाकर उस युक्ति के कार्यान्वयन हेतु मुझे तैयार कर लिया. जब मैं उस युक्ति पर अमल कर रहा था, तब कार्यान्वयन के मध्य में दलित चिंतकों और वामपंथियों ने मुझे टोका भी कि यह बच्चों का खेल नहीं. उन्हें मैं उनके उस एक अचूक धरा-धराया मुद्दा का समूल नाशकर्ता नजर आ रहा था, जिस मुद्दा पर उनकी राजनीतिक रोटी सदैव सिकती हैं और भविष्य में भी सिंकनी है. उन्हें मैं उनका वोट बैंक हथियाने का एक साजिशकर्ता भी मालूम हो रहा था, जिसे सत्ता सुख पाने की असीम लालसा थी.
उधर ग्रंथ ज्ञानी विद्वान् भी मुझे साजिशकर्ता ही समझ रहे थे जिसकी वक्र दृष्टि उनके अल्प जोखिम से प्राप्य गहरे राजसी सुख-भोग में बाधा पहुँचाना अथवा सेंधमारी की थी. शीघ्र ही दोनों पक्ष ने सुनिश्चित कर लिये कि मैं एक सामान्य बालक नहीं अपितु एक साजिशकर्ता हूँ. शीघ्र ही वहाँ वह दृश्य उपस्थित हुआ जिससे प्रतीत हुआ कि वहाँ शास्त्रार्थ हेतु अभी विद्वान और तथ्य प्रिय सज्जन एकत्र नहीं हुये थे, अपितु अभी वहाँ तबाही प्रिय शैतान मात्र उपस्थित थे. वहाँ लोगों की वह नजरिया ही बदल गई थी कि एक बालक बाल गोविंद के स्वरूप होते हैं. उनके मन में कुछ कपट नहीं होते अथवा उन्हें कुछ भी अनुचित लाभ की लालसा होती है."
"वह कैसी युक्ति थी, जिसके कार्यन्वयन में इतनी बड़ी जोखिम थी? जरा मुझे भी तो बताओ."
"ना बाबा, ना! एक बार पढ़ने मात्र पर मेरी यह हालात बना....तुम्हें जानना हो तो स्वयं पढ़ लो." उसने अपने कान पकड़ लीये. मैं ने बताने हेतु दुबारा आग्रह किया तो उसने अपनी जेब से एक पर्ची निकाल कर चुपचाप मुझे पकड़ा दिया.
मैं पर्ची देखने लगा. उसमें लिखा था-"किंतु श्री राम चरित मानस जी आदर्श ग्रंथ किस प्रकार हैं, जबकि उसमें कहीं श्री राम निकृष्ट भीलनी शबरी के बेर सप्रेम स्वीकार कर उसे ग्रहण करते हैं, निषाद राज केवट को गले से लगाते हैं और गिद्धराज जटायु को अपने बाँहों में भरते हैं, इस प्रकार अनेक वैसे लीला के माध्यम से सम्पूर्ण रूप में सर्वोत्तम समता को बढ़ावा देते हैं? तभी दूसरे तरफ ग्रंथ अन्य पात्र से 'वर्णाधम जे तेली, कुम्हारा' कहा कर जैसे जातिवाद, विषमता और सामाजिक विद्वेष को बढ़ावा देते हैं. फिर ढोल, गंवार, पशु, शुद्र, नारी जैसे शब्द कहा कर स्त्री शक्ति की अवमानना भी करते प्रतीत होते हैं?
प्रसंगवश और पात्र के चेतना अर्थात उनके आचरण-व्यवहार के अनुरूप उनके मुख से संवाद प्रेषित करवाने की व्यवहारिकता के संबंध में पुनः यह मत उचित प्रतीत होता है कि जहाँ ग्रंथ अपने आदर्श नायक के प्रतिद्वंद्वी के अनेक दुर्वचन को "कहेउ कछुक वचन दुर्वादा' जैसे विवेकपूर्ण शब्द संकेत में इंगित करते हुये अपनी मर्यादा बनाये रखती है, यहाँ विवेक पूर्वक वह मर्यादा थोड़ी-सी प्रकट करने में कैसी चूक? ग्रंथ ज्ञानी विद्वानों के अनुसार यहाँ शब्द का श्लेषालंकारिक प्रयोग है तब वैसे जगह पर उन श्लेष-अलंकारिक शब्द के प्रयोग में कैसी चतुराई, जहाँ दुरुपयोग की प्रबल संभावना ही बन रही हो और वहाँ भविष्य में गंभीर स्थिति और विकट परिस्थिति उत्पन्न हो जाये. पुनः उक्त शब्द का प्रयोग वही अर्थ में इस ग्रंथ में अन्यत्र कहाँ-कहाँ हुये?
यदि उस श्लेष-अलंकारिक शब्द का अर्थ यहाँ प्रयुक्त भोक्ता (कर्म) शब्द के बहुमत के संदर्भ में उचित और मान्य है तब ढ़ोल और पशु शब्द के संदर्भ के आधार से क्या अर्थ निर्धारित हो सकता है इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होता. फिर स्त्री-पुरूषमय संपूर्ण जड़-चेतन सृष्टि ही समरूप से ईश्वरांश हैं, पुनः महिला भगवान बिष्णु के मोहनी स्वरूप भी हैं और सनातन हिंदू धर्म में वह प्रकृति स्वरूप साक्षात् शक्ति और देवी स्वरूप हैं. पुनः इस ग्रंथ में भी अबला प्रबल तक माने गये, तब साधक को उससे मित्रवत समव्यवहार करने की शिक्षा देने में चूक कैसे हो गई?
