Chandrakanta - Part - 3 in Hindi Classic Stories by Devaki Nandan Khatri books and stories PDF | चंद्रकांता - 3

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चंद्रकांता - 3

चंद्रकांता

तीसरा भाग

बयान 1

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहां की रहने वाली है जब तक यह न मालूम हो जाय तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चलकर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुंची जिधर आड़ में कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देख लंबी सांस ली, साथ ही आंखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूंद आंसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार-क्यों फतहसिंह, यह कौन है कुछ जानते हो?

फतहसिंह-मैं कुछ भी नहीं जानता मगर इतना कह सकता हूं कि किसी राजा की लड़की है।

कुमार-यह किताब जो इसके हाथ में है जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई और जिसकी खोज में हमारे ऐयार लगे हुए हैं!

फतहसिंह-मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?

कुमार-इसका तो ताज्जुब हई है मगर इससे भी ज्यादे ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने ख्याल नहीं किया।

फतह-नहीं, वह क्या?

कुमार-वह तस्वीर भी मेरी ही है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।

फतह-यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।

कुमार-मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूं, कुछ समझ ही नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो पीछे-पीछे देखें ये सब जाती कहां हैं।

फतह-चलिए।

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर गये होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नजर पड़ी। ठहर गये, जब पास पहुंचे उन्हें घबराये हुए और बदहवास देखकर पूछा, "क्यों क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?"

तेजसिंह ने कहा, "है क्या, बस हम आपसे जिंदगी भर के लिए जुदा होते हैं।"इससे ज्यादे न बोल सके, गला भर आया। आंखों से आंसुओं की बूंदें टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालत देख कुमार भी बेचैन हो गये मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस तरह बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रूमाल से दोनों की आंखें पोंछीं, इसके बाद तेजसिंह से पूछा, "आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है, कुछ मुंह से तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए आप कुमार से जुदा होंगे?"तेजसिंह ने अपने को सम्हालकर कहा-

"तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और न मिलने की कोई उम्मीद है इसलिए अपने कौल पर सिर मुड़ा के निकल जाना पड़ेगा।"

इसका जवाब कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह कुछ दिया ही चाहते थे कि देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुंचे। ज्योतिषीजी ने पुकारकर कहा, "तेजसिंह, घबराइए मत, अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही, जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।"

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा, "वाह खूब, आप भी रोये और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुंची उसे मैंने देखा मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं तुम पहले से ही रोने लगे!!"इतना कह के कुमार ने उस तरफ देखा जिधर वे औरतें गई थीं मगर कुछ दिखाई न पड़ा। तेजसिंह ने घबराकर कहा, "आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहां है?"कुमार ने जवाब दिया, "मैं क्या बताऊं कहां है, चलो उस तरफ शायद दिखाई दे जाय, हाय विपत पर विपत बढ़ती ही जाती है!"

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी हैरान थे कि कुमार किसको खोज रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी है, या जब देखा ही था तो छीन क्यो न लिया! कई दफे चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराए हुए इधर-उधर देखते और लंबी-लंबी सांसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आंखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए।

तेजसिंह ने पूछा, "आप कुछ खुलासा कहिए भी तो कि क्या मामला है?"कुमार ने कहा, "अब इस जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर में चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।"

सब कोई लश्कर में पहुंचे। कुमार ने कहा, "पहले तिलिस्मी खंडहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है!"यह कहकर खंडहर की तरफ चले, ऐयार सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खंडहर के दरवाजे के अंदर पैर रखा ही था कि सामने से पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार-यह देखो वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं! मगर हैं, यह बद्रीनाथ छूट कैसे गये?

तेजसिंह-बड़े ताज्जुब की बात है!

देवीसिंह-कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई। अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी।

फतह-इससे निश्चिंत रहो, वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी, हां आगे मिल जाय तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गये। पन्नालाल ने पुकार के कहा, "क्यों तेजसिंह, अब तो हार गये न!"

तेज-हम क्यों हारे!

बद्री-क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गये और किताब भी न दी।

तेज-किताब तो हम पा गये, तुम चाहे आपसे आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो! किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार के साथ रहो।

बद्री-हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।

तेज-तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं तो साबित हो गया कि हम पा गये।

बद्री-बस-बस, हम बेफिक्र हो गये, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।

देवी-फिर आखिर हारा कौन यह भी तो कहो?

बद्री-कोई भी नहीं हारा।

कुमार-अच्छा यह तो कहो तुम छूटे कैसे!

बद्री-बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जानबूझ के कोई तरकीब नहीं की गई। पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रखी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ी बस मैं छूट गया। उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।

कुमार-अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।

बद्री-कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूं मगर क्या करूं, नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए! अब मुझे आज्ञा हो तो बिदा होऊं।

कुमार-अच्छा जाओ।

ज्यो-अच्छा हमारी तरफ नहीं होते तो न सही मगर ऐयारी तो बंद करो।

तेज-वाह ज्योतिषीजी, आखिर वेदपाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें जोर लगा लें!

पन्ना-खैर देखा जायगा, अभी तो जाते है, जय माया की!

तेज-जय माया की!

बद्रीनाथ वगैरह वहां से चले गए। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गये और अपने डेरे में चले आए। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दिया कि कोई अंदर न आने पावे। तेजसिंह ने कुमार से पूछा, "अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है, और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों नहीं की?"

कुमार ने जवाब दिया, "यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चंद्रकान्ता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने उससे किताब छिनने न दिया।"

तेज-(ताज्जुब से) कुमारी चंद्रकान्ता से और उस किताब से क्या संबंधा? खुलासा कहिए तो कुछ मालूम हो।

कुमार-क्या कहें हमारी तो अजब हालत है! (ऊंची सांस लेकर चुप हो रहे)

तेज-आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफे लंबी सांस लेगे तो डेढ़ बात कहेंगे! जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं दूसरी खरीदने को तैयार हो गए।"

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई और तस्वीर कैसे उतरवा मंगाई?

ज्योतिषीजी ने कई दफे रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका, हां इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे, मगरकोई काम न हुआ, आखिर यह बात ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूंढना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गये। रात भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसकी आंखों से गिरे हुए आंसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लंबी सांस लेते रात बीत गई बल्कि घंटा भर दिन चढ़ आया पर कुमार अपने पलंग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आकर देखा तो कुमार चादर से मुंह लपेटे पड़े हैं, मुंह की तरफ का बिल्कुल कपड़ा गीला हो रहा है। दिल में समझ गये कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी, "आप सोते हैं या जागते हैं?"

कुमार-(मुंह खोलकर) नहीं, जागते तो हैं।

तेज-फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सबेरे ही स्नान-पूजा से छुट्टी कर लेते हैं, आज क्या हुआ?

"नहीं कुछ नहीं"कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पाकर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इनके पहले ही सब कामों से निश्चित हो चुके थे, उन लोगों ने भी कुछ भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूंढने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा, "हम भी चलेंगे।"सभी ने समझाया कि आप चलकर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज होगा-मगर कुमार ने कहा, "कोई हर्ज न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ लेते चलते हैं, तुम्हारा जहां जी चाहे घूमना, हम उसके साथ इधर-उधर फिरेंगे।"तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखे में न फंसा लें, मगर कुमार ने एक मानी, आखिर लाचार होकर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगल की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जाकर उन लोगों को एक जगह बैठाकर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतों की खोज में रवाना हुए। ऐयारों के चले जाने पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।

बयान 2

कुंअर वीरेन्द्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिये कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहां कोई है। मुंह से कहती जाती थी-"आज जंगली फूलों का गहना बनाने में देर हो गई, जरूर कुमारी खफा होंगी, देखें क्या दुर्दशा होती है।"

इस बात को दोनों ने सुना। कुमार ने फतहसिंह से कहा, "मालूम होता है यह उन्हीं की मालिन है, इसको बुला के पूछो तो सही।" फतहसिंह ने आवाज दी, उसने चौंककर पीछे देखा, फतहसिंह ने हाथ के इशारे से फिर बुलाया, वह डरती-कांपती उनके पास आ गई। फतहसिंह ने पूछा, "तू कौन है और फूलों के गहने किसके वास्ते लिये जा रही है?"

उसने जवाब दिया, "मैं मालिन हूं, यह नहीं कह सकती कि किसके यहां रहती हूं, और ये फूल के गहने किसके वास्ते लिये जाती हूं। आप मुझको छोड़ दें, मैं बड़ी गरीब हूं, मेरे मारने से कुछ हाथ न लगेगा, हाथ जोड़ती हूं, मेरी जान मत मारिए।"

ऐसी-ऐसी बातें कह मालिन रोने और गिड़गिड़ाने लगी। फूलों की डलिया आगे रखी हुई थी जिनकी तेज खुशबू फैल रही थी। इतने में एक नकाबपोश वहां आ पहुंचा और कुमार की तरफ मुंह करके बोला, "आप इसके फेर में न पड़ें, यह ऐयार है, अगर थोड़ी देर और फूलों की खुशबू दिमाग में चढ़ेगी तो आप बेहोश हो जायेंगे।"

उस नकोबपोश ने इतना कहा ही था कि वह मालिन उठकर भागने लगी, मगर फतहसिंह ने झट हाथ पकड़ लिया। सवार उसी वक्त चला गया। कुमार ने फतहसिंह से कहा, "मालूम नहीं सवार कौन है, और मेरे साथ यह नेकी करने की उसको क्या जरूरत थी?" फतहसिंह ने जवाब दिया, "इसका हाल मालूम होना मुश्किल है क्योंकि वह खुद अपने को छिपा रहा है, खैर जो हो यहां ठहरना मुनासिब नहीं, देखिये अगर यह सवार न आता तो हम लोग फंस ही चुके थे।"

कुमार ने कहा, "तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, खैर अब चलो और इसको अपने साथ लेते चलो, वहां चलकर पूछ लेंगे कि यह कौन है।" जब कुमार अपने खेमे में फतहसिंह और उस ऐयार को लिये हुए पहुंचे तो बोले, "अब इससे पूछो इसका नाम क्या है?" फतहसिंह ने जवाब दिया, "भला यह ठीक-ठीक अपना नाम क्यों बतावेगा, देखिये मैं अभी मालूम किये लेता हूं।"

फतहसिंह ने गरम पानी मंगवाकर उस ऐयार का मुंह धुलाया, अब साफ पहचाने गये कि यह पंडित बद्रीनाथ हैं। कुमार ने पूछा, "क्यों अब तुम्हारे साथ क्या किया जाय?" बद्रीनाथ ने जवाब दिया, "जो मुनासिब हो कीजिये।"

कुमार ने फतहसिंह से कहा, "इनकी तुम हिफाजत करो, जब तेजसिंह आवेंगे तो वही इनका फैसला करेंगे!" यह सुन फतहसिंह बद्रीनाथ को ले अपने खेमे में चले गये। शाम को बल्कि कुछ रात बीते तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी लौटकर आये और कुमार के खेमे में गए। उन्होंने पूछा, "कहो कुछ पता लगा?"

तेजसिंह-कुछ पता न लगा, दिन भर परेशान हुए मगर कोई काम न चला।

कुमार-(ऊंची सांस लेकर) फिर अब क्या किया जायेगा?

तेज-किया क्या जायेगा, आज-कल में पता लगेगा ही।

कुमार-हमने भी एक ऐयार को गिरफ्तार किया है।

तेज-हैं, किसको? वह कहां है!

कुमार-फतहसिंह के पहरे में है, उसको बुला के देखो कौन है!

देवीसिंह को भेजकर फतहसिंह को मय ऐयार के बुलवाया। जब बद्रीनाथ की सूरत देखी तो खुश हो गये और बोले, "क्यों, अब क्या इरादा है?"

बद्री-इरादा जो पहले था वही अब भी है?

तेज-अब भी शिवदत्त का साथ छोड़ोगे या नहीं?

बद्री-महाराज शिवदत्त का साथ क्यों छोड़ने लगे?

तेज-तो फिर कैद हो जाओगे।

बद्री-चाहे जो हो।

तेज-यह न समझना कि तुम्हारे साथी लोग छुड़ा ले जायेंगे, हमारा कैदखाना ऐसा नहीं है।

बद्री-उस कैदखाने का हाल भी मालूम है, वहां भेजो भी तो सही।

देवी-वाह रे निडर।

तेजसिंह ने फतहसिंह से कहा, "इनके ऊपर सख्त पहरा मुकर्रर कीजिए। अब रात हो गई है, कल इनको बड़े घर पहुंचाया जायगा।"

फतहसिंह ने अपने मातहत सिपाहियों को बुलाकर बद्रीनाथ को उनके सुपुर्द किया, इतने ही में चोबदार ने आकर एक खत उनके हाथ में दी और कहा कि एक नकाबपोश सवार बाहर हाजिर है जिसने यह खत राजकुमार को देने के लिए दी है!" तेजसिंह ने लिफाफे को देखा, यह लिखा हुआ था-

"कुंअर वीरेन्द्रसिंहजी के चरण कमलों में-"

तेजसिंह ने कुमार के हाथ में दिया, उन्होंने खोलकर पढ़ा-

बरवा
"सुख सम्पत्ति सब त्याग्यो जिनके हेत।
वे निरमोही ऐसे, सुधिहु न लेत॥
राज छोड़ बन जोगी भसम रमाय।
विरह अनल की धूनी तापत हाय॥"
कोई वियोगिनी

पढ़ते ही आंखें डबडबा आईं, बंधे गले से अटककर बोले, "उसको अंदर बुलाओ जो खत लाया है।" हुक्म पाते ही चोबदार उस नकाबपोश सवार को लेने बाहर गया मगर तुरंत वापस आकर बोला-"वह सवार तो मालूम नहीं कहां चला गया!"

इस बात को सुनते ही कुमार के जी को कितना दुख हुआ वे ही जानते होंगे। वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने भी पढ़ी, "इसके पढ़ने से मालूम होता है यह खत उसी ने भेजी है जिसकी खोज में दिन भर हम लोग हैरान हुए और यह तो साफ ही है कि वह भी आपकी मुहब्बत में डूबी हुई है, फिर आपको इतना रंज न करना चाहिए।"

कुमार ने कहा, "इस खत ने तो इश्क की आग में घी का काम किया। उसका ख्याल और भी बढ़ गया घट कैसे सकता है! खैर अब जाओ तुम लोग भी आराम करो, कल जो कुछ होगा देखा जायगा।"

बयान 3

कल रात से आज की रात कुमार को और भी भारी गुजरी। बार-बार उस बरवे को पढ़ते रहे। सबेरा होते ही उठे, स्नान-पूजा कर जंगल में जाने के लिए तेजसिंह को बुलाया, वे भी आये। आज फिर तेजसिंह ने मना किया मगर कुमार ने न माना, तब तेजसिंह ने उन तिलिस्मी फूलों में से गुलाब का फूल पानी में घिसकर कुमार और फतहसिंह को पिलाया और कहा कि "अब जहां जी चाहे घूमिये, कोई बेहोश करके आपको नहीं ले जा सकता, हां जबर्दस्ती पकड़ ले तो मैं नहीं कह सकता।" कुमार ने कहा, "ऐसा कौन है जो मुझको जबर्दस्ती पकड़ ले!"

