Nahi, me tumhari beti nahi hu in Hindi Short Stories by Arunendra Nath Verma books and stories PDF | नहीं, मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ !

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नहीं, मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ !

नहीं, मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ !

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

वायुसेना अस्पताल के ऑफिसर्स वार्ड की पूरब की ओर खुलने वाली खिड़की से बाहर झांकते हुए उसने महसूस किया कि उसका सर बहुत भारी हो रहा था. इसके पहले पूरे अडतालीस घंटों तक चले सीडेशन से अंग- अंग में व्याप्त भयंकर पीड़ा काफी हद तक कम हो गयी थी. फिर भी सन 2031 की उस सुहानी सुबह की ताज़गी उसे छू नहीं पा रही थी. पिछली शाम होश में आने के बाद उसके बहुत आग्रह करने पर डॉक्टर ने जबरन सुला देने का तारतम्य रोक दिया था. लेकिन तन की पीड़ा कुछ कम होने का कोई असर उसके मन में धधकती आग पर नहीं था. काश खिडकी के पार लॉन की घास पर भोर के धुंधलके में झिलमिलाती बूँदें उसके मन की आग बुझा पातीं. लॉन पर अलसायी, पसरी हुई घास के आगे युक्लिप्टस के ऊँचे ऊँचे पेड़ों की कतार थी जैसे लॉन की सुरक्षा के लिए लम्बे लम्बे प्रहरी खड़े हों. दबे पाँव आगे बढ़ती सूरज की अरुणाभ किरणों के हवाई हमले से जल्दी ही उन पेड़ों की फुनगियों का रक्तरंजित होना तय था. तभी तो उन पेड़ों से उतर कर भोर का झुटपुटा बेतहाशा भागता जा रहा था. वायुसेना के उस महत्वपूर्ण अड्डे के निकट रहकर उस झुटपुटे ने यही सब दांव पेंच तो सीखे थे. हवाई अड्डे से रात-दिन ध्वनि के वेग से कई गुना तेज़ गति से उड़ने वाले लड़ाकू विमान टेक ऑफ़ करते. उनके भीषण गर्जन और पूंछ से निकलती आग से धरती भी कांप जाती थी. उन बदमिजाज़ विमानों के चोर सिपाही के खेल में भले न शामिल हो पाए लेकिन हर सुबह उजाले के हवाई हमले को देखते ही भोर का झुटपुटा पलायन कर जाता था. जब लड़ने के लिए हथियार न बचें तो जेट इंजनों का ‘आफ्टर बर्नर’ ऑन करके विमान की सारी ऊर्जा पलायन पर केन्द्रित कर दो, यही तो सीखा था उसने. कल फिर से लड़ सकने के लिए आज जीवित बचना कितना ज़रूरी था!

उन लड़ाकू विमानों के दाँव पेंच देखते-देखते वहां के पेड़-पौधे, लता-गुल्म, उषा और संध्या सब उन विमानों के रंगों में रंग गए थे. लेकिन युक्लिप्टस के उन मुस्तैद प्रहरियों की अपनी मजबूरी थी. युद्ध के लिए कृतसंकल्प भले हों पर वे उस तरह कहाँ छुप सकते थे जैसे अपने आकाश का अतिक्रमण करने वाले शत्रुविमानों को मार गिराने के लिए स्वयं शेफाली और उसकी फाइटर स्क्वाड्रन के अन्य हवाबाज़ छुपे रहते थे. लता गुल्मों के घूँघट सरीखे कैमोफ्लाज में छुपे लड़ाकू विमानों की कोख में बैठकर वे उड़ान के आदेश की प्रतीक्षा करते थे. यह प्रतीक्षा होती थी रनवे से सटे हुए ओ आर पी ( ऑपरेशनल रेडीनेस प्लेटफार्म) की कंक्रीट सतह पर खड़े लड़ाकू विमानों में दो मिनट की ‘रेडीनेस’ पर बैठ कर “स्क्रैम्बल” आदेश सुनने की. लेकिन यह प्रतीक्षा धरती की सतह पर ही सीमित नहीं रहती थी. शत्रु के आगमन की प्रतीक्षा वे अक्सर ‘कॉम्बैट एयर पेट्रोल’ करते हुए आकाश पर मंडराते हुए करते थे. उनके दिलोदिमाग आगंतुक शत्रु के अतिक्रमण को रोकने के लिए “किल” का आदेश पाने को बेचैन रहते थे. जब आक्रमण का ख़तरा टल जाता तो रेडियो पर मिले ‘बिंगो’ कोड को सुनकर वे धरती पर वापस उतर आते. प्रतीक्षा की वे घड़ियाँ जतन से दिए गए प्रशिक्षण की परीक्षा लेती थीं. तब उन्हें एक योगी की तरह अपनी धडकनों पर काबू रखना होता था. आसन्न जीवन-मृत्यु के खेल में अपनी मृत्यु की संभावना को पूरी तरह नकार देना उनके स्वभाव का हिस्सा बन चुका था.“स्क्रैम्बल” शब्द का उद्घोष उनके हेडफोन पर और विमान के साथ धरती पर खड़े ‘ग्राउंड क्र्यू’ को ‘टेनोय सिस्टम’ के स्पीकरों पर, जैसे ही सुनायी पड़ता था वे एक दो मिनट के अन्दर ही आकाश में शत्रु विमान पर बाज़ की तरह झपट पड़ते थे. किसी अनहोनी की चिंता उन्हें व्यथित नहीं कर पाती थी. ऐसी ट्रेनिंग के बावजूद शेफाली आज अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने में खुद को असमर्थ पा रही थी. हवाई हादसे में बुरी तरह घायल होकर भी लड़ाकू विमानचालक शेफाली सर, माथे, एक पूरे पैर और दोनों हाथों में बंधी श्वेत बैंडेज से विचलित नहीं थी. लेकिन जीवन के आकाश में घिर आये अवसाद के बादलों के ऊपर उड़ान भर पाना उसे असंभव लग रहा था. उदासी में डूबी उसकी आँखें कमरे की खिडकी से बाहर देखती रहीं और वह अपने अन्दर के संघर्ष में डूबती उतराती रही. सुबह हो गयी. लॉन के किनारे कंटीले तारों की जाली के पार सड़क पर सफाईवाले ने बिखरे हुए सूखे पत्तों पर अपनी लम्बी झाडू मारी तो निःस्तब्धता में उन सूखे पत्तों की खड़खड़ सुनकर वह इतना उद्वेलित हो गयी जैसे शत्रु के फाइटर जेट की मशीनगन से ताबड़तोड़ बरसती गोलियां उसी को निशाना बना रही हों.

पिछली रात जाने कब थोड़ी देर के लिए विंग कमांडर शेफाली की आँखे लग गयी थीं. लेकिन उतनी थोड़ी देर में भी वह विचित्र से सपने देखती रही थी जिनका न सर था न पैर. नींद खुलने के बाद भी उसे बहुत अजीब सा लगता रहा. स्वाभाविक होता यदि नींद की कमी से उपजी खुमारी में वह देर तक डुबकियाँ लगाती रहती. पर ऐसा हुआ नहीं. नींद टूटने के साथ ही पूरी तरह से चैतन्य हो गयी थी. उसके अन्दर का झंझावात ही तो था जिसके कारण सडक पर पत्तों को समेटती झाडू का शोर उसे किसी फाइटर जेट की आग उगलती हुई मशीनगन सा लगा था. इस कमज़ोर मानसिकता के ख्याल से ही वह झेंप गयी. ‘क्यूँ इतनी विचलित हूँ मैं? आखीर मैं विंग कमांडर शेफाली शेखावत हूँ. भारतीय वायु सेना की महिला लड़ाकू विमानचालको के पहले बैच की शान. और वह भी केवल एक पाइलट नहीं बल्कि बाकायदा एक जेट फाइटर स्क्वाड्रन की पहली महिला फ्लाईट कमांडर. फिर क्या हो गया है मुझे?’ उसने सोचा. लेकिन इस विचार के साथ उसके चेहरे पर आयी विकृत और खिसियानी सी मुस्कान में आह्लाद नहीं, केवल विद्रूप भरा था. फिर चैतन्य होते हुए उसे धीरे धीरे ध्यान आने लगा कि किन उलझनों के कारण वह तूफ़ान में फंसे हुए विमान की तरह सारी रात डूबती उतराती रही थी. अतीत के चलचित्र उसके दिलोदिमाग में जाल से निकल भागने की फिराक में लगे कबूतरों की तरह फड़फड़ाने लगे.

