रेत पर लिखी इबारतें
विनीता शुक्ला
गहना सोच में है. मन की अनगिनत चट्टानें; मोम की तरह, गल- गलकर पिघल रही हैं. लावे की वह नदी, उसकी समूल चेतना में उमड़कर, हाहाकार मचा रही है. हृदय रो रहा है पर होठ विवशता में भी बेतरह मुस्करा रहे हैं. असहायता में मुस्कराना, उसकी आदत जो ठहरी! खुद से लड़ते हुए, खुद पर विश्वास अर्जित करते हुए, युग गुजार दिया उसने. किसलिए?! वह विश्वास तो, निमिष भर में, खोखला लगने लगा...उसका सुंदर सहज औदार्य, क्यों उसे ही, मुंह चिढा रहा है???
अतीत की परते, बिन खोले ही खुलने लगीं. पछाड़ खाकर, सर पटकती- तरंगमय आकुलता... उन आघातों से छीजते, अंतस- तटबंध! मधुयामिनी की वह बेला... चाहा था कि पति, उसकी थोड़ी- बहुत चिरौरी करे- एक भीगा सा प्रणय निवेदन... उसकी शान में, गढ़े कुछ कसीदे - भले ही झूठे, मगर प्यारे से! मगर वो यह क्या लेकर बैठ गया??? दूसरी स्त्रियों को बारे में, रसिकता भरी कहानियां!! कैसे कैसे उन लड़कियों ने, उसे रिझाने की कोशिश की और वह उनके ‘जाल’ में नहीं फंसा. यह तो पुरुषसत्ता के मद में चूर, अहंकारी की हुंकार थी- जो स्त्री को अनुग्रहीत कर, भोगना चाहता था...या उसके पुराने प्रेम- संबंधों को खोदने की कोशिश?!!
जो भी हो, यह वो व्यक्ति नहीं था- जिसके लिए सोलह सोमवार, व्रत रखा था. शिव की ही अभ्यर्थना, कुंवारी कन्या क्यों करती है? ऐसे वर के लिए, जो उसे अस्तित्व का हिस्सा बनाये. किन्तु यह होता कहाँ है! वह किसी की धरोहर बनके रह जाती है- बंधक इच्छाओं के साथ. जल्द ही पति रवीश के ‘कारनामे’, उजागर होने लगे. उनके दोस्त की बीबी ने बताया, “भाईजी को सीधा न जानो. थियेटर में, इनकी एक सहेली हुआ करती थी- रोज जाते रहे, उसके घर हाजिरी बजाने” सुनकर रवीश बिदक गये थे.
बोले, “वह थियेटर में हीरोइन थी और मैं स्क्रिप्ट राइटर... मुझसे कहकर अपने डायलाग, बदलवा लेती. उसे मुझसे काम निकालना था; मुझे उस दोस्ती के बूते, यार दोस्तों पर रौब ज़माना...हमारा रिश्ता बस यही था और कुछ भी नहीं.. जवां दिल तो सूरत पर मर मिटता है – सीरत कहाँ देखता है! मेरा प्रेम एकतरफा रहा, मेरी तरफ से ९९% और उधर से १% भी नहीं” कहते हुए वे एक फोटो ले आये. उसमें ‘वह लडकी’ मुस्करा कर पोज़ दे रही थी. घुंघराली लटें हैट से लटकतीं...कातिलाना अदा...जींस और कटस्लीव्स वाला टॉप. फोटो देखकर, गहना का दिल बैठने लगा. उस जादूगरनी के जाल से, रवीश को खींच लाना, आसान न था.
पतिदेव ने दार्शनिक अंदाज़ में फरमाया, “थियेटर के फोटो सेशन में, मेरे एक फोटोग्राफर दोस्त ने खींची थी...एक कॉपी मैंने भी हथिया ली- चोरी- छुपे...इसका अब क्या काम?!! तुम अपने हाथों से फाड़ दो...” लेकिन गहना ने उसे वापस कर दिया. इतनी कठोर न थी वह; जो प्रेम की थाती, चिन्दियों में उड़ा सकती! इससे रवीश की हिम्मत खुली. कभी कभी वह स्वयम, ‘उस लडकी’ ‘जेनी’ का प्रसंग ले बैठते. एक दिन वे समन्दर किनारे, बैठे थे. शांत लहरों पर, नावें किलोल कर रही थीं. अस्ताचलगामी रश्मियाँ, दिशाओं के अंचल पर सिन्दूर छितरातीं ... रक्तिम-ताम्बई, सूर्य-बिम्ब -जल में निमग्न ...बिम्ब का जल में विस्तार, दृष्टिपथ पर, रक्त- धाराओं सा आच्छादित...गहना उस दृश्य में डूबी, मुग्ध सी बैठी थी.
