चारा
हिड़मू को पुलिस पकड़ कर ले गई । अब, पुलिस ने पकड़ा है तो ज़रूर कुछ किया होगा । हां कम से कम हम सभ्य लोग तो ऐसा ही कहते हैं । और चूंकि हम ऐसा कहते हैं तो यह सही भी होगा । लेकिन उन्हे क्या कहा जाये के, वे लोग ऐसा नही कहते । वे लोग कहते है कि, पुलिस तो होती इसी लिये है के हमे पकड़े और सताये । वे लोग ऐसा इसलिये कहते है क्योंकि ऐसा ही सोचते हैं । और उन्हे इसमे कुछ गलत भी नही लगता । भई आखिर वो पुलिस है । उनके पास वर्दी है, डंडा है, बंदूक है, सरकार की ताकत है । हम अनपढ़, लंगोटधारी । घने जंगलो मे रहने वाले, आदिवासी । हाथ की उतारी हुयी, महुये की कच्ची पीने वाले । चीटी को पीस कर चटनी ‘चिपोड़ा’ का चखना चखने वाले । चिरौंजी के बदले नमक और इमली या महुये के बदले अनाज लेने वाले लोग । इन्हे क्या अधिकार है प्रतिकार का । कुछ कहने का । अब कोई इन्हे क्या कहे ?
तो, हिड़मू को पुलिस पकड़ कर ले गई । हिड़मू के परिवार वाले कुछ दूर तक उसको छुड़ाने की कोशिश करते, पुलिस के हाथ-पैर जोड़ते चले । हां, पुलिस के पास लाठी होती है, बंदूक भी होती है लेकिन इन्हे क्या कहें कि इन्हे इसका कोई डर नही । “बड़े ढ़ीठ हैं स्साले !” पुलिस का एक सिपाही कहता है । और सही भी कहता हो शायद …
लेकिन पुलिस के पास गाड़ी भी होती है । वे उसे उसी मे डालकर ले गये । और वे लोग मन मसोस कर रह गये । इसके सिवा उनके पास और चारा भी क्या था ? अड़ोस पड़ोस ने समझाया । गांव वालो ने समझाया । अब उसकी आस करना ठीक नही । अब क्या किया जासकता है । वे सरकार के लोग हैं । उनका राज चलता है । हमारे झोपड़े जिस ज़मीन पर है वो ज़मीन उनकी है । हम जहां से भोजन जुटाते वो जंगल उनके है । क्या हुआ इसके बदले मे वे हमारे पालतू बकरे, मुर्गे और शराब लूट ले । उनका अधिकार है । हमारी औरतों को लूटते हैं । विरोध करने वालों को उठा लेते हैं । जाने दो । धीरज रखो । आखिर हम उनकी प्रजा हैं । आखिर हमे क्या अधिकार है प्रतिकार का । क्या अधिकार है इसके विरोध मे कुछ कहने का ?
आप हैरान है ? आप हैरान है कि, वे ऐसा क्यों कहते हैं ? ऐसा क्यों सोचते हैं ?? आखिर वे भी इस जनतंत्र के ‘जन’ हैं ?
लेकिन सब तो ऐसा नही कहते । कुछ लोग इससे अलग भी कहते है । और वे ऐसा इसलिये कहते हैं; क्योंकि वे ऐसा सोचते हैं । लेकिन वे लोग यहां नही रहते । यहां यानि, इन आदिवासी गावों-बस्तियों मे । वे घने जंगलो के बीच से आते हैं । उनके पास बंदूकें होती है । जैसे पुलिस के पास होती है । उनमे भी कई लोग वर्दी मे होते हैं । जैसे पुलिस वाले रहते हैं । लेकिन इनकी वर्दियां अक्सर, मैली और फ़टी टूटी होती है । गांव-गांव मे बैठकें करते हैं । लोगो से लड़ने के लिये कहते हैं । और जिस तरह आते हैं वैसे ही घने जंगलो के बीच गायब भी हो जाते है । हां ! उनकी पैनी नज़रें गांव की हर छोटी से छोटी हरकत पर होती है । पुलिस इन्हे नक्सली और माओवादी वगैरह कहती रहती है । लेकिन गांव के लोग कुछ नही कहते । चुप रहते हैं । और चुप रहने मेही अपनी भलाई समझते हैं ।
पुलिस वालों से इनका छत्तीस का आकड़ा होता है । इसी लिये गांव के कई लोग इनसे खासा लगाव रखते हैं और इन्हे अपना मुक्तिदाता समझते हैं । लेकिन ज़्यादहतर गांव वाले इनसे भी दूरी बनाये रखने मे ही अपनी भलाई समझते है । दरअसल वे ग्रामीण चक्की के दो पाटों के बीच फ़से रहते है । दो पाट यानि सरकार और इन माओ वादियों की उपस्थिति । और कबीर कहते हैं कि- दो पाटन के बीच मे साबुत बचा न कोय …