पुनः एक पिता के लिये उसकी पुत्री, एक भाई के लिये उसकी बहन, एक पुत्र के लिये उसकी माता और एक धर्मनिष्ठ सनातनी हिन्दू साधक के लिये प्रत्येक महिला माता समान अर्थात प्रत्येक पुरुष हेतु वह सम्बंधित सम्बंध के अनुरूप ही होती हैं, एक नारी मात्र कदापि नहीं. इसलिए यहाँ नारी शब्द से तातपर्य पत्नी मात्र से है, फिर उपरोक्त तथ्य के आधार पर उसे कम आँक कर शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी मात्र किस तरह समझा गया? इस तरह यह ग्रंथ अपने उत्तम लक्ष्य से भटक कर अपने आदर्श नायक के चरित्र-चरितार्थ के विपरीत जल-पात्र के पवित्र गंगाजल में मदिरा-अंश का संयोजन करवाते हुये से निकृष्टतम पहलु का संरक्षण कर स्वयं त्याज्य बन जाता है."
पर्ची पढ़ने के पश्चात एक नजर दीपक को देखा, वह निर्विकार बिल्कुल शांत बैठा था. मेरे मुख से अनायास यह मानस पंक्ति फिसल गयी,"स्वार्थ लागि करहि सब प्रीति, सुर, नर, मुनि, तनु धारि."
दीपक चौंका,"क्या?"
मैं ने बात बदलते हुये एक मानस-चौपाई कहा,"काम, क्रोध, मद, लोभ कि जब तक मन में खान. तब तक पंडित मूर्खहु, तुलसी एक समान."
उसने मेरे चेहरे पर टकटकी लगा दिये और मेरी आँखों में झाँकने लगा. मानो वह मेरी आँखों में झाँक कर मेरा मन पढ़ने की चेष्टा कर रहे हों ताकि मेरे द्वारा बोले गये चौपाई के वर्तमान प्रसंगानुसार आशय समझ सके. तब मैं ने आगे कहा,"प्रतिफल प्राप्ति की कामना ही वास्तव में प्रत्येक संसारिक कर्म, धर्म और अधर्म की जननी है. फिर ईश्वर और सदग्रंथ के सम्बंध में एक व्यक्ति तभी कुछ जान सकता है, जब उस पर ईश्वर की असीम कृपा होती है. पुनः ईश्वर की महिमा से अभी तक कोई भी अंश मात्र ही परिचित हो पाये हैं. फिर किसी भी मजहब-सम्प्रदाय के संस्थापक, ऋषि-मुनि अथवा उनके धार्मिक पुस्तक अर्थात ग्रंथ, कुरान, पुराण, बाईबल इत्यादि उतने पूर्ण नहीं हुये कि ईश्वर-लीला के सम्बंध में उन्होंने जितना जाना उसका निष्कलंक और सटीक वर्णन अथवा निरूपण कर सकें. किंतु वैसे महापुरूष भी विरले ही होते हैं जो किसी ग्रंथ के सदतथ्य का अक्षरशः अनुपालन करते हों."
उसने स्वीकारिक्ति में अपना सिर हिलाया. तब मैं ने आगे कहा,"महान गुरु और कूटनीति शास्त्र के रचयिता आचार्य चाणक्य भी कहते हैं कि वास्तव में विश्वास और अंधविश्वास में, धार्मिक कृत्य में और पाखंड में एक महीन विभाजक रेखा से फर्क हैं, इसलिये दोनों में बिना हरि-कृपा और गहन विवेक प्राप्त किये बिना फर्क करना अत्यंत कठिन है. किंतु जो अंतर्मुखी होकर प्रेम और धैर्य पूर्वक श्री राम चरित मानस जी का अध्ययन एवं मनन करते हैं, उसके लिये हरि कृपा से उस पाखंड के पहचान हेतु वह समझ अत्यंत सहज और सुलभ है. क्योंकि श्री राम चरित मानस जी के निरंतर मनन से मनुष्य मात्र में केवल सच्चे और सृजनात्मक गुण ग्रहण करने की प्रवृति प्राप्त होती है और उसमें जागृति आती हैं."
उसने पुनः स्वीकारिक्ति में अपना सिर हिलाया और मैं भी पुनः उसे उपदेशित किया,"फिर यह भी उचित है कि एक सज्जन को सदैव सद्गुण ही ग्रहण करना चाहिये, जैसा हंस करते हैं. फिर मानस के सदतथ्य के गूढ़ रहस्य आसानी से समझने के लिये सप्त-खंड मानस पियूष भी देखना चाहिये."
वह झल्लाया,"अब चुप भी हो जाओ मित्र, मेरी कितनी धुलाई और करोगे? तुमने जितने भी उपदेश कहे, एक भी मेरे समझ में नहीं आये... भूखे भजन न होइहीं गोपाला, ले लो अपनी कंठी माला. उपदेश प्राप्ति से पहले मनुष्य का शांतचित्त और एकाग्र होना आवश्यक होता है. मेरे चित्त की एकाग्रता और शांति तो मेरी धुलाई के साथ ही फुर्र हो चुकी है."
अब मुझे यकीन हो गया कि उसके झल्लाहट के साथ ही उसके मन की सारी गुबार यानि कुंठा बाहर आ चुकी है और वह पूर्ववत् अपना निर्मल हृदय प्राप्त कर चुका.मैं ने उसे गले से लगा लिया.
(समाप्त)