पांचों आदमी जंगल में गये, कुछ दूर कुमार और फतहसिंह को छोड़ तीनों ऐयार अलग-अलग हो गए। कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह के साथ इधर-उधरघूमने लगे। घूमते-घूमते कुमार बहुत दूर निकल गये, देखा कि दो नकाबपोश सवार सामने से आ रहे हैं। जब कुमार से थोड़ी दूर रह गये तो एक सवार घोड़े पर से उतर पड़ा और जमीन पर कुछ रख के फिर सवार हो गया। कुमार उसकी तरफ बढ़े, जब पास पहुंचे तो वे दोनों सवार यह कह के चले गए कि इस किताब और खत को ले लीजिए।

कुमार ने पास जाकर देखा तो वही तिलिस्मी किताब नजर पड़ी, उसके ऊपर एक खत और बगल में कलम दवात और कागज भी मौजूद पाया। कुमार ने खुशी-खुशी उस किताब को उठा लिया और फतहसिंह की तरफ देख के बोले, "यह किताब देकर दोनों सवार चले क्यों गए सो कुछ समझ में नहीं आता, मगर बोली से मालूम होता है कि वह सवार औरत है जिसने मुझे किताब उठा लेने के लिए कहा। देखें खत में क्या लिखा है?" यह कह खत खोल पढ़ने लगे, यह लिखा था-

"मेरा जी तुमसे अटका है और जिसको तुम चाहते हो वह बेचारी तिलिस्म में फंसी है। अगर उसको किसी तरह की तकलीफ होगी तो तुम्हारा जी दुखी होगा। तुम्हारी खुशी से मुझको भी खुशी है यह समझकर किताब तुम्हारे हवाले करती हूं। खुशी से तिलिस्म तोड़ो और चंद्रकान्ता को छुड़ाओ, मगर मुझको भूल न जाना, तुम्हें उसी की कसम जिसको ज्यादा चाहते हो। इस खत का जवाब लिखकर उसी जगह रख देना जहां से किताब उठाओगे।"

खत पढ़कर कुमार ने तुरंत जवाब लिखा-

"इस तिलिस्मी किताब को हाथ में लिए मैंने जिस वक्त तुमको देखा उसी वक्त से तुम्हारे मिलने को जी तरस रहा है। मैं उस दिन अपने को बड़ा भाग्यवान जानूंगा जिस दिन मेरी आंखें दोनों प्रेमियों को देख ठण्डी होगी, मगर तुमको तो मेरी सूरत से नफरत है।

-तुम्हारा वीरेन्द्र।"

जवाब लिखकर कुमार ने उसी जगह पर रख दिया। वे दोनों सवार दूर खड़े दिखाई दिये, कुमार देर तक खड़े राह देखते रहे मगर वे नजदीक न आये। जब कुमार कुछ दूर हट गये तब उनमें से एक ने आकर खत का जवाब उठा लिया और देखते-देखते नजरों की ओट हो गया। कुमार भी फतहसिंह के साथ लश्कर में आये।

कुछ रात गये तेजसिंह वगैरह भी वापस आकर कुमार के खेमे में इकट्ठे हुए। तेजसिंह ने कहा, "आज भी किसी का पता न लगा, हां कई नकाबपोश सवारों को इधर-उधर घूमते देखा। मैंने चाहा कि उनका पता लगाऊं मगर न हो सका क्योंकि वे लोग भी चालाकी से घूमते थे, मगर कल जरूर हम उन लोगों का पता लगा लेंगे।"

कुमार ने कहा, "देखो तुम्हारे किये कुछ न हुआ मगर मैंने कैसी ऐयारी की कि खोई हुई चीज को ढूंढ निकाला, देखो यह तिलिस्मी किताब।" यह कह कुमार ने किताब तेजसिंह के आगे रख दी।

तेजसिंह ने कहा, "आप जो कुछ ऐयारी करेंगे वह तो मालूम ही है मगर यह बताइए कि किताब कैसे हाथ लगी? जो बात होती है ताज्जुब की!"

कुमार ने बिल्कुल हाल किताब पाने का कह सुनाया, तब वह खत दिखाई और जो कुछ जवाब लिखा था वह भी कहा।

ज्योतिषीजी ने कहा, "क्यों न हो, फिर तो बड़े घर की लड़की है, किसी तरह से कुमार को दु:ख देना पसंद न किया। सिवाय इसके खत पढ़ने से यह भी मालूम होता है कि वह कुमार के पूरे-पूरे हाल से वाकिफ है, मगर हम लोग बिल्कुल नहीं जान सकते कि वह है कौन!"

कुमार ने कहा, "इसकी शर्म तो तेजसिंह को होनी चाहिए कि इतने बड़े ऐयार होकर दो-चार औरतों का पता नहीं लगा सकते!"

तेज-पता तो ऐसा लगावेंगे कि आप भी खुश हो जायेंगे, मगर अब किताब मिल गई है तो पहले तिलिस्म के काम से छुट्टी पा लेनी चाहिए।

कुमार-तब तक क्या वे सब बैठी रहेंगी?

तेज-क्या अब आपको कुमारी चंद्रकान्ता की फिक्र न रही?

कुमार-क्यों नहीं, कुमारी की मुहब्बत भी मेरे नस-नस में बसी हुई है, मगर तुम भी तो इंसाफ करो कि इसकी मुहब्बत मेरे साथ कैसी सच्ची है, यहां तक कि मेरे ही सबब से कुमारी चंद्रकान्ता को मुझसे भी बढ़कर समझ रखा है।

तेज-हम यह तो नहीं कहते कि उसकी मुहब्बत की तरफ ख्याल न करें, मगर तिलिस्म का भी तो ख्याल होना चाहिए।

कुमार-तो ऐसा करो जिसमें दोनों का काम चले।

तेज-ऐसा ही होगा, दिन को तिलिस्म तोड़ने का काम करेंगे, रात को उन लोगों का पता लगावेंगे।

आज की रात फिर उसी तरह काटी, सबेरे मामूली कामों से छुट्टी पाकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और ज्योतिषीजी तिलिस्म में घुसे, तिलिस्मी किताब साथ थी। जैसे-जैसे उसमें लिखा हुआ था उसी तरह ये लोग तिलिस्म तोड़ने लगे।

तिलिस्मी किताब में पहले ही यह लिखा हुआ था कि तिलिस्म तोड़ने वाले को चाहिए कि जब पहर दिन बाकी रहे तिलिस्म से बाहर हो जाय और उसके बाद कोई काम लितिस्म तोड़ने का न करे|

बयान 4

तिलिस्मी खंडहर में घुसकर पहले वे उस दलान में गए जहां पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का आदमी सोया हुआ था। कुमार ने इसी जगह से तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाया।

जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ पांच हाथ हटकर कुमार ने अपने हाथ से जमीन खोदी। गज भर खोदने के बाद एक सफेद पत्थर की चट्टान देखी जिसमें उठाने के लिए लोहे की मजबूत कड़ी लगी हुई भी दिखाई पड़ी। कड़ी में हाथ डाल के पत्थर उठाकर बाहर किया। तहखाना मालूम पड़ा, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां बनी थीं।

तेजसिंह ने मशाल जला ली, उसी की रोशनी में सब कोई नीचे उतरे। खूब खुलासा कोठरी देखी, कहीं गर्द या कूडे का नाम-निशान नहीं, बीच में संगमर्मर पत्थर की खूबसूरत पुतली एक हाथ में कांटी दूसरे हाथ में हथौड़ी लिए खड़ी थी।

कुमार ने उसके हाथ से हथौड़ी-कांटी लेकर उसी के बाएं कान में कांटी डाल हथौड़ी से ठोक दी, साथ ही उस पुतली के होंठ हिलने लगे और उसमें से बाजे की-सी आवाज आने लगी, मालूम होता था मानो वह पुतली गा रही है।

थोड़ी देर तक यही कैफियत रही, यकायक पुतली के बाएं-दाहिने दोनों अंग के दो टुकड़े हो गये और उसके पेट में से आठ अंगुल का छोटा-सा गुलाब का पेड़ जिसमें कई फूल भी लगे हुए थे और डाल में एक ताली लटक रही थी निकला, साथ ही इसके एक छोटा-सा तांबे का पत्र भी मिला जिस पर कुछ लिखा हुआ था। कुमार ने उसे पढ़ा-

"इस पेड़ को हमारे यहां के वैद्य अजायबदत्ता ने मसाले से बनाया है। इन फूलों से बराबर गुलाब की खुशबू निकलकर दूर-दूर तक फैला करेगी। दरबार में रखने के लिए यह एक नायाब पौधा सौगात के तौर पर वैद्यजी ने तुम्हारे वास्ते रखा है।"

इसको पढ़कर कुमार बहुत खुश हुए और ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, "यह बहुत अच्छी चीज मुझको मिली, देखिये इस वक्त भी इन फूलों में से कैसी अच्छी खुशबू निकलकर फैल रही है।"

तेज-इसमें तो कोई शक नहीं।

देवी-एक से एक बढ़कर कारीगरी दिखाई पड़ती है!

अभी कुमार बात कर रहे थे कि कोठरी के एक तरफ का दरवाजा खुल गया। अंधेरी कोठरी में अभी तक इन लोगों ने कोई दरवाजा या उसका निशान नहीं देखा था पर इस दरवाजे के खुलने से कोठरी में बखूबी रोशनी पहुंची। मशाल बुझा दी गई और ये लोग उस दरवाजे की राह से बाहर हुए। एक छोटा-सा खूबसूरत बाग देखा। यह बाग वही था जिसमें चपला आई थी और जिसका हाल हम दूसरे भाग में लिख चुके हैं।

बमूजिब लिखे तिलिस्मी किताब के कुमार ने उस ताली में एक रस्सी बांधी जो पुतली के पेट से निकली थी। रस्सी हाथ में थाम ताली को जमीन में घसीटते हुए कुमार बाग में घूमने लगे। हर एक रविशों और क्वारियों में घूमते हुए एक फव्वारे के पास ताली जमीन से चिपक गई। उसी जगह ये लोग भी ठहर गये। कुमार के कहे मुताबिक सबों ने उस जमीन को खोदना शुरू किया। दो-तीन हाथ खोदा था कि ज्योतिषीजी ने कहा, "अब पहर भर दिन बाकी रह गया, तिलिस्म से बाहर होना चाहिए।"

कुमार ने ताली उठा ली और चारों आदमी कोठरी की राह से होते हुए ऊपर चढ़ के उस दलान में पहुंचे जहां चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था,उसके सिरहाने की तरफ जमीन खोदकर जो पत्थर की चट्टान निकली थी उसी को उलटकर तहखाने के मुंह पर ढांप दिया। उसके दोनों तरफ उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी, और उलटी तरफ एक ताला भी बना हुआ था। उसी ताली से जो पुतली के पेट से निकली थी यह ताला बंद भी कर दिया।

चारों आदमी खंडहर से निकल कुमार के खेमे में आये। थोड़ी देर आराम कर लेने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से कह के वनकन्या की टोह में जंगल की तरफ रवाना हुए। इस समय दिन अनुमानत: दो घण्टे बाकी होगा।

ये तीनों ऐयार थोड़ी ही दूर गये होंगे कि एक नकाबपोश जाता हुआ दिखा। देवीसिंह वगैरह पेड़ों की आड़ दिये उसी के पीछे-पीछे रवाना हुए। वह सवार कुछ पश्चिम हटता हुआ सीधो चुनार की तरफ जा रहा था। कई दफे रास्ते में रुका, पीछे फिरकर देखा और बढ़ा।

सूरज अस्त हो गया। अंधेरी रात ने अपना दखल कर लिया, घना जंगल अंधेरी रात में डरावना मालूम होने लगा। अब ये तीनों ऐयार सूखे पत्तो की आवाज पर जो टापों के पड़ने से होती थी जाने लगे। घंटे भर रात जाते-जाते उस जंगल के किनारे पहुंचे।

नकाबपोश सवार घोड़े पर से उतर पड़ा। उस जगह बहुत से घोड़े बंधे थे। वहीं पर अपना घोड़ा भी बांधा दिया, एक तरफ घास का ढेर लगा हुआ था, उसमें से घास उठाकर घोड़े के आगे रख दी और वहां से पैदल रवाना हुआ।

उस नकाबपोश के पीछे-पीछे चलते हुए ये तीनों ऐयार पहर रात बीते गंगा किनारे पहुंचे। दूर से जल में दो रोशनियां दिखाई पड़ीं, मालूम होता था जैसे दो चंद्रमा गंगाजी में उतर आये हैं। सफेद रोशनी जल पर फैल रही थी। जब पास पहुंचे देखा कि एक सजी हुई नाव पर कई खूबसूरत औरतें बैठी हैं, बीच में ऊंची गद्दी पर एक कमसिन नाजुक औरत जिसका रोआब देखने वालों पर छा रहा है बैठी है, चांद-सा चेहरा दूर से चमक रहा है। दोनों तरफ माहताब जल रहे हैं।

नकाबपोश ने किनारे पहुंचकर जोर से सीटी बजाई, साथ ही उस नाव में से इस तरह सीटी की आवाज आई जैसे किसी ने जवाब दिया हो। उन औरतों में से जो उस नाव पर बैठी थीं दो औरतें उठ खड़ी हुईं तथा नीचे उतर एक डोंगी जो उस नाव के साथ बंधी थी, खोलकर किनारे ला नकाबपोश को उस पर चढ़ा ले गयीं।

अब ये तीनों ऐयार आपस में बातें करने लगे-

तेज-वाह, इस नाव पर छूटते हुए दो माहताबों के बीच ये औरतें कैसी भली मालूम होती हैं।

ज्योतिषी-परियों का अखाड़ा मालूम होता है, चलो तैर के उनके पास चलें।

देवी-ज्योतिषीजी, कहीं ऐसा न हो कि परियां आपको उड़ा ले जायं, फिर हमारी मंडली में एक दोस्त कम हो जायगा।

तेज-मैं जहां तक ख्याल करता हूं यह उन्हीं लोगों की मंडली है जिन्हें कुमार ने देखा था।

देवी-इसमें तो कोई शक नहीं।

ज्यो-तो तैर के चलते क्यों नहीं? तुम तो जल से ऐसा डरते हो जैसे कोई बुङ्ढा आफियूनी डरता हो।

देवी-फिर तुम्हारे साथ आने से क्या फायदा हुआ? तुम्हारी तो बड़ी तारीफ सुनते थे कि ज्योतिषीजी ऐसे हैं, वैसे हैं, पहिया हैं, चर्खे हैं मगर कुछ नहीं,एक अदनी-सी मंडली का पता नहीं लगा सकते।

ज्यो-मैं क्या खाक बताऊं? वे लोग तो मुझसे भी ज्यादे ओस्ताद मालूम होती हैं! सबों ने अपने-अपने नाम ही बदल दिये हैं, असल नाम का पता लगाना चाहते हैं तो अजीब-गरीब नामों का पता लगता है। किसी का नाम वियोगिनी, किसी का नाम योगिनी, किसी का भूतनी किसी का डाकिनी, भला भताइये क्या मैं मान लूं कि इन लोगों के यही नाम हैं?

तेज-तो इन लोगों ने अपना नाम क्यों बदल लिया?

ज्यो-हम लोगों को उल्लू बनाने के लिए।

देवी-अच्छा नाम जाने दीजिये इनके मकाम का पता लगाइये।

ज्यो-मकाम के बारे में जब रमल से दरियाफ्त करते हैं तो मालूम होता है कि इन लोगों का मकाम जल में है, तो क्या हम समझ लें कि ये लोग जलवासी अर्थात् मछली हैं।

तेज-यह तो ठीक ही है, देखिए जलवासी हैं कि नहीं?

ज्यो-भाई सुनो, रमल के काम में ये चारों पदार्थ-हवा, पानी, मिट्टी और आग हमेशा विघ्न डालते हैं। अगर कोई आदमी ज्योतिषी या रम्माल को छकाना चाहे तो इन चारों के हेर-फेर से खूब छकाया जा सकता है। ज्योतिषी बेचारा खाक न कर सके, पोथी-पत्र बेकार का बोझ हो जाय।

तेज-यह कैसे? खुलासा बताओ तो कुछ हम लोग भी समझें, वक्त पर काम ही आवेगा।

ज्यो-बता देंगे, इस वक्त जिस काम को आये हो वह करो। चलो तैरकर चलें।

तेज-चलो।

ये तीनों ऐयार तैरकर नाव के पास गये। बटुआ ऐयारी का कमर में बांधा कपड़ा-लत्ता किनारे रखकर जल में उतर गये। मगर दो-चार हाथ गये होंगे कि पीछे से सीटी की आवाज आई, साथ ही नाव पर जो माहताब जल रहे थे बुझ गये, जैसे किसी ने उन्हें जल्दी से जल में फेंक दिया हो। अब बिल्कुल अंधेरा हो गया, नाव नजरों से छिप गई। देवीसिंह ने कहा, "लीजिए, चलिए तैर के!"

तेज-ये सब बड़ी शैतान मालूम होती हैं?

ज्यो-मैंने तो पहले ही कहा कि ये सब की सब आफत हैं, अब आपको मालूम हुआ न कि मैं सच कहता था, इन लोगों ने हमारे नजूम को मिट्टी कर दिया है।

देवी-चलिये किनारे, इन्होंने तो बेढब छकाया, मालूम होता है कि किनारे पर कोई पहरे वाला खड़ा देखता था। जब हम लोग तैर के जाने लगे उसने सीटी बजाई, बस अधेरा हो गया, पहले ही से इशारा बंधा हुआ था।

ज्यो-इस नालायक को यह क्या सूझी कि जब हम लोग पानी में उतर चुके तब सीटी बजाई, पहले ही बजाता तो हम लोग क्यों भीगते?

ये तीनो ऐयार लौटकर किनारे आये, पहिरने के वास्ते अपना कपड़ा खोजते हैं तो मिलता ही नहीं।

देवी-ज्योतिषीजी पालागी, लीजिए कपड़े भी गायब हो गये! हाय इस वक्त अगर इन लोगों में से किसी को पाऊं तो कच्चा ही चबा जाऊं।

तेज-हम तो उन लोगों की तारीफ करेंगे, खूब ऐयारी की।

देवी-हां-हां खूब तारीफ कीजिए जिससे उन लोगों में से अगर कोई सुनता हो तो अब भी आप पर रहम करे और आगे न सतावे।

ज्यो-अब क्या सताना बाकी रह गया! कपड़े तक तो उतरवा लिये!

