कुछ चुनिंदा लघुकथायें
मेरी विशिष्ट लघुकथाओं का लघुसंग्रह
मिर्ज़ा ह्फ़ीज़ बेग
अपनी बात
पुस्तकें इन्सान की सबसे अच्छी मित्र होती हैं ।
यह बात आज भी उतनी ही सच है; हां, कुछ संशोधन की आवश्यकता के साथ । पुस्तकों का बाज़ार सिकुड़ने लगा है । लेकिन मेरी सोच है कि यह बात परम्परागत पुस्तकों के बाज़ार के लिये सच है । ई-पुस्तकों का बाज़ार तो अभी पालने मे है । यह संक्रमण काल है । परम्परागत पुस्तको को, ई-पुस्तक शनै:-शनै: विस्थापित करती जायेगी । यह तो तय है कि भविष्य की ई-पुस्तक का स्वरूप और आकार पूरी तरह से बदल चुका होगा ।
मुझे लगता है कि पाठक-गण के समयाभाव के कारण ई-पुस्तक का छोटा आकार सुविधाजनक होगा; न सिर्फ़ पाठकों के लिये अपितु लेखको के लिये भी । और इसके कारण अधिक पाठकों के पास विकल्प भी अधिक होंगे ।
एक बात और आज पाठक के पास न सिर्फ़ समय की कमी है बल्कि धैर्य की भी । इसी लिये आज के दौर मे; एक समय मे उपेक्षा की नज़र से देखी जाने वाली विधा लघुकथा, खूब फ़लफ़ूल रही है और विकास भी कर रही है । इससे बढ़कर कथा का लघुतम रूप माइक्रो लघुकथा पर हाथ आज़माया जा रहा है, जिसके सहयोग मे मातृभारती का योगदान उल्लेखनीय है ।
इन्ही सब बातों के मद्देनज़र मैने इस संकलन के लिये सिर्फ़ पंद्रह लघुकथाओं का चयन किया है, जिनमे दो माइक्रो लघुकथायें है, जिनका आकार एक एस एम एस के बराबर होता है ।
चूंकि लघुकथा भी विकास के दौर मे है; अत: इसमे खूब प्रयोग हो रहे हैं । और मेरी यह पहली ई-पुस्तक भी एक मेरे लिये एक प्रयोग है; अत: इनके चयन मे कथानक, स्वरूप, आकार और निस्संदेह शैली मे भिन्नता रखी गयी है । इसमे आपको क्या पसंद आता है, क्या बुरा लगता है और क्या चलेगा जैसा लगता है, अपनी इन समीक्षा से अवगत करेंगे ऐसी अपेक्षा रखता हूं । आप अपने कीमती समय मे से थोड़ा समय निकालकर अपनी बेबाक राय देने का कष्ट करेंगे तो यह लघुकथा के विकास मे आपका अमूल्य योगदान रहेगा ।
धन्यवाद सहित…
आपका_ मिर्ज़ा हफ़ीज़ बेग
zifahazrim@gmail.com mirzahafizbaig@gmail.com
(1)
लघुकथा
बोहनी
बिट्टू ने ऑटो निकाला और सड़क पर आकर सवारी का इंतेज़ार करने लगा । आज ढंग की बोहनी हो जाये ; वह मन ही मन भगवान से मनाने लगा । किसी अच्छी माल से बोहनी हो जाये तो आज का दिन टनाटन गुज़रे –वह सोंचने लगा ।
“यह नहीं , यह नहीं … बूढ़ा है , किच किच करेगा , बोहनी बिगाड़ देगा” एक बूढ़े को सड़क की दूसरी ओर से आते देख वह बड़बड़ाया और अपने ऑटो को पीछे रिवर्स मे डालकर पीछे लेगया । धीरे धीरे वह बूढ़ा सड़क पार कर अपनी राह चला गया । तभी उसी तरफ़ से दो लड़कियां आती दिखाई दीं । तुरंत ऑटो को आगे लेजाकर बोला- “बैठिये मेडम … कहां जाना है …?” लेकिन वे कतराकर आगे निकल गईं ।
“धत् … बोहनी ही खराब हो गई ।“ कहकर उसने ज़मीन पर थूक दिया ।
इंजन बंद कर वह सवारी का इंतेज़ार करने लगा ।
“चल पावरहाऊस चौक चल ।“ सुनकर वह चौंका । पलटकर देखा , ट्राफ़िक पुलिस का सिपाही उसके ऑटो मे आ बैठा था ।
‘होगई बोहनी …’ उसने कड़वा सा मुंह बनाया ।
“चल जल्दी कर ड्यूटी के लिये देर होरही है ।“ सिपाही ने कहा ।
“बोहनी नहीं हुई है साहब ।“ बिट्टू बोला ।
“कोई बात नहीं रास्ते मे सवारी बैठा लेना । बोहनी हो जायेगी ।“
“नहीं साहब ! बोहनी करना पड़ेगा ।“
