हिंदी कथाकड़ी भाग २३
आइना सच नहीं बोलता
लेखिका उपासना सिआग
सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया
चौधरी समरप्रताप को गोली मार दी गई है। सारे शहर में खबर दावानल की तरह फ़ैल गई । समर्थक अस्पताल पहुँचने लगे। कुछ लोग घर की तरफ चले। किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि घर जा कर कहेंगे क्या ?घर के पास वाले चौराहे पर भीड़ जमा होने लगी थी | अमिता भी परेशान सी टहल रही थी कि आज ये मन में बेचैनी सी क्यों है ? कुछ भी अच्छा क्यों नहीं लग रहा ? सुबह से भूख भी नही लग रही थी | क्या हो रहा आखिर ?
तभी मुख्य दरवाज़े पर हलचल सी और भीड़ देखी तो आशंकित सी दरवाज़े की तरफ लपकी। पार्टी समर्थक और कुछ रिश्तेदार थे जो कि खामोश और दुःखी नज़र आ रहे थे। वह हैरान सी कुछ पूछती, उससे पहले ही अमोद जी घुटनों के बल बैठ कर जोर से रो पड़े, गले से अस्फुट स्वर से चौधरी साहब निकल रहा था। अमिता हतप्रभ सी देख रही थी। तभी अमोद जी के बेटे चिराग ने अमिता को थामते हुए कहा ,
" अंदर चलिए ताई जी , चौधरी साहब को किसी ने गोली मार दी है, उनको अस्पताल ले कर गए है !" " क्या ? "
जैसे कोई भूचाल सा आ गया हो, अमिता इस से अधिक सुन नहीं पाई; मूर्छित हो कर गिरने लगी ही थी कि पीछे से आती हुई बेटियों ने थाम लिया। घर में अफरातफरी का माहौल था। दीपक भी तो नहीं था। जो कि इस समय सबसे बड़ा सहारा और संबल होता । कोई भी सही स्थिति नहीं बता रहा था। और बताता भी क्या ! चौधरी साहब ने तो अस्पताल ले जाते हुए ही दम तोड़ दिया था। अब तो क़ानूनी कार्यवाही और पार्टी की सरगर्मियां ही बाकी थी। अमिता और बेटियां संभाले नहीं सम्भल रही थी। नंदिनी तो जैसे हो कर भी नहीं थी। उसे लगा कि उसकी धरती तो पहले ही छिन गई थी और अब जैसे किसी ने आसमान भी छीन लिया हो। रमा ने नंदिनी को होश खोते देखा तो हिम्मत कर के आगे बढ़ कर उसे गले लगा लिया। दोनों को, एक-दूसरे को चुप करवाने की कोई वजह नहीं दिख रही थी। किस बात का या किस के नाम के सहारे का हवाला दे कर चुप करवाती।
बहुत मार्मिक दृश्य था। हर दिल गम से भरा हुआ था हर आंख में आँसू थे।एका -एक सभी स्त्रियां खुद को अनाथ सा समझने लगी थी।रमा अमिता और नंदिनी जैसे रेगिस्तान में भयंकर तूफ़ान में अकेली रह गयी हो ऐसा महसूस कर रही थी | परिवार की एक बड़ी बुजुर्ग महिला ने सबको सांत्वना देते हुए अलग किया, सहारा दिया और पुचकारते -लेकिन रुंधे स्वर में अमिता को कहा , " सब्र कर मेरी बच्ची, अब तू ही ऐसा करेगी तो इस बच्चियों को छोटे दिवीत को कौन संभालेगा ! "
" अब कौन संभालेगा हमें ? सहारा देने वाला तो चला गया !" " अरे बिटिया , तेरा बेटा है तेरा सहारा, और तेरा पोता है न .........., " बड़ी बुजुर्ग के शब्द बीच में ही रह गए। क्योंकि बाहर एम्बुलेंस के रुकने की आवाज़ आई थी। शोकाकुल माहौल अब मर्मान्तक हो चला था।
