Tin mantra in Hindi Short Stories by Ved Prakash Tyagi books and stories PDF | तीन तंत्र

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तीन तंत्र

साढ़े पाँच बजे

जब से नया अधिकारी आया है, साढ़े पाँच से पहले तो कार्यालय से निकालने ही नहीं देता। बस भी ठीक साढ़े पाँच बजे आकर सड़क के उस पार रुकती है, अगर सड़क के इस पार से निकले तो थोड़ी सी भाग दौड़ करके बस ली जा सकती है लेकिन साढ़े पाँच बजे कार्यालय से निकल कर सड़क के उस पार, बीच में डिवाइडर की रेलिंग को पार कर बस में चढ़ पाना बड़ा मुश्किल काम है। या तो ड्राईवर बस को पाँच मिनट देरी से लेकर आए या मेरे ऑफिसर मुझे पाँच मिनट पहले निकलने की इजाजत दे दें तो मैं आराम से बस लेकर समय से घर पहुँच सकती हूँ, राजेश को चाय के लिए ज्यादा इंतज़ार भी नहीं करना पड़ेगा। कल भी बस निकलने के कारण कितनी परेशानी उठाकर आधा घंटा देर से घर पहुंची थी, राजेश कितना गुस्से में बैठा था, कितनी बातें सुननी पड़ी थी मुझे। चाय बनाने के लिए मेरी प्रतीक्षा करता रहा लेकिन स्वयं चाय नहीं बना सका, ऊपर से कहने लगा कि मैं पूरा दिन कार्यालय में काम करता हूँ और घर आकार चाय भी न मिले तो क्या करना ऐसी गूहस्थी का, ऐसे परिवार का। मैंने तो बस यही कहा था, “अगर मैं समय से नही आ सकी तो कोई समस्या ही रही होगी जिस कारण मुझे देर हो गयी, आप स्वयं भी एक कप चाय बनाकर पी सकते थे और हाँ, मैं भी कार्यालय मे आराम करने नहीं जाती, मुझे भी पूरे दिन काम ही करना होता है।” इस बात पर तो राजेश और भी क्रोधित हो गया एवं कहने लगा, “मैंने शादी इसलिए नहीं की कि स्वयं चाय बनाकर पीऊँ, खाना भी स्वयं बनाऊँ और तुम्हें भी खिलाऊँ। अगर घर और नौकरी दोनों को एक साथ नहीं संभाल सकती तो नौकरी छोड़ दो, मेरे अकेले के वेतन मे घर का गुजारा हो जाएगा।” राजेश की यह बात मालती को अंदर तक कचोट गयी थी लेकिन फिर भी वह कपड़े बदलकर चाय बनाने रसोई मे चली गयी।

यह सब सोच कर मालती सर के कमरे में यही विनती करने गयी थी, “सर, मुझे पाँच मिनट पहले कार्यालय छोडने की इजाजत दे दें जिससे मैं आराम से बस लेकर समय से घर जा सकूँ।” लेकिन अधिकारी तो खडूस था, उसने कह दिया, “किसी को भी एक मिनट पहले भी जाने की इजाजत नहीं मिलेगी, साढ़े पाँच का मतलब साढ़े पाँच ही है।” मालती मायूस होकर अपनी सीट पर बैठ कर काम करने लगी और साढ़े पाँच बजने की प्रतीक्षा करती रही। ‘आज मैं ड्राईवर से ही कहूँगी कि भैया, बस को इस स्टैंड पर पाँच मिनट देर से ले आया करना, शायद वह मेरी मजबूरी समझ कर मेरी समस्या का हल कर दे और मैं ठीक समय से घर पहुँच सकूँ’ साढ़े पाँच बजते ही मालती बैग उठाकर कार्यालय से निकल गयी, लगभग भागते हुए ही वह कार्यालय के बाहर सड़क किनारे पहुंची, दूसरी तरफ से उसको बस आती हुई दिखाई दी तो वह और तेज दौड़ने लगी एवं बिलकुल सीधे देखते हुए दौड़ कर सड़क पार करने की कोशिश, निगाह सीधी बस पर, कहीं बस निकाल न जाए। बस पकड़ने की चाह, मालती देख भी नहीं सकी कि वह एक व्यस्त सड़क पर बिना इधर-उधर देखे दौड़ लगा रही है। अभी वह आधी सड़क भी पार नहीं कर सकी थी कि एक तेज रफ्तार मोटर साइकल उससे आकर टकरा गयी। मालती कई फीट ऊपर उछल कर, कई मीटर आगे जाकर गिरी, तीन-चार पलटी खाकर बेहोश हो गयी, उसके सभी वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गए। किनारे पर बनी फलों के रस वाली दुकान पर काम करने वाला एक छोटा लड़का गौरव यह सब देख रहा था, वह तुरंत दौड़कर मालती को सड़क के बीच मे से उठाकर दुकान पर ले आया, उसके सभी वस्त्र ठीक किए एवं मुंह पर पानी के छींटे मारे लेकिन मालती को होश नहीं आया। मालती का मोबाइल सड़क पर गिर गया था जिसे एक अन्य आदमी सड़क से उठा लाया था, देखा कि मोबाइल अभी काम कर रहा है। मोबाइल में से मालती के घर का फोन नंबर निकाल कर उसके घर पर फोन किया और यह सब राजेश को बताया। राजेश ने जैसे ही सुना, वह दौड़ पड़ा मालती के पास पहुँचने के लिए और तुरंत ही अस्पताल ले गया।

