Mari hui aatma in Hindi Short Stories by Pradeep Kumar sah books and stories PDF | मरी हुई आत्मा

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मरी हुई आत्मा

मरी हुई आत्मा

प्रदीप कुमार साह

बदलू रोज की तरह काम की तलाश में आज भी अपने नजदीकी शहर जा रहा था. वह दिहाड़ी मजदूर है, इसलिये रोज शहर जाने पर भी उसे कभी काम मिलता है और कभी नहीं. एक तो काम का कम पारिश्रमिक, दूसरा काम का अनियमित रूप में मिलना, मंहगाई का दौर सो अलग ही! काम नहीं मिलने की दशा में उसे जमा-पूँजी से ही घर खर्च चलाना होता है. इन सभी वजह से वह काम की तलाश में रोज पैदल ही शहर आता-जाता है.

इस तरह सही समय पर शहर पहुंचने हेतु वह बहुत सुबह-जब अँधेरा ही रहता है, घर से निकलता है और जबतक वापस घर पहुँचता है, रात हो चुकी होती है. आज भी वह बहुत सुबह ही घर से निकला. वह समय सुबह होने से पहले का घुप अँधेरा था. वह सड़क के किनारे-किनारे शहर की ओर बढ़ता चला जा रहा था. तभी पीछे से एक अनियंत्रित ट्रक नितांत सुनसान सड़क पर उसे रौंदता हुआ निकल गया. उसके शरीर के चीथड़े-चीथड़े हो गये. वह नजारा देखते हुये उसे अपनी आँखों का विश्वास ही नहीं हुआ.

वह बदहवास सा भागता-भागता वापस घर पहुँचा. उसके आगमन से अनभिज्ञ उसकी पत्नी जल्दी-जल्दी से गृहकार्य निपटाने में लगी हुई थी ताकि मालकिन के घर झाड़ू-पोंछा लगाने समय से जा सके. उसने पत्नी को आवाज लगाया. किंतु काम में निमग्नता की वजह से शायद उसे कोई आवाज सुनाई न दिया. उसने दुबारा और पुनः-पुनः आवाज लगाया, किंतु वह अपने काम में ही व्यस्त रही. अब बदलू को क्रोध आ गया. उसने क्रोध में पत्नी को धक्का दिया.

किंतु वह क्या, वह अचानक से इतना भारी-भड़कम कैसे हो गई कि उसके धक्का देने पर अपनी जगह से वह थोड़ा सा भी हिला तक नहीं? आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसे किसी के छूने का अहसास तक नहीं हुये. थक-हारकर उसने अपने लड़के को आवाज लगाई. किंतु अंततः वह समझ नहीं पा रहा था कि आचानक से सभी उससे अनभिज्ञ किस तरह हो गये अथवा उसे नजर-अंदाज क्यों करने लगे? अब वह घर के एक कोने में खड़ा रहकर अपना चित्त स्थिर करने का प्रयत्न करने लगा.

वैसे बदलू का ईश्वर सत्ता और मानवता में विश्वास है. बेहद गरीब होने के बावजूद उसके सभी आचरण एक उत्तम धर्म-निष्ठ व्यक्ति की है. किंतु वह स्वयं को आस्तिक नहीं मानता, क्योंकि वह भूत-प्रेत के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता. और भी कि वह किसी पंथ, सम्प्रदाय और धर्म के नाम पर लड़ाईयाँ बिलकुल भी नहीं लड़ता जोकि एक सच्चे आस्तिक का परम गुण-धर्म है. इसीलिये अपनी कमी को स्वीकारते हुये वह स्वेच्छा से स्वयं को परम नास्तिक मानता है. किंतु पता नहीं क्यों उसे अभी भूत-प्रेत के अस्तित्व में विश्वास होने लगा है?

शायद वर्तमान परिस्थिति में पत्नी-बच्चे की चिंता करने की वजह से? शायद शाम में उसके काम निपटा कर वापस घर लौटने की प्रतीक्षा करते-करते वह सब बेहाल न हों जाये अथवा यह कि उसके संसार से असमय चले जाने से उसके पत्नी-बच्चों का जीवन यापन किस तरह संभव होगा, यह सब सोच-सोचकर? जैसे-जैसे शाम का समय निकट आ रहा था, वह सब चिंता और कामना उसे स्वयं को बदलू का मृतात्मा मानने को पता नहीं क्यों और कैसे मजबूर कर रहा था.