तेज-चलिए अब लश्कर में चलें, इस वक्त और कुछ करते बन न पड़ेगा।

आधी रात जा चुकी होगी जब ये लोग ऐयारी के सताये बदन से नंग-धाड़ंग कांपते-कलपते लश्कर की तरफ रवाना हुए।

बयान 5

तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के जाने के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबड़ाती थी। सबेरा हुआ ही चाहता था जब ये तीनों ऐयार लश्कर में पहुंचे। तेजसिंह की राय हुई कि इसी तरह नंग-धाड़ंग कुमार के पास चलना चाहिए, आखिर तीनों उसी तरह उनके खेमे में गये।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह जाग रहे थे, शमादान जल रहा था, इन तीनों ऐयारों की विचित्र सूरत देख हैरान हो गये। पूछा, "यह क्या हाल है?" तेजसिंह ने कहा, "बस अभी तो सूरत देख लीजिए बाकी हाल जरा दम ले के कहेंगे।"

तीनों ऐयारों ने अपने-अपने कपड़े मंगवाकर पहरे, इतने में साफ सबेरा हो गया। कुमार ने तेजसिंह से पूछा, "अब बताओ तुम लोग किस बला में फंस गए?"

तेज-ऐसा धोखा खाया कि जन्म भर याद करेंगे।

कुमार-वह क्या?

तेज-जिनके ऊपर आप जान दिये बैठे हैं, जिनकी खोज में हम लोग मारे-मारे फिरते हैं, इसमें तो कोई शक नहीं कि उनका भी प्रेम आपके ऊपर बहुत है,मगर न मालूम इतनी छिपी क्यों फिरती हैं और इसमें उन्होंने क्या फायदा सोचा है?

कुमार-क्या कुछ पता लगा?

तेज-पता क्या आंख से देख आये हैं तभी तो इतनी सजा मिली। उनके साथ भी एक से एक बढ़ के ऐयार हैं, अगर ऐसा जानते तो होशियारी से जाते।

कुमार-भला खुलासा कहो तो कुछ मालूम भी हो।

तेजसिंह ने सब हाल कहा, कुमार सुनकर हंसने लगे और ज्योतिषीजी से बोले, "आपके रमल को भी उन लोगों ने धोखा दिया।"

ज्यो-कुछ न पूछिए, सब आफत हैं!

कुमार-उन लोगों का खुलासा हाल नहीं मालूम हुआ तो भला इतना ही विचार लेते कि शिवदत्त के ऐयारों की कुछ ऐयारी तो नहीं है?

ज्यो-नहीं, शिवदत्त के ऐयारों से और उन लोगों से कोई वास्ता नहीं बल्कि उन लोगों को इनकी खबर भी न होगी, इस बात को मैं खूब विचार चुका हूं।

तेज-इतनी ही खैरियत है।

देवी-आज दिन ही को चलकर पता लगायेंगे।

तेज-तिलिस्म तोड़ने का काम कैसे चलेगा?

कुमार-एक रोज काम बंद रहेगा तो क्या होगा?

तेज-इसी से तो मैं कहता हूं कि चंद्रकान्ता की मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है।

कुमार-कभी नहीं, चंद्रकान्ता से बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं चाहता मगर न मालूम क्या सबब है कि वनकन्या का हाल मालूम करने के लिए भी जी बेचैन रहता है।

तेज-(हंसकर) खैर पहले तो पंडित बद्रीनाथ ऐयार को ले जाकर उस खोह में कैद करना है फिर दूसरा काम देखेंगे, कहीं ऐसा न हो कि वे छूट के चल दें।

कुमार-आज ही ले जाकर छोड़ आओ।

तेज-हां अभी उनको ले जाता हूं, वहां रखकर रातों-रात लौट आऊंगा, पंद्रह कोस का मामला ही क्या है, तब तक देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की खोज में गये।

तेजसिंह की राय पक्की ठहरी, वे स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तैयार हुए, खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर बद्रीनाथ को खिलाई गईं और जब वे बेहोश हो गये तब तेजसिंह गट्ठर बांधाकर पीठ पर लाद खोह की तरफ रवाना हुए। कुमार ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को वनकन्या की टोह में भेजा।

तेजसिंह पंडित बद्रीनाथ की गठरी लिये शाम होते-होते तहखाने में पहुंचे। शेर के मुंह में हाथ डाल जुबान खींची और तब दूसरा ताला खोला, मगर दरवाजा न खुला। अब तो तेजसिंह के होश उड़ गए, फिर कोशिश की, लेकिन किवाड़ न खुला। बैठ के सोचने लगे, मगर कुछ समझ में न आया। आखिर लाचार हो बद्रीनाथ की गठरी लादे वापिस हुए।

बयान 6

देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की टोह में निकलकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला जिसने पुकार के कहा-

"देवीसिंह कहां जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते देकर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखलाकर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।"

नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, "सुन लीजिए! यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखलायेंगे जो शर्म के मारे अपना मुंह तक नहीं दिखा सकते।"

नकाब-ज्योतिषीजी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफे फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।

देवी-अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।

नकाब-रहेंगे नहीं तो जायेंगे कहां? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।

बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूदकर सवार के मुंह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके।

सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ाकर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिन्दगी के साथ खतउठाकर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था-

"कुंअर वीरेन्द्रसिंह"

ज्योतिषीजी ने देवीसिंह से कहा, "न मालूम ये लोग कहां के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं सब ऐयार ही हैं।"

देवी-(खत जेब में रखकर) इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफे हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग के तब नकाब डाले हुए था।

ज्यो-खैर देखा जायगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देनी चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।

देवी-हां चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।

दोनों आदमी लौटकर लश्कर में आये और कुंअर वीरेन्द्रसिंह के डेरे में पहुंचकर सब हाल कह खत हाथ में दे दी। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

"चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं हो सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिखकर इकरार न कर लें।

(1) चंद्रकान्ता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।

(2) चंद्रकान्ता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊं क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूं।

अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूंगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूं कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चंद्रकान्ता को नहीं पा सकते।"

कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चंद्रकान्ता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे! सिवाय इसके यहां यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर सो सब जो भी हो वनकन्या के बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूंगा पीछे समझा जायगा। कुमारी चंद्रकान्ता मेरी बात जरूर मान लेगी।

देवीसिंह और ज्योतिषीजी को भी कुमार ने वह खत दिखाई। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।

दिन और रात भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाय। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे।

कुमार ने पूछा, "वापस क्यों आ गये?"

तेज-क्या बतावें मामला ही बिगड़ गया।

कुमार-सो क्या?

तेज-तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।

कुमार-किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।

तेज-नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।

ज्यो-दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुंचा जिसने दरवाजा खोलने की कल बिगाड़ दी, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।

तेज-भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फंसावेंगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।

कुमार-कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।

तेज-आप भी गजब करते हैं, कहां बेचारी वनकन्या कहां वह तिलिस्मी तहखाना!

कुमार-तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखी है कि-बिना मेरी मदद के तुम चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूं और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।

देवी-मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।

तेज-अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिये उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।

ज्यो-यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।

तेज-(कुमार से) भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चंद्रकान्ता से मुलाकात नहीं हो सकती।

कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गये कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती। कुमार ने कहा, "तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।"

तेज-जो मुनासिब समझिये कीजिए, चंद्रकान्ता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहां की रहने वाली और किसकी लड़की है?

कुमार-उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि 'मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूं।'

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, "एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।" कुमार ने कहा, "उसे ले आओ।" चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सबों ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बांस की टोपी, ढाल-तलवार लगाये था। उसने झुककर कुमार को सलाम किया।

सबों को उसकी सूरत देखकर हंसी आयी मगर हंसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा, "तुम कौन हो और कहां से आये हो?" उस बांके जवान ने कहा, "मैं देवता हूं, दैत्यों की मंडली से आ रहा हूं, कुमार ने उस खत का जवाब चाहता हूं जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।"

तेज-भला तुमने ज्योतिषीजी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?

बांका-ज्योतिषीजी को तो मैं तब से जानता हूं जब से वे इस दुनिया में नहीं आये थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।

देवी-क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?

बांका-बेअदबी तो आप करते हैं कि ओस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते!

देवी-मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहां ले आई है।

बांका-मैं तो स्वयं मौत हूं।

देवी-इस बेअदबी का मजा चखाऊं तुझको?

बांका-मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूं, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुककर सलाम करोगे।

देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा, "चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो!

बांका-अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चंपा को बुला लाऊंगा।

उस बांके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हंस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं!

तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे। वह बोला, "आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूं, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मंगाइए धोकर दिखा दूं, मैं आज से काला नहीं हूं, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।"

तेजसिंह हंस पड़े और बोले, "जो हो अच्छे हो, मुझे और जांचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या?ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।"

यह सुन उसने झुककर सलाम किया और कुमार की तरफ देखकर कहा, "मुझको जवाब मिल जाय क्योंकि बड़ी दूर जाना है।" कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया, "मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।" बाद इसके अपनी अंगूठी से मोहर कर उस बांके जवान के हवाले किया, वह खत लेकर खेमे के बाहर हो गया।

बयान 7

आज तेजसिंह के वापस आने और बांके-तिरछे जवान के पहुंचकर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में लाकर पहरे में किया और कुमार से कहा, "अब स्नान-पूजा करें फिर जो कुछ होगा सोचा जायगा, दो रोज से तिलिस्म का भी कोई काम नहीं होता।"

कुमार ने दरबार बर्खास्त किया, स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर खेमे में बैठे, ऐयार लोग और फतहसिंह भी हाजिर हुए। अभी किसी किस्म की बातचीत नहीं हुई थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, "एक बुङ्ढी औरत बाहर हाजिर हुई है, कुछ कहा चाहती है, हम लोग पूछते हैं तो कुछ नहीं बताती, कहती है जो कुछ है कुमार से कहूंगी क्योंकि उन्हीं के मतलब की बात है।"

कुमार ने कहा, "उसे जल्दी अंदर लाओ।" चोबदार ने उस बुङ्ढी को हाजिर किया, देखते ही तेजसिंह के मुंह से निकला, "क्या पिशाचों और डाकिनियों का दरबा खुल पड़ा है?"

उस बुङ्ढी ने भी यह बात सुन ली, लाल-लाल आंखें कर तेजसिंह की तरफ देखने लगी और बोली, "बस कुछ न कहूंगी जाती हूं, मेरा क्या बिगड़ेगा, जो कुछ नुकसान होगा कुमार का होगा।" यह कह खेमे के बाहर चली गई। कुमार का इशारा पा चोबदार समझा-बुझाकर उसे पुन: ले आया।

यह औरत भी अजीब सूरत की थी। उम्र लगभग सत्तार वर्ष के होगी, बाल कुछ-कुछ सफेद, आधो से ज्यादा दांत गायब, लेकिन दो बड़े-बड़े और टेढ़े आगे वाले दांत दो-दो अंगुल बाहर निकले हुए थे जिनमें जर्दी और कीट जमी हुई थी। मोटे कपड़े की साड़ी बदन पर थी जो बहुत ही मैली और सिर की तरफ से चिक्कट हो रही थी। बड़ी-सी पीतल की नथ नाक में और पीतल ही के घुंघरू पैर में पहिरे हुए थे।

तेजसिंह ने कहा, "क्यों क्या चाहती हो?"

बुङ्ढी-जरा दम ले लूं तो कहूं, फिर तुमसे क्यों कहने लगी जो कुछ है खास कुमार ही से कहूंगी।

कुमार-अच्छा मुझ ही से कह, क्या कहती है?

बुङ्ढी-तुमसे तो कहूंगी ही, तुम्हारे बड़े मतलब की बात है। (खांसने लगती है)

देवी-अब डेढ़ घंटे तक खांसेगी तब कहेगी?

बुङ्ढी-फिर दूसरे ने दखल दिया!

कुमार-नहीं-नहीं, कोई न बोलेगा।

बुङ्ढी-एक बात है, मैं जो कुछ कहूंगी तुम्हारे मतलब की कहूंगी जिसको सुनते ही खुश हो जाओगे, मगर उसके बदले में मैं भी कुछ चाहती हूं।

कुमार-हां-हां तुझे भी खुश कर देंगे।

बुङ्ढी-पहले तुम इस बात की कसम खाओ कि तुम या तुम्हारा कोई आदमी मुझको कुछ न कहेगा और मारने-पीटने या कैद करने का तो नाम भी न लेगा!

कुमार-जब हमारे भले की बात है तो कोई तुमको क्यों मारने या कैद करने लगा!

बुङ्ढी-हां यह तो ठीक है, मगर मुझे डर मालूम होता है क्योंकि मैंने आपके लिए वह काम किया है कि अगर हजार बरस भी आपके ऐयार लोग कोशिश करते तो वह न होता, इस सबब से मुझे डर मालूम होता है कि कहीं आपके ऐयार लोग खार खाकर मुझे तंग न करें।

उस बुङ्ढी की बात सुनकर सब दंग हो गये और सोचने लगे कि यह कौन-सा ऐसा काम कर आई है कि आसमान पर चढ़ी जाती है। आखिर कुमार ने कसम खाई कि 'चाहे तू कुछ कहे मगर हम या हमारा कोई आदमी तुझे कुछ न कहेगा' तब वह फिर बोली, "मैं उस वनकन्या का पूरा पता आपको दे सकती हूं और एक तरकीब ऐसी बता सकती हूं कि आप घड़ी भर में बिल्कुल तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता से जा मिलें।"

बुङ्ढी की बात सुनकर सब खुश हो गये। कुमार ने कहा, "अगर ऐसा ही है तो जल्द बता कि वह वनकन्या कौन है और घड़ी भर में तिलिस्म कैसे टूटेगा?"

बुङ्ढी-पहले मेरे इनाम की बात तो कर लीजिए।

कुमार-अगर तेरी बात सच हुई तो जो कहेगी वही इनाम मिलेगा।

बुङ्ढी-तो इसके लिए कसम खाइये।

कुमार-अच्छा क्या इनाम लेगी, पहले यह तो सुन लूं।

बुङ्ढी-बस और कुछ नहीं केवल इतना ही कि आप मुझसे शादी कर लें, वनकन्या और चंद्रकान्ता से तो चाहे जब शादी हो मगर मुझसे आज ही हो जाय क्योंकि मैं बहुत दिनों से तुम्हारे इश्क में फंसी हुई हूं, बल्कि तुम्हारे मिलने की तरकीब सोचते-सोचते बुङ्ढी हो चली। आज मौका मिला कि तुम मेरे हाथ फंस गये, बस अब देर मत करो नहीं तो मेरी जवानी निकल जायगी, फिर पछताओगे।

बुङ्ढी की बातें सुन मारे गुस्से के कुमार का चेहरा लाल हो गया और उनके ऐयार लोग भी दांत पीसने लगे मगर क्या करें लाचार थे, अगर कुमार कसम न खा चुके होते तो ये लोग उस बुङ्ढी की पूरी दुर्गति कर देते।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, "आप बताइए यह कोई ऐयार है या सचमुच जैसी दिखाई देती है वैसी ही है? अगर कुमार कसम न खाये होते तो हम लोग किसी तरकीब से मालूम कर ही लेते।"

ज्योतिषीजी ने अपनी नाक पर हाथ रखकर स्वांस का विचार करके कहा, "यह ऐयार नहीं है, जो देखते हो वही है।" अब तो तेजसिंह और भी बिगड़े,बुङ्ढी से कहा, "बस तू यहां से चली जा, हम लोग कुमार के कसम खाने को पूरा कर चुके कि तुझे कुछ न कहा, अगर अब जाने में देर करेगी तो कुत्तो से नुचवा डालूगा। क्या तमाशा है! ऐसी-ऐसी चुड़ैलें भी कुमार पर आशिक होने लगीं!"

बुङ्ढी ने कहा, "अगर मेरी बात न मानोगे तो पछताओगे, तुम्हारा सब काम बिगाड़ दूंगी, देखो उस तहखाने में मैंने कैसा ताला लगा दिया कि तुमसे खुल न सका, आखिर बद्रीनाथ की गठरी लेकर वापस आए, अब जाकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा देती हूं, फिर और फसाद करूंगी!

यह कहती हुई गुस्से के मारे लाल-लाल आंखें किये खेमे के बाहर निकल गई, तेजसिंह के इशारे से देवीसिंह भी उसके पीछे चले गए।

कुमार-क्यों तेजसिंह, यह चुडैल तो अजब आफत मालूम पड़ती है, कहती है कि तहखाने में मैंने ही ताला लगा दिया था।

तेज-क्या मामला है कुछ समझ में नहीं आता!