तभी रवीश कह उठे- सुहानी तंद्रा पर, कुठाराघात करते शब्द, “जेनी के बाल बहुत बड़े थे. घुटने से नीचे तक. मेरे पास उसे इम्प्रेस करने के लिए, न तो चमचमाती हुई गाड़ी थी, न नये फैशन के कपड़े और न ही इतने पैसे कि उसे, कोई ढंग की चॉकलेट गिफ्ट कर सकूं. फिर भी लोग हमारे बारे में, बातें करने लगे.” दिल टीसने लगा था; वह फिर भी, सप्रयत्न बोली, ”अच्छा! इतना याद आती है वो, तो फिर... ‘ब्रेक- अप’ क्यों हुआ?!!” सुनते ही, रवीश ‘हो हो’ करके हंसने लगे. कुछ देर यूँ ही, विक्षिप्त सी हंसी हँसते रहे. हंसी के बीच, दमित मन के उदगार फूट निकले, “मैंने कहा ना- कि ये प्रेम का मामला, एकतरफा था. वह अपनी गरज के लिए, मुझे ‘झेल’ रही थी. मैं भी दोस्तों के बीच, शान से, इस बात का ढिंढोरा पीट रहा था....” बात आई गई हो गयी किन्तु भीतर कुछ कुलबुलाने सा लगा.
जेनी के बारे में, जानना जरूरी हो चला था. घुमा – फिराकर, रवीश से उसकी चर्चा करना- विवशता ही तो थी! संबंधों की थाह पाना, फिर भी आसान नहीं था. इधर रवीश को, उन बातों में, आनंद आने लगा था. एक दिन खुद ही, बताने लगे,“जेनी को किसी रेस्त्रां में, चाय ही न पिला सका...हाथ तक पकड़ने की हिम्मत न हुई. एक बार जब वह बीमार होकर, बिस्तर से लग गयी तो बुखार देखने के बहाने...उसके सर पर हाथ रखा था...उसे ‘टच’ करने का एकलौता एक्सपीरियंस... सच कहूं- झुरझुरी सी होने लगी थी...!” गहना हतप्रभ सी सुनती रही. उसे लगा; वह रवीश के लिए, ‘टेकेन फॉर ग्रांटेड’ होती जा रही थी. भावनाओं का क्रूर पोस्टमार्टम... मानों उसका तो, वजूद ही न हो- उनके लिए!!!
एक बार वे, दूसरा किस्सा लेकर बैठ गये – “दोस्तों को बरगलाने के लिए कह रखा था कि जेनी को हजार रूपये वाली ‘मिडी’ लेकर दी थी. बाय गॉड...एकदम जल गये थे वो सब!!”
“लेकिन वे लोग, आपके खस्ता- हालात के बारे में... जानते रहे होंगे; विश्वास कर लिया उन्होंने?!!” यह बात रवीश को कुछ नागवार गुजरी. उन्होंने तिर्यक दृष्टि से, पत्नी को देखा. बदले में, गहना ने भी आँखें तरेर लीं. उसके हाव- भाव बता रहे थे कि उसकी उदारता को अन्यथा न लिया जाए. रवीश के तेवर, पल भर में फुस्स हो गये...मानों किसी गुब्बारे की, हवा निकाल दी गयी हो.
गहना ने मुक्ति की सांस ली. पति की बाँहों में वह, उस जेनी की छाया बनके, नहीं रहना चाहती थी. समय बीतता गया. जीवन के साथ, कुछ नये अर्थ जुड़ते रहे. मां बनने का सुख, बेटे सुमन्त्र के साथ खेलना, लाड़ करना...उसे पार्क ले जाना, झूला झुलाना. जेनी की छायाएं, धुंधलाने लगीं थीं. पर तभी एक दिन...! वे अपने फॅमिली फ्रेंड अमोघ के घर बैठे थे. बातों बातों में, अमोघ की पत्नी नेहा कह बैठी, “गहना! भाई साहब, किसी लडकी की फोटो लेकर आये थे... ऑरकुट पर, उसको ढूंढ रहे थे!!” अमोघ के इशारे पर भी नेहा चुप न हुई. गहना को असहज पाकर, नेहा फिर बोली, “क्या भाई साहेब?! इतनी अच्छी पत्नी है आपकी; और आप...!!”