तो बात हिड़मू की हो रही थी । हिड़मू को पुलिस उठा कर ले गई । किस लिये ? यह कोई, पूछने वाला प्रश्न नही है । ज़ाहिर है; पुलिस उसे नक्सली मानती है । यह सच है या झूठ इससे क्या फ़र्क पड़ने वाला । उनके लिये तो हर गांव वाला नक्सली है । कम से कम उन्हे तो ऐसा ही लगता है ।
अब हिड़मू के परिवार वाले समझ गये कि हिड़मू का इंतेज़ार करना बेकार है । अब उसे जेल जाने से नही नही रोका जा सकता । उन लोगो ने इसे अपनी नियति और बूढ़ादेव की इच्छा मान लिया और चुप रह गये ।
लेकिन कहते हैं, कभी कभी चमत्कार भी हुआ करते है । और यहां भी चमत्कार हुआ जब हिड़मू बुरी तरह गिरता पड़ता लड़खड़ाता गांव मे पहुंचा । एक सप्ताह रखकर मार-पीट कर भी जब कुछ नही मिला तो पुलिस ने उसे छोड़ दिया था । आखिर क्या करते वह तो कुछ कहता ही नहीं । पुलिस अब क्या करती । पुलिस की मार पीट से वह बुरी तरह सूज गया था और उससे चलते भी नही बन रहा था । हिड़मू वापस आगया, इस बात की कोई खुशी नही थी । हालांकि किसी ने किसी से कुछ नही कहा । और इस मामले मे कुछ कहना कोई समझदारी की बात तो है नही । इसी लिये सब चुप थे । हिड़मू का पुलिस से बचकर गांव मे वापस आना कोई अच्छा शगुन नही था । सब आशंकित हो गये । सब हिड़मू को शक की नज़र से देखने लगे । गांव वालो ने उससे और उसके परिवार वालो से दूरी बना ली । इससे तो अछा था वह गांव ही न आता । कहीं नदी नाले मे डूब मरता । एक भयानक आशंका ने गांव को घेर लिया…
हिड़मू चुप था । उसने किसीसे कुछ नही कहा । वैसे भी कुछ न कहने की उसकी आदत थी । और कहता भी तो क्या ? गांव वाले सही भी थे । खैर ! अब वह वापस तो आ ही गया है । अब वही होगा जो बूढ़ा देव चाहेंगे …
ज़्यादह समय नही लगा और वह हो गया जिसका सब इंतेज़ार कर रहे थे । कोई कुछ कहता नही था लेकिन जानते सब थे । जिसकी सबको आशंका थी । घने जंगल मे अचानक हलचल हुई और मानो जंगल का सीना चीरते हुये वे अचानक प्रकट हो गये । अब आप इन्हे गांव का हमदर्द कहो, आदिवासियों के मुक्तिदाता कहो, दलम कहो, नक्सली कहो या माओ वादी । आपके कुछ भी कहने का इन पर कोई असर नही होने वाला । हां, जिन्हे कहना है, वे कुछ नही कहते ।
उनके आते ही गांव मे एक सनसनी फ़ैल गई । सभी लोग घबराये हुये थे । लेकिन बहुत से लोग उत्तेजित भी थे ।
आते ही उन लोगों ने गांव वालो को इकट्ठा करके एक बैठक की और हिड़मू के मामले पर फ़ैसला करने जन-अदालत का आयोजन किया । जब जन-अदालत लगती है तो वहां ‘जन’ की ज़रूरत होती है; और इसके लिये जन को उनकी झोपड़ियों से खदेड़ कर लाया गया । यह जन-अदालत है ! यहां जन के मुक्तिदाता स्वयम्भू न्यायधीश की भूमिका मे है । और जन ? आह ! जन की विडम्बना कि जनतंत्र हो या जनअदालतें, उसे तो मूक दर्शक की भूमिका निभाना है । …या भयभीत समर्थक की ।
जनअदालत की कार्र्वाही शुरू होती है । हिड़मू को पुलिस ने क्यों पकड़ा ? पकड़ा था तो क्यों छोड़ा ? हिड़मू ने पुलिस को क्या क्या जानकारियां दीं । हिड़मू कहता है- उसने किसी को कुछ नही बताया और उसके पास कोई जानकारी ही नही है तो वह बतायेगा क्या । लेकिन नक्कारखाने मे तूती की आवाज़ और जनअदालत मे आरोपी की आवाज़ कौन सुनेगा । यह जनअदालत है । यह एक बहुआयामी अदालत होती है । यहा तो अदालत ही फ़रियादी है और अदालत ही न्यायधीश । आरोपी लाचार …