ज्यो-अगर इसका कहना सच है तो हम लोगों के लिए यह एक बड़ी भारी बला पैदा हुई।

तेज-इसकी सच्चाई-झुठाई तो शिवदत्त के छूटने ही से मालूम हो जायगी, अगर सच्ची निकली तो बिना जान से मारे न छोड़ूंगा।

ज्यो-ऐसी को मारना ही जरूरी है।

तेज-कुमार ने कुछ यह कसम तो खाई नहीं है कि जन्म भर कोई उसको कुछ न कहेगा।

कुमार-(लंबी सांस लेकर) हाय, आज मुझको यह दिन भी देखना पड़ा।

तेज-आप चिंता न कीजिए, देखिये तो हम लोग क्या करते हैं, देवीसिंह उसके पीछे गये ही हैं कुछ पता लिए बिना नहीं आते।

कुमार-आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है, कुछ वनकन्या का पता लगाया, कुछ अब डाकिनी की खबर लोगे!

कुमार की यह बात तेजसिंह और ज्योतिषीजी को तीर के समान लगी मगर कुछ बोले नहीं, सिर्फ उठ के खेमे के बाहर चले गए।

इन लोगों के चले जाने के बाद कुमार खेमे में अकेले रह गये, तरह-तरह की बातें सोचने लगे, कभी चंद्रकान्ता की बेबसी और तिलिस्म में फंस जाने पर,कभी तिलिस्म टूटने में देर और वनकन्या की खबर या ठीक-ठीक हाल न पाने पर, कभी इस बुङ्ढी चुड़ैल की बातों पर जो अभी शादी करने आई थी अफसोस और गम करते रहे। तबीयत बिल्कुल उदास थी। आखिर दिन बीत गया और शाम हुई।

कुमार ने फतहसिंह को बुलाया, जब वे आये तो पूछा, "तेजसिंह कहां हैं?" उन्होंने जवाब दिया, "कुछ मालूम नहीं, ज्योतिषीजी को साथ लेकर कहीं गये हैं?"

बयान 8

देवीसिंह उस बुङ्ढी के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुङ्ढी चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गये तक वह चुडैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुंची जिसके दोनों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अंदर जा वह एक खोह में घुस गई जिसका मुंह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था।

देवीसिंह ने समझा शायद यही इसका घर होगा, यह सोच पेड़ के नीचे बैठ गये। रात भर उसी तरह बैठे रह गये मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली। सबेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

उस खोह के अंदर बिल्कुल अंधकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है। लगभग दो मील गये होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नजर आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बढ़ी मालूम होती थी, जब पास पहुंचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाजा देखा।

देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी-सी पहाड़ी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ाकर देखा तो चारों तरफ घना जंगल। कुछ मालूम न पड़ा कि कहां चले आए और लश्कर में जाने की कौन-सी राह है। दिन भी पहर भर से ज्यादे जा चुका था। सोचने लगे कि उस बुङ्ढी ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकलकर कहां चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है। फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जंगल-जंगल लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायं तो और भी खराबी हो, बड़ी भूल हुई कि रात को बुङ्ढी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे,मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

देवीसिंह मारे गुस्से के दांत पीसने लगे मगर कर ही क्या सकते थे? बुङ्ढी तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुंचे।

कुमार के खेमे में गये, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सब कोई खेमे के बाहर चले गये सिर्फ फतहसिंह रह गये। कुमार ने पूछा, "क्यो उस बुङ्ढी की क्या खबर लाए?"

देवी-बुङ्ढी ने तो बेहिसाब धोखा दिया!

कुमार-(हंसकर) क्या धोखा दिया?

देवीसिंह ने बुङ्ढी के पीछे जाकर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुनकर कुमार और भी उदास हुए। देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा, "हमारे ओस्ताद और ज्योतिषीजी कहां हैं?"

उन्होंने जवाब दिया कि "बुङ्ढी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत रंज में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई। इतना सुन गुस्से में आकर ज्योतिषीजी को साथ ले कहीं चले गए, अभी तक नहीं आए।"

देवी-कब गए?

फतह-तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।

देवी-इतने गुस्से में ओस्ताद का जाना खाली न होगा, जरूर कोई अच्छा काम करके आवेंगे!

कुमार-देखना चाहिए।

इतने में तेजसिंह और ज्योतिषीजी वहां आ पहुंचे। इस वक्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट झलक रही थी जिससे सब समझे कि जरूर कोई काम कर आए हैं। कुमार ने पूछा, "क्यों क्या खबर है?"

तेज-अच्छी खबर है।

कुमार-कुछ कहोगे भी कि इसी तरह?

तेज-आप सुन के क्या कीजिएगा?

कुमार-क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?

तेज-आपके सुनने लायक क्यों नहीं है मगर अभी न कहेंगे।

कुमार-भला कुछ तो कहो?

तेज-कुछ भी नहीं।

देवी-भला ओस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?

तेज-क्या तुमने ओस्ताद कहकर पुकारा इससे तुमको बता दें?

देवी-झख मारोगे और बताओगे!

तेज-(हंसकर) तुम कौन-सा जस लगा आए पहले यह तो कहो?

देवी-मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया।

तेज-तो बस हो चुका।

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर हाथ जोड़ अर्ज किया कि "महाराज शिवदत्त के दीवान आये हैं।" सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा, "अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।"

महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाजिर हुए और सलाम करके बहुत-सा जवाहरात नजर किया। कुमार ने हाथ से छू दिया। दीवान ने अर्ज किया, "यह नजर महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूं। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज कैद से छूट गये हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी कबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, बाद इसके मुझको यह नजर और अपने हाथ की लिखी खत देकर हुजूर में भेजा है, इस नजर को कबूल किया जाय!"

कुमार ने नजर कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे खत देकर बैठ गये।

कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक्त दरबारेआम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि खत जोर से पढ़ो। तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लंबे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था-

"मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की कैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहला सकता है। आप जरूर इस बात को सोचेंगे कि मैं आपकी दया से कैसे छूटा, आपने तो कैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा हाल नहीं कह सकता और न हाजिर ही हो सकता हूं। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा यकीन हो जायगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे बिल्कुल कसूरों को माफ करके यह नजर कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दगा न करेगा और आप भी इस बात का ख्याल रखें।

-आपका शिवदत्त।"

इस खत को सुनकर सब खुश हो गए। कुमार ने हुक्म दिया कि पंडित बद्रीनाथजी, जो हमारे यहां कैद हैं लाये जावें। जब वे आये कुमार के इशारे से उनके हाथ-पैर खोल दिए गए। उन्हें भारी खिलअत पहिराकर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहां रहकर चुनार जायें। फतहसिंह को उनकी मेहमानी के लिए हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया।

बयान 9

जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को लेकर अपने खेमे में गये। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह,देवीसिंह, और ज्योतिषीजी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के और कोई वहां न था।

कुमार-क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली!

तेज-जी हां, मगर महाराज शिवदत्त की खत से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।

देवी-उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो।

ज्यो-इस वक्त बहुत सोच-विचारकर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।

तेज-आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो यह खत शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखी है या खुटाई रख के।

ज्यो-(कुछ विचारकर) यह खत तो उसने सच्चे दिल से लिखी है मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।

तेज-आजकल तो ऐसे-ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता! अगर यह खत उसने सच्चे दिल से ही लिखी है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?

ज्यो-इसका भी जरूर कोई सबब होगा।

कुमार-क्या आप रमल से नहीं बता सकते कि वह कैसे छूटा।

ज्यो-जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्मी है जिसमें महाराज शिवदत्त कैद किए गए थे।

तेज-कुछ समझ में नहीं आता!

देवी-वह चुडैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।

ज्यो-कभी नहीं, मैं सोच चुका हूं, ऐयारी का तो वह नाम भी नहीं जानती।

कुमार-खैर जो कुछ होगा देखा जायगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में जरूर हाथ लगाना चाहिए।

तेज-हां कल जरूर तिलिस्म की कार्रवाई शुरू हो।

कुमार-अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।

तीनों ऐयार कुमार से बिदा हो अपने डेरे में गए। दूसरे दिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गए। तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दलान में पहुंचकर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान को निकालकर अलग किया और नीचे उतरकर कोठरी में होते हुए बाग में पहुंचे जहां थोड़ी-सी जमीन खोदकर छोड़ आये थे।

उसी जमीन को ये लोग मिलकर फिर खोदने लगे। आठ-नौ हाथ जमीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुंह एक छोटे से तांबे के पत्तार से ढंका हुआ था जिससे अंदर मिट्टी न जाने पावे।

कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें मगर न हो सका। ज्यों-ज्यों चारों तरफ से मिट्टी हटाते थे नीचे से संदूक चौड़ा निकल आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह जमीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार होकर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था-

"ताली में रस्सी बांधाकर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली जमीन से चिपक जायगी। वहां की मिट्टी हटाकर ताली उठा लेना,बाद इसके उस जमीन को खोदना, जब तक कि एक संदूक का मुंह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आवे खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में यह संदूक नहीं दरवाजा है। बाग के बीचो ंबीच जो फव्वारा है उसके पूरब तरफ ठीक सात हाथ हटकर जमीन खोदना, एक हांडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे लाकर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियां दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।

भीतर से वह तहखाना बहुत अंधेरा और धुएं से भरा हुआ होगा। खबरदार कोई रोशनी मत करना क्योंकि आग या मशाल के लगने ही से वह धुआं बल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुंह पर कपड़ा लपेटकर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआं दिमाग में न चढ़ने पावे। थोड़ी ही दूर जाकर एक चमकती कोठरी मिलेगी जिसमें की कुल चीजें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई जरूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी इन तारों को काटकर बाहर निकल आना।"

इतना पढ़कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फव्वारे से सात हाथ पूरब हटकर जमीन खोदी, हांडी निकली, उसमें से ताली निकालकर तहखाने का मुंह खोला। देवीसिंह ने कहा, "अब अपने-अपने मुंह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है, रोशनी मत करो, अंधेरामें टटोलते चलो, आंख रहते अंधो बनो और जल्दी-जल्दी चलो, दिमाग में धुआं भी न चढ़ने पावे!"

देवीसिंह की बात सुनकर कुमार हंस पड़े। सबों ने मुंह पर कपड़े लपेटे और घुसकर चमकती हुई कोठरी में पहुंचे। जहां तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काटकर तहखाने से बाहर निकल आये।

मुंह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे तिस पर भी थोड़ा-बहुत धुआं दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सबों की तबीयत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकलकर दो घंटे तक चारों आदमी बेसुधा पड़े रहे, जब होश-हवाश ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, "अब दिन कितना बाकी है?" उन्होंने जवाब दिया, "अभी चार घंटा बाकी है।"

कुमार ने कहा, "अब कोई काम करने का वक्त नहीं रहा। एक घंटे में क्या हो सकता है?" ज्येतिषीजी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग से बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खंडहर के दलान में आये। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुंह पर रख ताला बंद कर दिया और खंडहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आये।

थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि जरा जंगल में इधर-उधर घूमकर हवा खानी चाहिए। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गये, आखिर तीनों ऐयारों को साथ लेकर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर और तीनों ऐयार पैदल थे।

कुमार धीरे- धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गये होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक कागज चिपका नजर पड़ा। तेजसिंह ने कहा, "देखो यह कैसा कागज चिपका है और क्या लिखा है?" यह सुनकर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जाकर कागज पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

"क्यों, अब तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूं! कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घंटे में तिलिस्म तोड़कर चंद्रकान्ता से मिलने की तरकीब बता दूं। लेकिन तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिखकर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरंत तुम्हारे पास चली आऊंगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अबकी दफे मैं चंद्रकान्ता और चपला को जान से मार कलेजा ठण्डा करूंगी। मुझे तिलिस्म में जाते कितनी देर लगती है। दिन में तेरह दफे जाऊं और आऊं। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ ख्याल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया था मगर क्या कर सके?मानो, मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है। अब भी समझ जाओ!

-तुम्हारी सूरजमुखी।"

इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सबों को अपने पास बुलाया और कहा, "आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।"

आखिर में 'सूरजमुखी' पढ़कर सबों को हंसी आ गई। कुमार ने कहा, "देखो इस चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है।" तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, "देखिए यह सब क्या लिखा है!"

ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, "चाहे जो भी हो, मगर मैं भी ठीक कहे देता हूं कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इस लिखावट की तरफख्याल न कीजिये।"

कुमार ने कहा, "आपका कहना ठीक है मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।" इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए कागज चिपके हुए दिखाई पड़े। ज्योतिषीजी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास होकर अपने लश्कर में लौट आये और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गये।

थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बातचीत होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा, "हम लोग इस वक्त बालादवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नजर पड़ जाय।" यह कहकर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से बिदा हो गश्त लगाने चले गये। कुमार भी कुछ भोजन करके पलंग पर जा लेटे। नींद काहे को आनी थी, पड़े-पड़े कुमारी चंद्रकान्ता की बेबसी, वनकन्या की चाह, और बुङ्ढी चुडैल की शैतानी को सोचते-सोचते आधी रात से भी ज्यादे गुजर गई। इतने में खेमे के अंदर किसी के आने की आहट मिली, दरवाजे की तरफ देखा तो तेजसिंह नजर पड़े। बोले, "कहो तेजसिंह, कोई नई खबर लाये क्या!"

तेज-हां एक बढ़िया चीज हाथ लगी है?

कुमार-क्या है? कहां है? देखूं।

तेज-खेमे के बाहर चलिये तो दिखाऊं।

कुमार-चलो।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा, "यह भीड़ कैसी है?"तेजसिंह ने कहा, "चलिए देखिये, बड़ी खुशी की बात है!"

कुमार के पास पहुंचते ही भीड़ हटा दी गई। कई मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है,कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ अभी तक मौजूद है। कुमार ने तेजसिंह से कहा, "क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।"

तेज-भला हम लोग एकाएक इस तरह किसी को मारते हैं?

कुमार-तो फिर किसने मारा?

तेज-मैं क्या जानूं।

कुमार-फिर लाश को कहां से लाये?

तेज-बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खंडहर के पिछवाड़े चले गये। दूर से देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जायं, वे सब भाग गये। देखा तो क्रूर की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहां से डोली और कहार मंगवाये और इस लाश को त्यों का ज्यों उठवा लाए, अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है मगर बचेगा नहीं।

कुमार-बड़े ताज्जुब की बात है! इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा हुआ है।

तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धो कर कुमार के पास लाये। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह की तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में 'चपला' का नाम खुदा हुआ था। तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा, "देखिए इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता हूं, यह बराबर चपला के कमर में बंधा रहता था। मगर फिर यहां कैसे आया? क्या चपला ही ने इसे मारा है?"

देवी-चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चंद्रकान्ता के पास बैठी होगी जहां चिराग भी न जलता होगा।

कुमार-तो वहां से इस खंजर को कौन लाया?

तेज-इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहां क्यों आया! यह तो महाराज शिवदत्त के साथ था और उनका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।

कुमार-किसी को भेजकर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलाओ।

तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जाकर बुला लाओ। देवीसिंह गये, उन्हें नींद से उठाकर कुमार का संदेशा दिया, वे बेचारे भी घबराए हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आए। फतहसिंह भी उसी जगह पहुंचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश देखते ही बोले, "बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुंच चुका मगर इसके साथी अहमद और नाज़िम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठण्डा होता।" कुमार ने पूछा, "क्या यह आपके यहां अब नहीं है!"