याद आयी जीवन की सबसे मीठी मुस्कान जो उसके चेहरे पर पंद्रह साल पहले सन 2016 के अंत में आयी थी जब एक लड़ाकू विमानचालक बनकर भारतीय वायुसेना के इतिहास में उसने एक नया अध्याय जोड़ा था. वायुसेना की चुनिन्दा महिला फाइटर पायलटों पर यह सम्मान छप्पर फाड़ कर बरसी खुशियों की पोटली की तरह अचानक नहीं टपक पडा था. पूरे चार दशक लग गए थे वायुसेना को यह निर्णय लेने में कि लड़ाकू विमानचालकों को अपनी कोख से जन्म देने तक ही महिलाओं का योगदान सीमित न रहे. स्वयं लड़ाकू विमानों की कोख में बैठकर उन्हें वे भी पुरुषों जितनी दक्षता से उड़ा लेंगी इसमें कभी संशय नहीं रहा था. पर संकट की घड़ी में वे क्या पुरुषों की तरह हर आपदा का सामना कर सकेंगी? इसी प्रश्न को लेकर वर्षों विचार मंथन हुआ था. आपदायें कई रूपों में आ सकती थीं. उड़ान के दौरान विमान में आई खराबी से विमान बेकाबू हो जाए या शत्रु के विमान का शिकार बन जाएँ, मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन कहते थे कि दोनों ही स्थितियों में अपेक्षित मानसिक बल और इच्छाशक्ति महिला पाइलटों में पुरुषों से कम नहीं होगी. पर नारी की मानसिक शक्ति, धीरज और दृढनिश्चय उतने प्रश्न नहीं उठाते थे जितना नारी शरीर की बनावट.

आपस में दो-दो हाथ करते हुए लड़ाकू विमानचालकों को जिस चतुराई, चौकन्नेपन और फुर्ती का परिचय देना होता है वह दो ऐसे खूंखार कुत्तों की लड़ाई में ही देखने को मिलती है जो किसी आखिरी फैसले पर पहुँचने पर आमादा हों. तभी तो ऐसे आकाशीय संघर्ष को डॉग फाईट की संज्ञा मिली है. ध्वनि की गति से डेढ़ दो गुनी रफ़्तार से उड़ते हुए, डोगफाईट में संलग्न लड़ाकू विमानों को आक्रामक मुद्रा में कभी सीधे नब्बे अंश के कोण पर खडी उड़ान भरनी होती है तो कभी किसी सर्कस कलाकार की तरह गुलाटियां भरकर अपना पीछा करते हुए शत्रु के विमान के पीछे आना होता है ताकि शिकारी स्वयं शिकार बन जाए. उनके विमान कभी पेड़ से झरते हुए सूखे पत्तों या कटी पतंग की तरह बेकाबू होकर आकाश की ऊँचाइयों से टूटकर धरती की तरफ गिरते हैं तो दूसरे ही क्षण अचानक, जैसे किसी चमत्कार ने निर्जीव शरीर में प्राण फूंक दिया हो, वे मुद्रा बदल कर बिजली की रफ़्तार से अपनी पूरी शक्ति एकाग्रित करके दुबारा एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं.

अस्पताल की खिड़की से शेफाली बाहर झांकती रही और उसके मन में वायुसेना अकादमी में पहली ड्युअल (प्रशिक्षक के साथ) उड़ान से लेकर अब तक के अनगिनत चित्र बनते बिगड़ते रहे. कोई दो दिन में हो जाने वाला चमत्कार तो यह था नहीं. लड़ाकू विमान को पूर्ण कौशल से उड़ा लेना किसी कुशल नट द्वारा रस्सी या तार पर पैदल चलने का संतुलन दिखाने वाले खेल जैसा मनोरंजन मात्र नहीं होता. विमानों के डैनों के नीचे छुपे रोकेट, मशीनगनें और प्रक्ष्येपास्त्र उनके खेल को जीवन और मृत्य के बीच एक रस्साकशी में तब्दील कर देते हैं. लड़ाकू हवाबाज़ क्षण भर का मौक़ा मिलते ही शत्रु विमान को अपनी गनसाईट के क्रोस वायर के निशाने पर लेकर गोलियों और रॉकेट की आग बरसाना शुरू कर देता है. उसके दागे हुए आकाशीय प्रक्षेप्यास्त्र जादुई बाण की तरह शत्रु का पीछा करते हैं. इन प्रक्ष्येपास्त्रों को कभी शत्रु विमान के एक्जहास्ट से निकली हुई ताप तरंगें आकर्षित करती हैं तो कभी उसकी बनावट में प्रयुक्त धातु का चुम्बकत्व. ऐसे एयर-टू-एयर मिसाइल्स से लैस विमान में बैठे आक्रामक हवाबाज़ को बस उस एक क्षण की प्रतीक्षा रहती है जब वह अपने शिकार की तरफ मुखातिब होकर ट्रिगर दबा सके. वह ऐसा कर पाया तो उसका शिकार आग का गोला बनकर डूबते सूरज की तरह क्षितिज की गोद में विलीन हो जाता है. फिर शिकार में सफल विमान विजय का जश्न मनाते हुए आकाश में या तो वह कलाबाजी करता है जिसे विक्ट्रीरोल कहते हैं या शत्रु के अन्य विमान यदि आकाश में मौजूद हों तो उन्हें भी मार गिराने के लिए वह दुबारा अपने पंख तोलने में लग जाता है.

इतना सब करने के लिए नारी शरीर का मेरुदंड क्या पुरुषों की तरह गुरुत्वाकर्षण का आठ गुना दबाव (जिसे आठ ‘जी’ कहेंगे) झेल पायेगा? माना कि लड़ाकू विमान को उड़ाने वाले पायलट ‘जी सूट’ पहन कर उड़ान भरते हैं जिसके तंतुओं में भरी हुई हवा का दबाव धमनियों में रक्त के प्रवाह को नीचे आने से ऐसे रोकता है कि पायलट अचेतन न हो जाए ( इसे ग्रे-आउट होने की संज्ञा दी गयी है.) लेकिन? बस ऐसे कई “लेकिन” ही दशकों तक भारतीय वायुसेना को उद्वेलित करते रहे. जब अमरीकी वायुसेना से इजराइली वायुसेना तक में महिलाओं ने लड़ाकू विमानचालन में अपने जौहर और प्रोफेशनलिज्म की मिसालें पेश कर दीं तब भी एक सवाल फन उठाये डंसता रहा. युद्धकाल में कभी पैराशूट के सहारे शत्रुसीमा में उतरने के लिए मजबूर महिला पायलट क्या उस वहशीपन और क्रूरता को झेल पाएंगी जिसे बरपा करने में जेनेवा समझौते का मखौल उड़ाते कुछ देश सकुचाते नहीं. पर जब स्थल सेना में अग्रिम मोर्चों पर महिलायें नियुक्त होने लगीं, जब हेलीकोप्टर और परिवहन विंग की महिला विमानचालकों के अग्रिम क्षेत्र में उड़ान भरने पर प्रतिबन्ध नहीं रहा तो अंत में लड़ाकू विमानों की निषिद्ध कॉकपिट के कपाट महिलाओं के लिए भारतीय वायु सेना ने भी खोल दिए.

लड़ाकू विमानचालकों के पहले बैच में कमीशन पाने का सम्मान जब शेफाली शेखावत को मिला तो समाचारपत्रों और टीवी चैनलों पर उसका चेहरा कई दिनों तक छाया रहा. उसके लावण्यमय सौन्दर्य और जोखिम भरे काम का संयोग नयी पीढी के मानस पर ऐसा छाया कि सोशल मीडिया उसपर बुरी तरह अनुरक्त हो गया. इस अनुरक्ति के नशे में मदहोश पायलट ऑफिसर शेफाली शेखावत की पहली नियुक्ति ऐसे कमांडिंग अफसर ( सी ओ) के अधीन हुई जिसने उसे एकदम सातवें आसमान से उतार कर यथार्थ की धरती पर पटक देने में ज़रा भी समय नष्ट नहीं किया था.