यहां कोई वकील नही … कोई दलील नही … और कोई अपील नही सिर्फ़ फ़ैसला … और फ़ैसला तो तय है । फ़ैसला तो अदालत लगने से पहले से तय है … हिड़मू मुखबिर है । और मुखबिर की सज़ा मौत होती है । और ‘जन’ क्या कहता है ? अजी छोड़िये, जन को तो मूक दर्शक की भूमिका निभानी है; वह क्या कहेगा ? ‘जन’ कुछ नही कहते । …तो हिड़मू मुखबिर है, इस बात पर तो कोई बहस ही नही होनी । बहस तो सिर्फ़ एक बात पर होती है कि हिड़मू को सज़ा-ए-मौत किस प्रकार दी जाये । पहले हाथ-पैर काटकर फ़िर गला काटा जाये या पेट चीरकर अतड़ियां बाहर निकालने के बाद ।
यहां हिड़मू के साथ दया दिखाई गई है ।
उसे लातों, से लाठियों से मरने तक पीटा जाता है । और जब वह मर जाता है, तो गला काट दिया जाता है कि जीवित होने की कोई सम्भावना न बचे । जनअदालत की कर्रवाही पूरी होती है । वे अपना कर्तव्य पूरा करके वापस जंगल की तरफ़ निकल जाते है । कोई कुछ नही कहता ।
उनकी पदचाप धीरे-धीरे जंगल की ओर बढ़ती हुई गुम हो जाती है । सब स्तब्ध है । कोई कुछ नही कहता । कुछ नही कहने मे ही सबकी भलाई है ।
हिड़मू कुछ नही कहता । हिड़मू कुछ नही बोलता । हिड़मू जब ज़िंदा था तब नही बोलता था । अब तो वह मुर्दा है; और मुर्दे कुछ नही कहते …
लेकिन जंगल चुप नही रहता । सब सुनते है जंगल बोल रहा है । हां, जंगल मे अचानक आवाज़ें तेज़ होने लगती है । ये गाड़ियों की आवाज़ें हैं । फ़िर बंदूकों के चलने की आवाज़ें …धांय ! धांय !! रात भर गोलियां चलती हैं । सुबह के साथ अवाज़ें मौन हो जाती है ।
अच्छी खबर है । रात को पुलिस के साथ मुठभेड़ मे तीन नक्सली मारे गये । बाकी जंगल मे भाग गये । सबसे अच्छी बात; एक भी पुलिस का सिपाही शहीद नही हुआ ।
तीनो नक्सलियों की लाश साथ मे लिये, पुलिस की गाड़ी जंगल से बाहर की ओर जा रही है । गड़ियों पर सवार पुलिस की बहादुर टीम ऊंघ रही है । सब चुप हैं, रात भर के थके हुये हैं, उनींदे हैं लेकिन खुशी उनके थके मांदे चेहरों से साफ़ झलक रही है । तीन-तीन नक्सलियों की लाशें गाड़ी के फ़र्श पर उनके कदमो के पास पड़ी है । इससे भी ज़्यादह उन्हे इस बात की खुशी है कि उनके सभी साथी सही सलामत लौट रहे हैं ।
“सर ज़ी, आज बड़ी खुशी का दिन है ।“ एक सिपाही चुप्पी तोड़ता है ।
“हां … सबसे बड़ी बात तो ये है कि हमारे सभी साथी सही सलामत है …” लगभग ऊंघते हुए पुलिस अधिकारी ने उनींदी आवाज़ मे जवाब दिया ।
“सर जी ! लेकिन ज़रा जल्दी पहुंच जाते तो हिड़मू बे मौत नही मारा जाता ।“
“अरे ! वो तो वैसे भी मारा जाता । अगर हम टाईम पर पहुंच जाते तो उन्हे पक्का यकीन हो जाता कि हिड़मू हमारा इंफ़ॉर्मर है । फ़िर वो आज नही तो कल इससे भी दर्दनाक मौत मारा जाता ।“
“तो उन्हे पक्का नही था ।“
“हा ! वे जानते थे कि सच क्या है; लेकिन उन्हे गांव वालों पर अपना डर बनाये रखना था । फ़िर वह उनका आदमी तो था नही जो वे हिचकते ।“
“लेकिन सर जी, हमारा तो एक इंफ़ॉर्मर गया न ?”
“अरे नही, ओ तो सीधा साधा आदिवासी था । न हमारा न उनका ।“ साहब ने कहा “अपना इंफ़ॉर्मर होता तो हम उसको चारा बनाते क्या …?”
किसी ने कुछ नही कहा ।