अस्पताल के इलाज़ और राजेश की सेवा से मालती जल्दी ही ठीक हो गयी एवं ठीक होने के बाद मालती एक बार आई थी गौरव को धन्यवाद देने के लिए एवं एक लिफाफा भी जबर्दस्ती उसके हाथ में रख दिया था यह कह कर कि तुम मेरे बेटे समान हो। उस दिन गौरव बहुत ही गौरवान्वित हुआ, इसलिए नही कि उसको एक लिफाफा मिला जिसमे कुछ रुपये थे बल्कि इसलिए कि उसने उस दिन किसी की जान बचाई।

गुस्से की मेहरबानी

दया राम अपनी जवानी मे पहलवान था, कंही आने जाने के लिए पैदल ही चला जाता था, पाँच दस किलोमीटर का रास्ता पैदल पार करने में उसको कभी कोई परेशानी नहीं हुई लेकिन अब बुढ़ापे मे ज्यादा चलना उसके बस में नहीं था, एक दो किलोमीटर चल कर ही थकान हो जाती थी।

सहारनपुर कचहरी में अपना काम करने के बाद दया राम ने अपने गाँव की बस पकड़ ली। बस में बैठते समय जब टिकट लिया तो दया राम ने कंडक्टर से कह दिया था कि भाई मैं एक स्टैंड पहले का टिकट ले रहा हूँ, आगे एक डेढ़ किलोमीटर पर मेरा गाँव है, मुझे वहाँ पर उतार देना। कंडक्टर ने भी हाँ में सिर हिला दिया एवं एक रुपया लेकर दया राम को सहारनपुर से नांगल का टिकट थमा दिया। दया राम टिकट लेकर आराम से एक खाली सीट पर जाकर बैठ गया और बस चलने की प्रतीक्षा करने लगा।

उन दिनों सहारनपुर से नांगल का किराया एक रुपया ही था लेकिन नांगल से अगला स्टैंड तलहेड़ी था जहां का डेढ़ रुपया लगता था। नांगल और तलहेड़ी के बीच में दया राम का गाँव बसेड़ा था और उसका भी बस वाले डेढ़ रुपया ही लेते थे। नांगल और तलहेड़ी के बीच मे चार छोटे बस स्टैंड थे जहां से सवारियाँ चढ़ती-उतरती थीं, नांगल से डेढ़ किलोमीटर पर साधारणसिर, तीन किलोमीटर पर बसेड़ा, साड़े चार किलोमीटर पर खटोली रोड एवं छः किलोमीटर पर सरसीना था। सरसीना से दो किलोमीटर पर तलहेड़ी थी, परंतु बस वाले नांगल के बाद तलहेड़ी का ही टिकट देते थे चाहे कोई किसी भी स्टैंड पर क्यो न उतरे। बहुत से लोग पैसे बचाने के लिए नांगल उतर कर पैदल ही साधारणसिर या बसेड़े चले जाते थे। उस समय पैसे की कीमत बहुत थी, बहुत कम लोगों के पास पैसा होता था और जिसके पास होता था वह बहुत सोच समझ कर खर्च करता था। दया राम ने भी यही सोच कर कि नांगल तक टिकट लेकर पचास पैसे बच जाएंगे, डेढ़ किलोमीटर पर साधारणसिर है, वहाँ बस वाला उतार ही देगा जैसा कि उसने कंडक्टर को पहले ही बता दिया था और आगे का डेढ़ किलोमीटर साधारणसिर से अपने गाँव बसेड़े तक पैदल चला जाऊंगा। दया राम बस की सीट पर बैठे बैठे यही सोच रहा था कि नांगल आ गया, बस रुकी और कंडक्टर ने नांगल के सभी यात्रियों को उतरने के लिए कहा लेकिन दया राम अपनी सीट पर बैठा ही रहा। नांगल बस स्टैंड पर कुछ लोग उतरे और कुछ चढ़े एवं बस चल पड़ी। जैसे ही बस साधारणसिर पहुँचने वाली थी तो दया राम ने कंडक्टर से बस रुकवाने के लिए कहा। कंडक्टर ने दया राम से पूछा कि टिकट कहाँ का लिया है? दया राम ने टिकट निकाल कर दिखा दिया एवं बताया, “भाई, मेरा टिकट तो नांगल का है लेकिन मैंने बैठते समय ही आपसे कह दिया था कि मैं डेढ़ किलोमीटर आगे उतरुंगा।” कंडक्टर कहने लगा, “ताऊ, नांगल से आगे चाहे एक किलोमीटर उतरो या तलहेड़ी तक जाओ, पचास पैसे लगते हैं और आपको पचास पैसे देने ही पड़ेंगे।” दया राम बोला, “भाई, मैं तो पैदल ही आ जाता, अब पचास पैसे तो मेरे पास हैं नहीं।” तब तक साधारणसिर का स्टैंड आ गया लेकिन कंडक्टर ने दया राम को साधारणसिर के स्टैंड पर नहीं उतरने दिया। कंडक्टर बोला, “तुम लोग बड़े सयाने बनते हो, पचास पैसे बचाने के लिए टिकट नहीं लेते हो और बस मे बैठे रहते हो, अब मैं तुम्हें सबक सिखाता हूँ, तुमने डेढ़ किलोमीटर पैदल का रास्ता बचाने के लिए बस से मुफ्त यात्रा की है अब मैं तुम्हें और डेढ़ किलोमीटर आगे ले जाकर छोडूंगा, तुम वहाँ से जब पैदल आओगे तो पता चलेगा।” इस तरह कंडक्टर ने गुस्से में दया राम को बसेड़े के स्टैंड पर ले जाकर उतार दिया और कहने लगा, “अब पता चलेगा जब डेढ़ किलोमीटर पैदल वापस जाएगा।”