क्षण भर के लिए वह ‘आज’ में लौटी जब नर्स ने आग्रह किया कि वह आँखें बंद करके शान्ति से लेटी रहे. पर अतीत की यादों में खोई हुई शेफाली ने उसकी बातें सुनी भी नहीं. ध्यान आता रहा कि आकाश की ऊंचाइयों को छूने के लिए कितने सोपानों पर चढ़ना पडा था. मन की आंखों के सामने वह दिन आ खडा हुआ जब हाकिमपेठ में स्थित वायुसेना की जेट ट्रेनिंग विंग में प्रशिक्षण पूरा करके शेफाली पायलट ऑफिसर की रैंक की द्योतक पतली सी पट्टी कन्धों पर लगाकर निकली थी. उसे जेट प्रशिक्षण विमान पर अपने गुरु के साथ दस बारह घंटे डुअल फ़्लाइंग करने के बाद अकेले विमान की कोख में बैठकर पचास घंटे की सोलो उड़ान का अनुभव मिल चुका था. शार्प टर्न से लेकर हवा मे लूप बनाने तक का कौशल वह हासिल कर चुकी थी. स्पिन होकर बेकाबू गिरते हुए जहाज़ को फिर से काबू में लाने जैसे कई दाँव पेंच भी आ गए थे. बैरेल रोल’ में पेचकस के दबाव से घूमते हुए स्क्रू की तरह विमान को लोटपोट करना और ‘वर्टिकल चार्ली’ में सपाट उड़ान को अचानक गगन्चुम्बी खडी उड़ान में बदल देने का कौशल सीख लेने पर भी उसे मालूम था कि अभी आकाशीय संग्राम अर्थात कम्बैट उड़ान की दहलीज भी वह नहीं छू पाई थी. फिर भी मीडिया की प्रशस्ति पाकर वह प्रायः भूल जाती थी कि अभी पूर्ण रणबांकुरी लड़ाकू विमानचालक बनने तक उसे बहुत पापड बेलने होंगे. यही वह ज़रूरी बात थी जो ऑपरेशनल ट्रेनिंग देने वाली स्क्वाड्रन में पहुंचते ही उसके सी ओ ने उसे पहले ही साक्षात्कार में समझा दी. फिर शुरू हुआ असली लड़ाकू विमानों में चील्ह झपट्टे के खेल सीखने का एक लंबा सिलसिला जिसके प्रारम्भ में ही वह समझ गयी थी कि कमीशन मिलने तक उसने विमानचालन का क ख ग मात्र सीखा था.

बदन की पीड़ा ने एक बार फिर उसे आ दबोचा. अचानक शेफाली का मन हुआ कि वह बिस्तर पर करवट ले सके पर उसकी बायीं टांग एक ऊंचे कोण पर मोड़कर ऐसे बंधी हुई थी कि हिलना भी कठिन था. रात में ही नर्स ने आगाह किया था कि पैर के कम्पाउंड फ्रैक्चर्स और रीढ़ की चोट के चलते वह करवट नहीं ले पायेगी. एक बार फिर अपनी पीड़ा और असहायता को भुलाने के प्रयास में वह पंद्रह वर्ष पहले के उस दिन की याद में खो गयी जब हवाई लड़ाई का उसका पहला पाठ प्रारम्भ हुआ था. इस अभ्यास में शत्रुविमान का पीछा करके उसे अपने गन के निशाने पर लेने के तरीके सिखाये गए थे. फिर उसे एक कुशल और अनुभवी साथी हवाबाज़ के साथ जिसे विंगमैन कहते हैं एक साथ दो शत्रुओं से निबटने का खेल सिखाया गया था. विंगमैन आगाह करता था कि तुम जो शत्रु के पीछे लगे हुए हो, स्वयं तुम्हारा पीछा करते एक दूसरे शत्रुविमान के निशाने पर आने वाले हो. फिर जेट इंजन की सम्पूर्ण ताकत को समेटने के लिए रिहीट ऑन करके (अतिरिक्त जेट ऊर्जा बढ़ाकर) उसे एक खडी चढ़ाई में अपने विमान को लम्बवत आकाश में अचानक चढ़ा लेना था. पीछा करने वाला विमान सर्राटे से आगे निकल जाए तो फिर गुलाटी मार कर शत्रु विमान के पीछे लग जाना था ताकि अपनी रौ में बहता हुआ शिकारी आगे आ जाए और उसे निशाने पर लिया जा सके. ऐसे ही तरह तरह के दांवपेच इन मृत्युस्पर्शी हवाई खेलों में आजमाए जाते थे. कभी चार वर्सेस दो की एक्सरसाइज़ में चार हमलावर विमान किसी लक्ष्य पर रोकेट या प्रक्ष्येपास्त्र से हमला करने के लिए उड़ान भरते थे और शत्रु के दो प्रहरी विमान उन्हें मार गिराने के लिए रास्ता रोक लेते थे. तब चारों मित्र विमानों में से एक लीडर होता था और दूसरा विंगमैन बनता था. विंगमैन के जिम्मे होता था खतरे से आगाह करते हुए अपनी टीम के विमानों को दुश्मन के पीछे लगाने का काम. फिर विंगमैन और उसका साथी मित्र विमान शत्रुओं के ऊपर टूट पड़ते थे. उधर मिशनलीडर और उसके साथ का दूसरा विमान इस आपाधापी और गपडचौथ का फायदा उठाकर अपने मिशन के मूल लक्ष्य की तरफ बढ़ निकलते थे. दिन के उजाले में इस कुकुरहाव ( डॉग फाइट्स) का जब पूरा अनुभव हो गया तब शुरू हुआ था भोर और गोधूलि के धुंधलके में उड़ने और लड़ने का दौर. अंत में आया था रात्रिकालीन हवाई लड़ाइयों का अध्याय.

पर आज के नवीनतम फाइटर जेट्स के लिए न तो रात और दिन में कोई अंतर रह गया था न अपनी आँखों से शत्रु के विमान को देखना आवश्यक था. दशकों पहले ‘जैगुवार’ दिनरात उड़ान भरने वाले जेट फाइटर्स के वायुसेना में प्रवेश करते ही उसमे चौबीसों घंटे युद्ध करने की क्षमता आ गयी थी. ‘हेडअप डिस्प्ले’की सुविधा होने से इन लड़ाकू विमानों के हवाबाजों को विमान के डैशबोर्ड पर जड़े तरह तरह के डायलों और यंत्रों में उलझ कर ध्यान बांटने की मजबूरी नहीं रह गयी थी. ‘बियोंड विजुअल रेंज’ अर्थात मानव दृष्टि की सीमा से परे केवल रडार आदि से नियंत्रित प्रक्षेप्यास्त्र ( मिसाइल) दाग कर शत्रु को मार गिराना अब साधारण बात थी. हर मौसम में, हर तरह के प्रकाश में, दिनरात लड़ाकू विमानों पर पूर्ण सक्षम अर्थात फुल्ली ऑपरेशनल होने का गौरव प्राप्त करने तक शेफाली ने जाने कितना खून सुखाया था. चांदनी रातें हों या अमावस की कालिमा, सबमे ‘फुल्ली ऑप्स’ होने तक की यात्रा कितनी लम्बी थी! शेफाली सोचती रही.

एक लम्बी सी ‘हाय’ के साथ क्षण भर के लिए वह बेड पर हिली. पर अगले ही क्षण फिर अतीत की यादों में खो गयी. लड़ाकू विमानों पर लोडेड हथियारों अर्थात मशीनगने, रोकेट और एयर टू एयर मिसाइल और एयर टू ग्राउंड मिसाइल के उपयोग को तो उसने याद ही नहीं किया था. उस प्रशिक्षण में भी पहले आभासी हथियार ही इस्तेमाल हुए थे. असली आग उगलने वाले खेल तो प्रशिक्षण के अंतिम चरण में खेले गए थे. मोंक कम्बैट अर्थात नकली युद्ध में दुश्मन के जहाज़ को निशाने पर लेकर इन हथियारों से मार गिराने में कितनी सफलता मिली इसका फैसला विमान के आटोमेटिक कैमरे से ली हुई तस्वीरों के अध्ययन के बाद अम्पायर करता था. हमला आभासी होता था जो केवल क्रोस वायर में दुश्मन के आते ही ट्रिगर दबा लेने पर सफल माना जाता था. कैमरे में कैद फोटो बयान करती थीं कि ‘दुश्मन ‘ वास्तव में हमलावर के क्रोस वायर पर आया भी या नहीं. फिर जैसे हर उड़ान के पहले सविस्तार ब्रीफिंग होती थी वैसे ही वापस धरती पर उतरने के बाद डीब्रीफिंग का दौर होता था. ठोस धरती पर कदम पड़ने के बाद डीब्रीफिंग कक्ष तक पहुंचने तक शत्रु और मित्र जहाज़ों के हवाबाजों में गरमागरम बहसें चलती थीं. असली शत्रु से दो दो हाथ करना तो असली युद्ध छिड़ने पर ही संभव था.