जब भूत-प्रेत के अस्तित्व पर सहमत होना था तो स्वतः ही जादू-टोना और ओझा- गुणी यानि तांत्रिक के चमत्कारिक शक्ति-अस्तित्व के संबंध में तो मानना ही था. उसने भी गुणियों के संबंध में बड़ी-बड़ी बात सुना था कि गुणी यदि इच्छा करे तो सूरज का उगना भी अवरोधित कर दे. फिर स्थानीय क्षेत्र का वैसा ही सुप्रसिद्ध गुणी झबरू ओझा का वास तो उसके गाँव ही में है. इस तरह उसने समय रहते पुनः अपना शरीर प्राप्ति हेतु झबरू ओझा के शरण में जाने का अपना मन बना लिया.

जब वह झबरू ओझा के घर के दरवाजा के सामने खड़ा हुआ तो उसे झबरू ओझा के एक कमरे के घर का सारा दृश्य बाहर ही से साफ-साफ दीखने लगा. उसे स्वयं में विलक्षण शक्ति प्राप्त होने के संबंध में आश्चर्य हुआ. किंतु वहाँ झबरू ओझा के पत्नी-बच्चे तो थे परंतु वह अपने कमरे में नहीं था. वह परेशान होकर झबरू ओझा का पता पाने हेतु अपनी निगाह इधर-उधर दौड़ाया. तभी उसके नजर में झबरू ओझा आ गया जो अपने घर से थोड़ा दूर निर्मित अपने व्यक्तिगत मंदिर में था.

जब वह मंदिर के समीप पहुँचा तो देखता है कि मंदिर का दरवाजा अंदर से बंद है और दरवाजा के सामने एक व्यक्ति थोड़ा हैरान-परेशान खड़ा है. अब रात गहराने लगी है. उसने अपनी दृष्टि मंदिर के अंदर डाली तो देखता है कि झबरू ओझा अंदर बैठ कुछ तांत्रिक क्रिया कर रहा है. उसके सामने किंतु बिलकुल समीप एक नग्न औरत बैठी है और पास में कुछ पात्र में तांत्रिक सामग्री रखी हैं. झबरू ओझा एक पात्र से क्षीर का कुछ अंश जो संभवत: उस औरत द्वारा पकाई गयी थी मानव-खोपड़ी में डालकर अपने नेत्र बंदकर कुछ मंत्र बुदबुदाता है.

फिर अचानक से अपने दोनों नेत्र बड़ा-बड़ा खोलकर चिल्लाने लगता है,"अनर्थ, घोर अनर्थ! एक बहुत भयंकर पिशाच तुम्हारा देह पाने हेतु तुम्हारे संतान प्राप्ति की राह में भारी रोड़ा अटका रहा है. तुम्हारा संतान प्राप्ति होना तो असंभव है."

इतना सुनते ही वह नग्न औरत-जिसका पति उस कपाट-बंद मंदिर के बाहर खड़ा बेसब्री से उसका बाहर आने का इंतजार कर रहा है, झबरू ओझा के चरण से अपना सिर स्पर्श कराते हुये गिड़गिड़ाने लगी,"गुणी बाबा, बहुत आशावान होकर आपके शरण में आई हूँ. कृपया निराश मत कीजिये? कुछ भी उपाय द्वारा संतान प्राप्ति कराना सुनिश्चित कीजिये और पड़ोसियों का ताना सुनने से मेरी रक्षा कीजिये."

उसे अपनी बाँहों में भरते हुये झबरू ओझा फुसफुसा कर बोला,"उसका एकमात्र उपाय है कि मेरे समीप आओ..."

"किंतु गुणी बाबा...."औरत फुसफुसाई.

"किंतु-परंतु और बहुत अधिक सोचना छोड़ो!"कहते हुये झबरू ओझा ने उसे अपनी बाँहों में समेट लिया. वर्षों की भूखी लोमड़ी की तरह उस औरत ने भी झबरू ओझा जैसे नंगे, भूखे और रंगे सियार के सामने बिना किसी प्रतिकार के अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया. फिर मादक पदार्थ का सेवन करते हुये दोनों एक अलग अनैतिक संसार में खोते रहे. उधर मंदिर में अजीब-अजीब आवाज होता सुनकर बाहर अपने पत्नी का इंतजार करता उसका पति बारंबार आशंकित होता, किंतु किसी चूहे की तरह बिलकुल ही चुप रह जाता.

