… खण्ड-5 से आगे
जयहरिखाल और बाबा नागार्जुन
‘‘यह रास्ता लैंसडाउन की ओर जाता है।’’ अपने दायें हाथ की ओर जाने वाली सड़क की ओर इशारा करके दादा जी ने बताने लगे, ‘‘घने जंगल के बीच से गुजरते हुए पहले जहरीखाल नाम की जगह आती है। इसका वास्तविक नाम जयहरिखाल है लेकिन बोला इसे जहरीखाल जाता है। हिन्दी और मैथिली भाषा के सुप्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन ने गर्मियों के अनेक मौसम जहरीखाल के महाविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष व अपने एक प्रशंसक साहित्यकार प्रोफेसर वाचस्पति के घर रहकर गुजारे थे। यहाँ रहते हुए बाबा ने अनेक कविताओं की रचना की थी। सन् 1984 में जहरीखाल को इंगित करके अपनी यह कविता उन्होंने लिखी थी—’’
इतना कहकर दादा जी उस कविता का मौखिक पाठ कर उठे,
‘‘मानसून उतरा है
जहरीखाल की पहाड़ियों पर
बादल भिगो गये रातों-रात
सलेटी छतों के
कच्चे-पक्के घरों को
प्रमुदित हैं गिरिजन
सोंधी भाप छोड़ रहे हैं
सीढ़ियों की
ज्यामितिक आकृतियों में
फैले हुए खेत
दूर-दूर
दूर-दूर
दीख रहे इधर-उधर
डाँड़े की दोनों ओर
दावानल दग्ध वनांचल
कहीं-कहीं डाल रही व्यवधान
चीड़ों की झुलसी पत्तियाँ
मौसम का पहला वरदान
इन तक भी पहुँचा है
जहरीखाल पर
उतरा है मानसून
भिगो गया है
रातों-रात
इनको
उनको
हमको
आपको
मौसम का पहला वरदान
पहुँचा है सभी तक।’’
यह कविता बोलते-बोलते दादा जी भावुक हो उठे। उनका गला भर्रा गया। आँखों में पानी छलक आया।
‘‘क्या हुआ बाबू जी!’’ यह देखकर सुधाकर ने चिन्तित स्वर में पूछा।
‘‘कुछ नहीं।’’ दादा जी ने हथेली से पलकें पोंछते हुए कहा, ‘‘बाबा के संग कुछ पल गुजारने का मौका मुझे भी मिला था। उनकी इस कविता का पाठ करते हुए बस, उन पलों की याद हो आयी...और कुछ नहीं।’’
‘‘चलिए, इस जगह खड़े होकर बाबा की यहीं के बादलों पर केन्द्रित कविता का पाठ करके आपने उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दे दी। अब चलें?’’
‘‘नहीं।’’ दादा जी संयत होकर बोले, ‘‘दो बातें लैंसडाउन के बारे में और सुन लो...’’
‘‘जी।’’
लैंसडौन
‘‘लैंसडौंन का पुराना नाम कालूडाँड़ा है। कालू का मतलब काला और डाँड़ा का मतलब पहाड़; यानी काले पहाड़ों का क्षेत्र। अठारह सौ अस्सी में भारत का अण्डर सेक्रेटरी बनकर आए लार्ड लैंसडौन ने अठारह सौ सतासी में कालूडाँडा का नाम बदलकर अपने नाम पर रख दिया। उसने इस जगह को गढ़वाल राइफल्स के ट्रेनिंग सेंटर के तौर पर विकसित किया और बसाया। लार्ड लैंसडौन को अठारह सौ अठासी में भारत का वायसराय बनाया गया। वह अठारह सौ चौरानवें तक वायसराय बना रहा। बाद में इंग्लैंड वापस बुला लिया गया। तब से आज तक यह सुरम्य पर्यटन स्थल और संस्कृति का केन्द्र है।’’
विशेषतः सुधाकर ने दादा जी की इन बातों को ध्यान से सुना। बच्चों की रुचि शायद इतिहास की घटनाओं को जानने में नहीं थी। वे तो ऊपर, आसमान में तैरते बादलों को देख-देखकर एक ही लाइन गा रहे थे—मानसून उतरा है, जहरीखाल की पहाड़ियों पर। लैंसडौन के बारे में कुछ बातें बताकर दादा जी जब कुछ देर चुप खड़े रह गए, तब सुधाकर ने उनसे पूछा, ‘‘अब चलें?’’
‘‘हाँ।’’ उन्होंने कहा।
उनके मुँह से यह सुनकर सब गाड़ी में बैठने को चल पड़े। सब बैठ चुके तो अल्ताफ ने गाड़ी आगे बढ़ा दी।
‘‘गुमखाल के बाद तो गाड़ी नीचे की ओर उतरना शुरू हो जाएगी न?’’ मणिका ने पूछा।
‘‘हाँ।’’ दादा जी ने बताया।
‘‘यह तूने कैसे जाना दीदी?’’ निक्की ने पूछा।
‘‘कॉमनसेंस!’’ मणिका मुस्कराकर बोली।
‘‘बता न।’’
‘‘कहा न, कॉमनसेंस!’’
‘‘आप बताइए दादा जी, इसने कैसे जाना कि गुमखाल के बाद टैक्सी ढलान पर उतरेगी?’’ निक्की दादा जी से बोला।
‘‘उसने जाना, क्योंकि वह ध्यान से मेरी बातें सुन रही है।’’ दादा जी ने कहा।
‘‘ध्यान से तो मैं भी आपकी बातें सुन रहा हूँ!’’ निक्की ने कहा ।
‘‘तब तुम्हें यह भी ध्यान होगा कि मैंने बताया था कि गुमखाल पहाड़ की एक चोटी पर बसा है।’’ दादा जी बोले।
‘‘जी।’’
‘‘क्या ‘जी’? तू भी एकदम अपने बाप पर ही गया है...निरा बुद्धू।’’ दादा जी क्षोभ-भरे स्वर में बोले, ‘‘अरे भाई, टैक्सी जब पहाड़ की चोटी पर पहुँच जाएगी तो आगे बढ़ने के लिए ढलान के अलावा रास्ता ही क्या होगा।’’
‘‘बच्चों के बीच में बिना बात ही आप मुझे क्यों घसीट रहे हैं बाबू जी?’’ इस बात पर सुधाकर ने उन्हें टोका।
‘‘इसलिए कि यह तेरे-जैसी बेसिर की बातें कर रहा है।’’ दादा जी ने सफाई दी।
‘‘अरे, मेरी बात को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया आप लोगों ने।’’ मणिका तुनककर बोली, ‘‘मेरी बात पर आ जाइए दादा जी, उसके बाद हम कहाँ पहुँचेंगे?’’
‘‘सतपुली...उसके बाद हम सतपुली पहुँचेंगे।’’
‘‘और उसके बाद?’’
‘‘मैंने बताया न, रुकते-चलते तो हम रहेंगे ही।’’ दादा जी बोले, ‘‘देखने लायक रास्ते में बहुत-सी जगहें आएँगी...बहुत-सी दाएँ-बाएँ छूट जाएँगी। जैसे,कृएकेश्वर महादेव की ओर जाने वाला रास्ता, शृंगी ऋषि का आश्रम, ताराकुण्ड ताल और कंडारस्यूं पैठाणी का सुप्रसिद्ध शनि-मंदिर जो नवीं शताब्दी का माना जाता है। पाटीसैण नाम का सुन्दर शहरी इलाका आएगा। उसके बाद ज्वाल्पा देवी का बड़ा ही प्रसिद्ध मंदिर है। नवरात्र के दिनों में वहाँ माँ के भक्तों का बड़ा भारी मेला लगता है।’’
टैक्सी के हिचकोले बच्चों को पालने में झूलने-जैसा सुख दे रहे थे। यह सुख उन्हें बार-बार निद्रा-देवी की गोद में चले जाने को विवश कर रहा था, लेकिन प्रकृति की अद्भुत् छटा को बन्द आँखों से तो देखा नहीं जा सकता था। सो, नींद को वे बार-बार ‘सलाम’ कहते रहे। दादा जी से कुछ पूछने से ज्यादा अब उन्हें प्रकृति-दर्शन अच्छा लग रहा था। कम से कम सतपुली पहुँचने तक तो वे कुछ पूछने वाले थे नहीं। मौका ताड़कर दादा जी ने भी अपने शरीर को जरा ढीला छोड़ दिया और आँखें बन्द करके सो जाने की कोशिश करने लगे।
टैक्सी जैसे ही सतपुली के निकट पहुँची, ऊपर की सड़कों पर बच्चों को विकसित शहर-जैसा कुछ नजर आने लगा। उसे देखकर ऐसा लगता ही नहीं था कि वे पहाड़ पर बसे किसी नगर को देख रहे हैं। कोशिश करने के बावजूद दादा जी सो नहीं पाए थे। ऊपर की सड़कों पर नजर पड़ते ही वे बोल उठे, ‘‘हम सतपुली पहुँचने वाले हैं। यह नगर नयार नदी के किनारे बसा हुआ है। आसपास के सभी गाँवों का यह मुख्य बाजार है। उन्नीस सौ इक्यावन में आई भयानक बाढ़ ने इस शहर को पूरी तरह से तबाह कर दिया था। जन और धन दोनों की बड़ी हानि इस शहर ने झेली थी। लोक गायकों ने उस घटना पर बहुत-से गीत बनाए थे। गढ़वाली साहित्य में उन गीतों को बड़ा सम्मान दिया जाता है।’’
अन्धा मोड़
सतपुली को पीछे छोड़कर टैक्सी इस समय आगे बढ़ चली थी। दादा जी की आँखें लग गयी थीं। प्रकृति-दर्शन में बच्चे भी ऐसे मग्न हुए कि सारी जिज्ञासाएँ, सारे सवाल भूल बैठे। प्राकृतिक सौंदर्य और सम्पदा से भरी हिमालय की इस शृंखला का यही महात्म्य है। समस्त जिज्ञासाओं से परे। मानव-मन यहाँ खुद-ब-खुद कविता गा उठता है। इस यात्रा में कदम-कदम पर अगर आनन्द और रोमांच है तो कभी-कभी कुछ मोड़ों पर भय की सिहरन भी है। ‘अन्धा मोड़’ लिखे साइन बोर्ड बच्चों ने यहाँ से पहले कहीं और नहीं देखे थे।
‘‘अन्धा मोड़ का क्या मतलब होता है डैडी?’’ दादा जी को सोया हुआ देखकर मणिका ने सुधाकर से पूछा।
‘‘अन्धा मोड़ का मतलब है वह मोड़ जो एकदम गोला आकार का हो...’’ सुधाकर ने बताया, ‘‘करीब-करीब ज़ीरो की तरह का।’’
इतना बताकर वह चुप हो गए ।
किसी जमाने में घने और डरावने जंगलों के बीच हिंसक पशुओं और दैवी आपदाओं से टकराते मजबूत इरादों वाले यायावर कदमों ने इन दुरूह पहाड़ियों पर पगडंडियाँ बनाई थीं तो आज मजबूत और मेहनती कन्धों व लोहे के हाथों वाले उनके वंशजों ने पतली पगडंडियों को लम्बी-चौड़ी सड़कों में तथा सँकरी पुलियाओं को भारी-भरकम सुविधाजनक पुलों में बदल डाला है।
एक अन्धे मोड़ पर सामने से आती तेज रफ्तार कार को बचाने के चक्कर में अल्ताफ ने टैक्सी को तेजी से काटा। उससे झटका खाकर दादा जी जाग उठे। बाहर के दृश्यों को देखकर उन्होंने जगह को पहचानने की कोशिश की। फिर बच्चों से पूछा, ‘‘पौड़ी पीछे छूट गया क्या?’’
‘‘नहीं दादा जी!’’ निक्की ने बताया, ‘‘पौड़ी तो अब आने वाला है।’’
‘‘अच्छा! तुमने कैसे जाना?’’ दादा जी ने पूछा।
‘‘कॉमनसेंस से, और कैसे?“ वह बोला ।
‘‘बाप पर गया है पूरी तरह!’’ दादा जी हँसकर बोले, ‘‘सड़क-किनारे के एक बोर्ड को पढ़कर मुझे चीट कर रहा है बदमाश।’’
‘‘जो भी हो, है तो इंटेलीजेंट ही न!’’ उनकी इस बात पर सुधाकर बोला।
‘‘मान गया यार, तुम बाप-बेटा दोनों ही बहुत इंटेलीजेंट हो।’’ दादा जी ने कहा, फिर पूछा, ‘‘अच्छा यह बताओ कि पौड़ी-क्षेत्र का देवता कौन है?’’
सुधाकर उनके इस सवाल को जैसे सुना ही नहीं, वह खिड़की से बाहर प्राकृतिक दृश्यों को देखने में मशगूल हो गया। बच्चे दादा जी की सूरत देखने लगे ।
‘‘नाग देवता।’’ कुछ देर इंतज़ार के बाद दादा जी ने स्वयं ही बताया, ‘‘ऊपर, एक पहाड़ी पर कंडोलिया गाँव है जहाँ नाग-देवता की थाती है। थाती मतलब—पुरखों के जमाने से चली आ रही जगह। बड़ा भारी मेला भी लगता है वहाँ पर। पौड़ी की एक-और भी विशेषता है...।’’ दादा जी आगे बोले, ‘‘गुमखाल के बाद आसपास के पहाड़ों में यह नगर सबसे ऊँची जगह पर बसा है। समुद्रतल से इसकी ऊँचाई जानते हो?’’
‘‘नहीं।’’ दोनों बच्चों ने सिर हिलाया।
‘‘तू जानता है रे बुद्धू?’’ दादा जी ने सुधाकर से पूछा जो अब ऊँघते हुए यात्रा कर रहे थे।
‘‘आप कम से कम बच्चों के सामने तो इन्हें ‘बुद्धू’ मत कहा करो बाबू जी।’’ ममता ने बनावटी नाराज़गी के स्वर में कहा।
‘‘देखा?’’ उसकी बात पर सुधाकर एकदम-से चहक उठा, ‘‘वैसे तो मन में पटाखे फूट रहे होंगे कि बाबू जी ने सरेआम मुझे बुद्धू कहा, लेकिन दिखावे के लिए कहेंगी, आप कम से कम बच्चों के सामने तो इन्हें बुद्धू मत कहा करो। मतलब कि जब कहो इनके सामने कहो ताकि इनके कलेजे को ठण्डक मिला करे।’’
ममता यह बात सुनकर नीचे ही नीचे मुस्कराती रही। बच्चे भी खुश होते रहे और अल्ताफ भी। दादा जी भी सब समझ रहे थे। उन्होंने कुछ नहीं कहा। सिर्फ इतना बोले, ‘‘भई, वह तो मैं इसे लाड़ में कहता हूँ...और वह भी इसके जन्म के समय से।’’
‘‘जन्म के समय ही इनकी यह ‘खूबी’ आप ने कैसे जान ली थी बाबू जी?’’ सब-कुछ जानते हुए भी ममता ने मुस्कराते हुए सवाल किया।
‘‘वो ऐसे कि इसका जन्म बुधवार को हुआ था।’’ दादा जी ने बताया, ‘‘उसी समय मैंने सोच लिया था कि इसका नाम मैं बुधप्रकाश रखूँगा।’’
‘‘बुध को तो यह निक्की भी पैदा हुआ था।’’ सुधाकर बोला, ‘‘अपने पोते का नाम तो आपने ‘बुद्धू’ नहीं सोचा।’’
‘‘यों तो मैं खुद भी बुध को ही पैदा हुआ था...’’ दादा जी ने कहा, ‘‘अब एक ही घर में तीन-तीन बुद्धू तो नहीं रह सकते थे।’’
‘‘क्यों नहीं रह सकते थे?’’ सुधाकर ने दलील दी, ‘‘प्रथम, द्वितीय, तृतीय कर देते, अंग्रेजों की तरह।’’
‘‘मुझे अंग्रेजों के चलन का पता नहीं था न बेटा।’’ दादा जी व्यंग्यपूर्वक बोले, ‘‘खैर। बहू, तू आगे की बात सुन—इसे स्कूल में दाखिल कराने को ले जाने से पहले तक यह नाम घर में चलता रहा। लेकिन जब दाखिला कराने को स्कूल ले जाने लगा तो इसकी मम्मी ने कहा—कोई और नाम लिखवाना लड़के का, वरना सारे साथी और अध्यापक बुधप्रकाश को बिगाड़कर तुम्हारी तरह ‘बुद्धू’ कहने लगेंगे। मुझे भी उनकी यह दलील जँच गई और इसका नाम ‘सुधाकर’ लिखवा आया। लेकिन इसका जन्मज़ात नाम मैंने नहीं बिगड़ने दिया।’’
‘‘नहीं बिगड़ने दिया बाबूजी या नहीं सुधरने दिया?’’ सुधाकर बोला।
‘‘बेटा, मैं तुझे बुद्धू कहता जरूर हूँ लेकिन मानता थोड़े ही हूँ। मैं क्या जानता नहीं हूँ कि तू अपने फ़न में माहिर है और मेरे जैसे तो सौ आदमियों के कान एक-साथ काटता है।’’ दादा जी सुधाकर की प्रशंसा करते हुए बोले।
‘‘कान या बाल?’’ ममता ने चुटकी ली। उसकी इस चुटकी पर निक्की तो खिलखिलाकर हँस ही पड़ा। बाकी सब भी हँसे बिना न रह सके।
‘‘अच्छा सुनो।’’ बात के तारतम्य को जोड़ते हुए दादा जी ने बताना शुरू किया, ‘‘समुद्रतल से पौड़ी की ऊँचाई है—करीब साढ़े पाँच हजार फुट। इसलिए हिमालय की बहुत-सी चोटियाँ यहाँ से साफ नजर आती हैं। एकदम सवेरे, उषाकाल में, ऊपर उठते अरुण की रक्तवर्णी किरणें जब बर्फीली चोटियों को अपनी आभा से सुशोभित करती हैं तो देखने वाले बस देखते ही रह जाते हैं।’’
खण्ड-7 में जारी……(2021)