अस्पताल के बेड पर पड़े पड़े, कंधे और गर्दन में हो रही पीड़ामयी जकड़न को भुलाने के लिए वह असली हथियारों और भयंकर असलहों से रूबरू होने वाले दिनों की याद में खो जाने का प्रयत्न करने लगी. स्क्वाड्रन हर कुछ महीनों पर उन बियाबान अड्डों पर भेज दी जाती थी जहाँ फायरिंग रेंज पर बम, रोकेट ,मशीनगनों और मिसाइल फायरिंग का अभ्यास करना होता था. फायरिंगरेंज पर खड़े टैंकों, ईमारतों, रेल लाइनों. पुलों. और यातायात के तमाम साधनों से लेकर तरह तरह के अन्य लक्ष्यों को देखकर आँखें धोखा खा सकती थीं कि वे सब असली हैं. पर वास्तव में वे बस खोखे होते थे. और हाँ, विमान उड़ा पाने की काबिलियत का लिटमस परीक्षण तो आपदाओं से निपटने में होता था. इसीलिए पूरे कम्बैट प्रशिक्षण के बीच इंजन फेल हो जाने, किसी पक्षी से टकराने के बाद इंजिन के ‘फ्लेम आउट’ हो जाने या विमान के बेकाबू हो जाने जैसी काल्पनिक स्थितियों से निबटने का कौशल भी सीखना होता था.

पहली ऑपरेशनल स्क्वाड्रन में हवाई कम्बैट का अभ्यास करते समय ही मालूम हो गया था कि सामने दीखते उत्तुंग शिखर पर चढ लेने के साथ ही उसके पीछे छुपे और ऊंचे ऊंचे शिखर नयी चुनौती बनकर उसके सामने खड़े हो जायेंगे. वायुसेना में हर कुछ वर्षों के अंतराल पर और भी अधिक एडवान्स्ड और भीषण क्षमता वाले लड़ाकू विमान शामिल किये जाने ( इंडक्ट होने ) की प्रक्रिया स्वाभाविक है. पर निरंतर चलते रहने वाले प्रशिक्षण और अभ्यास से सब कुछ आसान लगने लगता था. फिर वह यह भी जान गयी थी कि जितने खतरनाक और भयंकर क्षमता के विमान बनते जाते हैं उतना ही उनकी हैंडलिंग तकनीकी सुधार से और सुगम बनती जाती है. अपनी महत्वाकांक्षा के चलते वह एक के बाद एक सफलता के सोपान चढ़ती गयी थी. वायुसेना के नवीनतम लड़ाकू विमान सुकोय ( SU 37 Mark 5 ) पर जिस दिन वह ‘फुल्ली ऑप्स’ घोषित की गयी सन 2031 के उसी महीने के अन्दर विंग कमांडर की रैंक पाकर उसी स्क्वाड्रन में फ्लाईट कमांडर के पद पर वह नियुक्त हो गयी.

बिसरे हुए अतीत की याद ने घायल शरीर की पीड़ा से उसका ध्यान भटकाया तो, लेकिन तीन दिन पहले के उस भयंकर हादसे ने उसे शारीरिक कष्ट से कहीं अधिक आंतरिक वेदना पहुंचाई थी. इतनी पीड़ा कि उसकी आँखों के सारे आंसू भी सूख गए थे. वरना नारी सुलभ भावुकता से वह पूरी तरह से अछूती नहीं थी. जिस दिन फ्लाईट कमांडर की कुर्सी संभालकर वह स्क्वाड्रन की टू आई सी ( सेकेण्ड इन कमांड) बनी थी उस दिन भी उसकी आँखों में कई वर्षों के बाद आंसू झिलमिलाये थे. उन आंसुओं के पीछे थी पापा की याद. उसकी असाधारण सफलताओं से कितना गर्वान्वित रहते थे वे. जो कोई सामने पड़ जाता उसे बेटी पुराण सुनाने लग जाते थे. उसकी सफलताओं की ज़माने भर से चर्चा करते करते एक दिन नए श्रोताओं की खोज में वे इस धरती से विदा हो गए थे. लगभग चार दशक तक उनकी साँसों में खुशबू सी बसी माँ भी उनके जाने के बाद अकेले ज़्यादा दिन नहीं जी सकी थी. बचा रह गया था छोटा भाई अनन्य. पर अमेरिका से एम् बी ए करने के बाद वह भी नहीं लौटा था. उस हँसते खेलते परिवार की एक भूली बिसरी तस्वीर बनकर शेफाली निपट अकेली रह गयी थी. एकाकीपन की वेदना भुलाने के लिए शेफाली अपने काम में डूब गयी थी. वायुसेना के नवीनतम लड़ाकू विमानो को उड़ाने में उसके कौशल को देखकर उसके साथी दंग रह जाते थे. पर जो कुछ हासिल किया जा सकता था सब मिल गया तो अंत में एक दिन उसे अचानक महसूस हुआ कि उसका जीवन कितना सूना था. कितनी कमी थी उसके जीवन में किसी ऐसे की जिसके मोहपाश में बंध कर वह इस भाग दौड़ के बाद एक घनी छाया के तले विश्राम करने का सुख पा सकती. ऐसा नहीं था कि आत्मरत, सिकुड़ी –सिमटी, सूखी-निचोड़ी स्पिंस्टर का खिताब उस पर फिट बैठता. जीवन के कुल पैंतीस वसंत ही तो पार किये थे अब तक. इनमे से पिछले सत्रह साल उसने उन हमउम्र मस्त खिलंदड़ी युवाओं के साथ बिताये थे जिन्होंने जीवन में बेरोजगारी और अभावों का संत्रास कभी नहीं भोगा था. वायुसेना के गौरवमय वातावरण में हँसी-खुशी और ‘एस्प्री दी कोर’ अर्थात सहयोगियों के साथ बंधुत्व इस तरह से जज्ब हो गया था कि उदासी को पंख मारने का अवसर ही नहीं मिलता. शेफाली भी अपने तरुण सहयोगियों के साथ फ़्लाइंग के सीरियस अध्याय से निपटकर उल्लासमय क्षणों को ही जीती थी. पर एक दिन जगजीत सिंह के गीत के शब्द उसके कानों में पड़े “ तुमको देखा तो ये ख्याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया”.तो वह सोचती ही रह गयी. मन के किसी कोने में अबतक छुपी जिन कोमल भावनाओं ने अचानक उसे झिंझोड़ कर रख दिया उनके अस्त्तित्व का उसे गुमान भी न था.

अपने प्रोफेशन के प्रति समर्पित शेफाली के जीवन में रस का कोई कतरा तक नहीं था ऐसा सोचना गलत होगा. पुरुष सहयोगियों के साथ वैसे हँसी मज़ाक जिन्हें सामिष कहते हैं, शेयर करने में अतिशालीनता उसने कभी नहीं बरती. वर्षों से खुली हवा में सांस लेती आई थी वह. तभी एकाध घनिष्ठ साथियों से उन्मुक्त हँसी और हलके फुल्के रोमांस की पेंग बढाने में हलके फुल्के चुम्बन-आलिंगन की लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण हो भी गया तो उसे कभी अपराधबोध ने नहीं सताया. उनमे से किसी के व्यक्तित्व में ऐसा कुछ अनूठा था ही नहीं कि वह उनके प्रति समर्पित हो जाती. थोड़ा बहुत छू- छा लेने से लाजवंती की तरह सिमट जाने वाला उसका व्यक्तित्व था नहीं. पर इसके आगे शेफाली के रूमानी जीवन के विषय में किसी की कल्पना बहुत वेग पकड़ ले तो उसके साथ अन्याय होगा. आज के माहौल में वह न सन्यासिनी कही जा सकती थी न अति बिंदास. कारण बस इतना था कि अभी तक अपने कैरियर के आगे उसे कुछ सूझता ही नहीं था पर अब सर्विस के इस चरण में जो कुछ हासिल हो सकता था उसे वह पा चुकी थी. तुरत हासिल करने योग्य कोई लक्ष्य उसकी राह रोके खडा नहीं था. सुस्ता लेने के इस दौर में पहुँच कर जीवन में माधुर्य की कमी उसे बेचैन करने लगी थी. सब कुछ था, पर कहीं कुछ रीता सा था. उसके इर्द गिर्द कोई इतनी घनी साया थी ही नहीं थी जिसके आगोश में आकर वह चलते चलते रुक जाती. उसके प्रोफेशनल हमसफ़र तरुण युवा एक एक कर अपना घर बसाते चले गए. पलक झपकने भर में ही वह इतनी सीनियर हो गयी कि इर्द गिर्द के जूनियर अधिकारियों के सम्मान की अधिकारिणी भर रह गयी थी. मिले तो कहाँ से मिले वह रोमांस जिसकी धीमी आंच कभी कभी उसे रातों में जगाकर रखने लगी थी. लेकिन एकाकीपन के जिस दायरे में वह बंद हो गयी थी उसमे अचानक एक दिन सेंध लग गयी.