माहौल में भारीपन छा गया था. वे जल्दी ही घर लौट आये. रात के सन्नाटे में, सोने का उपक्रम कर रहे थे. पर नींद कहाँ थी ?? रवीश ने, गहना के कंधे पर हाथ फेरा- जो उसने जोर से झटक दिया! सुप्त ज्वाला भड़क उठी. दिल के शोले फूट पड़े, “कही –सुनी बातों पर विश्वास कर लेना, तुम औरतों की फितरत है...खुद जलोगी, औरों को भी जलाओगी” सहमे हुए बेटे और पड़ोसियों का लिहाज कर, गहना ने नीची आवाज़ में कहा, “नेहा की बात पर, सांप सूंघ गया...क्यों रवि?! बड़े पाक- साफ़ थे तो बात उसी समय काट देनी थी!!” यह अघोषित युद्ध की शुरुआत सी थी. रवीश को भी अपना अहं, चोटिल नहीं होने देना था.
जेनी की फोटो के साथ, वह दूसरे परिचितों के घर गया; गहना को चुनौती देते- मानों खुल्लमखुल्ला क्रांति का उद्घोष...‘ख़ास दोस्त’ को, दूसरी कई सोशल साइटों में तलाशने...कोई शर्म, कोई लिहाज नहीं ...शान के साथ, उस ‘सुंदर- बला’ का परिचय देना!! गहना सोच में पड़ जाती. उसका पति गाँव में पला- बढ़ा एक युवक जिसके मन में यौनिकता को लेकर कोई गाँठ सी थी. जिन बातों को सभ्य पुरुष हेय समझते हैं वही उसके लिए गर्व का विषय थीं. गलती से कोई महिला, दो घड़ी बतिया ले तो कहना ही क्या! फूल कर कुप्पा हो जाता और बार बार उसी की चर्चा करता. पत्नी गुस्सा हो तो हो!! पितृसत्ता वाले समाज में, पति को छोड़ भी तो नहीं सकती...हर बार उसे ही दोषी बनना है; कभी संतान और कभी दुनियां की खातिर, पुरुष की मनमानी सहते जाना है.
रवीश तो उस पिछड़े समाज से था जहाँ छद्म मर्यादाएं और संकुचित सोच व्याप्त रहती है...जहाँ वर्जनाएं भी रस्म की तरह निभायी जाती हैं. ऐसे माहौल से बाहर निकल, जब शहर आया; उसकी आँखें चुन्धियाने लगीं. वहां का ग्लैमर, फैशन, रंग- ढंग... और फिर सहशिक्षा का सुअवसर भी! सुंदर, स्मार्ट जेनी का मेहरबान होना, खुली आँखों के सपने जैसा था!! पत्रकारिता के कोर्स के साथ साथ, वीकएंड्स पर नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा ज्वाइन कर लिया. यहीं हुई थी जेनी से मुलाकात. ‘गिव एंड टेक’ का सम्बन्ध बना. सामाजिक मुद्दों पर रवीश अच्छा लिखता था. ग्रामीण विषयों पर तो उसे महारत हासिल थी. जेनी को भी उसकी जरूरत महसूस हुई. अपना मकसद पूरा होते ही, दूध की मक्खी सा निकाल फेंका उसे! प्रिया की उपेक्षा से, वह टूट सा गया था. डिप्रेशन की वजह से, क्रिएटिविटी ही भंग हो गयी. अभिनय का क्षेत्र, पीछे छूटता गया. उसके मन में, गंवईपन को लेकर- जो हीन- भावना थी...गहराती चली गयी!! ‘प्रेम- विवाह’ के, इक्का– दुक्का अन्य प्रयास भी, फल न सके. पति के बड़बोलेपन और मित्रों की बदौलत- इतना सब जानती थी गहना; फिर भी असहाय सी थी!!!
वह व्यक्ति, जो सुसंस्कृत और सभ्य पत्नी के रहते, हीरोइन के सपने देखता है... आधुनिकता की देवी को पूजता है- भला उसका क्या करें??? गहना को याद आई वो कुघड़ी, जब ‘नेट’ का ‘हिस्ट्री’ बटन, भूलवश दब गया था. सामने जो स्क्रीन फ़्लैश हुई, उसे देख माथा ठनकने लगा. जेनी रिचर्ड का नाम, लिस्ट में कई जगह था. तो आखिर...जेनी को फ्रेंड- बुक में तलाश ही लिया रवीश ने! आगे पड़ताल की तो पता चला कि उसे कई सन्देश भी भेजे जा चुके थे और मित्रता- निवेदन भी. यह बात अलग थी कि जेनी ने उस निवेदन को स्वीकार नहीं किया. आखिर क्यों?!! क्या उसे रवि की नीयत पर संदेह था...या उसे लेकर, ग्लानि का अनुभव करती थी... थियेटर के कई साथियों को, जेनी ने मित्रता सूची में जोड़ा. तो रवि को ही क्यों नही???