दया राम जल्दी से बसेड़े वाले बस स्टैंड पर उतर गया और कंडक्टर की तरफ मुंह घुमा कर खड़ा हो गया। दया राम ने दोनों हाथ जोड़कर कंडक्टर को धन्यवाद दिया और कहा, “बेटा, वास्तव में मुझे आना तो यहीं था, यही मेरा गाँव है बसेड़ा। मैंने सोचा था कि डेढ़ किलोमीटर तुम छोड़ दोगे बस से और आगे डेढ़ किलोमीटर मैं पैदल चला जाऊंगा, लेकिन तुम्हारे गुस्से की मेहरबानी से तो मेरी तीन के तीन किलोमीटर यात्रा तुम्हारी ही बस से हो गयी, मैं तुम्हारा आभारी हूँ और विशेषकर तुम्हारे गुस्से का, जिसका दंड ही मेरे लिए वरदान हो गया। आपका और आपकी बस का बहुत बहुत धन्यवाद।” ऐसे कहते हुए दया राम घूम कर अपने घर की तरफ बढ़ चला एवं कंडक्टर अवाक सा बैठा हुआ उसको देखता रह गया।

मृत्यु

अद्भुत प्रकाश पुंज मेरी तरफ ही बढ़ा चला आ रहा था, ऐसा अलौकिक प्रकाश मैंने अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। धीरे-धीरे मेरी तरफ बढ़ते हुए प्रकाश पुंज की आकृति स्पष्ट होने लगी और मैं समझ गया कि वह कोई अप्सरा ही है। बचपन में मैंने जो अप्सराओं के बारे मैं जो पढ़ा और सुना था, कहानियों में वर्णित सुंदरता से भी वह कई गुना सुंदर थी। देखते ही देखते वह मेरे निकट आकर खड़ी हो गयी और मैं मंत्रमुग्ध सा उसके रूप और लावण्य को निहारता ही रहा। उसकी आँखें मदमस्त सी, रेशम से बाल, गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होठ, सुराहीदार गर्दन, गोलाकार कपोल और आँखों के नीचे, होठों के ऊपर, दोनों गालों के बीच में घड़ कर लगाई गई नाक मुझे बरबस ही मोहित कर रहे थे। मैं क्या, कोई भी पुरुष ऐसी परिस्थिति में स्वयं पर काबू कैसे रख सकता है। मैं अनवरत उसको निहारता ही रहा, मेरी जिव्हा तो जैसे तालु से चिपक कर रह गयी और मेरे कंठ मे मेरे सभी बोल अटक कर रह गए। कौन है यह, और यहाँ क्यो आई है मेरे पास, मुझसे क्या चाहती है? इस तरह के प्रश्न मेरे दिमाग में उठ रहे थे लेकिन पूछ नहीं सकता था क्योंकि मेरी जबान, मेरा कंठ, मेरे होठ कोई भी मेरा साथ नहीं दे रहे थे बस मेरी आँखें उस समय मुझे पूर्ण आनंदित कर रही थीं उसके रूप का रसस्वादन करके। बड़ी कठिनाई से मेरे कंठ से आवाज निकली और मेरे होठ हिले एवं मेरी जबान ने तालु से उठ कर पूछ ही लिया, “हे परम-सुंदरी, परी लोक में निवास करने वाली, अप्सरा! तुम कौन हो? और यहाँ मुझ जैसे जर्जर प्राणी के पास क्यो आई हो?” उसने अपने दोनों गुलाब के पंखड़ीनुमा होठ हिला कर कहा, “मैं तुम्हारी परम प्रेयसी, वर्षों से तुम्हारी प्रतीक्षा मे मग्न, सिर्फ तुम्हारे ही लिए बनी, तुम्हारी मृत्यु हूँ। मैं अब तुम्हें अपने साथ ले जाने आई हूँ।” मैं उस अप्सरा के श्रीमुख से इस तरह की वाणी सुन कर हतप्रभ रह गया, आगे कुछ बोल भी न सका और सोचने लगा, ‘मैं आज तक जिस मृत्यु से इतना भयभीत था, जिसका नाम सुनकर ही मैं अंदर तक काँप जाया करता था, जिसके आने की मैंने कभी भी कामना नहीं की थी, वह मृत्यु इसनी खूबसूरत होगी ऐसी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।