देह के दायरे
भाग - अठाईस
देव बाबू को उस आश्रम में रहते हुए तीन वर्ष व्यतीत हो गए थे | शारीरिक रूप से उसमें बहुत ही परिवर्तन हो गया था | स्वच्छ वातावरण और प्रकृति की गोद में रहकर उसका शरीर पुष्ट हो गया था | बढ़ी हुई दाढ़ी और मूँछे, सिर पर कन्धों तक लटकते बाल और गले में पड़ा जनेऊ | वस्त्र के नाम पर एक धोती और पाँवों में खडाऊँ | सब कुछ तपस्वियों जैसा हो गया था परन्तु उसका मन अभी भी अशान्त था | कभी-कभी पूजा और अपने शहर की याद आकर उसके मन को व्याकुल कर जाती थी |
सन्ध्या के समय सभी शिष्य गुरुदेव के समीप बैठते और गुरुदेव उन्हें ज्ञान की बातें सुनाते | इसी समय वे अपने शिष्यों की शंकाओं का समाधान भी करते थे |
प्रतिदिन की भाँती आज भी गुरुदेव अपना प्रवचन समाप्त करके शिष्यों से वार्ता कर रहे थे | देव बाबू भी उनके चरणों के समीप बैठा मन की बात उनसे कहने का प्रयास कर रहा था |
“गुरुदेव, अभी तक मेरे मन का सन्ताप दूर नहीं हुआ | मैं अभी भी सांसारिक विषयों में उलझा रहता हूँ | मैं क्या करूँ गुरुदेव?”
“चिन्ता न करो वत्स | तुम श्रेष्ठ पथ पर अग्रसर हो | मन का सन्ताप शनैः-शनैः दूर होता है | इसके लिए तपस्या करनी पड़ती है |”
“मैं तपस्या करने को तैयार हूँ गुरुदेव | आप मुझे इसके लिए आदेश दें |”
“अभी उसका समय नहीं आया है वत्स | पहले तुम पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाओ |” गुरुदेव ने उसके सिर पर हाथ फिराते हुए कहा |
“मैं तो स्वस्थ हूँ गुरुदेव |”
“लेकिन पूर्ण रूप से नहीं | अभी तुम पूर्ण पुरुष नहीं हो |”
“क्या यह कभी सम्भव हो सकेगा गुरुदेव? क्या मैं पूर्ण पुरुष बन जाऊँगा?” देव बाबू ने उत्सुकता से कहा | उसकी आँखें आशा से चमक उठीं |
“अवश्य | बस एक वर्ष और उपचार करना होगा |”
“उपचार कैसा गुरुदेव?”
“तुन नहीं जानते वत्स! तुम्हारा उपचार चल रहा है |” गुरुदेव ने मुसकराते हुए कहा |
तभी गुरुदेव के संकेत पर अन्य शिष्यों ने कीर्तन प्रारम्भ कर दिया | देव बाबू अनेक प्रश्न पूछना चाहता था | मगर अपनी उत्सुकता को गुरुदेव पर प्रकट नहीं कर सका |
रात्रि को सभी शिष्य अपनी कुटियों में विश्राम कर रहे थे | देव बाबू का ह्रदय अशान्त था |
वह पूर्ण पुरुष बन जाएगा | वह लौटकर पूजा को अपना लेगा | उसका आँचल खुशियों से भर देगा | वह सोचे जा रहा था, मगर पूजा ने तो अब तक पंकज को अपना लिया होगा | वह स्वयं ही तो उस दोनों को इसकी स्वीकृति देकर आया था | नहीं, नहीं, पूजा अब तक उसकी प्रतीक्षा कैसे कर सकती है? उसे तो अब सारा जीवन इसी आश्रम में व्यतीत करना होगा | प्रभु की कैसी विडम्बना है | जब मैंने जीवन के लिए संघर्ष किया तो जी न सका | और जब मरना चाहा तो सब कुछ मिल रहा है | विचारों में घिरा उसका मन पीड़ा से भर गया |
“वत्स, सो जाओ | अधिक सोचने से मन में सन्ताप उत्पन्न होता है |” कुटिया के बाहर से उसे गुरुदेव का आदेश सुनाई दिया |
‘गुरुदेव तो अन्तर्यामी हैं |’ वह सोच उठा, ‘वे तो मेरे मन की सभी बातें जानते हैं | क्या उन्हें यह पता नहीं होगा कि मेरा मन अब भी अपनी पूजा के लिए भटकता है? उन्हें अवश्य ही सब कुछ पता होगा | वे मेरी इस समस्या का समाधान सुझाएँगे |’
“मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया वत्स!” गुरुदेव का स्वर पुनः सुनाई दिया |
“क्षमा करें गुरुदेव |”
“अब विश्राम करो वत्स! प्रातः उठकर जंगल से हवन के लिए लकड़ियाँ भी लानी हैं |”
“जैसी आज्ञा गुरुदेव!” कहकर देव बाबू स्वयं को विचारों से मुक्त कर सोने का प्रयास करने लगा | रात्रि धीरे-धीरे भागती जा रही थी | किसी न किसी तरह देव बाबू की आँखों में भी नींद घिर ही आयी |