दीवान साहब ने जवाब दिया, "नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूटकर आए और हुक्म दिया कि हमारे यहां का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का ख्याल न रखे उसी वक्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाज़िम और अहमद को साथ लेकर चुनार से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।"

देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफे हिचकी ली और दम तोड़ दिया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, "अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुंचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जायगा।" तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने-अपने खेमे में गए।

बयान 10

सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे। स्याह पत्थर के दलान में बैठ गए और तिलिस्मी किताब खोलकर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ था-

"जब तुम तहखाने में उतर धुएं से जो उसके अंदर भरा होगा दिमाग को बचाकर तारों को काट डालोगे तब उसके थोड़ी ही देर बाद कुल धुआं जाता रहेगा। स्याह पत्थर की बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर चौखूटे सुर्ख पत्थर पर कुछ लिखा हुआ तुमने देखा होगा, उसके छूने से आदमी के बदन में सनसनाहट पैदा होती है बल्कि उसे छूने वाला थोड़ी देर में बेहोश होकर गिर पड़ता है मगर ये कुल बातें उन तारों के कटने से जाती रहेंगी क्योंकि अंदर ही अंदर यह तहखाना उस बारहदरी के नीचे तक चला गया है और उसी सिंहासन से उन तारों का लगाव है जो नीचे मसालों और दवाइयों में घुसे हुए हैं। दूसरे दिन फिर धुएं वाले तहखाने में जाना, धुआं बिल्कुल न पाओगे। मशाल जला लेना और बेखौफ जाकर देखना कि कितनी दौलत तुम्हारे वास्ते वहां रखी हुई है। सब बाहर निकाल लो और जहां मुनासिब समझो रखो। जब तक बिल्कुल दौलत तहखाने में से निकल न जाए तब तक दूसरा काम तिलिस्म का मत करो। स्याह बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर जो चौखूटा सुर्ख पत्थर रखा है उसको भी ले जाओ। असल में वह एक छोटा-सा संदूक है जिसके भीतर बहुत-सी नायाब चीजें हैं। उसकी ताली इसी तिलिस्म में तुमको मिलेगी।"

कुमार ने इन सब बातों को फिर दोहरा के पढ़ा, बाद उसके उस धुएं वाले तहखाने में जाने को तैयार हुए। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी तीनों ने मशाल बाल ली और कुमार के साथ उस तहखाने में उतरे। अंदर उसी कोठरी में गये जिसमें बहुत-सी तारें काटी थीं। इस वक्त रोशनी में मालूम हुआ कि तारें कटी हुई इधर-उधर फैल रही हैं, कोठरी खूब लंबी-चौड़ी है। सैकड़ों लोहे और चांदी के बड़े-बड़े संदूक चारों तरफ पड़े हैं, एक तरफ दीवार में खूंटी के साथ तालियों का गुच्छा भी लटक रहा है।

कुमार ने उस ताली के गुच्छे को उतार लिया। मालूम हुआ कि इन्हीं संदूकों की ये तालियां हैं। एक संदूक को खोलकर देखा तो हीरे के जड़ाऊ जनाने जेवरों से भरा पाया, तुरंत बंद कर दिया और दूसरे संदूक को खोला, कीमती हीरों से जड़ी नायाब कब्जों की तलवारें और खंजर नजर आये। कुमार ने उसे भी बंद कर दिया और बहुत खुश होकर तेजसिंह से कहा-

"बेशक इस कोठरी में बड़ा भारी खजाना है। अब इसको यहां खोलकर देखने की कोई जरूरत नहीं, इन संदूकों को बाहर निकलवाओ, एक-एक करके देखते और नौगढ़ भेजवाते जायेंगे। जहां तक हो जल्दी इन सबों को उठवाना चाहिए।"

तेजसिंह ने जवाब दिया, "चाहे कितनी ही जल्दी की जाय मगर दस रोज से कम में इन संदूकों का यहां से निकलना मुश्किल है। अगर आप एक-एक को देखकर नौगढ़ भेजने लगेंगे तो बहुत दिन लग जायेंगे और तिलिस्म तोड़ने का काम अटका रहेगा। इससे मेरी समझ में यह बेहतर है कि इन संदूकों को बिना देखे ज्यों का त्यों नौगढ़ भेजवा दिया जाय। जब सब कामों से छुट्टी मिलेगी तब खोलकर देख लिया जायगा। ऐसा करने से किसी को मालूम भी न होगा कि इसमें क्या निकला और दुश्मनों की आंख भी न पड़ेगी। न मालूम कितनी दौलत इसमें भरी हुई है जिसकी हिफाजत के लिए इतना बड़ा तिलिस्म बनाया गया!"

इस राय को कुमार ने पसंद किया और देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी कहा कि ऐसा ही होना चाहिए। चारों आदमी उस तहखाने के बाहर हुए और उसी मालूमी रास्ते से खंडहर के दलान में आकर पत्थर की चट्टान से ऊपर वाले तहखाने का मुंह ढांप तिलिस्मी ताली से बंद कर खंडहर से बाहर हो अपने खेमे में चले आये।

आज ये लोग बहुत जल्दी तिलिस्म के बाहर हुए। अभी कुल दो पहर दिन चढ़ा था। कुमार ने तिलिस्म की और खजाने की तालियों का गुच्छा तेजसिंह के हवाले किया और कहा कि "अब तुम उन संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने का इंतजाम करो।"

बयान 11

तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बंद रही।

एक रात कुमार अपने पलंग पर सोये हुए थे। आधी रात जा चुकी थी। कुमारी चंद्रकान्ता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी,कभी जागते कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहां तक जमाया कि सुबह क्या बल्कि दो घड़ी दिन चढ़े तक आंख खुलने न दीं।

जब कुमार की नींद खुली अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोये थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए कमरे को देखा जिसकी छत में कई बेशकीमती झाड़ और शीशे लटक रहे थे। ताज्जुब में पड़ इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह एक बहुत भारी दीवानखाना है जिसमें तीन तरफ संगमर्मर की दीवार और चौथी तरफ बड़े-बड़े खूबसूरत दरवाजे हैं जो इस समय बंद हैं। दीवारों पर कई दीवारगीरें लगी हुई हैं,जिनमें दिन निकल आने पर भी अभी तक मोमी बत्तियां जल रही हैं। ऊपर उसके चारों तरफ बड़ी-बड़ी खूबसूरत और हसीन औरतों की तस्वीरें लटक रही थीं। लंबी दीवार के बीचोंबीच एक तस्वीर आदमी के कद के बराबर सोने के चौखटे में जड़ी दीवार के साथ लगी हुई थी।

कुमार की निगाह तमाम तस्वीरों पर से दोड़ती हुई उस बड़ी तस्वीर पर आकर अटक गई। सोचने लगे बल्कि धीमी आवाज में इस तरह बोलने लगे जैसे अपने बगल में बैठे हुए किसी दोस्त को कोई कहता हो-

"अहा, इस तस्वीर से बढ़कर इस दीवानखाने में कोई चीज नहीं है और बेशक यह तस्वीर भी उसी की है जिसके इश्क ने मुझे तबाह कर रखा है! वाह क्या साफ भोली सूरत दिखलाई है।"

कुमार झट से उठ बैठे और उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये। दीवानखाने के दरवाजे बंद थे मगर हर एक दरवाजे के ऊपर छोटे-छोटे मोखे (सूराख) बने हुए थे जिनमें शीशे की टट्टियां लगी हुई थीं, उन्हीं में से सीधी रोशनी ठीक उस लंबी-चौड़ी तस्वीर पर पड़ रही थी जिसको देखने के लिए कुमार पलंग पर से उतरकर उसके पास गये थे। असल में वह तस्वीर कुमारी चंद्रकान्ता की थी।

कुमार उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये और फिर उसी तरह बोलने लगे जैसे किसी दूसरे को जो पास ही खड़ा हो सुना रहे हैं-

"अहा, क्या अच्छी और साफ तस्वीर बनी हुई है! इसमें ठीक उतना ही बड़ा कद है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आंखें हैं जिनमें काजल की लकीरें कैसी साफ मालूम हो रही हैं। अहा, गालों पर गुलाबीपन कैसा दिखलाया है, बारीक होंठों में पान की सुर्खी और मुस्कुराहट साफ मालूम हो रही है, कानों में कानबाले, माथे में बेंदी और नाक में नथ तो हई है मगर यह गले की गोप क्या ही अच्छी और साफ बनाई है जिसके बीच के चमकते हुए मानिक और अगल-बगल के कुंदन की उभाड़ में तो हद दर्जे की कारीगरी खर्च की गई है। गोप क्या सभी गहने अच्छे हैं। गले की माला, हाथों के बाजूबंद, कंगन, छंद, पहुंची, अंगूठी सभी चीजें अच्छी बनाई हैं, और देखो एक बगल चपला दूसरी तरफ चंपा क्या मजे में अपनी ठुड्डी पर उंगली रखे खड़ी हैं।"

"हाय, चंद्रकान्ता कहां होगी!" इतना कह एक लंगी सांस ले एकटक उस तस्वीर की तरफ देखने लगे।

कहीं से पाजेब की छन्न से आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार चौंक पड़े। ऊपर की तरफ कई छोटी-छोटी खिड़कियां थीं जो सब की सब बंद थीं। यह आवाज कहां से आई! इस घर में कौन औरत है! इतनी देर तक तो कुमार अपने पूरे होशहवास में न थे मगर अब चौंके और सोचने लगे-

"हैं, इस जगह मैं कैसे आ गया? कौन उठा लाया? उसने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मेरी प्यारी चंद्रकान्ता की तस्वीर मुझे दिखला दी, मगर कहीं ऐसा न हो कि मैं यह बातें स्वप्न में देखता होऊं? जरूर यह स्वप्न है, चलो फिर उसी पलंग पर सो रहें।"

यह सोच फिर कुमार उसी पलंग पर आ के लेट गये, आंखें बंद कर लीं, मगर नींद कहां से आती। इतने में फिर पाजेब की आवाज ने कुमार को चौंका दिया। अबकी दफे उठते ही सीधो दरवाजों की तरफ गये और सातों दरवाजों को धाक्का दिया, सब खुल गये। एक छोटा-सा हरा-भरा बाग दिखाई पड़ा। दिन अनुमानत: पहर भर के चढ़ चुका होगा।

यह बाग बिल्कुल जंगली फूलों और लताओं से भरा हुआ था, बीच में एक छोटा-सा तालाब भी दिखाई पड़ा। कुमार सीधो तालाब के पास चले गये जो बिल्कुल पत्थर का बना हुआ था। एक तरफ उसके खूबसूरत सीढ़ियां उतरने के लिए बनी हुई थीं, ऊपर उन सीढ़ियों के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े जामुन के पेड़ लगे हुए थे जो बहुत ही घने थे। तमाम सीढ़ियों पर बल्कि कुछ जल तक उन दोनों की छाया पहुंची हुई थी और दोनों पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे संगमर्मर के चबूतरे बने हुए थे। बाएं तरफ के चबूतरे पर नरम गलीचा बिछा हुआ था, बगल में एक टोंटीदार चांदी का गड़वा, उसके पास ही शहतूत के पत्तो पर बना-बनाया दातून एक तरफ से चिरा हुआ था, बगल में एक छोटी-सी चांदी की चौकी पर धाोती, गमछा और पहिरने के खूबसूरत और कीमती कपड़े भी रखे हुए थे।

दाहिनी तरफ वाले संगमर्मर के चबूतरे पर चांदी की एक चौकी थी जिस पर पूजा का सामान धारा हुआ था। छोटे-छोटे जड़ाऊ पंचपात्र, तष्टी, कटोरियां सब साफ की हुई थीं और नरम ऊनी आसन बिछा हुआ था जिस पर एक छोटा-सा बेल भी पड़ा था।

कुमार इस बात पर गौर कर रहे थे कि वे कहां आ पहुंचे, उन्हें कौन लाया, इस जगह का नाम क्या है तथा यह बाग और कमरा किसका है? इतने में ही उस पेड़ की तरफ निगाह जा पड़ी जिसके नीचे पूजा का सब सामान सजाया हुआ था। एक कागज चिपका हुआ नजर पड़ा। उसके पास गये, देखा कि कुछ लिखा हुआ है। पढ़ा, यह लिखा था-

"कुंअर वीरेन्द्रसिंह, यह सब सामान तुम्हारे ही वास्ते है। इसी बावली में नहाओ और इन सब चीजों को बरतो, क्योंकि आज के दिन तुम हमारे मेहमान हो।"

कुमार और भी सोच में पड़ गए कि यह क्या, सामान तो इतना लंबा-चौड़ा रखा गया है मगर आदमी कोई भी नजर नहीं पड़ता, जरूर यह जगह परियों के रहने की है और वे लोग भी इसी बाग में फिरती होंगी, मगर दिखाई नहीं पड़तीं! अच्छा इस बाग में पहले घूमकर देख लें कि क्या-क्या है फिर नहाना-धोना होगा, आखिर इतना दिन तो चढ़ ही चुका है। अगर कहीं दरवाजा नजर पड़ा तो इस बाग के बाहर हो जायेंगे, मगर नहीं, इस बाग का मालिक कौन है और वह मुझे यहां क्यों लाया जब तक इसका हाल मालूम न हो इस बाग से कैसे जाने को जी चाहेगा? यही सब सोचकर कुमार उस बाग में घूमने लगे।

जिस कमरे में नींद से कुमार की आंख खुली थी वह बाग के पश्चिम तरफ था। पूरब तरफ कोई इमारत न थी क्योंकि निकलता हुआ सूरज पहले ही से दिखाई पड़ा था जो इस वक्त नेजे बराबर ऊंचा आ चुका होगा। घूमते हुए बाग के उत्तर तरफ एक और कमरा नजर पड़ा जो पूरब तरफ वाले कमरे के साथ सटा हुआ था।

कुमार ने चाहा कि उस कमरे की भी सैर करें मगर न हो सका, क्योंकि उसके सब दरवाजे बंद थे, अस्तु आगे बढ़े और जंगली फूलों, बेलों और खूबसूरत क्यारियों को देखते हुए बाग के दक्षिण तरफ पहुंचे। एक छोटी-सी कोठरी नजर पड़ी जिसकी दीवार पर कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने से मालूम हुआ कि पाखाना है। उसी जगह लकड़ी की चौकी पर पानी से भरा हुआ एक लोटा भी रखा था।

दिन डेढ़ पहर से ज्यादे चढ़ चुका होगा, कुमार की तबीयत घबड़ाई हुई थी, आखिर सोच-विचारकर चौकी पर से लोटा उठा लिया और पाखाने गए, बाद इसके बावली में हाथ-मुंह धोए, सीढ़ियों के ऊपर जामुन के पेड़ तले चौकी पर बैठकर दातुन किया, बावली में स्नान करके उन्हीं कपड़ों को पहना जो उनके लिए संगमर्मर के चबूतरे पर रखे हुए थे, दूसरे पर बैठ के संध्या-पूजा की।

जब इन सब कामों से छुट्टी पा चुके तो फिर उसी कमरे की तरफ आए जिसमें सोते से आंख खुली थी और कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी,मगर उस कमरे के कुल किवाड़ बंद पाये, खोलने की कोशिश की मगर खुल न सके। बाहर दलान में खूब कड़ी धूप फैली हुई थी। धूप के मारे तबीयत घबड़ा उठी, यही जी चाहता था कि कहीं ठण्डी जगह मिले तो आराम किया जाय। आखिर उस जगह से हट कुमार घूमते हुए उस दूसरी तरफ वाले कमरे को देखने चले जिसमें किवाड़ पहर भर पहले बंद पाये थे, वे अब खुले हुए दिखलाई पड़े, अंदर गए।

भीतर से यह कमरा बहुत साफ संगमर्मर के फर्श का था, मालूम होता था कि अभी कोई इसे धोकर साफ कर गया है। बीच में एक काश्मीरी गलीचा बिछा हुआ था। आगे उसके कई तरह की भोजन की चीजें चांदी और सोने के बरतनों में सजाई हुई रखी थीं। आसन पर एक खत पड़ी हुई थी जिसे कुमार ने उठाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

"आप किसी तरह घबड़ाएं नहीं, यह मकान आपके एक दोस्त का है जहां हर तरह से आपकी खातिर की जायगी। इस वक्त आप भोजन करके बगल की कोठरी में जहां आपके लिए पलंग बिछा है कुछ देर आराम करें।"

इसे पढ़कर कुमार जी में सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। भूख बड़े जोर की लगी है पर बिना मालिक के इन चीजों को खाने को जी नहीं चाहता और कुछ पता भी नहीं लगता कि इस मकान का मालिक कौन है जो छिप-छिपकर हमारी खातिरदारी की चीजें तैयार कर रहा है पर मालूम नहीं होता कि कौन किधर से आता है, कहां खाना बनाता है, मालिक मकान या उसके नौकर-चाकर किस जगह रहते हैं या किस राह से आते-जाते हैं। उन लोगों को जब इसी जगह छिपे रहना मंजूर था तो मुझे यहां लाने की जरूरत ही क्या थी?

उसी आसन पर बैठे हुए बड़ी देर तक कुमार तरह-तरह की बातें सोचते रहे, यहां तक कि भूख ने उन्हें बेताब कर दिया, आखिर कब तक भूखे रहते?लाचार भोजन की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर फिर कुछ सोचकर रुक गये और हाथ खींच लिया।

भोजन करने के लिए तैयार होकर फिर कुमार के रुक जाने से बड़े जोर के साथ हंसने की आवाज आई जिसे सुनकर कुमार और भी हैरान हुए। इधर-उधर देखने लगे मगर कुछ पता न लगा, ऊपर की तरफ कई खिड़कियां दिखाई पड़ीं मगर कोई आदमी नजर न आया।

कुमार ऊपर वाली खिड़कियों की तरफ देख ही रहे थे कि एक आवाज आई-

"आप भोजन करने में देर न कीजिये, कोई खतरे की जगह नहीं है।"

भूख के मारे कुमार विकल हो रहे थे, लाचार होकर खाने लगे। सब चीजें एक से एक स्वादिष्ट बनी हुई थीं। अच्छी तरह से भोजन करने के बाद कुमार उठे, एक तरफ हाथ धोने के लिए लोटे में जल रखा हुआ था, अपने हाथ से लोटा उठा हाथ धोए और उस बगल वाली कोठरी की तरफ चले। जैसा कि पुरजे में लिखा हुआ था उसी के मुताबिक सोने के लिए उस कोठरी में निहायत खूबसूरत पलंग बिछा हुआ पाया।

मसहरी पर लेटकर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस मकान का मालिक कौन है और मुलाकात न करने में उसने क्या फायदा सोचा है, यहां कब तक पड़े रहना होगा, वहां लश्कर वालों की हमारी खोज में क्या दशा होगी, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते कुमार को नींद आ गई और बेखबर सो गये।

दो घंटे रात बीते तक कुमार सोये रहे। इसके बाद बीन की और उसके साथ ही किसी के गाने की आवाज कानों में पड़ी। झट आंखें खोल इधर-उधरदेखने लगे, मालूम हुआ कि यह वह कमरा नहीं है जिसमें भोजन करके सोये थे, बल्कि इस वक्त अपने को एक निहायत खूबसूरत सजी हुई बारहदरी में पाया जिसके बाहर से बीन और गाने की आवाज आ रही थी।

कुमार पलंग पर से उठे और बाहर देखने लगे। रात बिल्कुल अधेरी थी मगर रोशनी खूब हो रही थी जिससे मालूम पड़ा कि यह बाग भी वह नहीं है जिसमें दिन को स्नान और भोजन किया था।

इस वक्त यह नहीं मालूम होता था कि यह बाग कितना बड़ा है क्योंकि इसके दूसरे तरफ की दीवार बिल्कुल नजर नहीं आती थी। बड़े-बड़े दरख्त भी इस बाग में बहुत थे। रोशनी खूब हो रही थी। कई औरतें जो कमसिन और खूबसूरत थीं, टहलती और कभी-कभी गाती या बजाती हुई नजर पड़ीं, जिनका तमाशा दूर से खड़े होकर कुमार देखने लगे। वे आपस में हंसती और ठिठोली करती हुई एक रविश से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर घूम रही थीं। कुमार का दिल न माना और ये धीरे धीरे उनके पास जाकर खड़े हो गये।

वे सब कुमार को देखकर रुक गईं और आपस में कुछ बातें करने लगीं, जिसको कुमार बिल्कुल नहीं समझ सकते थे, मगर उनके हाथ-पैर हिलाने के भाव से मालूम होता था कि वे कुमार को देखकर ताज्जुब कर रही हैं। इतने में एक औरत आगे बढ़कर कुमार के पास आई और उनसे बोली, "आप कौन हैं और बिना हुक्म इस बाग में क्यों चले आये?"

कुमार ने उसे नजदीक से देखा तो निहायत हसीन और चंचल पाया। जवाब दिया, "मैं नहीं जानता यह बाग किसका है, अगर हो सके तो बताओ कि यहां का मालिक कौन है?"

औरत-हमने जो कुछ पूछा है पहले उसका जवाब दे लो फिर हमसे जो पूछोगे सो बता देंगे।

कुमार-मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि मैं यहां क्यों कर आ गया!

औरत-क्या खूब! कैसे सीधो-सादे आदमी हैं (दूसरी औरत की तरफ देखकर) बहिन, जरा इधर आना, देखो कैसे भोले-भाले चोर इस बाग में आ गये हैं जो अपने आने का सबब भी नहीं जानते!

उस औरत के आवाज देने पर सबों ने आकर कुमार को घेर लिया और पूछना शुरू किया, "सच बताओ तुम कौन हो और यहां क्यों आये?"

दूसरी औरत-जरा इनके कमर में तो हाथ डालो, देखो कुछ चुराया तो नहीं?

तीसरी-जरूर कुछ न कुछ चुराया होगा।

चौथी-अपनी सूरत इन्होंने कैसी बना रखी है, मालूम होता है कि किसी राजा ही के लड़के हैं।

पहली-भला यह तो बताइए कि ये कपड़े आपने कहां से चुराये?

इन सबों की बातें सुनकर कुमार बड़े हैरान हुए। जी में सोचने लगे कि अजब आफत में आ फंसे, कुछ समझ में नहीं आता, जरूर इन्हीं लोगों की बदमाशी से मैं यहां तक पहुंचा और यही लोग अब मुझे चोर बनाती हैं। यों ही कुछ देर तक सोचते रहे, बाद इसके फिर बातचीत होने लगी-

कुमार-मालूम होता है कि तुम्हीं लोगों ने मुझे यहां लाकर रखा है।

एक औरत-हम लोगों को क्या गरज थी जो आपको यहां लाते या आप ही खुश हो हमें क्या दे देंगे जिसकी उम्मीद में हम लोग ऐसा करते! अब यह कहने से क्या होता है। जरूर चोरी की नीयत से ही आप आये हैं।

कुमार-मुझको यह भी मालूम नहीं कि यहां आने या जाने का रास्ता कौन है। अगर यह भी बतला दो तो मैं यहां से चला जाऊं।

दूसरी-वाह, क्या बेचारे अनजान बनते हैं! यहां तक आये भी और रास्ता भी नहीं मालूम।

तीसरी-बहिन, तुम नहीं समझतीं यह चालाकी से भागना चाहते हैं।

चौथी-अब इनको गिरफ्तार करके ले चलना चाहिए।

कुमार-भला मुझे कहां ले चलोगी?

एक औरत-अपने मालिक के सामने।

कुमार-तुम्हारे मालिक का क्या नाम है?

एक-ऐसी किसकी मजाल है जो हमारे मालिक का नाम ले!

कुमार-क्या तुम्हें अपने मालिक का नाम बताने में भी कुछ हर्ज है!

दूसरी-हर्ज! नाम लेते ही जुबान कटकर गिर पड़ेगी!

कुमार-तो तुम लोग अपने मालिक से बातचीत कैसे करती होओगी?

दूसरी-मालिक की तस्वीर से बातचीत करते हैं, सामना नहीं होता।

कुमार-अगर कोई पूछे कि तुम किसकी नौकर हो तो कैसे बताओगी?

तीसरी-हम लोग अपने मालिक राजकुमारी की तस्वीर अपने गले में लटकाए रहती हैं जिससे मालूम हो कि हम सब फलाने की लौंडी हैं।

कुमार-क्या यहां कई राजकुमारी हैं जो लौंडियों की पहचान में गड़बड़ी हो जाने का डर है?

पहली-नहीं, यहां सिर्फ दो राजकुमारी हैं और दोनों के यहां यही चलन है, कोई अपने मालिक का नाम नहीं ले सकता। जब पहचान की जरूरत होती है तो गले की तस्वीर दिखा दी जाती है।

कुमार-भला मुझे भी वह तस्वीर दिखाओगी?

"हां, हां, लो देख लो!" कहकर एक ने अपने गले में की छोटी-सी तस्वीर जो धुकधुकी की तरह लटक रही थी निकालकर कुमार को दिखाई जिसे देखते ही उनके होश उड़ गये। यह तस्वीर तो कुमारी चंद्रकान्ता की है! तो क्या ये सब उन्हीं की लौंडी हैं। नहीं-नहीं, कुमारी चंद्रकान्ता यहां भला कैसे आवेंगी? उनका राज्य तो विजयगढ़ है। अच्छा पूछें तो यह मकान किस शहर में है?

कुमार-भला यह तो बताओ इस शहर का क्या नाम है जिसमें हम इस वक्त हैं!

एक-इस शहर का नाम चित्रनगर है क्योंकि सबों के गले में कुमारी की तस्वीर लटकती रहती है।

कुमार-और इस शहर का यह नाम कब से पड़ा?

एक-बरसों-बरस से यही नाम है और इसी रंग की तस्वीर कई पुश्त से हम लोगों के गले में है। पहले मेरी परदादी को सरकार से मिली थी, होते-होते अब मेरे गले में आ गई।

कुमार-क्या तब से यही राजकुमारी यहां का राज्य करती आई हैं, कोई इनका मां-बाप नहीं है?

दूसरी-अब यह सब हम लोग क्या जानें, कुछ राजकुमारी से तो मुलाकात होती नहीं जो मालूम हो कि यही हैं या दूसरी, जवान हैं या बुङ्ढी हो गईं।

कुमार-तो कचहरी कौन करता है?

दूसरी-एक बड़ी-सी तस्वीर हम लोगों के मालिक राजकुमारी की है, उसी के सामने दरबार लगता है। जो कुछ हुक्म होता है उसी तस्वीर से आवाज आती है।

कुमार-तुम लोगों की बातों ने तो मुझे पागल बना दिया है। ऐसी बातें करती हो जो कभी मुमकिन ही नहीं, अक्ल में नहीं आ सकतीं। अच्छा उस दरबार में मुझे भी ले जा सकती हो?

औरत-इसमें कहने की कौन-सी बात है, आखिर आपको गिरफ्तार करके उसी दरबार में तो ले चलना है, आप खुद ही देख लीजियेगा।

कुमार-जब तुम लोगों का मालिक कोई भी नहीं या अगर है तो एक तस्वीर, तब हमने उसका क्या बिगाड़ा? क्यों हमें बांधा के ले चलोगी?

औरत-हमारी राजकुमारी सबों की नजरों से छिपकर अपने राज्य भर में घूमा करती हैं और अपने मकान और बगीचों की सैर किया करती हैं मगर किसी की निगाह उन पर नहीं पड़ती। हम लोग रोज बाग और कमरों की सफाई करती हैं, और रोज ही कमरों का सामान, फर्श, पलंग के बिछौने वगैरह ऐसे हो जाते हैं जैसे किसी के मसरफ में आये हों। वह रौंदे जाते और मैले भी हो जाते हैं, इससे मालूम होता है कि हमारी राजकुमारी सभो की नजरों से छिपकर घूमा करती हैं, जिनकी हजारों बरस की उम्र है, और इसी तरह हमेशा जीती रहेंगी।

दूसरी-बहिन तुम इनकी बातों का जवाब कब तक देती रहोगी? ये तो इसी तरह जान बचाया चाहते हैं?

पहली-नहीं-नहीं, ये जरूर किसी रईस राजा के लड़के हैं, इनकी बातों का जवाब देना मुनासिब है और इनको इज्जत के साथ कैद करके दरबार में ले चलना चाहिए।

तीसरी-भला इनका और इनके बाप का नामधाम भी तो पूछ लो कि इसी तरह राजा का लड़का समझ लोगी! (कुमार की तरफ देखकर) क्यों जी आप किसके लड़के हैं और आपका नाम क्या है?

कुमार-मैं नौगढ़ के महाराज सुरेन्द्रसिंह का लड़का वीरेन्द्रसिंह हूं।

इनका नाम सुनते ही वे सब खुश होकर आपस में कहने लगीं, "वाह, इनको तो जरूर पकड़ के ले चलना चाहिए, बहुत कुछ इनाम मिलेगा, क्योंकि इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की तरफ से मुनादी की गई थी, इन्होंने बड़ा भारी नुकसान किया है, सरकारी तिलिस्म तोड़ डाला और खजाना लूटकर घर ले गए। अब इनसे बात न करनी चाहिए। जल्दी इनके हाथ-पैर बांधो और इसी वक्त सरकार के पास ले चलो। अभी आधी रात नहीं गई है, दरबार होता होगा,देर हो जायगी तो कल दिन भर इनकी हिफाजत करनी पड़ेगी, क्योंकि हमारे सरकार का दरबार रात ही को होता है।"

इन सबों की ये बातें सुनकर कुमार की तो अक्ल चकरा गई। कभी ताज्जुब कभी सोच, कभी घबराहट से इनकी अजब हालत हो गई। आखिर उन औरतों की तरफ देखकर बोले, "फसाद क्यों करती हो हम तो आप ही तुम लोगों के साथ चलने को तैयार हैं, चलो देखें तुम्हारी राजकुमारी का दरबार कैसा है।"

एक-जब आप खुद चलने को तैयार हैं तब हम लोगों को ज्यादे बखेड़ा करने की क्या जरूरत है, चलिए।

कुमार-चलो।

वे सब औरतें गिनती में नौ थीं, चार कुमार के आगे चार पीछे हो उनको लेकर रवाना हुईं और एक यह कहकर चली गई कि मैं पहले खबर करती हूं कि फलाने डाकू को हम लोगों ने गिरफ्तार किया है जिसको साथ वाली सखियां लिए आती हैं।

वे सब कुमार को लिए बाग के एक कोने में गईं जहां दूसरी तरफ निकल जाने के लिए छोटा-सा दरवाजा नजर पड़ा जिसमें शीशे की सिर्फ एक सफेद हांडी जल रही थी। वे सब कुमार को लिए हुए इसी दरवाजे में घुसीं। थोड़ी दूर जाकर दूसरा बाग जो बहुत सजा था नजर पड़ा जिसमें हद से ज्यादे रोशनी हो रही थी और कई चोबदार हाथ में सोने-चांदी के आसे लिए इधर-उधर टहल रहे थे। इनके अलावे और भी बहुत से आदमी घूमते-फिरते दिखाई पड़े।

उन औरतों से किसी ने कुछ बातचीत या रोक-टोक न की, ये सब कुमार को लिए हुए बराबर धाड़धाड़ाती हुई एक बड़े भारी दीवानखाने में पहुंचीं जहां की सजावट और कैफियत देख कुमार के होश जाते रहे।

सबसे पहले कुमार की निगाह उस बड़ी तस्वीर के ऊपर पड़ी जो ठीक सामने सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर रखी हुई थी। मालूम होता था कि सिंहासन पर कुमारी चंद्रकान्ता सिर पर मुकुट धारे बैठी हैं, ऊपर छत्र लगा हुआ है, और सिंहासन के दोनों तरफ दो जिंदा शेर बैठे हुए हैं जो कभी-कभी डकारते और गुर्राते भी थे। बाद इसके बड़े-बड़े सरदार बेशकीमती पोशाकें पहिरे सिंहासन के सामने दो-पट्टी कतार बांधो सिर झुकाए बैठे थे। दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था,सब चुप मारे बैठे थे।

चंद्रकान्ता की तस्वीर और ऐसे दरबार को देखकर एक दफे तो कुमार पर भी रोब छा गया। चुपचाप सामने खड़े हो गए, उनके पीछे और दोनों बगल वे सब औरतें खड़ी हो गईं जिन्होंने कुमार को चोरों की तरह हाजिर किया था।

तस्वीर के पीछे से आवाज आई, "ये कौन हैं?"

उन औरतों में से एक ने जवाब दिया, "ये सरकारी बाग में घूमते हुए पकड़े गए हैं और पूछने से मालूम हुआ कि इनका नाम वीरेन्द्रसिंह है, विक्रमी तिलिस्म इन्होंने ही तोड़ा है।" फिर आवाज आई, "अगर यह सच है तो इनके बारे में बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा, इस वक्त ले जाकर हिफाजत से रखो,फिर हुक्म पाकर दरबार में हाजिर करना।"

उन लौंडियों ने कुमार को एक अच्छे कमरे में ले जाकर रखा जो हर तरह से सजा हुआ था मगर कुमार अपने ख्याल में डूबे हुए थे। नये बाग की सैर और तस्वीर के दरबार ने उन्हें और अचंभे में डाल दिया था। गर्दन झुकाये सोच रहे थे। पहले बाग में जो ताज्जुब की बातें देखीं उनका तो पता लगा ही नहीं,इस बाग में तो और भी बातें दिखाई देती हैं जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर और उनके दरबार का लगना और भी हैरान कर रहा है। इसी सोच-विचार में गर्दन झुकाये लौंडियों के साथ चले गए, इसका कुछ भी ख्याल नहीं कि कहां जाते हैं, कौन लिए जाता है, या कैसे सजे हुए मकान में बैठाये गये हैं।

जमीन पर फर्श बिछा हुआ और गद्दी लगी हुई थी, बड़े तकिए के सिवाय और भी कई तकिए पड़े हुए थे। कुमार उस गद्दी पर बैठ गए और दो घंटे तक सिर झुकाये ऐसा सोचते रहे कि तनोबदन की बिल्कुल खबर न रही। प्यास मालूम हुई तो पानी के लिए इधर-उधर देखने लगे। एक लौंडी सामने खड़ी थी, उसने हाथ जोड़कर पूछा, "क्या हुक्म होता है?" जिसके जवाब में कुमार ने हाथ के इशारे से पानी मांगा। सोने के कटोरे में पानी भर के लौंडी ने कुमार के हाथ में दिया, पीते ही एकदम उनके दिमाग तक ठंडक पहुंच गई साथ ही आंखों में झपकी आने लगी और धीरे - धीरे बिल्कुल बेहोश होकर उसी गद्दी पर लेट गये।

बयान 12

कुंअर वीरेन्द्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई। तेजसिंह और देवीसिंह ने घबराकर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, "रमल से जान पड़ता है कि कुमार को कई औरतें बेहोशी की दवा सुंघा बेहोश कर उठा ले गई हैं और नौगढ़ के इलाके में अपने मकान के अंदर कैद कर रखा है, इससे ज्यादे कुछ मालूम नहीं होता।"

ज्योतिषीजी की बात सुनकर तेजसिंह बोले, "नौगढ़ में तो अपना ही राज्य है, वहां कुमार के दुश्मनों का कहीं ठिकाना नहीं। महाराज सुरेन्द्रसिंह की अमलदारी से उनकी रियाया बहुत खुश तथा उनके और उनके खानदान के लिए वक्त पर जान देने को तैयार है फिर कुमार को ले जाकर कैद करने वाला कौन हो सकताहै।"

बहुत देर तक सोच-विचार करते रहने के बाद तेजसिंह कुमार की खोज में जाने के लिए तैयार हुए। देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी उनका साथ दिया और ये तीनों नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। जाते वक्त महाराज शिवदत्त के दीवान को चुनार बिदा करते गये जो कुंअर वीरेन्द्रसिंह की मुलाकात को महाराज शिवदत्त की तरफ से तोहफा और सौगात लेकर आये हुए थे और तिलिस्मी किताब फतहसिंह सिपहसालार के सुपुर्द कर दी जो कुंअर वीरेन्द्रसिंह के गायब हो जाने के बाद उनके पलंग पर पड़ी हुई पाई गई थी।

ये तीनों ऐयार आधी रात गुजर जाने के बाद नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। पांच कोस तक बराबर चले गये, सबेरा होने पर तीनों एक घने जंगल में रुके और अपनी सूरतें बदलकर फिर रवाना हुए। दिन भर चलकर भूखे-प्यासे शाम को नौगढ़ की सरहद पर पहुंचे। इन लोगों ने आपस में यह राय ठहराई कि किसी से मुलाकात न करें बल्कि जाहिर भी न होकर छिपे ही छिपे कुमार की खोज करें।

तीनों ऐयारों ने अलग-अलग होकर कुमार का पता लगाना शुरू किया। कहीं मकान में घुसकर, कहीं बाग में जाकर, कहीं आदमियों से बातें करके उन लोगों ने दरियाफ्त किया मगर कहीं पता न लगा। दूसरे दिन तीनों इकट्ठे होकर सूरत बदले हुए राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये और एक कोने में खड़े हो बातचीत सुनने लगे।

उसी वक्त कई जासूस दरबार में पहुंचे जिनकी सूरत से घबराहट और परेशानी साफ मालूम होती थी। तेजसिंह के बाप दीवान जीतसिंह ने उन जासूसों से पूछा, "क्या बात है जो तुम लोग इस तरह घबराये हुए आये हो?"