फाइटर स्क्वाड्रन में लगभग शत प्रतिशत तरुण हवाबाज़ ही होते हैं. उनके बीच परिपक्वता और अनुभव का तड़का लगता है केवल दो फ्लाईट कमांडर और एक कमान अधिकारी की मौजूदगी से. शेफाली की अपने समकक्ष दूसरे फ्लाईट कमांडर घोष से, उसकी पत्नी और उसके दो नन्हे मुन्ने बच्चों से परिवारवत मित्रता थी. पर सी ओ (कमान अधिकारी) अर्जुन चोपड़ा का परिवार उसके साथ नहीं था. उसकी पत्नी दिल्ली के एक ख्यातिप्राप्त कोलेज में असोसिएट प्रोफ़ेसर थी. बच्चे थे नहीं और पत्नी अपना कैरियर त्याग कर इस सुदूर वायुसेना बेस पर पति की अनुचरी बन कर रहने को उत्सुक नहीं थी. फलस्वरूप ग्रुप कैप्टेन अर्जुन चोपड़ा ऑफिसर्स मेस में एकाकी जीवन बिता रहा था.

अर्जुन चोपड़ा लगभग चालीस वर्ष का गोरा चिट्टा सुदर्शन पंजाबी था. इतनी महत्वपूर्ण फाइटर स्क्वाड्रन की कमान संभालने का अर्थ स्पष्ट था कि उसके कैरियर का ग्राफ उत्कर्ष पर था. विमानचालन में उसका सानी नहीं था. अपनी स्क्वाड्रन के सभी हवाबाजों से भी वह समर्पित प्रोफेशनलिज्म की अपेक्षा करता था. उसकी अगुवायी में स्क्वाड्रन अंतरकमान गनरी ( रोकेट, मशीनगन और मिसाइलों की चांदमारी) की ट्रोफी जीत चुकी थी. तरुण हवाबाजों के बीच रहते रहते उसके व्यवहार में एक उत्फुल्लता आ गयी थी .उसके चेहरे पर सदा विराजने वाली मुस्कान किसी को आभास भी नहीं देती थी कि वह बहुत कड़क टास्कमास्टर भी था. काम के वक्त धुन कर काम करना और मौज मस्ती के क्षणों का छक कर रसास्वादन करना ही उसकी जीवन शैली का मूलमंत्र था. इसी अर्जुन चोपड़ा पर जब शेफाली अनुरक्त हुई तो उसने खुद से भी यह बात छुपा कर रखी. अन्य षोडशी कन्याओं की तरह अपने पहले प्यार की दीवानगी के दिन शेफाली ने न कभी देखे थे न अब वह स्थिति बची थी कि वह दिवास्वप्न देखे. अर्जुन के पारिवारिक जीवन के विषय में जानने की उत्सुकता तो होती पर किससे पूछती वह? स्क्वाड्रन में खुसुर-फुसुर होती तो थी पर शेफाली से ऐसी बातें साझा करने का साहस किसमें था.

शेफाली अपनी स्क्वाड्रन के युवाओं को अत्यंत कुशल हवाबाज़ बनाने के प्रति गंभीरता से समर्पित थी. काम के प्रति उसकी लगन अर्जुन जैसे समर्पित कमान अधिकारी को प्रभावित करती थी. पर अर्जुन को मालूम था कि अपने अधीन कार्यरत किसी महिला अधिकारी के प्रति थोड़ी सी भी रुझान उसने दिखाने की गलती की तो एक बहुत बड़ा स्कैंडल खडा हो जाएगा. विवाहित होते हुए भी बिना परिवार के आफिसर्स मेस में उसका रहना आग में घी का काम करता. फिर उसकी स्वयं की ही नहीं, उसकी ख्यातिप्राप्त स्क्वाड्रन की प्रतिष्ठा भी धूल में मिल जाती. शेफाली भी यह सब खूब समझती थी. तभी वह अर्जुन पर आसक्त हुई तो अपनी भावनाएं उसने सात तालों में बंद करके रखीं. उसे भी मालूम था कि अर्जुन जैसे परिपक्व पुरुष से इसका कोई प्रतिदान नहीं मिलेगा. यदि मिला भी तो उन दोनों के लिए वह आत्महंता कदम होगा.

दिन बीतते गए. नवीनतम लड़ाकू विमानों से लैस उस स्क्वाड्रन के कमान अधिकारी को विशिष्ट सेवा मैडल से सम्मानित किया गया.फ्लाईट कमांडर शेफाली शखावत को वायुसेना मैडल से. पर शेफाली के अन्दर धीरे धीरे सुलगती आग अब बढ़कर दावानल की तरह धधकने लगी थी. अर्जुन उसके सपनों में आने लगा था. पर जागते ही उसे यह बचकानापन लगता था. अपनी अतृप्त कामनाओं का गला घोंटते हुए शेफाली अपने को काम में झोंके रखती. स्क्वाड्रन के उत्कर्ष में शेफाली का समर्पित योगदान अर्जुन को और भी प्रभावित करता गया. पर उसने शेफाली को कभी मात्र एक नारी के रूप में नहीं देखा. यदि किसी बहुत निजी क्षण में शेफाली में छुपी नारी की कामना उसके मन में जगी भी तो उसने इसे बेवकूफी का ही दर्जा दिया. अपनी हल्की सी भी रुझान को उसने शेफाली से तो क्या खुद से भी बहुत छुपाकर रखा. उधर शेफाली अन्दर ही अन्दर धधकती रही.