चौधरी समरप्रताप सिंह जिसके क़दमों में धमक होती थी। बुलन्द आवाज़ लेकिन चेहरे पर निश्छल मुस्कान , उनको आज सफेद चादर में लपेट कर बांध कर आंगन में लिटाया जा रहा था। छह फुट लंबा इंसान आज सफ़ेद कपड़ों में बंधा आंगन में पड़ा था। पल भर में ही एक हँसता -खिलखिलाता इंसान बे-जान शरीर बन के रह गया था ।अमिता ने यह देखा तो आंगन की तरफ दौड़ पड़ी। किसी ने उसे सँभालने की कोशिश की तो फफ़क कर रो पड़ी। दबी हुयी रुलाई फट पड़ी। उसके विलाप से हर कोई रो पड़ा। हर आँख जार जार रो रही थी |
इंसान के ना रहने पर उसे विदा करने की गतिविधियां कितनी तेज़ हो जाती हैं। सारा महत्व शरीर का ही तो है ! यहाँ तो अभी दीपक का इंतज़ार था। उसे आमोद जी पहले ही सूचित कर चुके थे और वह चल तो पड़ा था लेकिन पहुँचने में अभी उसे २० और घण्टे लगने थे। मतलब कि अभी मुर्दे को रात भर रखना ही था।
" माँ ! देखो , पिताजी आंगन में लेटे हैं बिना पंखे , एसी के, जो इंसान अपने घर के नौकरों के, यहाँ तक कि पशुओं के कमरों तक में कूलर लगवाता था , वही आज यूँ .....," मीतू माँ की गोद में सर रखे बिलख रही थी। " अरे बिटिया यह तो सब शरीर से जुड़े किस्से हैं , इधर आत्मा रूपी चिड़िया ने उड़ान भरी और उधर ......," किसी ने ठंडी श्वास छोड़ी। शाम बहुत लंबी लग रही थी।और अभी तो रात भी बाकि थी | रह-रह के सिसकियाँ गूंज रही थी। कलेजा फटने को आमदा था।
पूरे मोहल्ले में कहीं चुल्हा न जला और दुसरे मोहल्ले से आया खाना यूँ ही रखा था |
" कितना समय हुआ है ?" कोई पूछ रहा था। " तीन बजे हैं ! " " तीन बज गए ? " अमिता जैसे चौंक गई हो। " नीतू तुम्हारे पिता जी अभी तक जागे नहीं ? कल तो इस समय उठ कर नहाने भी चले गए थे ! उठाओ उनको ! कितना काम है ! " " माँ , देखो तो जरा , आप ये क्या कह रही हो ! पिता जी अब नहीं जागेंगे ! " एक बार फिर से विलाप शुरू हो गया था। " यह गन्दी राजनीती ! जो मुझे कभी पसन्द नहीं थी , मैं कहती थी कि ये दलदल है जो भी इसमें उतरा है , वह गहरे धँसते ही गया है , उबर तो कोई भी नहीं पाया .| मना किया था ना लड़ो चुनाव लेकिन मेरी किसी ने नही सुनी ....., " अमिता जोर से रो पड़ी .......और नंदिनी नीतू मीतु सब माँ से लिपट और विलाप करने लगे
भोर हो चली थी ; जिस घर में कल तक चुनाव को लेकर गहमागहमी थी, वह आज समरप्रताप सिंह की अंतिम विदाई देने की तैयारी में बदल गई थी । बाहर दालान में भीड़ बढ़ने लगी थी। पार्टी के बड़े नेता भी आ चुके थे। कलाम साहब भी आ चुके थे , अपनी शातिर आँखों में घड़ियाली आंसू लिए। सब तैयारियां हो चुकी थी। अब तो बस दीपक का ही इन्तज़ार था कि वह आये तो मिट्टी को ले जायें। " ओह्ह ! सोने सा तन ! अब मिट्टी में बदल गया था ! "
दीपक का घर तक पहुंचना मुश्किल हो रहा था। विश्वास नहीं हो रहा था कि पिता जी नहीं रहे। उसे याद आ रहा था कि जब वह घर से निकला था तो उन्होंने कहा था कि वह उनकी लाश के ऊपर से ही जायेगा। और यह भी कि अगर वो चला गया तो फिर उनका मुख न देख पायेगा ,अब लौटा तो मेरे मरे मुहँ पर ही लौटेगा !