एक जासूस ने कुछ आगे बढ़के जवाब दिया, "लश्कर से कुमार की खबर लाया हूं।"

जीत-क्या हाल है, जल्द कहो।

जासूस-दो रोज से उनका कहीं पता नहीं है।

जीत-क्या कहीं चले गये?

जासूस-जी नहीं, रात को खेमे में सोये हुए थे, उसी हालत में कुछ औरतें उन्हें उठा ले गईं, मालूम नहीं कहां कैद कर रखा है।

जीत-(घबराकर) यह कैसे मालूम हुआ कि उन्हें कई औरतें ले गईं?

जासूस-उनके गायब हो जाने के बाद ऐयारों ने बहुत तलाश किया। जब कुछ पता न लगा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी ने रमल से पता लगाकर कहा कि कई औरतें उन्हें ले गई हैं और इस नौगढ़ के इलाके में ही कहीं कैद कर रखा है?

जीत-(ताज्जुब से) इसी नौगढ़ के इलाके में! यहां तो हम लोगों का कोई दुश्मन नहीं है!

जासूस-जो कुछ हो, ज्योतिषीजी ने तो ऐसा ही कहा है।

जीत-फिर तेजसिंह कहां गया?

जासूस-कुमार की खोज में कहीं गये हैं, देवीसिंह और ज्योतिषीजी भी उनके साथ हैं। मगर उन लोगों के जाते ही हमारे लश्कर पर आफत आई?

जीत-(चौंककर) हमारे लश्कर पर क्या आफत आई?

जासूस-मौका पाकर महाराज शिवदत्त ने हमला कर दिया।

हमले का नाम सुनते ही तेजसिंह वगैरह ऐयार लोग जो सूरत बदले हुए एक कोने में खड़े थे आगे की सब बातें बड़े गौर से सुनने लगे।

जीत-पहले तो तुम लोग यह खबर लाये थे कि महाराज शिवदत्त ने कुमार की दोस्ती कबूल कर ली और उनका दीवान बहुत कुछ नजर लेकर आया है,अब क्या हुआ?

जासूस-उस वक्त की वह खबर बहुत ठीक थी पर आखिर में उसने धोखा दिया और बेईमानी पर कमर बांधा ली।

जीत-उसके हमले का क्या नतीजा हुआ?

जासूस-पहर भर तक तो फतहसिंह सिपहसालार खूब लड़े, आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गये। उनके गिरफ्तार होते ही बेसिर की फौज तितिर-बितिर हो गई।

अभी तक सुरेन्द्रसिंह चुपचाप बैठे इन बातों को सुन रहे थे। फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और लश्कर के भाग जाने का हाल सुन आंखें लाल हो गईं। दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर बोले, "हमारे यहां इस वक्त फौज तो है नहीं, थोड़े-बहुत सिपाही जो कुछ हैं उनको लेकर इसी वक्त कूच करूंगा। ऐसे नामर्द को मारना कोई बड़ी बात नहीं है।"

जीत-ऐसा ही होना चाहिए, सरकार के कूच की बात सुनकर भागी हुई फौज भी इकट्ठी हो जायगी।

ये बातें हो ही रही थीं कि दो जासूस और दरबार में हाजिर हुए। पूछने से उन्होंने कहा, "कुमार के गायब होने, ऐयारों के उनकी खोज में जाने, फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और फौज के भाग जाने की खबर सुनकर महाराज जयसिंह अपनी कुल फौज लेकर चुनार पर चढ़ गये हैं। रास्ते में खबर लगी कि फतहसिंह के गिरफ्तार होने के दो ही पहर बाद रात को महाराज शिवदत्त भी कहीं गायब हो गये और उनके पलंग पर एक पुर्जा पड़ा हुआ मिला जिसमें लिखा हुआ था कि इस बेईमान को पूरी सजा दी जायगी, जन्म भर कैद से छुट्टी न मिलेगी। बाद इसके सुनने में आया कि फतहसिंह भी छूटकर तिलिस्म के पास आ गये और कुमार की फौज फिर इकट्ठी हो रही है।"

इस खबर को सुनकर राजा सुरेन्द्रसिंह ने दीवान जीतसिंह की तरफ देखा।

जीत-जो कुछ भी हो महाराज जयसिंह ने चढ़ाई कर ही दी, मुनासिब है कि हम भी पहुंचकर चुनार का बखेड़ा ही तय कर दें, यह रोज-रोज की खटपट अच्छी नहीं!

राजा-तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा ही किया जाय, क्या कहें हमने सोचा था कि लड़के के ही हाथ से चुनार फतह हो जिससे उसका हौसला बढ़े मगर अब बर्दाश्त नहीं होता।

इन सब बातों और खबरों को सुन तीनों ऐयार वहां से रवाना हो गए और एकांत में जाकर आपस में सलाह करने लगे।

तेज-अब क्या करना चाहिए?

देवी-चाहे जो भी हो पहले तो कुमार को ही खोजना चाहिए।

तेज-मैं कहता हूं कि तुम लश्कर की तरफ जाओ और हम दोनों कुमार की खोज करते हैं।

ज्यो-मेरी बात मानो तो पहले एक दफे उस तहखाने (खोह) में चलो जिसमें महाराज शिवदत्त को कैद किया था।

तेज-उसका तो दरवाजा ही नहीं खुलता।

ज्यो-भला चलो तो सही, शायद किसी तरकीब से खुल जाय।

तेज-इसकी कोशिश तो आप बेफायदे करते हैं, अगर दरवाजा खुला भी तो क्या काम निकलेगा?

ज्यो-अच्छा चलो तो।

तेज-खैर चलो।

तीनों ऐयार तहखाने की तरफ रवाना हुए।

बयान 13

कुंअर वीरेन्द्रसिंह धीरे - धीरे बेहोश होकर उस गद्दी पर लेट गए। जब आंख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोये पाया। घबराकर इधर-उधरदेखने लगे। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किये जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था, या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चंद्रकान्ता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुंच सके थे।

कुमार घबराकर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर वाले दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने खोह के बाहर गये थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बांधो बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आंखों में आंसू भर आये, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे, 'हाय, अब कौन मुंह लेकर कुमारी चंद्रकान्ता के सामने जाऊं और उससे क्या बातचीत करूं? पूछने पर क्या यह कह सकूंगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गये थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा! मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जायगी। क्या करूं वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की सुधा जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहां कैसे आये तो क्या जवाब दूंगा? शिवदत्त भी यहां दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर लेकर आया था, तब यह क्या मामला है!'

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जाकर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठाकर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषीजी को दण्डवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठकर बातचीत करने लगे।

कुमार-देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चंद्रकान्ता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहिरे बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आंचल से उनका मुंह पोछ रही है।

तेज-आपसे कुछ बातचीत भी हुई?

कुमार-नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊं या नहीं।

तेज-कै दिन से आप यह सोच रहे हैं?

कुमार-अभी मुझको इस घाटी में आये दो घड़ी नहीं हुई।

तेज-(ताज्जुब से) क्या आप अभी इस खोह में आये हैं? इतने दिनों तक कहां रहे? आपको लश्कर से आये तो कई दिन हुए! इस वक्त आपको यकायक यहां देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकलकर इस जगह आ बैठे हैं।

कुमार-नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।

तेज-(ताज्जुब से) हैं, क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।

कुमार-नहीं, बिल्कुल नहीं।

इतना कहकर कुमार ने अपना बिल्कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, "यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?"

ज्यो-कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहां गये थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।

कुमार-तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं उनसे बढ़कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।

देवी-किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।

ज्यो-इसमें क्या संदेह है!

कुमार-और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहां दिखाई पड़ रहा है।

तेज-सो कहां?

कुमार-(हाथ का इशारा करके) वह, उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।

तेज-हां ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है! चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।

कुमार-उसके सामने ही कुमारी चंद्रकान्ता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूंगा।

तेज-आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूंगा।

चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर छोटे दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज देकर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी। जवाब खुद कुमार ने देकर कुमारी चंद्रकान्ता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा, "इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।"

कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंककर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और आंखों से आंसू बहाने लगी।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने कहा, "कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहां आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊंगा!"

चपला-कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूं जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा होकर मुझे बेहद सता रहा है।

चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले, "क्यों, कहो तो भण्डा फोड़ दूं!"

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हंसकर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिये और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया-

"कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।"

चपला-आप लोग आज यहां किसलिए आये?

तेज-महाराज शिवदत्त को देखने आये हैं, वहां खबर लगी थी कि ये छूटकर चुनार पहुंच गये।

चपला-किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूं।

तेज-जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूं।

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगाकर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आये, कुछ कहा चाहते थे कि ऊपर चंद्रकान्ता और चपला की तरफ देखकर चुप हो रहे।

तेज-शिवदत्त, हां क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गये?

शिव-अब न कहूंगा।

तेज-क्यों?

शिव-शायद न कहने से जान बच जाय।

तेज-अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?

शिव-जब इतना ही बता दूं तो बाकी क्या रहा?

तेज-न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोड़ूंगा।

शिव-जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊंगा।

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी, "नहीं, ऐसा मत करना!" तेजसिंह ने हाथ रोककर चपला की तरफ देखा।

चपला-शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?

तेज-यह कुछ कहने आये थे मगर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहे, अब पूछता हूं तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूंगा तो जान चली जायगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जायगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?

चपला-आजकल ये पागल हो गये हैं, मैं देखा करती हूं कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है,इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?

शिव-उल्टे मुझी को पागल बनाती है!

तेज-(शिवद्त्त से) क्या कहा, फिर तो कहो?

शिव-कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूं।

देवी-वाह, क्या पागल बने हैं।

शिव-चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।

कुमार-ज्योतिषीजी, जरा इन नई गढ़न्त के पागल को देखना!

ज्यो-(हंसकर) जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?

कुमार-दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।

तेज-इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते!

देवी-हमारी ओस्तादिन इस भेद को जानती हैं मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।

कुमार-यह बिल्कुल ठीक है।

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हंसकर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहां से उठकर अपने ठिकाने जा बैठे। तेजसिंह ने कुमार से कहा, "अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहां आकर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं!"

कुमार-इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेन्द्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुंचकर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह का चुनार पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा जिसे सुन कुमार परेशान हो गये, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चंद्रकान्ता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आंखों से आंसू बहाते कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।

शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहां बैठते हैं तुम नौगढ़ जाकर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

देवी-जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?

तेज-कितनी देर में आओगे?

देवी-यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊंगा।

यह कहकर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

कुमार-क्यों ज्योतिषीजी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?

ज्यो-इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूटकर अपने दीवान के हाथ आपके पास तोहफा भेजकर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।

कुमार-पिजाती ने चुनार पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है। हम लोग भी वहां जल्दी पहुंचते तो ठीक था।

ज्यो-कोई हर्ज नहीं, वहां बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त

फिर गायब हो गया बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलंग पर मिला मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।

तेज-हां चुनार दखल होने में क्या शक है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।

कुमार-बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।

तेज-अबकी चलकर जरूर गिरफ्तार करूंगा।

इसी तरह की बात करते इनको पहर भर से ज्यादे गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा लेकर आ पहुंचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए,साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

बयान 14

कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी उनकी खोज में निकले हैं इस खबर को सुनकर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुलाकर उसने कहा, "इस वक्त कुमार लश्कर से गायब हैं और उनके ऐयार भी उन्हें खोजने गये हैं,मौका अच्छा है, मेरे जी में आता है कि चढ़ाई करके कुमार के लश्कर को खतम कर दूं और उस खजाने को भी लूट लूं जो तिलिस्म में से उनको मिला है।"

इस बात को सुन दीवान तथा बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल ने बहुत कुछ समझाया कि आपको ऐसा न करना चाहिए क्योंकि आप कुमार से सुलह कर चुके हैं। अगर इस लश्कर को आप जीत ही लेंगे तो क्या हो जायेगा, फिर दुश्मनी पैदा होने में ठीक नहीं है इत्यादि बहुत-सी बातें कहके इन लोगों ने समझाया मगर शिवदत्त ने एक न मानी। इन्हीं ऐयारों में नाज़िम और अहमद भी थे जो शिवदत्त की राय में शरीक थे और उसे हमला करने के लिए उकसाते थे।

आखिर महाराज शिवदत्त ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर हमला किया और खुद मैदान में आ फतहसिंह सिपहलासार को मुकाबले के लिए ललकारा। वह भी जवांमर्द था, तुरंत मैदान में निकल आया और पहर भर तक खूब लड़ा, लेकिन आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गया।

सेनापति के गिरफ्तार होते ही फौज बेदिल होकर भाग गई। सिर्फ खेमा वगैरह महाराज शिवदत्त के हाथ लगा। तिलिस्मी खजाना उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा क्योंकि तेजसिंह ने बंदोबस्त करके उसे पहले ही नौगढ़ भेजवा दिया था, हां तिलिस्मी किताब उसके कब्जे में जरूर पड़ गई जिसे पाकर वह बहुत खुश हुआ और बोला, "अब इस तिलिस्म को मैं खुद तोड़ कुमारी चंद्रकान्ता को उस खोह से निकालकर ब्याहूंगा।"

फतहसिंह को कैद कर शिवदत्त ने जलसा किया। नाच की महफिल से उठकर खास दीवानखाने में आकर पलंग पर सो रहा। उसी रोज वह पलंग पर से गायब हुआ, मालूम नहीं कौन कहां ले गया, सिर्फ वह पुर्जा पलंग पर मिला जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। उसके गायब होने पर फतहसिंह सिपहसालार भी कैद से छूट गया, उसकी आंख सुनसान जंगल में खुली। यह कुछ मालूम न हुआ कि उसको कैद से किसने छुड़ाया बल्कि उसके उन जख्मों पर जो शिवदत्त के हाथ से लगे थे पट्टी भी बांधी गई थी जिससे बहुत आराम और फायदा मालूम होता था।

फतहसिंह फिर तिलिस्म के पास आए जहां उनके लश्कर के कई आदमी मिले बल्कि धीरे-धीरे वह सब फौज इकट्ठी हो गई जो भाग गई थी। इसके बाद ही यह खबर लगी कि महाराज शिवदत्त को भी कोई गिरफ्तार कर ले गया।

अकेले फतहसिंह ने सिर्फ थोड़े से बहादुरों पर भरोसा कर चुनार पर चढ़ाई कर दी। दो कोस गया होगा कि लश्कर लिए हुए महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। चुनार का जाना छोड़ जयसिंह के इस्तकबाल (अगुआनी) को गया और उनका भी इरादा अपने ही-सा सुन उनके साथ चुनार की तरफ बढ़ा।

जयसिंह की फौज ने पहुंचकर चुनार का किला घेर लिया। शिवद्त्त की फौज ने किले के अंदर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। फसीलों पर तोपें चढ़ा दीं, और कुछ रसद का सामान कर फसीलों और बुर्जों पर लड़ाई करने लगे।

बयान 15

चुनार के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाज़िम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

नाज़िम-क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गये।

अहमद-अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।

बद्री-उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो इसमें कोई शक नहीं।

नाज़िम-क्या हम लोग बेईमान हैं?