“अबे चल । नखरे मत दिखा ।“
मजबूरी मे उसे जाना पड़ा । इस धन्धे मे ट्राफ़िक वालों को नाराज़ नहीं कर सकते । पानी मे रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं लिया जा सकता ।
चौक पर पहुंचकर सिपाही ने ऑटो रुकवा दिया । ‘चलो अभी कोई नहीं पहुंचा है । मै टाईम पर पहुंच गया ।‘ सोंचते हुये उसने चैन की सांस ली ।
(2)
लघुकथा
पहली सीढ़ी पर
वे हस रहे हैं । हसे जारहे हैं… । उनकी बेढ़ंगी घमंडी मूछों के नीचे से झांकते गंदे दांत देख उसे मतली आने लगती है । इनके चेहरे उसे उसी एक चेहरे की याद दिलाते हैं …।
हां, ये सब चेहरे ही तो हैं । खाकी वर्दियों के ऊपर अटकाये हुये भिन्न-भिन्न प्रकार के चेहरे । बेहिस और बेदर्द चेहरे, जैसे खिलौनो की दुकान पर टंगे हुये मुखौटे । वे किस बात पर ठहाके लगा रहे हैं ? वह हैरान है । उसके आंसू थमने का नाम नही ले रहे ।
“क्या हो गया ? जीजा तो है तेरा ?”
वह बेबसी से देखती है ।
“साली तो आधी घरवाली होती है ।“
“कोई सबूत लाई है ?”
“टूटी चूड़ियाँ…”
“फ़टे कपड़े पहनकर नहीं आई ?”
“वो वीडियोक्लिप लायी है, जिससे ब्लैकमेल करता था ?”
“ज़रा हम भी तो देखें… , हम कैसे मान लें तू सच बोल रही है ?”
“तुझे शर्म नहीं आई अपनी बहन का घर खराब करते हुये । अब यहां बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने चली आई है । तेरा जीजा जेल चला जायेगा तो तेरी बहन का क्या होगा ? सोंचा है… ?”
“अपने बाप का सोंच ।“
“अपने परिवार का सोंच ।“
सवाल ! सवाल !! सवाल !!! जितने चेहरे उतने सवाल । उतने उपदेश ! उतनी फ़टकार !
न्याय के मंदिर की पहली सीढ़ी पर बैठी वह रो रही है । न्याय के मंदिर के पहरेदार चेहरे विद्रूप से विकृत हुये जा रहे हैं । एक चेहरे को थोड़ी दया आती है, “ठीक है, चल छेड़-छाड़ की रिपोर्ट लिख लेते हैं, अभी रो मत…”
(3)
माइक्रो लघुकथा
बकरे की अम्मा
बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती ।
आखिर वे लोग आ पहुंचे तो बकरे की अम्मा रोने लगी “देखिये आराम से … ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं होगी न … बड़े प्यार से पाला है …”
“आप चिंता न करें हमारे कसाई हाई स्किल्ड हैं …” वे बोले ।
“फ़िर भी …” वह विनती करने लगी ।
“देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”
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(4)
लघुकथा
शर्म हमको मगर नहीं आती
“शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी… ?” वह बोला- “अपने पैसे से पीता हूं । भीख नहीं मांगता । मुझे क्यों शर्म आयेगी ?“
मैने भिखारी से कहा- “हट्टे कट्टे होकर भीख मांगते हो शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी भीख मांगता हूं , कोयी चोरी तो नही करता । शर्म तो चोर को आनी चाहिये ।“
मै चोर के पास गया ।
“शर्म नहीं आती ?” मैने कहा ।
“क्यों भाई ? मुझे शर्म क्यों आयेगी ? कोई मुफ़्त मे करता हूं… निछावर देना पड़ता है । कहां से दूंगा ? धंधा है भाई , कमाऊंगा नही तो दूंगा कहां से । शर्म तो उनको आनी चाहिये…”
“शर्म नही आती ?”
“शर्म हमे क्यों आयेगी । हम तो बैठे इसी के लिये हैं ।“ वे बोले ।
“नहीं आप तो जनता की रक्षा के लिये बैठे हैं ।“ मैने कहा ।
“झूठ है सब । असल तो हम सत्ता की रक्षा मे बैठे हैं ।“
“तो वही कीजिये न ?”