पर मानसिक तनावों को आत्मसात करने की भी तो सीमा होती है! अर्जुन को गुमान भी न हो पाया कि उसकी कार्यकुशल फ्लाईट कमांडर के मन में उसे लेकर क्या द्वन्द छिड़ा रहता था. तभी ग्राउंड अटैक रोल में हमला करने के छमाही अभ्यास के लिए स्क्वाड्रन को राजस्थान के मरुस्थलों में आबादी से दूर उस अड्डे पर जाने का आदेश मिला जहाँ से फायरिंग रेंज पर हमला करने के लिए विमान उड़ान भरते थे. सात दिनों के उस अभ्यास में तरुण उड़ाकों के कौशल पर सान चढ़ाई जाती थी. फ्लाईट कमांडरों और कमान अधिकारी के लिए यह प्रबंधन की परीक्षा होती थी. शेफाली और अर्जुन जैसे समर्पित अधिकारियों के रहते स्क्वाड्रन से जैसे कौशल के प्रदर्शन की अपेक्षा थी वैसा ही देखने को भी मिला. उन छः दिनों में फुर्सत के कुछ क्षणों में ‘ब्वायज’ के साथ रेगिस्तानी चांदनी के वितान तले व्हिस्की के पेग की चुस्कियां लेते हुए अर्जुन ने अपने तरुण हवाबाजों की प्रशंसा में जब भी कुछ कहा तो साथ में शेफाली के प्रशिक्षण और प्रबंधन की भी भूरि भूरि प्रशंसा की. शेफाली वोदका का छोटा पेग हांथों में शिष्टाचारवश ले लेती थी, घूँट भरती थी या नहीं इसके बारे में कुछ पक्का अनुमान लगाना कठिन था. मंद मंद मुस्काती वह अर्जुन में छुपे अपने आराध्य को खुल कर निहार भी नहीं पाती थी. मन की बात मन में ही रह गयी और एक्सरसाइज़ से लौटने के दिन आ गए. स्क्वाड्रन के सभी तरुणों के विमानों को रवाना करने के बाद अंतिम टेक ऑफ़ फ्लाईट कमांडर और सी ओ के विमानों की थी. वह भी संपन्न हो गयी. पौ फटने के साथ ही टेक ऑफ करने के बाद वे ‘लो लेवल फोरमेशन’ में अपने बेस की तरफ उड़ रहे थे. आकाश निरभ्र था. ऐसे मौसम में उन जैसे अनुभवी उड़ाकों के लिए यह एक सीधा सादा रोज़ का खेल था. ध्वनि की गति से तेज़ उड़ते हुए वे अपने बेस तक पैंतीस मिनट में ही पहुँच गए लैंडिंग की तय्यारी शुरू हो गयी. फोरमेशन फ़्लाइंग अर्थात एक जोड़े की तरह साथ साथ उड़ने के बाद उन्हें लगभग साथ साथ ही लैंडिंग करनी थी. विमानचालन के कौशल की इस तरह के कठिन काम में ही तो परीक्षा होती थी. शेफाली के विमान को पहले धरातल छूना था और अर्जुन के विमान को उसके क्षण भर बाद. बेस के वायु यातायात नियंत्रण से उन्हें रन वे की तरफ बढ़ने का आदेश मिल चुका था. दोनों विमान रनवे की सीध में अपनी नाक रखे धरती से ऊंचाई घटा रहे थे. भूमितल से एक हज़ार फीट की ऊंचाई पर उन्होंने अपने लैंडिंग गीयर नीचे करने का बटन दबाया. पर यह क्या ! शेफाली की अंडरकैरेज ( विमान के पहिये) विमान की निचली सतह में बने अपने कोटरों से बाहर निकली नहीं. अंडरकैरेज नीचे आने की सूचना देने वाली हरी बत्ती भी ओन नहीं हुई. विमान में होने वाली थरथराहट और ध्वनिपरिवर्तन से आभास हुआ कि पहिये नीचे निकले तो होंगे. इसकी पुष्टि करने के बाद ही ए टी सी ( नियंत्रण टावर ) लैंड करने की अनुमति देता है. फिर बगल में उड़ते हुए अर्जुन से भी गड़बड़ होने पर खतरे की चेतावनी मिलेगी. पर उसके हेड फोन पर न तो टावर की न ही अपने लीडर की आवाज़ सुनाई दी. कोढ़ में खाज की तरह विमान की अंडरकैरेज के साथ ही कम्युनिकेशन सिस्टम भी फेल हो गया था. तभी टावर से चलाया हुआ लाल रंग का धुंआ छोड़ता हुआ अग्निबाण उसकी आँखों के सामने कौंध गया. ‘वेरी पिस्टल’ का प्रयोग करके टावर ने चेतावनी दे दी थी कि उसे उतरने की अनुमति नहीं थी. स्पष्ट था कि विमान के पहिये नीचे नहीं आये थे. बगल से ओवरटेक करते हुए अर्जुन का विमान उसकी दाहिनी तरफ से आगे आया. विमान के विंग्स बाएं दायें ऊपर नीचे हिला कर उसने शेफाली का ध्यान आकृष्ट किया. शेफाली ने उसकी तरफ देखा. इशारों इशारों में अर्जुन ने बता दिया कि शेफाली के विमान के पहिये न तो विमान के पेट में छुपे थे न ही पूरी तरह से नीचे आ पाए थे. हाईड्रालिक सिस्टम फेल होने का निश्चित प्रमाण ! अर्जुन का विमान फिर गति धीमे करके शेफाली के पीछे हो लिया जैसे भेड़ों पर नज़र रखता चरवाहा हो. शेफाली ने गति बढ़ा कर विमान को झटके के साथ एक खड़ी चढ़ाई में डाला. शायद झटके से पहिये नीचे आ जायें. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. दुबारा डाइव में डालकर उसने विमान को फिर झटके के साथ ऊपर उठाया. पर अटके हुए पहियों पर कोई असर नहीं पडा. यदि पहिये विमान की कोख में ही रहते तो कोंक्रीट के रनवे के साथ दौड़ती घास की पट्टी पर बेलीलैन्डिंग का प्रयास किया जा सकता था. पर इस अधकचरी दशा मे तो बेलीलैन्डिंग संभव ही नहीं थी. एक बार फिर अर्जुन ने उसे निकट से ओवरटेक किया. इस बार उन्होंने एक दूसरे को देखा तो अर्जुन का इशारा साफ़ था- इजेक्ट! अर्थात विमान से आपदकाल में स्वतः बाहर फिंक जाने वाली सीट का लीवर खींचो. जब सीट विमान से दूर होकर नीचे गिरने लगेगी तो उससे जुड़ा स्वचालित पैराशूट खुल जाएगा. विमान चालक के बहुमूल्य प्राण बच जायेंगे, हाँ विमान ज़रूर गिरकर चूर-चूर हो जाएगा.

हवाई अड्डे की परिधि के बाहर ही एक पतली नदी थी. उसके ऊपर इजेक्ट करने से विमान का आबादी के ऊपर गिरने का ख़तरा काफी कम हो जायेगा. पर शेफाली को शक था. कौन कह सकता था कि निश्चित रूप से विमान आबादी क्षेत्र के बाहर ही गिरेगा. क्षण भर में ही उसने एक विचित्र निर्णय ले लिया. नहीं वह इजेक्ट नहीं करेगी. उसका गरीब देश सैकड़ों करोड़ रुपयों के इस नवीनतम विमान को गंवा देना क्या अफोर्ड कर सकता था. उसने अपना अगला कदम मन ही मन तय कर लिया. घासपट्टी पर बेली लैंडिंग करने के प्रयत्न में विमान की नाक इतनी ऊंची रखी जाए कि आधी बाहर लटकी अंडरकैरेज भूमि के ज़बरदस्त आघात से टकरा कर दूर फिंक जाये. उसके बाद वह विमान को काबू में रख पायी तो कोशिश करेगी कि दुबारा ऊंचाई हासिल करे और दुबारा चक्कर लगा कर घास में बेली लैंडिंग का प्रयत्न करे. यद्यपि अधिक संभावना इसकी थी कि विमान बेकाबू हो जाएगा लेकिन फिर भी वहीं.घासपट्टी में रपटा खाता हुआ अंत में रुक ही जाएगा. ऐसा करने में इंजन जैसे बहुत से बेहद महंगे और आवश्यक हिस्से शायद चकनाचूर होने से बच जाएँ. रहा सवाल पायलट की जान का तो इन आधुनिकतम विमानों मे तो लगभग भूमितल से भी इजेक्शन सीट पायलट की जान बचा सकती थी. फिर जो होगा देखा जाएगा. एक अनुभवी वैमानिक के दृष्टिकोण से शेफाली का यह फैसला बिलकुल गलत था. उस जैसा अनुभवी पायलट वायुसेना के लिए उस विमान से कहीं अधिक बहुमूल्य था. पर शेफाली ने यह निर्णय जिन परिस्थितियों मे लिया उनमे न तो उससे बहस करने की गुंजायश थी न ही उसका इरादा बदल पाने की कोई संभावना थी.

ऊपरवाले की इच्छा होती है तो चमत्कार होते हैं! एयर ट्रैफिक कंट्रोल टावर के ऊपर जमा दर्जनों अधिकारियों ने, घासपट्टी पर उतरते हुए विमान के पीछे भागती फायरब्रिगेड की गाड़ियों और एम्बुलेंसों के चालकों ने, शेफाली के विमान के हवाई अभिभावक की तरह आकाश से उस पर लगातार निगाह रखे हुए ग्रुप कैप्टेन अर्जुन चोपड़ा ने और हवाई अड्डे की सीमा के बाहर वाली सड़क पर जाते हुए बीसों लोगों ने वह चमत्कार देखा और दांतों तले उंगली दबा ली. शेफाली ने धरती से मुश्किल से पांच फुट ऊंची एक अविस्मरणीय और अत्यंत कठिन उड़ान भरते हुए उड़ते हुए विमान की अंडरकैरेज को उस घासपट्टी से टक्कर दी तो वह बिजली गिरने से पेड़ से टूटी हुई शाख की तरह टूट कर एक तरफ फिंक गयी. विमान ने इस आघात के बाद बैलूनिंग की अर्थात एक छिछले वृत्ताकार ढंग से वह उछला. बैलूनिंग करते हुए वह धरती से चालीस पचास फीट ऊंचा उछला तभी विमान की इजेक्शन सीट हवा में फिंक गयी. फिर एक पैराशूट खुला और उससे लटकती हुई शेफाली को जिन लोगों ने धरती पर गिरकर ढेर हो जाते हुए देखा वे आँखें बंद करके भगवान से उसके जीवन की भीख मांगने में जुट गए. एम्बुलेंस दौडाती हुई मेडिकल टीम शेफाली की तरफ भागी. अर्जुन का विमान इसके तुरंत बाद सकुशल लैंड कर गया. विमान को अर्जुन ने रनवे से परे करके वापस हैंगर तक लाने का यत्न नहीं किया. रनवे से हटकर उसने विमान के इंजन बंद किये. कैनोपी को खोलकर वह कूद कर धरती पर आ गया. पीछे से आती एम्बुलेंस ने उसे भी अन्दर बैठा लिया. समतल रनवे की ज़मीन छोड़ कर एम्बुलेंस ऊबड़ खाबड़ ज़मीन पर उछलती हिचकोले लेती वहाँ पहुँची जहाँ शेफाली धराशायी थी.