जितना भी इस बारे में सोचती, गहना का सर फटने लगता. वह डायरी याद आई, जिसे ‘पतिदेव’ ने चुपके से छुपा दिया था. उस समय तो ध्यान नहीं दिया पर अब उसे ढूंढना, जरूरी हो चला था. संयोग से वह उसी जगह मिली जहाँ रवि ने उसे दफन किया था. यह तो पासवर्ड्स की डायरी थी! बैंक –अकाउंट, सोसाइटी- फण्ड, सोशल- साइटों- हर कूट- शब्द में जेनी का नाम!!! कहीं जेनी १२३, कहीं जेनी ७८९ तो कहीं जेनी ३४८७. गहना कई बार रोते हुए हंसी और हँसते हुए रो पड़ी! रवि के मन का चोर दरवाजा खुल चुका था...मरीचिका में जीता हुआ पुरुष; जानता है – विगत की सुनहरी धूल, हाथों में न टिक सकेगी... जानता है कि उसने अवसरवादी युवती से प्रेम किया; जिसकी दोस्ती, और भी कई लडकों से थी- ‘यूज़ एंड थ्रो’ जैसी सोच के तहत!
क्या वह जानती न होगी- अपने प्रति, उनकी भावनाओं को?!! विवाह होने पर, चुपचाप चली गयी; न कोई अता –पता, न कोई सन्देश. उसके ‘तथाकथित’ दोस्तों को भनक तक न लगी!!! फिल्मी नायिकाओं का नाम भी, कितने लोगों के साथ जुड़ता है. उनके अफेयर्स को जानकर भी, लोग फैन्स बने रहते हैं; विवाह को उत्सुक रहते हैं. यहाँ कुछ ऐसी ही दीवानगी थी!! गहना के मन में कुछ कौंधा और वह उसे मूर्तरूप देने में जुट गयी. वह जानती थी, उसके हाथों में हुनर था- वह कमाल का पेंसिल- स्केच बनाती थी; किसी भी चेहरे को, हूबहू कागज पर उतार सकती थी. अब ऐसा ही कुछ करना था. जेनी का चेहरा कॉपी करना था- ‘नेट’ से देखकर. रवि के जन्मदिन पर, पार्टी का आयोजन भी करना था. अगले सप्ताह ही तो थी पार्टी.
आखिर वह बहुप्रतीक्षित दिन आ ही गया. रवीश के जन्मदिन पर बहुत धूमधाम हुई. बेटे सुमन्त्र की पसंद से ‘मिक्की- माउस केक’ काटा गया. रवीश ने पत्नी और बेटे को चिपकाकर, फ़िल्मी स्टाइल फोटो खिंचवाई- फ्रेंड- बुक के दोस्तों को इम्प्रेस करने के लिए. निजी जीवन की तस्वीर जो भी हो- आभासी दुनियां में, शो- ऑफ का मज़ा दूसरा ही है!! आभासी क्यों, रवि तो वास्तविक जीवन में भी, शो- ऑफ का कायल था! पति- पत्नी ने एक दूसरे को केक खिलाया. तालियों से कमरा गूँज उठा. हर बार की तरह, पत्नी ने पति को उपहार भी दिया- रंगीन कागज़ में लिपटा हुआ. पति को उसे मेहमानों के सामने खोलना था. दसियों आँखें उस पर गड़ गयीं... लेकिन खोलने पर यह क्या निकला??? यह तो जेनी का पोस्टर था!!! उस पर, सुनहरे अक्षरों में दर्ज, रवि की ही पंक्तियाँ- “लहरों में बह चुकी थीं
पर मिट न पायीं मन से
वे रेत पर लिखी इबारतें!!”
यही कविता तो, जेनी की बर्थडे पर, रवि ने उसे मैसेज की थी. इसके बारे में गहना कैसे ...??!! रवीश को समझ न आया कि वो हँसे या रोये! जेनी की फोटो, इन्हीं सब दोस्तों को दिखाकर; वह पत्नी को लज्जित करता रहा, अपनी दमित कुंठा और बौने अहम को सहलाता रहा...किन्तु आज तो वह छवि, उसे ही लज्जित कर रही थी!...आईना दिखा रही थी!! रवि ने देर न की; भीतर से जेनी की फोटो ले आया और उसे टुकड़ों में बिखेर दिया!!! गहना की आँखें, भीगने लगीं- रेत का शुष्क समंदर, कहीं पीछे छूट गया था.