“वही तो कर रहे हैं भय्ये । सत्ता कहां से आती है ? पैसे से । हमारा तो कोटा बंधा होता है भय्ये । शर्म तो उनको आनी चाहिये जो हमारे ऊपर बैठे हैं ।“
यही बात ऊपर वाले अफ़सरों से पूछा । वे बोले- “क्यों शर्म आयेगी ? क्या मुफ़्त मे यहां बैठ गये हैं ? लाखों देकर पोस्ट मिली है , कमायेंगे क्यों नहीं ? फ़िर कौनसा हम अकेले कमाते हैं ? यह तो ऊपर तक जाता है । आप तो मन्त्री जी से ही पूछिये ।“
“शर्म नहीं आती ?” मैने मन्त्री जी से पूछा ।
“क्यों शर्म आयेगी ?” वे बोले “क्या यह सब मुफ़्त मे मिलता है । ससुरा… ! पईसा न खर्च किया है , तब तो इहां तक पहुंचा हूं । भूल गये वो मुफ़्त का दारू … मुर्गा… कम्बल्… पईसा… सब भूल गये क्या… ?”
क्या जवाब दूं । मै तो इस देश की जनता हूं । मैं शर्मिन्दा हुआ तो देश शर्मिंदा होगा ।
(5)
लघुकथा
एक शाम जंगल मे
वे शेर देखने की उम्मीद मे , लगातार तीन दिनो तक जंगल की खाक छानने के बाद थके हारे लौट रहे थे । शेर न मिलना था न मिला ।
“शेर तो क्या शेर की दहाड़ तक नहीं सुनी ।“ वाईल्ड-लाईफ़ फ़ोटोग्राफ़र ने अफ़सोस जताया ।
“लगता नहीं अब शेर दिखाई देगा ।“ टीम के जर्नलिस्ट ने कहा ।
“अफ़सोस की बात है , जंगलों से शेर खत्म होते जा रहे हैं ।“ टीम के पर्यावरण विशेषज्ञ ने चिंता ज़ाहिर की ।
“जंगल क्या वे तो जीवन के हर क्षेत्र से खत्म होते जा रहे हैं ।“
“लगता है , शेरों की भूमिका चिड़ियाघरों तक सिमटकर रह जायेगी ।“
“हां ! अब तो जो शेर बनने की कोशिश करेगा , उसे चिड़ियाघर का रास्ता दिखा दिया जायेगा ।“
“लगता है , अब शेरों का दौर खत्म होने लगा है । पता नही जंगल के पर्यावरण मे संतुलन कैसे कायम रहेगा ।“
शाम होने लगी थी । जंगल की सुहानी शाम । हल्की बयार , अप्रैल माह की तपन से राहत देरही थी । दूर पहाड़ों के ऊपर आसमान अपनी लाल पीले रंगो की छटा बिखेर रहा था । साल के वृक्षों की फ़ुनगियां धुंधली होने लगी । परिंदे अपने घरों को लौटने लगे …
“चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुं देस्…” आह भर कर पत्रकार ने कहा ।
वे वापस लौटने लगे ।
“एक मिनट रुको ?” वाईलड-लाईफ़ फ़ोटोग्राफ़र ने कहा “कुछ सुनाई दिया ?”
“जंगली कुत्तों का झुंड है । लगता है , वे नीचे की ओर आ रहे हैं ।“ टीम के पर्यावरण विशेषज्ञ ने कहा “ये तो बड़े खतरनाक , नोचकर खाने वाले शिकारी होते हैं ।“
“ठहरो ! कुछ अच्छे शॉट तो ले लूं …” वाईल्ड-लाईफ़ फ़ोटोग्राफ़र अचानक जोश मे आगया ।
पर्यावरण विशेषज्ञ महोदय ने चिंतातुर स्वर मे कहा “ठीक है भाई, वैसे भी अब तो नोचकर खाने वालो का ही समय आ रहा है…”
वाईल्ड-लाईफ़ फोटोग्राफ़र झट-पट अपना कैमरा तैयार करने लगा ।
अंधेरे की चादर , धीरे-धीरे जंगल पर छाने लगी …
(6)
लघुकथा
भाड़
भड़भुंजा उदास था । उदास क्या ? शायद वह डिप्रेशन मे था । वह भाड़ झौंकते हुये बड़बड़ाये जारहा था- “ज़िन्दगी गुज़र गयी भाड़ झोंकते । क्या पाया ? दुनिया देखो कहां से कहां पहुंच गयी ।“
उसके सर से निकलती पसीने की धार उसके चेहरे से होते हुये , उसकी भाड़ की रेत मे गिर रही थी जिसमे वह चने भून रहा था । भाड़ की गर्मी से उसका चेहरा और हाथ झुलसकर काले पड़ चुके थे ।
मैने कहा- “चचा , भाड़ गरम हो तो ज़रा चने भून दो । गरमा गरम फ़ुटाने ( फ़ूटे हुये चने ) चाहिये ।“
“मियां , तुम तो बस चने ही भुना लो । और तो कुछ सूझता नहीं ।“ उसने बड़ी तल्खी से कहा ।
“और क्या भुना लूं चचा ?” मैने पूछा ।
“देशभक्ति । मियां , देशभक्ति ही आज कल हॉट है । देखो देशभक्ति भुना कर लोग कहां से कहां पहुंच गये … पद्मभूषण … पद्मविभूषण … हासिल कर लिया । और तुम बस चने भुनाते रह गये । जाओ जाओ देशभक्ति भुनाओ । फ़ुटाने खाकर कौन सा तीर मार लोगे ।“
“लेकिन चचा ! किस भाड़ मे जाऊं , कहां कहां भुनाऊं ।“
“राजनीति मे जाओ । मीडिया मे जाओ । बड़े बड़े भड़भुंजे बैठे हैं वहां । आज की डेट मे यही सबसे बड़ी भाड़ है…”
तभी उनका बेटा बाहर निकल आया । वह गबरू नौजवान बड़े तल्ख लहज़े मे बोला- “और आपको बड़ी जल्दी अक्ल आगयी ? ज़िन्दगी भर बस भाड़ झोंकते रहे…”
चचा का पसीना बहकर भाड़ की रेत मे गिरने लगा , जिसमे वे चने भून रहे थे ।
(7)
लघुकथा
उल्टी गंगा
ट्राफ़िक पुलिस को देख उसे आईडिया आया । उसने झट अपनी बाईक किनारे लगाई, हेलमेट सिर से उतारकर बाईक के पीछे लटकाया । उस नोट बंदी के मारे ने, धड़धड़ाते हुये बाईक लेजाकर इन्स्पेक्टर के सामने रोकी ।
“सर, मेरा चालान काटिये मै हेल्मेट नही पहना हूं ।“ वह बोला ।
इन्स्पेक्टर ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा । पूछा – “दो सौ रुपये छुट्टे है ?”
उसने इन्कार मे सर हिलाया ।
“ठीक है, जब छुट्टे होंगे तब आना ।“ इन्स्पेक्टर ने कहा ।
“सर, आज ही …”
“ऐसा है बेटा । अपना हेल्मेट सिर पे रख और पतली गली पकड़ । वर्ना ऐसा चालान काटूंगा कि ज़िंदगी भर चालान भरता रहेगा । सरकार ने पांच-पांच सौ के छुट्टे देने के लिये वर्दी दी है क्या ?”
बेचारा यहां से भी मायूस होकर चला गया । इन्स्पेक्टर बड़बड़ाता रहा- “क्या ज़माना आगया देखो… उल्टी गंगा बहने लगी है…”
(8)
हादसे लाल जी की फ़नी कहानी
उनका नाम कुछ और था लेकिन उनके साथ हमेशा कोई न कोई नये नये हादसे होते रहते ; जिस कारण सहकर्मियों के बीच उनका नाम हादसे लाल पड़ गया ।
एक बार कर्मचारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम मे हिस्सा लेने वे अपने सहकर्मियों के साथ राजस्थान के शहर कोटा गये । प्रशिक्षण पूरा होने के पश्चात सभी ने लगे हाथ राजस्थान के मुख्य स्थलों के भ्रमण का कार्यक्रम बनाया ।
एक किले के भ्रमण के समय हादसे लाल जी ने देखा एक खुली सी जगह एक दीवार के आस पास काफ़ी लोग जमा हो रहे हैं । वे तुरंत वहीं चल दिये । वहां जाकर क्या देखा उस दीवार मे एक खिड़की सी बनी है ; जिसमे कुछ तीन-चार मूर्तियाँ सी रखी है ।
‘ओह! तो राजे महाराजे यहां पूजा करते रहे हैं …’ सोंच कर हादसे लाल जी ने झट्पट चप्पल उतारी और उस खिड़की के सामने जाकर हाथ जोड़े आंख मूंदे खड़े हो गये । अचानक उन्हें किसी की कोहनी लगी तो उन्होने आंखें खोली । जैसे ही आंखे खोली , उनकी आंखें फ़टी की फ़टी रहगई । मुंह खुला रहगया । वे क्या देखते हैं , जिन छोटी छोटी मूर्तियों को वे श्रद्धा पूर्वक नमन कर रहे थे । उनमे प्राण आगये । वे नाच रही हैं । और कहीं से राजस्थानी गीत भी गूंज रहा है ।
अब उनके हाथ जुड़े हुये और आँखें हैरत से खुली हुयी थी ; जब तक पास खड़े सहकर्मी साथी ने उन्हे दोबारा कोहनी मार कर झिड़की नहीं दी- “अबे ! सीधा खड़ा हो । मंदिर मे पूजा करने आया है, कि कठपुतली का कार्यक्रम देखने ।“
“अबे , तुझे भगवान और कठपुतली मे अंतर नही दिखता ?” एक साथी ने पूछा ।
वे बहुत क्षुब्ध थे “क्यों ऐसा होता है ?” वे बुदबुदाये “कभी-कभी हमारी श्रद्धा के अधिकारी कठपुतली साबित होते हैं ।“
(9)
वह एक क्षुद्र जलधारा
वह एक क्षुद्र जलधारा ही तो थी, जिसका अस्तित्व आगे जाकर एक पहाड़ी नदी मे विलुप्त हो जाता । लेकिन नदी तक पहुंचने का रास्ता इतना आसान न था । वैसे भी रास्ते तो हमेशा मुश्किलो भरे ही हुआ करते है; असान तो मंज़िलें हुआ करती है । तो पहाड़ी नदी तक पहुचने का रास्ता बड़ा मुश्किलो से भरा था । रास्ते मे एक जगह वह एक झरने की शक्ल मे ऊपर से नीचे को गिरती थी; और इसी जगह उसे सामना करना पड़ता था उस चट्टान का जो उसका रास्ता रोके खड़ी थी ।
अपनी राह चलती वह क्षुद्र जलधारा उस चट्टान पर गिरती और रेज़ा-रेज़ा होकर बिखर जाती । वह चट्टान अपनी दृढ़ता पर गर्व करती । उस क्षुद्र जलधारा का उपहास करती । उस जलधारा का यूं बिखर जाना उस चट्टान को अभिमान से भर देता । उसके आस-पास की चट्टाने भी उस जलधारा का उपहास करती और उसे अपनी क्षुद्रता का अहसास कराती । यहां तक कि हवा भी उसका उपहास करती और उसके बिखरे कणों को दूर-दूर तक उड़ाकर बिखेर देती । दिन के समय सूरज की किरणे उन बिखरते कणो से अठखेलियां करते हुये अपनी सतरंगी आभा बिखेरती । सूरज की किरणो की इन मनमोहक अठखेलियो का सभी आनंद उठाते और उन किरणो की प्रशंशा करते ।
इस तरह दिन, महीने और बरस बीतते रहे । इस बीच वह जलधारा कई बार सूखी और चट्टानो ने उसकी बेबसी का मज़ाक उड़ाया । जब-जब पहाड़ों पर बरसात हुई वह फ़िर अपनी राह चलती रही, बिना किसी से कुछ कहे, बिना किसी की कुछ सुने । अपने मे मगन, कल-कल के स्वर मे गुनगुनाती चलती रही ।
इस तरह दसियों बरस बीत गये …
एक दिन टहाका लगाकर हसते हुये उस चट्टान ने अपने अंदर कम्पन महसूस किया । एक झनझनाहट सी उसके अस्तित्व मे दौड़ गई । उसका अट्टाहास रुक गया । उपहास उड़ाना बंद हो गया । उस दृढ़ चट्टान का चट्टान जैसा धैर्य जवाब दे गया । जब धैर्य ही न रहा तो विश्वास कैसे कायम रह सकता है । और जब विश्वास ही न रहा तो आत्मविश्वास कैसे बचता । उसका आत्मविश्वास चूर-चूर हो गया । उसका सारा अस्तित्व दरक गया । उस चट्टान ने घबरा कर मदद के लिये गुहार लगाई लेकिन वहां कोई न था जो उसके लिये कुछ कर पाता । सच है उगते सूरज को ही सलाम किया जाता है; दूबते सूरज को नही । आखिरकार वह चट्टान रेज़ा-रेज़ा होकर बिखर गई । रेत बनकर उस जलधारा के साथ बह गई और नदी मे पहुंचकर अपने अस्तित्व को ही गंवा दी । हर कोई स्तब्ध था । अब कौन किसका उपहास उड़ायेगा ?
क्षुद्र जलधारा जीत चुकी थी । अंतिम विजय उसी की हुई थी । लेकिन वह जलधारा अपने रास्ते चलती रही, कल-कल के गीत गुनगुनाते… बिना किसी गर्वोक्ति के… । सदियों की तरह, अपने चट्टान जैसे दृढ़ विश्वास और धैर्य के साथ …
(10)
लघुकथा
समस्या
“यह बच्चा किसका बच्चा है ?”
“लगता तो इन्सान का है ।“
“वो तो ठीक है , पर है किसका ?”
“किसके जिगर का टुकड़ा है यह , किसके घर का वारिस है ?”
“किसने इसे यूं छोड़ गया ?”
“कोई लेने आता क्यों नहीं , अपना हक़ जतलाता क्यों नहीं ?”
“लगता है नजायज़ है ।“
“हो सकता है, जायज़ हो ।“
“किस धर्म का है ? किस जात का है ?”
“क्या पता किस समाज का है ?”
“क्या अल्लाह का बंदा है , या राम का भक्त है ?”
“शिव का उपासक है , या कृष्न का पुजारी है ।“
“सिक्ख है , इसाई है , यहूदी है या पारसी ?”
“पता नहीं , विदेशी है या भारतीय ।“
“कोई घुसपैठिया या शरणार्थी तो नहीं ?”
“इसे आरक्षण लाभ मिलेगा या नहीं ?”
“किस श्रेणी मे आयेगा , एस सी , एस टी या ओ बी सी ?”
“बाप रे ! कितने सवाल है ? यह समस्या विकराल है ?”
“यह बच्चा तो राष्ट्रीय समस्या बन गया है ।“
“इसे तुरंत सुलझाना होगा, संसद का विशेष सत्र बुलवाना होगा ।“
“संसद मे प्रस्ताव पास करवाया जाये ।“
“इस समस्या को सुलझाया जाये ।“
“इसका डी एन ऐ टेस्ट करवाया जाये … …”
(11)
लघुकथा
जवाब
धाँय! धाँय!! धाँय!!!
जब बंदूकें बोल रही हों तब चुप रहने मे ही भलाई है । सभी बंदी यह समझते थे, लेकिन वह अकेला बोले जारहा था ।
“… न ये जिहाद है, न जंग है … ये मज़्लूम लोग तुम्हारे मुकाबिल आने वाले सिपाही नही है । इन्हे बंदी बनाने का तुम्हे कोई हक़ नही । अच्छी तरह जान लो कुरआन इसकी इजाज़त नही देता ।“
“तू मुसलमान है ?”
“हाँ ।“
“तो कुरआन की एक सूरह सुना; तुझे जाने देंगे ।“
“क्या तुम मुस्लिम हो ?”
“तुझे जितना कहा जाये उतना कर …”
“तो सूरह-ए-काफ़िरून सुनो_ … कुल या अय्योहल काफ़िरून । ल आबुदो मा ताबुदूना, व ला अन्तुम आबेदूना मआबूद । व ला अना आबेदतुम मआबत्तुम व ला अन्तुम आबेदूना मआबूद । लकुम दीनकुम वलीअ दीन । … और तुमने कुरआन पढ़ा है तो इसका मतलब समझाओ …”
“चल ठीक है… तू आज़ाद है… घर जा ।“
“क्यों ? इस सूरह से तुम्हे डर लगता है ? …”
“ज़्यादह ज़बान न चला । घर जा …”
“तो ठीक है… इसका अनुवाद भी सुन लो_ कहो कि अय विरोधियों । मै तुम्हारे आराध्य की उपासना नही करता और न तुम मेरे आराध्य की उपासना करते हो । न मै तुम्हारे आराध्य की उपासना करूंगा और न तुम मेरे आराध्य की उपासना करोगे । तो तुम अपनी आस्था के साथ रहो और मै अपनी आस्था के साथ ।“
इसके बाद दो आवाज़ें उठती हैं…
धाँय!…
“हर ज़बानदराज़ी का जवाब, बंदूक की गोली है …” दूसरी आवाज़ ।
सन्नाटा… !
(12)
टॉमी की दुम
“यहीं आजा …” मित्र ने फ़ोन पर कहा “फ़ार्महाऊस पे हूं । यहां का हिसाब किताब निपटा रहा हूं । यहीं बैठकर बात कर लेंगे ।“
“ठीक है …” मैने कहा और उसके फ़ार्महाऊस पर पहुंच गया ।
मित्र सामने बरामदे मे ही बैठे हिसाब किताब मे मग्न थे । सामने एक विदेशी नस्ल का शानदार कुत्ता बैठा था, जो मुझे देखते ही खड़ा हो गया । मैने देखा, उसकी दुम नदारत थी । मै समझ गया ; इसके दुम दबाने या दुम हिलाने का कोई विकल्प ही नहीं है । तसल्ली इतनी सी थी कि, वह मित्र के सामने वाले टेबल से लोहे की सांकल से बंधा था । मित्र मेरी दुविधा को समझ गया । बोला “अरे ! चले आओ, चले आओ… कुछ नहीं करेगा ।“
मै डरते डरते बाज़ू वाली खाली कुर्सी पर बैठ गया । ‘कहाँ फ़स गया…’ मैं मन ही मन सोंच रहा था । मित्र बड़े गर्व के साथ अपने कुत्ते की गर्दन और पीठ पर हाथ फ़ेर रहा था ।
“क्या नाम है… ?” मैने उसके गर्व को भांपते हुये कुत्ते के विषय से ही चर्चा शुरू की ।
“टॉमी ।“ उसने बताया ।
“बड़ा शानदार है ।“ मैने बात आगे बढ़ाने की कोशिश की ।
“फ़ॉरेन की ब्रीड है ।“ उसने बात ज़ारी रखते हुये कहा “इम्पोर्ट किया है ।“
“अच्छा ! फ़िर तो बड़ा महंगा होगा ।“ मैने पूछा ।
“हां ! रखने मे भी बड़ा खर्च आता है ।“ गर्व से बताया ।
“अच्छा ! कितना खर्च आ जाता होगा ?” मैने यूं जताया जैसे मै भी एक रखना चाहता हूं ।
वह मुस्कुरा दिया । बड़ा व्यंग था उस तिरछी मुस्कान मे ।
“यही कोई पच्चीस से तीस हज़ार…” प्रश्नवाचक नज़रों को मेरे चेहरे पे गड़ाते हुये उसने जवाब दिया । जवाब क्या वह तो सवाल ही था । पर मैं भी कहां हार मानने वाला था । मैने भी प्रश्न कर दिया “क्या खाता है ?”
“एक देड़ किलो तो मटन ही खा जाता है । फ़िर डॉग फ़ूड वगैरह …“
“और क्या क्या खर्चे हैं जनाब के ?”
“अरे मत पूछ यार ! रोज़ नहलाने के लिये सबुन शैम्पू वगैरह ।“
“इतना सब कौन करता है यार ?”
“एक लड़का रखा हूं न, रोज़ नहलाना धुलाना, घुमाने लेजाना, पोटि कराना, पोटि फ़ेंकना सब वही करता है ।“
“कितना लेता है ?”
“पूछ मत यार, इतने से काम के पांच हज़ार लेता है, स्साला । क्या करें भाव बढ़े हुये हैं इनके…, अरे ! अच्छा याद दिलाया …” कहते हुये उसने नौकर को आवाज़ लगाई- “रघू … ।“
एक लड़का भागता भागता अया और बड़े अदब से सिर झुकाय खड़ा होगया । उसके होठों से बस इतना ही फ़ूटा “जी मालिक ?”
उसकी मुखमुद्रा देख मैं सोंचने लगा, अगर इसकी दुम होती तो ज़रूर अभी वह दुम हिला रहा होता ।
“तेरा इस महिने का हिसाब रखा है, उठा ले ।“सामने टेबल पर पड़े पैसों की तरफ़ इशारा करते हुये मेरे मित्र ने कहा “और सुन ! इस महिने तूने दो दिन छुट्टी मारा है, एक ही दिन का पैसा काटा हूं । अगली बार छुट्टी मारा तो पूरा काट लूंगा ।“
उसने झट पैसे उठा लिये और अगली आज्ञा का इन्तेज़ार करने लगा । उसकी देह्मुद्रा बता रही थी कि यदि वह कुत्ता होता तो पक्का मेरे मित्र के पैर चाट रहा होता । मुझ लगा फ़ैज़ साहब ने शायद इसी के लिये लिखा होगा- ‘ये मज़लूम मखलूक गर सर उठाये तो इन्सान सब सरकशी भूल जाये’ लेकिन अफ़सोस ! वह बेचारा फ़ैज़ साहब से बिल्कुल नावाकिफ़ था ।
“अच्छा सुन …” मित्र ने अगला आदेश जारी किया “टॉमी को लेजा । हां ! और देख फ़्रिज मे से दो बोतलें निकाल ला, और गिलास और कुछ खाने का सामान भेज दे ।“
“जी…” कहकर उसने टॉमी को खोला और साथ लिये चल दिया । मै उसे जाता हुआ देख रहा था टॉमी और रघू साथ साथ जारहे थे, लेकिन दोनो की चाल मे काफ़ी असमानता थी । टॉमी की चाल मे राजसी ठाठ साफ़ नज़र आता था, नौकर रघु की चाल एक दबे सहमे गुलाम की चाल थी नज़रें ज़मीन पर, झुके हुये कंधे और गर्दन अदब से झुकी हुई ।
मुझे लगा टॉमी की दुम, रघू को लग गई है ।
“यार ! टॉमी तो इस रघु का नाम होना चहिये था ?” मैने कहा ।
“तुम मेरे टॉमी की इन्सल्ट कर रहे हो…” मित्र ने आंखें तरेरते हुये कहा ।
(13)
माइक्रो-लघुकथा
जनतन्त्र की घास
कृष्न चंदर साहब का गधा फ़िर एक बार दिल्ली मे नज़र आया । इस मर्तबा वह एक मंत्री के बंगले के सामने खड़ा, बंगले के अंदर उगी खूबसूरत, हरी-हरी, पौष्टिक घास की लहलहाती फ़सल को बड़ी हसरत से तकता हुआ पाया गया । बंगले के गार्ड ने उसे समझाया- “देख भाई, ये तो जनतंत्र की घास है । यह गधो के लिये नही होती । तू तो सड़क के किनारे की हरी-हरी घास चर । यह घास तो बड़े-बड़े कार्पोरेट घरानो के लिये है; जिनके पैसे से मंत्री जी चुनाव जीतते हैं ।“
“भाई, मै तो सोचता था कि जनता के वोट से चुनाव जीतते हैं ।“
“तू गधा है इसलिये ऐसा सोचता है । और भी यह कि तू पढ़ा लिखा विद्वान गधा है । तू तो बस सड़क किनारे की घास चर, अंदर मत झांक । इसी मे तेरी भलाई है ।“
(14)
लघुकथा
नशा
अखिल अपनी गर्लफ़्रैन्ड के साथ क्लब पहुंचा । डांस फ़्लोर पर पहुंचते ही अपने हम उम्र एक नौजवान से टक्कर खा गया ।
“अंधा है क्या ?” अखिल भड़क उठा ।
वह नौजवान नशे मे था । भड़क गया ।
“तू अंधा है क्या ?” वह बोला ।
अखिल ने कभी सोंचा भी न था, कोई उससे इस तरह बात कर सकता है । आखिर शिक्षा मंत्री का पुत्र होना कोई मामूली बात तो न थी । उसे इसकी आदत ही न थी । वह अपनी मित्र मंडली का हीरो था । हमेशा दोस्तों यारों से घिरा रहता । इस प्रकार का व्यव्हार उसके लिये असहनीय था । वह भी गर्लफ़्रैंड के सामने ? बात बढ़ते-बढ़ते बढ़ गयी ।
“तू मुझे जानता नही । मै शिक्षा मंत्री का बेटा हूं ।“ अखिल चिल्लाया “तू बहुत पछतायेगा ।“
“अखिल, चलो यहां से ।“ लड़की बोली “तुम होश मे नही हो ।“
“ऑफ़कोर्स होश मे हूं बेबी ! मैने ड्रिंक नही की है । इसे सबक सिखाना पड़ेगा कि मिनिस्टर के बेटे से किस तरह बात की जाती है ।“
“तुम बहुत नशे मे हो अखिल … ।“ कहकर लड़की बाहर निकल गयी ।
अखिल पीछे भागा “आई स्वेल बेबी, मैने एक बूंद भी नही ली है ।“
“तुम्हे सत्ता का नशा है, अखिल । वो भी अपने पिता की मिनिस्ट्री का ।“
“इसमे मेरा क्या दोष ? मंत्री का बेटा होना कोई बुरा नही …”
“असली मर्द अपने बाप दादा के नाम का सहारा नही लेते । उनका नाम रौशन करते हैं ।“ वह बोली “मैने अखिल से प्यार किया था किसी मंत्रीपुत्र से नही … जब नशा उतर जाये, जब मेरी बात समझ मे आये, तभी मुझसे बात करना … गुडबाय …”
आप क्या सोंचते हैं, आगे क्या हुआ होगा ?
इतिहास गवाह है, सत्ता का नशा, रिश्ते-नाते, प्यार-मुहब्बत सब पर भारी होता है ।
“आ गयी न अपनी अवकात पर, आक् थू !”
प्यार का नशा उतर गया । सत्ता का नशा जीत गया …
(15)
लघुकथा
दोस्त-दुश्मन
जले हुये मकान और बिखरी हुई लाशों से भरी गली मे, छुप-छुप कर दबे पांव बढ़ता हुआ एक आदमज़ाद… । छुप कर ताक मे बैठे दो
चेहरों की नज़र मे आ जाता है । वे जल्दी से अपनी बन्दूकें तान लेते हैं ।
“क्या कहता है, खोपड़ी खोल दूं ?” एक पूछता है ।
“अबे, पहले देख तो ले दोस्त है, या दुश्मन ।“ दूसरे ने कहा ।
“क्या फ़र्क पड़ता है, दोस्त हो या दुश्मन, क़त्ल तो इन्सानियत का ही होना है ।“
“परिणाम की सोच्… ।“
“परिणाम है नफ़रत, इधर बढ़े या उधर बढ़ना तो नफ़रत को ही है । गोली चला… ।“
धांय्… ! एक गोली … और वह ज़मीन पर गिर पड़ा । सिर से लाल खून का फ़व्वारा फ़ूटा और ज़मीन पर बह निकला । दोनो ने नफ़रत
से मुंह दूसरी तरफ़ फ़ेर लिया ।