एम्बुलेंस से अर्जुन कूद कर उस तक पहुंचा तो शेफाली ने किसी शराबी की तरह लडखडाते हुए उठने का उपक्रम किया पर उठ न सकी. फिर भी भहराते, लडखडाते हुए, अर्जुन को उसने अपने आगोश में ले लिया. स्क्वाड्रन की युवा पीढी के लिए उल्लास के क्षणों में एक दूसरे को ‘हग’ करना सामान्य व्यवहार था. पर शेफाली के ‘हग’ में केवल उल्लास और हर्ष नहीं था. उसने अर्जुन को अपने पाश में जकडा तो उसके अर्धचेतन दिलोदिमाग को दुनिया की सुध बुध भूल गयी. जी-सूट में बंद होने के बावजूद उसके उन्नत वक्ष का दबाव अर्जुन को असमंजस में डालने लगा. मैत्रीपूर्ण ‘हग’ की परिभाषा को यह दहकता हुआ आलिंगन बदल देने पर आमादा हो गया था. शेफाली अपनी सुध बुध खो बैठी थी. उधर अर्जुन हतप्रभ था. सामने खड़े फायरब्रिगेड और एम्बुलेंस के कर्मचारी वायुसैनिक तो हैरत से इस आलिंगन को देख ही रहे थे, टावर से शक्तिशाली दूरबीनों से अनेकों अधिकारी भी उन्हें इस मुद्रा में देख रहे होंगे- सोचकर अर्जुन बहुत असहज हो गया. बेसुध शेफाली के वक्ष का दबाव उसे असहनीय लगने लगा. शेफाली ने अधखुली आँखों से उसे देखा. उन आँखों में अभिसार था, समर्पण था, बहुत कुछ कह देने की अकुलाहट थी. शेफाली अपने आपे में नहीं थी. उसके स्फुटित होंठ अर्जुन के होठों की तरफ झुके. अर्जुन को लगा जैसे उस पर बिजली गिरने वाली हो. एक झटके से शेफाली के पाश से स्वयं को छुडाते हुए शेफाली के कानो में वह फुसफुसाया ‘ शेफाली इस स्क्वाड्रन के सारे अधिकारी मेरे बच्चे हैं. मैं तुम सबका अभिभावक हूँ. होश में आओ. मैं तुम्हारे पिता की तरह हूँ.”

शेफाली पर जैसे पागलपन का दौरा पड़ गया. इस भयंकर हादसे के बाद वह यूँ भी पूरी तरह होशोहवास में नहीं थी. अर्जुन के शब्द उसके कानों में पिघले हुए सीसे की तरह गिरे. वह चीख पड़ी ‘ नहीं, मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ, नहीं हूँ मैं तुम्हारी बेटी ---‘ बार बार यही रट लगाती हुई वह मूर्छित होकर गिर पड़ी.

अड़तालीस घंटों के बाद पिछली संध्या को उसे होश आया था तो उसने खुद को सैनिक अस्पताल के बेड पर पाया था. बैंडेज से आवृत्त अपने चेहरे को वह देखती तो पहचान नहीं पाती. पर होश में एक बार आयी तो फिर दुबारा बेहोश नहीं हुई. रात के डॉक्टर से उसने आग्रह किया था कि उसे फिर से सीडेशन न दिया जाए. पहले तो देर तक उसे उस दुर्घटना के बाद हुई घटनाओं की याद नहीं आई. विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद क्या हुआ था वह भूल चुकी थी. रात में थोड़ी देर के लिए वह सो पाई. पर भोर में ही जसकी नींद टूट गयी थी. धीरे धीरे एक भूली हुई कहानी की तरह उस दुर्घटना के चित्र उसकी आँखों के सामने धुंध में तैरते हुए से आते रहे. हल्का सा आभास हुआ कि अर्जुन किसी बात पर उससे बहुत क्रुद्ध था या पता नहीं शायद वह अर्जुन से बहुत क्षुब्ध थी. पर धीरे- धीरे, बहुत धीरे- धीरे, उसे याद आया कि वह कैसे अपना आपा खो बैठी थी. जैसे जैसे उसकी स्मृतिपटल पर छाया हुआ कुहासा छंटता गया उसके मन का अवसाद बढ़ता गया.

अवसाद, कुंठा और शर्म से उसका मन बैठा जा रहा था. कमरे में घुसती हुई मेट्रन ने मुस्करा कर जब उसे ‘गुड मोर्निंग’ कहा तो जवाब में उसने पूछा कि क्या उसके पास मोबाइल फोन था. उसने हामी भरी तो शेफाली ने उसका फोन मांग कर स्क्वाड्रन लीडर श्रीनिवासन को मिलाया जो एडजुटेन्ट की हैसियत से सी ओ का दाहिना हाथ था. शेफाली की आवाज़ फोन पर सुनकर श्रीनि खुशी से उछल पडा. बहुत प्रसन्न था वह कि शेफाली को न केवल होश आ गया था बल्कि वह फोन पर सहजता से बात कर पा रही थी. आरंभिक औपचारिकता के बाद श्रीनि से जब उसने सी ओ से बात करने की इच्छा प्रकट की तो जानकर उसे धक्का लगा कि अर्जुन ने पारिवारिक कारणों से अचानक एक महीने की छुट्टी ले ली थी. कल ही वह घोष को कमान सौंप कर चले गए थे. आगे कुछ पूछने की इच्छा नहीं बची. एकाध मिनट और बातें करके शेफाली ने बात समाप्त कर दी.

श्रीनि को उसके शारीरिक और मानसिक कष्ट का पूरा पूरा अंदाज़ था. तभी तो शेफाली के शीघ्र स्वास्थ्यलाभ की कामना करने के बाद उसे वह आगे कुछ बताने का साहस नहीं जुटा पाया. बताता भी तो क्या? यही न कि सी ओ ने अवकाश पर जाने से पहले विंग कमांडर शेफाली शेखावत के मानसिक संतुलन खो देने की रिपोर्ट आगे भेज दी थी. यही नहीं, उन्होंने यह सुझाव भी दिया था कि उसे मानसिक चिकित्सा के लिए तब तक अस्पताल मे रोके रखा जाए जब तक मनोचिकित्सकों की राय में वह हर प्रकार के मानसिक आघात और कुंठाएं झेल सकने के लायक न हो जाए. श्रीनि ने यह भी छुपाए रखा कि अर्जुन ने पारिवारिक कारणों से तुरंत दिल्ली का स्थानान्तरण माँगा था. उसके उज्वल रेकोर्ड को देखते हुए वायुभवन उसका निवेदन स्वीकार कर लेगा इसकी पूरी संभावना थी. शेफाली तक कितनी जल्दी यह खबर पहुँच जायेगी? श्रीनि सोचता रहा, सोचता रहा .