" ओह्ह ! पिता जी ! यह आपने क्या कह दिया था जो सच हो गया ! " गले तक रुलाई भरी पड़ी थी। घर पहुँच कर, कार से उतरा नहीं गया। किसी ने सहारा दे कर उतारा तो दिल की गहराइयों से रुदन फट पड़ा। पिता जी के पैरों के पास गिर के रो पड़ा। यह देख अमिता और नीतू -मीतू भी उसके पास पहुँच गई। चारों ही आपस में गले लग कर लिपट कर रो पड़े। सबका साँझा दुःख एक साथ करुण -क्रंदन में बदल गया था। हर कोई रो रहा था। किसी के पास चुप होने की जैसे कोई वजह ही नहीं थी।
समरप्रताप सिंह चल पड़े थे अपनी अंतिम यात्रा पर ! किसी की कोई भी करुण पुकार उनको सुनाई नहीं दे रही थी। चूड़ियाँ तोड़ती अमिता थी या करुण क्रंदन करती बेटियाँ या मूक हो आंसूं बहती नंदिनी और रमा किसी की आवाज़ आज समर प्रताप तक नही पहुँच पा रही थी |भगवान कितना निर्मम प्रतीत होता है, यह हर भुक्त-भोगी बता सकता है।
पञ्च -तत्वों से बना शरीर अपने -अपने तत्वों में मिल गया था। दीपक अपने आप को अनाथ और बेसहारा सा समझ रहा था और कुछ समझ नहीं पा रहा था कि अब वह आगे क्या करेगा और आखिर यह सब हो क्या गया ?
तीसरे दिन अस्थि चुनने से लेकर उनको गंगाजी में बहाने तक और तेहरवीं होने तक दीपक संयत हो चला था। दिखने में तो शांत और खामोश था लेकिन भीतर बहुत कुछ चल रहा था। अमिता और ीनंदिनी की नज़रों ने बहुत कुछ पढ़ लिया था। लेकिन वह अभी खुद सोचने-समझने की क्षमता में नहीं थी।
रात को जब सारा परिवार एकत्र होता तो वह बहुत ख़ामोशी से सबकी बातें सुनता रहता लेकिन अपनी तरफ से कोई बात नहीं कहता या करता था। बेटे से भी कोई खास लगाव नहीं दिखाया और नंदिनी से तो कोई रुख भी नहीं जोड़ा। आये हुए रिश्तेदार अचंभित तो थे पर किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे ; अलबत्ता खुसर-फुसुर तो थी।
चुनाव रद्द हो चुका था और तभी अमिता को चुनाव लड़ने की पेशकश भी की गई। लेकिन अमिता ने सख्ती से मना कर दिया कि उसे इस दलदल में उतरने में कोई रूचि नहीं है। उनके जीवन से राजनीति का प्रकरण एक तरह से समाप्त हो गया था लेकिन एक बहुत बड़ा और ना भूलने वाला घाव देकर !