बदलू के मृतात्मा को वह शक्ति भी अब प्राप्य था कि वह किसी भी व्यक्ति के मन में उठने वाले विचार को स्पष्ट रूप में सुन सकता था. तभी उस व्यक्ति ने मन में यह निश्चय किया कि पालतू पशु जब बच्चा जनती है तब उस पालतू पशु के पालक का स्वतः उस बच्चा पर अधिकार माना जाता है. क्या वह पालक उस बच्चे का पिता होता है?"वैसा निश्चय कर उस व्यक्ति ने अपना चित्त स्थिर कर लिया और बेहद इत्मिनान से वहीं बैठ गया. बदलू उर्फ़ मृतात्मा आश्चर्य से उसे घूरने लगा.

बदलू का मृतात्मा सोचने लगा,"संसार में यह सब क्या अनर्थ हो रहा है? पहला तो दूसरे की मजबूरी का फायदा लेते हुये कपट पूर्वक उसका शील और धन हरण करता है तो दूसरे की आत्मा ही मरी हुई है. वह किसी अनाथ बच्चे को अडॉप्ट नहीं कर सकते, क्योंकि एक अनाथ बच्चा उनकी नजर में केवल नाजायज़ बच्चा होता है और वह नाजायज बच्चा पालन करने के खिलाफ हैं. किंतु स्वयं नाजायज औलाद पैदा करने और करवाने हेतु तैयार हैं. वह सिर्फ इसलिये कि उन्हें संतोष और सम्यक ज्ञान नहीं हैं.

एक के दृष्टिकोण में समानता का आभाव है, इसलिये उन्हें केवल अपने कोख से बच्चा चाहिये है. एक अनाथ बच्चा अडॉप्ट करने के रास्ते में उस बच्चे का भावी संस्कार जिसका संबंध जन्मजात यानि जीन से संबंधित नैसर्गिक गुण माना जाता है, आड़े आती है. फिर वैसा विचार पालनेवाला वह स्वयंसिद्ध स्वयं ही अति-सुसंस्कारी बनते हुये अनजान सुसंस्कारी पुरुष से संबंध स्थापित कर संतान प्राप्ति की इच्छुक हैं. तब वैसे भावी निर्माण के संबंध में क्या चिंता जिसकी नीव ही इतने सुदृढ़ और ठोस धरातल पर रखे गये हो!

पुनः एक उसी तथ्य के मद्देनजर एक अनाथ बच्चे को एडॉप्ट करने से कतराता है कि वह भविष्य में कुमार्गगामी होकर उसके नेक नाम को मिट्टी में न मिला दे. यहाँ वह व्यक्ति ही तत्वज्ञानी बनते हुये अनैतिकता और कृतघ्नता को संरक्षण प्रदान करता है. रही बात पड़ोसी के ताना देने की! क्या व्यवसायिक क्षेत्र में अवरोध उत्पन्न करनेवाले लोग नहीं होते, तब कितने लोग अपना व्यवसाय छोड़ देते हैं? कोई किसी को बद-दुआ देते रहते हैं कि वह मृत्यु को प्राप्त हो जाय, किंतु कितने लोग दूसरे की बद-दुआ स्वीकार कर मृत्यु प्राप्त करना स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं?

बदलू के मृतात्मा ने विचार किया कि वह अपना शरीर पुनः प्राप्ति हेतु यह कहाँ आ गया? वह मृतात्मा है, क्योंकि एक स्वस्थ शरीर के मानक आयु से पूर्व ही उसका शरीर नहीं रहा. किंतु उसकी आत्मा नहीं मरी, क्योंकि आत्मा अमर है! किंतु यहाँ तो सभी चलता-फिरता शव मात्र हैं, जिसके शरीर तो नष्ट नहीं हुये अपितु उस शरीर का उद्देश्य नष्ट जरूर हो गये हैं. चूँकि एक शरीर का उद्देश्य नष्ट हो गया है इसलिये उस शरीर के तेज भी नष्ट हो गये. वैसा सब कुछ इसलिये हुआ क्योंकि इनकी आत्मा पहले ही मर चुकी है. एक शव तो चील और कौआ का पेट भी भर सकता है, किंतु मरी हुई आत्मा के अधीनस्थ शरीर किसी काम के नहीं. वैसा विचार कर मृतात्मा अट्टहास करने लगा.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन)