ग़ज़ल (१)
आँख में हर,आज अब,थोड़ा सा पानी,चाहिए |
मर चुकी इस,ज़िन्दगी को,ज़िंदगानी,चाहिए |
अज़नबी बनकर तो काफ़ी,रह चुके,हम-तुम मगर,
दरमियाँ,रिश्तों के अब,थोड़ी रवानी,चाहिए |
आज है,जो है मगर,कल को बनाने के लिए,
हमको अब,फिर आज वो,यादें पुरानी,चाहिए |
हादसों से,दूर हों दिन,और हों रातें हंसीं,
हमको ऐसे दौर की,शामें सुहानी,चाहिए |
क़त्ल करने की जगह जो,ज़िंदगानी,दे सके,
नौजवानों,में हमें वह,नौजवानी,चाहिए |
हम ज़मीनो आसमाँ,नज़दीक ले आए,मगर
दिल से दिल की,बढ़ रही,दूरी,मिटानी,चाहिए |
प्यार से,इक साथ मिलजुल,के जहां सब,रह सकें,
अब हमें,ऐसी कोई,बस्ती बसानी,चाहिए |
पीठ में खंज़र कहीं ना,भोंक देना,साथियों,
दोस्ती,की है तो फिर,यारों,निभानी,चाहिए |
घर पड़ोसी,का जला तो,आँच तुम तक आएगी,
इसलिए,हर आग लगते,ही बुझानी,चाहिए |
नफरतों,के दौर में जब,खुद को तनहाँ,पाइये,
गीत या,कोई ग़ज़ल फिर,गुनगुनानी,चाहिए |
ग़ज़ल (२)
हम गरीबी में पलते रहे उम्र भर |
बुझते दीपक से जलते रहे उम्र भर |
अपनी मज़बूरियों का पता था हमें,
मोम जैसे पिघलते रहे उम्र भर |
ठोकरें इस ज़माने ने कुछ कम न दीं,
गिरते-गिरते संभलते रहे उम्र भर |
हम भी इंसान ही थे,ख़ुदा तो नहीं,
चाँद को हम मचलते रहे उम्र भर |
ज़िन्दगी की कड़ी धूप में दर-ब-दर,
हमको चलना था चलते रहे उम्र भर |
ग़ज़ल (३)
ज़िन्दगी,ज़िन्दगी नहीं यारों |
ये ख़ुशी तो ख़ुशी नहीं यारों |
आज बदले हुए ज़माने में,
आदमी,आदमी नहीं यारों |
कारवाँ दोस्तों का है लेकिन,
दोस्ती,दोस्ती नहीं यारों |
फूल जो प्यार के खिलाती थी,
यह ज़मीं वह ज़मीं नहीं यारों |
अब अँधेरा बिछा है राहों में,
रोशनी,रोशनी नहीं यारों |
ग़ज़ल (४)
झूठ की शाख फलने लगी है |
और सच्चाई जलने लगी है |
सर्द अंगार होने लगे हैं,
आग शबनम उगलने लगी है |
है फ़क़त मोम का एक टुकड़ा,
ज़िंदगानी पिघलने लगी है |
अब तो इंसानियत थक गई है,
उम्र उसकी भी ढलने लगी है |
मौसमों का असर कुछ तो होगा,
हर नज़र अब बदलने लगी है |
ग़ज़ल (५)
कैसे कह दूँ आज के मैं आदमी को आदमी |
श्वान सा नोचे है अब तो आदमी को आदमी |
आ गई है अज़गरों की वृत्ति हर इंसान में,
है निगलता जा रहा अब आदमी को आदमी |
ज़िन्दगी की दौड़ में आगे निकल जो भी गया,
फिर कहाँ वह है समझता आदमी को आदमी |
नफ़रतों की आँधियाँ कुछ इस क़दर आईं यहाँ,
देखकर मुँह फेरता है आदमी को आदमी |
भाईचारा,प्रेम और सदभावना की क्या कहें,
ठोकरें देता है अब तो आदमी को आदमी |
है कहाँ वो बात,अपनापन,वो ज़ज़्बा प्यार का,
अब बहुत मुश्किल है कहना आदमी को आदमी |
ग़ज़ल (६)
बात कहनी थी जो,अनकही रह गई |
दिल की हसरत तो दिल में दबी रह गई |
कुछ न कह पाए हम,कुछ न वह कह सका,
दरमियाँ एक दूरी बनी रह गई |
कितना चाहा मगर,मौत भी ना मिली,
बोझ सी बनके यह ज़िन्दगी रह गई |
इक ज़रा सी हंसी भी मिली ना हमें,
ज़िन्दगी आँसुओं की लड़ी रह गई |
छोड़ माँ-बाप को वह कहीं जा बसा,
परवरिश में भला क्या कमी रह गई |
लौटकर फिर न आया वह घर की तरफ,
उसकी माँ रास्ता देखती रह गई |
कोई घर से न निकला बचाने उसे,
चीख उसकी वहीँ गूँजती रह गई |
आबरू लुट गई उसकी बाज़ार में,
भीड़ सब कुछ मगर देखती रह गई |
ग़ज़ल (७)
कुछ न कहिये,ज़नाब,चुप रहिये |
देखिये बस ज़नाब,चुप रहिये |
हर मकां जल रहा यहाँ अब तो,
ढूँढ़े मिलता न आब,चुप रहिये |
आज की बात का अजी कल को,
कौन देगा जवाब,चुप रहिये |
ख्वाब ना देखिये,ज़माने में,
आएगा इंक़लाब,चुप रहिये |
माँगिये ना किसी गरीब से यूँ,
आँसुओं का हिसाब,चुप रहिये |
ग़ज़ल (८)
शीशे के मकां पर ही चलाए गए पत्थर |
बेबस पे ही दुनिया से उठाए गए पत्थर |
कुछ पूछिए न आज ज़माने में किस क़दर,
इंसान भी इंसां से बनाए गए पत्थर |
फुटपाथ से गरीब हटाये गए हैं यूँ,
जैसे कि रास्तों से हटाए गए पत्थर |
इंसानों की बस्ती में ही इंसानी शक्ल के,
हर मोड़ पे दो-चार लगाए गए पत्थर |
क्या-क्या न पत्थरों का तमाशा यहाँ हुआ,
मंदिर पे औ मस्ज़िद पे गिराए गए पत्थर |
मुश्किल है ज़माने को मेरे यार बदलना,
मुँह खोलते ही सीने पे खाए गए पत्थर |
ग़ज़ल (९)
दास्ताँ ग़म की सुनाने से फायदा क्या है |
ज़ख्म-ए-दिल सबको दिखाने से फायदा क्या है |
बाँट लेता है कहाँ दर्द किसी का कोई,
दर्द दुनिया को बताने से फायदा क्या है |
खुद ही बन जाय जहां अज़नबी कोई अपना,
ऐसी महफ़िल में भी जाने से फायदा क्या है |
जिसने शोलों से लिपटकर हो ज़िन्दगी काटी,
आग उस दिल में लगाने से फायदा क्या है |
ग़ज़ल (१०)
क्यों यहाँ हर शख्स बेगाना सा लगता है मुझे |
जो न पूरा हो,वो अफ़साना सा लगता है मुझे |
हर कोई अपनी ही रौ में,है बहा जाता यहाँ,
देखता हूँ जिसको,दीवाना सा लगता है मुझे |
बढ़ गई दीवानगी,कुछ इस क़दर इंसान की,
हर कोई दौलत का परवाना सा लगता है मुझे |
लाख हो दूरी यक़ीनन मेरे-उसके दरमियाँ,
एक रिश्ता फिर भी अनजाना सा लगता है मुझे |