१६ दिन बाद सब रिश्तेदार भी जा चुके थे। नंदिनी के पिताजी , भाई, माँ और भाभी भी एक -दो बार आ-जा चुके थे। नीतू-मीतू भी ससुराल जा चुकी थी। दीपक का व्यवहार नंदिनी के प्रति नहीं बदला था बल्कि तटस्थ ही रहा था। अमिता, दीपक की संदेहास्पद गतिविधियों पर नज़र रख रही थी कि वह क्या कर रहा है। कई-कई घंटे अपने पिता के ऑफिस में घुसे रहना या फोन पर लगे रहना। और कई बार तो कई अनजान लोगों के कई देर तक बैठक करता रहता था।
उसने अमेरिका वापिस लौटने की भी कोई जल्दबाजी न दिखाई और ना ही नंदिनी से कोई बात की | पिता की बैठक में उसने अपना बिस्तर लगा लिया था | दिवित की तोतली बातो पर कभी कभी उसका चेहरा खिल जाता था | किसी के आस पास न होने पर वो दिवित को चुपके से प्यार भी कर लेता लेकिन सामने से ऐसे जाहिर करता जैसे उसको कोई मतलब ही नही वो सिर्फ िनंदिनी की संतान हैं |
उसके साथ मिलने जुलने वाले नए लोग होते और सब बाते अंग्रेजी में होती थी |अमिता को यह तो समझ थी कि यह बैठकें राजनीति की तो नहीं हैं। तो फिर यह क्या था ? अमिता ने पूछ ही लिया एक दिन। " सब्र करो माँ ! बता दूंगा ! "
" सब्र " और यह सब्र के इंतज़ार की घड़ी आई समरप्रताप सिंह की ' छह माही ' की रस्म के दिन। हालाँकि समरप्रताप जी की मृत्यु को छह माह नहीं हुए थे लेकिन रस्मों के हिसाब से और फिर दीवाली का त्यौहार भी तो आ रहा था तो लगभग ढ़ाई महीने बाद ही यह रस्म करनी पड़ी। और सबसे बड़ा कारण जो दीपक ने बताया था कि वो भी तीन महीने के लिए आया था। उस दिन बहनें अपने पतियों समेत आई हुयी थी। नंदिनी के माता-पिता भी आये हुए थे।
शाम को सभी को एकत्र कर के दीपक ने जैसे कोई धमाका ही कर दिया हो। " मैंने सारी जमीनें बेच दी है ! पिता जी ने जो रूपये दोनों बहनों के नाम छोड़े थे वो कागजात में उनको सौंप दूंगा। "
" क्या .....? " अमिता के तो जैसे पैरों से जमीन ही धंस गई हो।
" हां माँ ! मेरी पहली शादी का पिता जी को मालूम था और उन्होंने मुझे जायदाद से बेदखल कर देने की धमकी के एवज में मुझे नंदिनी से विवाह को मज़बूर किया था। जबकि पिता जी नहीं रहे तो मेरा यहाँ वापिस आने का सवाल नहीं है। जमीन बिक जाने के बाद अब सिर्फ यह मकान ही बचा है जो कि आपके नाम है; इनके कागजों पर दस्तखत कर दो तो इसे भी बेच कर आप मेरे साथ चलो......."
"और नंदिनी ???? उसका क्या??? अमिता सकते में थी कि यह क्या हो रहा है उसके साथ !
नंदिनी तो पत्थर हो गयी थी
"उसको उसके माता बाबा साथ ले जा सकते हैं हाँ !मैं उसके नाम कुछ धन बैंक में जमा करा दूंगा जो बच्चे की पढाई के काम आजायेगा और वो चाहे तो कहीं भी विवाह कर सकती हैं | “
अमिता स्तब्ध थी पति का साथ छूट गया। और पुत्र ? पुत्र का सहारा ही तो स्त्री को संबल प्रदान करता है; यहाँ तो पुत्र ही छल किये जा रहा था।
" बहुत खूब बेटा ! समधी जी के ना रहने पर नंदिनी से भी रिश्ता नहीं रहा ? और यह दिवीत तो तुम्हारा ही अंश है ! यह कैसे झुठला सकते हो। तुम कौन होते हो समधी जी की जायदाद के अकेले वारिस बनने वाले ! दादा की जायदाद का वारिस उसका पोता भी होता ही है। यह कानून तो हर किसी को पता है। मैं अपनी बेटी और नाती के साथ अन्याय नहीं होने दूंगा ! " नंदिनी के पिताजी तैश में आ गए।