बद्री-जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे। आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली,और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियां मार-मारकर तुम दोनों की जान ले लूं।

अहमद-जुबान सम्हालकर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूंगा!

अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ कांप उठे। उसी जगह से पत्थर का एक टुकड़ा उठाकर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूंघकर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाज़िम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे[1] में रखकर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुंचकर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

पन्ना-अब हमारे दरबार की झंझट दूर हुई।

बद्री-महाराज को जरा भी रंज न होगा।

पन्ना-किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने बेतरह आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकलकर लड़ नहीं सकती।

चुन्नी-आखिर किले में भी रहकर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।

राम-यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर के रख लेते।

बद्री-एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जायं तो मैदान में निकलकर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।

पन्ना-जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।

राम-हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बांधी है। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह का क्या दोष है?

चुन्नी-चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।

बद्री-नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गये। अबकी दफे जरूर दोनों राजों में सुलह कराऊंगा, तब वीरेन्द्रसिंह की चोबदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

पन्ना-अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जाकर कैर करें।

बद्री-हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।

पन्ना-वह क्या?

बद्री-हम लोग चल के पहले उनके रसोइये को फांसें। मैं उसकी शक्ल बनाकर रसोई बनाऊं और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फांसकर उनकी शक्ल बना हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊंगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।

पन्ना-अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण होगे, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खायेंगे तो उनका धर्म भी न जायगा, इसका भी ख्यालजरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाये।

बद्री-नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूं, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिलाकर देख लेते हैं! ऐसी नरम दवा डालूंगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

राम-बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहां से उठो।

बयान 16

राजा सुरेन्द्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो दौड़ादौड़ बिना मुकाम किये दो रोज में चुनार के पास पहुंचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को जो उनके लश्कर के साथ था इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनार पहुंचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिलकर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह को महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आकर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गये थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिये परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गये, कलेजा धाकधाक करने लगा। जब वे लोग पास आये तो पूछा, "क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराये हुए आ रहे हैं?"

एक सरदार-कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी!

फतह-(घबराकर) सो क्या?

दूसरा सरदार-राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।

उन सबों को लिये हुए फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे में आये, कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पाकर बैठ गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा, "आज बहुत सबेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई जिसे सुनकर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देखकर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जाकर देखा तो महाराज का पलंग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देखकर कविराजजी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है। तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।"

यह हाल सुनकर सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा, "अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आवे तो पूरा पता लग सकता है।"सुनते ही राजा सुरेन्द्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जायं।

कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर लेकर बहुत जल्द लौट आये कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आकर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाये गये जिनको डोली पर लादकर लोग यहां लिए आते हैं।

दीवान तेजसिंह ने कहा, "सब डोलियां बाहर रखी जायं, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहां लाई जाय।"

बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया जिसे जीतसिंह लखलख सुंघाकर होश में लाये और उससे बेहोश होने का सबब पूछा। जवाब में उसने कहा कि"पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था। हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीदकर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुधा न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।"

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा, "बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।" इसके बाद थोड़ा & सा लखलखा देकर उन सरदारों को भी बिदा किया और यह कह दिया कि इसे सुंघाकर आप उन लोगों को होश में लाइए जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी बिदा कर दिए गए, राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

राजा सुरेन्द्र - (दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर) महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।

जीत - क्या फिक्र की जाय, कोई ऐयार भी यहां नहीं जिससे कुछ काम लिया जाय, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।

राजा - तुम ही कोई तरकीब करो।

जीत - भला मैं क्या कर सकता हूं! मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आयेगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।

राजा - तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।

जीत - (मुस्कराकर) जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे, तिस पर सफर में!

राजा - तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।

जीत - जो हुक्म! (हरदयालसिंह की तरफ देखकर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को लेकर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज भर लड़ाई बंद न होने पावे यह काम आपके जिम्मे रहा।

हरदयाल - बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

जीत - आप जाकर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से बिदा हो अपने डेरे जाता हूं क्योंकि समय कम और काम बहुत है।

दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुलाकर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा & बुझा के बिदा किया और आप भी हुक्म लेकर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बुङ्ढा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफे अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम इसी बुङ्ढे के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गये है, शायद कोई जरूरत पड़ जाय, तब बहुत& सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बुङ्ढे खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मंगवाया ओैर सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गये।

जीतसिंह लश्कर से निकलकर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पाकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। बटुए में से कलम & दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था -

"तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूं। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता तिस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।"

इस तरह के बहुत से पुरजे लिखकर और थोड़ी & सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुंचते - पहुंचते शाम हो गई,अस्तु किले के इधर - उधर घूमने लगे। जब खूब अंधेरा हो गया, मौका पाकर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी कमंद लगाकर चढ़ गये। अंदर सन्नाटा पाकर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोलकर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं। किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबड़ाये हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला।

उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिखकर बटुए में रख छोड़ा था, इधर - उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हटकर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहां तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे & चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहां कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पावे जो फंसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ावे।

बयान 17

फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिये। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात भर लड़ाई होती रही तो सबेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जायेगा। तरद्दुद में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर - उधर घबराये घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आकर गुल & शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए। चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था ओैर उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

बद्री - (घबराकर) यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?

चोबदार - आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुधा ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुंअर वीरेन्द्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम - घूमकर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहां तक खबर देने आया हूं। आती दफे रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।

पन्ना - यह बुरी खबर सुनने में आई!

बद्री - वे लोग कै आदमी हैं, तुमने देखा है?

चोब - कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।

बद्री - तुम उसे पहचान सकते हो?

चोब - हां, जरूर पहचान लूंगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखीहै।

बद्री - मैं उन लोगों को ढूंढने चलता हूं, तुम साथ चल सकते हो?

चोब - क्यों न चलूंगा, मुझे उसने अधामरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराये कब चैन पड़ना है!

बद्री - अच्छा चलो।

बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ - साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुंचकर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी,मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंककर कहा, "देखो - देखो एक और आदमी उसने मारा!" यह कहकर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देखकर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा,समझ गये कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है। चोबदार ने कहा, "आप इसे छोड़िये, चलकर पहले उस बदमाश को ढूंढिए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूं। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जायं।"

बद्रीनाथ ने कहा, "पहले उसी जगह चलना चाहिए जहां महाराज जयसिंह कैद हैं।" सबों की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुंचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देखकर कहा, "नहीं, वे लोग यहां तक नहीं पहुंचे, चलिए दूसरी तरफ ढूंढें।" चारों तरफ ढूंढने लगे। घूमते - घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे। खड़े हो सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला, "देखो - देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था!" यह कह उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुंच गये।

बद्री - (चोबदार से) चलो, अंदर चलो।

चोब - पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।

बद्री - हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशालहै।

चोब - नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊंगा, एक दफे किसी तरह जान बची, अब कौन & सी कम्बख्ती सवार है कि जानबूझकर भाड़ में जाऊं।

बद्री - वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहां नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर!

चोब - लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाये अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है!

इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में देकर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गये होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी & सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी उसमें आग लगा दी। वह बत्ती बलकर सुरसुराती हुई घुस गई।

पाठक समझ गये होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिलाकर अपने साथ ले आये और घुमाते & फिराते वह जगह देख ली जहां महाराज जयसिंह कैद थे। फिर धोखा देकर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद[1] पाव भर के अंदाज कोनेमें रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर चौखट के बाहर निकाल दीथी।

पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़ उस जगह गये जहां महाराज जयसिंह कैद थे। वहां बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काटकर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बताकर कहा, "जल्द यहां से चलिए।"

जिधर से जीतसिंह कमंद लगाकर किले में आये थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा, "आप नीचे ठहरिये, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक-एक करके कमंद में बांधाकर उन लोगों को लटकाता जाता हूं आप खोलते जाइये। अंत में मैं भी उतरकर आपके साथ लश्कर में चलूंगा।" महाराज जयसिंह ने खुश होकर इसे मंजूर किया।

जीतसिंह ने लौटकर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फंसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम धूएं से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीटकर बाहर लाये और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जाकर एक - एक करके सबों को नीचे उतार आप भी उतर आये। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुंचाया फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी - बेड़ी डालकर खेमे में कैर कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिये, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे - धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।

बयान 18

तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकलकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सबेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुंचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहां जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत पाई जिसे देख वे बहुत खुश होकर तेजसिंह से बोले -

"तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है! देखें इस खत में क्या लिखा है।"

यह कह कुमार ने खत पढ़ी :

"किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूं। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवांमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ।

-तुम्हारी दासी...

वियोगिनी"

कुमार - तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।

तेजसिंह - (खत पढ़कर) न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे - कैसे काम इसके हाथ से होते हैं!

कुमार - (ऊंची सांस लेकर) हाय, एक बला हो तो सिर से टले!

देवी - मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूं।

कुमार - ठीक है, अब चुनार सिर्फ पांच कोस होगा, तुम वहां की खबर ले आओ तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।

देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आए और चुनार की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - "लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफे चढ़कर किले के दरवाजे तक पहुंची मगर वहां अटककर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।"

इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेजसिंह से कहा, "अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुंचकर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।"

तेज - इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।

कुमार - हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन - सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे या बैकुण्ठ की ऊंची गद्दी दखल करेंगे,दोनों हाथ लड्डू हैं।

तेज - शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में घुस जायं। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।

कुमार - क्या हर्ज है रात ही को सही। रात - भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ - पचास आदमियों में घुसकर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।

देवी - कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषीजी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।

ज्यो - सो क्यों?

देवी - आप ब्राह्मण हैं, वहां क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।

कुमार - हां ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।

ज्यो - अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवांमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहतीहैं।

देवी - अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।

कुमार - फायदा क्या?

देवी - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।

ज्यो - क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूंगा तुम्हीं से ज्यादे मुहब्बत है।

इनकी बातों पर कुमार हंस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते - होते ये लोग चुनार पहुंचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गये।

बयान 19

दिन अनुमान पहर - भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई फिर किले के दरवाजे तक पहुंची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल गया और जर्द रंग की चार झण्डियां दिखाई पड़ीं जिन्हें राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और उनकी कुल फौज ने दूर से देखा। मारे खुशी के फतहसिंह अपनी फौज के साथ धाड़धाड़ाकर फाटक के अंदर घुस गया और बाद इसके धीरे - धीरे कुल फौज किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे। फतहसिंह ने बुर्ज पर से महाराज शिवदत्त का सब्ज झंडा गिराकर अपना जर्द झंडा खड़ा कर दिया और अपने हाथ से चोब उठाकर जोर से तीन चोट डंके पर लगाईं जो उसी झंडे के नीचे रखा हुआ था। 'क्रूम धूम फतह' की आवाज निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई।

अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी जख्मी हो गये थे। राजा सुरेन्द्रसिंह किले के अंदर घुसे ही थे कि कुमार, तेजसिंह और देवीसिंह झण्डियां लिए चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषीजी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज्यादे न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा।

जीतसिंह ने पहुंचकर चारों के जख्मों पर पट्टी बांधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गए। थोड़ी देर में ये सब होश में आ गए। राजा सुरेन्द्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाये रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे। कुमार ने उनके पैरों को हाथ लगाया और खुशी - खुशी दूसरे लोगों से मिले।

चुनार का किला फतह हो गया। महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह दोनों ने मिलकर उसी रोज कुमार को राजगद्दी पर बैठाकर तिलक दे दिया। जश्न शुरू हुआ और मुहताजों को खैरात बंटने लगी। सात रोज तक जश्न रहा। महाराज शिवदत्त की कुल फौज ने दिलोजान से कुमार की ताबेदारी कबूल की।

हमारा कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहां इंतजाम करके पहरा मुकर्रर किया गया।

कई दिन के बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी - खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए। उनके जाने के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों और कुछ फौज साथ ले तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।

बयान 20

तिलिस्म के दरवाजे पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे,एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़कर वहां पहुंचना जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गये थे, आज उसे बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकान्ता के पास पहुंचने तक जो - जो काम इनको करने थे सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हां उसके बारे में इतना लिखा था कि 'वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़ - चढ़ के है और माल - खजाने की तो इन्तहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहां की एक - एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े - बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाय। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।'

कुमार ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर कहा, “क्यों ज्योतिषीजी! क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?"

ज्यो - देखा जायगा, पहले आप कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाइए।

कुमार - अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाय।

तीनों ऐयारों को साथ लेकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।

खंडहर के अंदर जाकर उस मालूमी दरवाजे को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतरकर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे जहां खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा था जिसको छूकर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि 'वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखीहै।'

चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मारकर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे - किनारे चलते हुए उस छोटे - से दलान में पहुंचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुंह में चपला घुसी थी।

एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियां दिखाई पड़ीं।

मशाल बाल चारों आदमी नीचे उतरे, यहां उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गये कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींचकर अजदहे के मुंह में डाल देती है।

बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोलकर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहां से वे लोग छत पर चढ़ गए जहां से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।

किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की - सी गली उस दलान में जाने के लिए राह है जहां चपला और चंद्रकान्ता बेबस पड़ी हैं।

अब कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा। चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिये। खुशी - खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि 'आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाऊंगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झाडूंगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुंह से उसके सामने जाऊंगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी! मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं - नहीं वह कभी रंज न होगी, उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जायगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हां, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूंगा और अपनी धोती उसे पहिराऊंगा, इस वक्त का काम चल जायगा। (चौंककर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है! शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकान्ता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं - नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहां आ पहुंचा!'

ऐसी - ऐसी बातें सोचते और धीरे - धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो - दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देखकर कुछ कहा चाहते थे मगर मुंह से आवाज न निकली। चलते - चलते उस दलान में पहुंचे जहां नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।

पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को यहां देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हां जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डी दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।

इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की - सी सूरत हो गई, चिल्लाकर रोने और बकने लगे - "हाय चंद्रकान्ता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया! जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहां पहुंचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुंच ही गया था, मेरा खून पीकर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है! तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही कांटा हो रही थी! मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूं? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है? नहीं - नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जीकर क्या करूंगा, मेरी जिंदगी किस काम आवेगी, मैं कौन मुंह लेकर महाराज जयसिंह के सामने जाऊंगा! जल्दी मत करो, धीरे -धीरे चलो, मैं भी आता हूं, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोड़ूंगा! आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूं, मेरे साथ ही और कई आदमी आवेंगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े - बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हां - हां, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया!"

इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद के अपनी जान दिया ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दलान के एक तरफ की दीवार फट गयी और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकलकर कुमार का हाथ पकड़ लिया।

कुमार ने फिरकर देखा लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी - लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभी तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाये। लाल और बड़ी - बड़ी आंखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाये, बायें हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कंपाते तापसी रूप शिवजी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क के आवाज दी और कहा, “खबरदार जो किसी को विधावा करेगा!"

यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे कांप उठे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देखकर कुमार ने कहा :

“मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिवजी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आये हैं। वाह - वाह खूब किया जो आ गए! अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्री होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूंगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूंगा? आप जरूर इसीलिए आये हैं, मगर महात्माजी, यह तो बताइये कि मैं किसको विधावा करूंगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है, हाय! कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?"

वृद्ध योगी ने कड़ककर कहा, “क्या मैं झूठा हूं? क्या तू क्षत्री है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख पढ़ किसका लिखा हुआ है?"

यह कह अपनी जटा के नीचे से एक खत निकालकर कुमार के हाथ में दे दी। पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। "हैं, यह तो मेरा ही लिखा है! क्या लिखा है? 'मुझे सब मंजूर है!' इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है। हां अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या की खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगी! वनकन्या से इनसे क्या वास्ता?"

कुछ ठहरकर कुमार ने पूछा, “क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?" इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले, “अभी तक जानने को कहता है! क्या उसे तेरे सामने कर दूं?"

इतना कहकर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई और उसमें से वनकन्या ने निकलकर कुमार का पांव पकड़ लिया।