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नहीं , मैं तुम्हारी बेटी नहीं हूँ –उर्फ़ दास्ताने शेफाली - भाग दो

श्रीनि से बात करने के बाद शेफाली ने मोबाइल वापस देने के लिए नर्स को इंगित किया ही था कि कुछ बहुत अद्भुत, बहुत विचित्र सा घटित हुआ. पूरबवाली खिड़की से सूर्य की नवजात किरणों के साथ भयंकर गर्जन करता हुआ एक लड़ाकू विमान उस खिड़की से कमरे में घुस आया और कमरे की सुरक्षा पर नियुक्त एक दूसरे लड़ाकू विमान पर टूट पडा. नहीं नहीं यह तो कुछ ज़्यादा हो गया! फिर? फिर यह हुआ कि सैनिक अस्पताल के बेड से न जाने कैसे उठकर, सफ़ेद बैंडेज में चेहरा छुपाये शेफाली मेरे सामने आकर बैठ गयी. फंतासी की इस उड़ान से आप विक्षुब्ध हो रहे होंगे. मेरी परेशानी ये है कि कहानी जहाँ मैं समाप्त करना चाह रहा था वहां हो नहीं पा रही है. तो अब इसे यथार्थ के धरातल पर पटक देता हूँ. पर ऐसा करने के लिए मुझे स्वयं इस कहानी में घुसना पडेगा. चलिये यही सही! जब मैं सर्विस में था तो लडकियां फ़ौज में दिखायी भी पड़ती थीं तो केवल नर्सों और डॉक्टरों के रूप में. इधर जब वायुसेना ने घोषणा की थी कि महिला लड़ाकू पायलटों का पहला बैच अपना प्रशिक्षण समाप्त कर इस साल के अंत तक सर्विस में आ जाएगा तभी मेरे मन में इस कहानी ने जन्म लिया था. लड़ाकू पाइलट बनकर आज से पंद्रह साल के बाद यह लड़कियां क्या कर रही होंगी इसकी कल्पना कर के यह ताज़ा कहानी मैंने लिख डाली थी.

अपनी कल्पना की शेफाली को सदेह ( बुरी तरह आहत ही सही) देखकर मेरे मन में लड्डू फूटने लगे. सोचा उससे देर तक बातें करके अपनी बहुत सी शंकाएं दूर कर लूंगा. पर यह क्या, शेफाली की भौंहे सिकुड़ी हुई थीं. कुछ था, जो उसे बुरा, नहीं नहीं, बहुत बुरा लग रहा था. उसने मेरी कहानी के पन्ने उठाये और तैश के साथ हवा में बिखरा दिए. मेरी तरफ आँखें तरेरते हुए बोली ‘तो अब तुम भी गर्भ में ही कन्या भ्रूण की ह्त्या कर देने वालों में शामिल हो गए हो?’ उसके शब्दों में गुस्सा ज्यादा था या हिकारत इसका निर्णय करना कठिन था. मैंने प्रश्नवाचक निगाहें उसकी तरफ उठायीं तो उसने कहा ‘कितनी व्यग्र प्रतीक्षा के बाद महिलाओं को यह गौरव मिल पाया है कि वे लड़ाकू जहाज़ उड़ा पायें और तुम हो कि उड़ान भरने से पहले ही उन्हें मार डालना चाहते हो.’

मैं हतप्रभ था. ‘ऐसा तो कुछ नहीं किया है मैंने. मेरी नायिका एक कुशल, जांबाज़ और समर्पित फाइटर पाइलट है. मैंने तो उसे आज से पन्द्रह सोलह साल आगे ले जाकर फ्लाईट कमांडर भी बना दिया. इतनी भयंकर आपदा को कितनी दृढ़ता और सच्चे प्रोफेशनल की तरह उससे हैंडल करवाया है. और क्या अपेक्षा है मुझसे?’ मैंने पूछा. मेरी आवाज़ में आत्मविश्वास भरा था.

उसके चेहरे पर घोर असंतोष की छाया थी. ‘लेकिन निकले तो तुम वही पुरानी पीढी के नारीहन्ता. कितनी बेशर्मी से मुझसे प्यार की भिक्षा मंगवायी है. मेरे बंजर मन में प्यार का अंकुर उगा कर तुम समझते हो तुमने बड़ा एहसान कर दिया. एक क्षण को भी यह सोचने को रुके तुम कि अंततः तुमने मुझे इतना कमज़ोर दिखाकर कह दिया कि मर्दों के इस खेल से औरतें दूर ही रहें तो अच्छा है. उनके आने से स्क्वाड्रन का अनुशासन भंग होगा. युवा और अपरिपक्व पुरुष पायलट स्क्वाड्रन की अन्य महिला पायलटों की तरफ अरमान भरी नज़रों से देखने लगेंगे. फिर भाड़ में जाएगा प्रोफेशनलिज्म. और उन्हें छोडो, तुमने तो स्क्वाड्रन के विवाहित पुरुषों की पत्नियों के ऊपर अपनी शेफाली के कृत्य की प्रतिक्रया की भी सोची थी न? ऐसी कमज़ोर मानसिकता वाली औरत ही तुम्हे मिली थी फ्लाईट कमांडर बनाने के लिये, अतिकुशल हवाबाज़ बनाने के लिए?’ कहते कहते वह हांफने लगी. मानसिक उत्तेजना से या शारीरिक कमजोरी से, या शायद दोनों से. मैं हतप्रभ था. शेफाली को मैंने स्वयं कब बहुत कमज़ोर समझा था?

उसे उत्तर देने के लिए सही शब्दों का चुनाव करने को मैं ठिठक गया. कैसे समझाऊं कि शेफाली के योद्धा होने, फाइटर पायलट होने, का अर्थ यह तो नहीं था कि अपने अन्दर की औरत को वह पूरी तरह मार डाले. प्रकृति ने मुग्धा नारी को आत्मसमर्पण हथियार समझ कर दिया है या एक अनूठी संपदा मानकर, इसका निर्णय करने वाला मैं कौन और वह कौन? जिस भीषण दुर्घटना में वह कुछ पल पहले ही जीवित बच गयी थी उसके आघात की मनःस्थिति में यदि क्षण भर के लिए वायुसेना की, मर्यादाएं तोड़ भी देती है तो कौन सा अक्षम्य पाप कर देती है. वह उसकी कमजोरी थी या कठोर आवरण को फोड़कर फूट आने वाली शीतल जलधार जो परिस्थितियों के दबाव से मन की गहराइयों में तब तक छुपी हुई थी?

मैंने यही सब कहने के लिए मुंह खोलना ही चाहा कि वह फिर मुझ पर टूट पड़ी ‘मुझे तो मालूम ही नहीं था कि आधुनिकता के मुखौटे के पीछे छुपे तुम इतने बड़े मनुवादी हो. दिखाना चाहते हो कि पुरुष अर्जुन कितना परिपक्व है. चाहता तो मौके का फ़ायदा उठाकर अपनी हवस पूरी कर लेता. लेकिन वह एक आदर्श कमान अधिकारी है. सहृदय भी कितना कि उस भयंकर हादसे से तुरंत गुज़री हुई शेफाली के कृत्य को एक क्षणिक कमजोरी समझ कर उसकी मनोवैज्ञानिक कौन्सेलिंग का सुझाव देता है! अरे क्या नाटक है यह सब?’ कहते कहते बैंडेज के पीछे छुपा उसका चेहरा तमतमा गया होगा. आवाज़ क्षीण हो रही थी, फिर भी थोड़ा रुककर, उसने बात जारी रखी “सच तो यह है कि उसे बस अपने कैरियर की पड़ी थी. तभी तो केवल एक चुम्बन से मुझे तृप्त कर देने के बजाय वह चुपके से लम्बी छुट्टी लेकर भाग खडा हुआ. वाह रे तुम्हारा शेर, एक समर्पिता के आलिंगन को प्रेतछाया समझता है!’ इतना सब कहते कहते उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया, आँखों में बादल उमड़ पड़े.

फिर अचानक उसके स्वर की कडुवाहट जाती रही. कोमलता से बोली ‘नहीं मेरे जन्मदाता, इस कहानी को फिर से लिखो. तुम्हे कोई हक़ नहीं कि एक पराक्रमी महिला लड़ाकू हवाबाज को महज़ एक औरत के रूप में पेश करो. बहुत लिख लिया लोगों ने नारी की कोमलता, भावुकता और मूर्खता के बारे में. तुम अकेला एक सार्थक सन्देश इस कहानी में दे पाए हो. वह ये कि प्रोफेशनलिज्म का अर्थ जीवन को एक बंजर में बदल देना नहीं होता है. लेकिन तुम्हारी शेफाली की कमजोरी, क्षणिक ही सही, आज की नवजात महिला हवाबाजों को बहुत भारी पड़ेगी. तुम्हे किस्सागोई आती है. चलो फिर से बैठो और लिख डालो एक ऐसी हवाबाज़ की कहानी जिसके पास दिल भी हो और दिमाग भी. ‘

आप ही बताएं मैं क्या करूँ. शेफाली में छिपी नारी की ह्त्या कर डालूं या विंग कमांडर शेफाली की वर्दी को संवारूँ? या फिर जिस कहानी को मैंने इतनी लगन से लिखा उसके पृष्ठ फाड़ कर चिंदीचिंदी करते हुए विलाप करने लगूं ‘नहीं, तुम मेरी कृति नहीं हो!’

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

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