‘ आज मुझे मेरी ज़िंदगी, जिसे मैंने इतना प्यार किया था, बदसूरत लगने लगी थी। चार साल हो गए थे भयंकर बीमारी से झूझते हुए, शरीर में सिर्फ हड्डियों का ढांचा ही बचा था, जिस पर लेशमात्र भी मांस नहीं रहा था और खून तो मेरे शरीर मे खोदने से भी नहीं मिलता था। परसों की ही बात है डॉ ने खून की जांच के लिए लिखा था, नर्स ने काफी कोशिश की लेकिन उसको इतना भी खून नहीं मिला कि वह जांच के लिए ले जा सके। मेरे जर्जर शरीर मे नर्स जगह जगह सुइयां गढ़ा रही थी और मेरे अपने जो मेरे पास थे उनकी आँखों से आँसू झर रहे थे।, मैंने ही नर्स से कह दिया, “अब इन हड्डियों के ढांचे में तुम खून और मांस तलाशना बंद कर दो, जांच से भी क्या निकाल लोगे जो अब तक नहीं निकाल सके।” मेरी हालत ऐसे हो चुकी थी लेकिन फिर भी मैं ज़िंदगी से भरपूर प्यार किए जा रहा था, मैंने अपने अपनों से कहा, “मुझे यहाँ से ले चलो, यहाँ तो मैं मर जाऊंगा, जो भी थोड़ी सी ज़िंदगी बची है उसे तो आराम से तुम लोगों के साथ जी लूँ।” हाँ, मुझे प्यार था अपनी ज़िंदगी से और डरता था अपनी मृत्यु से। आज ज़िंदगी मुझे बदसूरत लगने लगी थी, बेवफा लग रही थी, मैंने जिसे इतना प्यार किया उसने मुझे इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहां न तो मैं चल सकता हूँ न मैं कुछ खा सकता हूँ और न ही कुछ कर सकता हूँ। मैंने ज़िंदगी से एक सवाल पूछा, “”क्या मेरे प्यार का, मेरी वफाओं का यही सिला दिया है तूने मुझे, लेकिन आज ज़िंदगी कुछ बोल नहीं रही थी, वह तो उतावली थी मेरा साथ छोडने के लिए, मुझे मृत्यु को सौंप कर चले जाने के लिए। उस अप्सरा ने अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाया और मैं स्वयं को पूरी तरह स्वस्थ महसूस करने लगा, मैंने अपना हाथ उसके हाथ में रख दिया तो मेरे पूरे शरीर में बिजली की सी सफुर्ती आ गयी और मैं उठ कर उस अप्सरा के साथ-साथ चलने लगा। थोड़ा ही आगे गया था कि मैंने देखा, मेरा जर्जर शरीर निष्प्राण होकर वंही पड़ा रह गया, ज़िंदगी, जिसने उस शरीर को प्यार करने का दावा किया था वह उसको वंही पर छोड़ कर चली गयी और मैं अपनी परम प्रेयसी जो सिर्फ और सिर्फ मेरी थी, मेरे ही लिए थी, उस अप्सरा सी सुंदर अपनी मृत्यु के साथ चला गया।