" मुझे परवाह नहीं कि आप क्या करते हैं ! मैं माँ को यहाँ से ले जाऊंगा ......" दीपक दृष्टता से बोल रहा था।
" लेकिन मैं नंदिनी और अपने पोते को छोड़ कर नहीं जाउंगीऔर ना ही यह घर बेचूंगी ! अब मैं अपने पति की मौत के मुकदमे के साथ -साथ अपने पोते के हक़ के लिए भी लड़ूंगी ! " अमिता ने स्पष्ट शब्दों में दृढ़ता से कहा।
कई काली रातों के साथ यह रात भी बहुत काली थी। चुप तो सभी थे लेकिन सबके मनों में हलचल शोर मचा रही थी।
सबकी अपनी अपनी जिद थी और सबकी अपनी अपनी अना भी | रात बीती। सुबह बाहर के दरवाज़े खुलने की आवाज़ से अमिता की आँख खुल गई। उसका यह रोज का नियम था। मधुर तुरही की आवाज़ से आँख खुलती और पति के गहरी नींद सोये मुख पर स्नेह दृष्टि डालते हुए , धरती माता को प्रणाम करते हुए बिस्तर से बड़े उत्साह से उठा करती थी।
अब ,सब कुछ पहले जैसा नहीं था। खाली-सूने सरहाने पर नज़र पड़ते ही दिल में हूक सी उठ गई , आंखे भर आई। कुछ देर शून्य में ताकती रही फिर सांस भर कर उठी कि यूँ मन मारने से जीवन नहीं चलेगा। अब तो बहू और पोता भी तो उसकी जिम्मेदारी है। जब वह ही हिम्मत हारेगी तो नंदिनी तो बहुत मासूम और नाज़ुक है , वह क्या करेगी ?
एक आस थी धुंधली सी कि शायद दीपक अब जिम्मेदारी समझेगा अपने बच्चे से स्नेह करेगा अपनी पत्नी को मान देगा लेकिन .........
लेकिन के जवाब नही मिल रहे थे .ना अमिता को और नंदिनी को .
भोर का सूरज सर पर सवार होकर प्रकाश बिखेर रहा था कि चिराग ने आकर बताया कि कलाम साहब आये हैं।
" प्रणाम भाभी जी ! " कोहनियों तक हाथ जोड़े, थोड़े झुके हुए कलाम साहब खड़े थे। " चौधरी साहब की कमी तो बहुत खल रही है। आप चिंता ना करें। हम हत्यारों को पकड़वाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे ! "
" मुझे मालूम है कलम साहब ! लेकिन जब बाड़ ही खेत को खा जाये तो सुनवाई कौन करेगा। लेकिन मैं भी हार नहीं मानूँगी सजा तो दिलवा कर ही रहूंगी ! "
कलाम साहब से पास बगलें झाँकने के अलावा कोई चारा नहीं था। वह फिर मीठी चाशनी में शब्दों को डुबोते हुए बोले
," मैं चाह रहा हूँ कि दीपक भी पार्टी से जुड़ जाये और चौधरी साहब वाला पद संभाल ले ! " " नही नही कलाम साहेब , एक बार हम सब कुछ इस राजनीती को दे चुके हैं अब नही | दीपक का विदेश में बहुत काम हैं वो यहाँ नही रह सकता | आपको यह राजनीती और उसके पद मुबारक हो | “
“आपको राजनीती से इतना ही प्यार था तो पहले आकर कह देते , हम किसी भी बहाने से अपने पति को चुनाव ना लड़ने को राजी कर लेते , इस तरह हमारे सर से छाँव तो ना ......कहकर अमिता रो पड़ी|
दिवित भी दादी को रोते देख जोर से रोने लगा
परदे की ओट से नंदिनी दिवित को सम्हालने को उतावली हो उठी ..............
उपासना सिआग
अबोहर निवासी उपासना ज्योतिष विधा में पारंगत हैं कहानिया कविताएं लिखना इनको बहुत पसंद हैं कई प्रिंट पत्रिकाओ में, इ पत्रिकाओ में इनकी कहानियाँ लेख कविताएं प्रिंट हो चुके हैं