नन्हा बंटी
नन्हा बंटी खुश था ।
वह खुश था; क्योंकि वह उत्साहित था । और वह उत्साहित था; क्योंकि घर मे सभी उत्साहित लग रहे थे । क्यों उत्साहित थे, उसे पता नही । वह तो बेचारा अभी बहुत छोटा था । अभी तो वह तीन साल का ही था । उसे तो अभी सुख दुख की भी समझ न आई थी । अभी तो उसकी भावनायें और प्रतिक्रियायें, सिर्फ भावनाओं के संक्रमण का परिणाम ही हुआ करतीं । हाँ! वह इतना ज़रूर समझ सकता है, कि इस उत्साह का केंद्र बिंदु वह स्वयं है । और यह अहसास नन्हे बंटी को गर्व की भावना से भर देने के लिये काफी था ।
वह खुश था; क्योंकि उसकी भावनाओं और ज़रूरतों को समझने और झट पट पूरा कर देने वाली उसकी ममा खुश थी । वह खुश था; क्योंकि, इस दुनिया मे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति, जिसका सानिध्य मात्र उसकी हर प्रकार की सुरक्षा, निर्भयता और निश्चिंतता की गारंटी होती है, उसके पापा खुश थे । और वह खुश था; क्योंकि उसे सबसे ज्यादा प्यार, सानिध्य और लाड़ दुलार देने वाली उसकी दादीमां खुश थी ।
बाज़ार से उसके लिये नये कपड़े, जूते और भी जाने क्या-क्या आकर्षक सामान लाये जा रहे थे; जो उसे बड़े उत्साह से दिखाये जा रहे थे । इनमे से कई चीजों को तो वह जानता भी नहीं, लेकिन जिस उत्साह से दिखाये जा रहे थे वही उसकी खुशी कारण थे ।
इन सारी बातों और क्रिया कलाप के बीच कुछ नये शब्द भी सुनाई पड़ने लगे, जैसे- स्कूल, प्ले स्कूल, किंडन गार्डन, टीचर और मै’म वगैरह । हालांकि इन शबदों से वह परीचित नही था, फिर भी इनके उच्चारण मे जो उत्साह होता वह उसकी जिज्ञासा और आकर्षण को चरम सीमा तक पहुंचाने के लिये काफी थे ।
जब ममा उसे नये कपड़े पहनाकर देखती और बड़े प्यार से पूछती "मेरा बंटी स्कूल जायेगा न? " तब उसका मन यह कहने को मचलता- 'वाह! क्यों नही जाऊंगा? जिस जगह का नाम इतनी खुशी देता है, वह जगह कितनी खुशियों और उमंगो से भरी होगी । लेकिन वह बेचारा इतना छोटा था कि, उसके पास अभी इतनी जटिल भावनाओं को व्यक्त करने के लिये पर्याप्त शब्दभंडार ही नही था । अत: वह सिर्फ प्रसन्नता पूर्वक अपना सिर हिलाते हुये 'हां' कहता और ममा खुश होकर उसे सीने से लगा लेती ।
दादीमां पूछती- "मेरा बंटी स्कूल जायेगा न? "
वह कहना चाहता -"यह भी कोई पूछने की बात है, दादीमां “ लेकिन वह सिर्फ "हां" ही कह पाता । फ़िर दादीमां पूछती- "वहां रोयेगा तो नही ?" और जवाब मे वह कहना चाहता- “वाह दादीमां आप ऐसा क्यों पूछती हो, क्या मै पागल हूं जो इतनी अच्छी जगह जाकर रोऊंगा ?” लेकिन वही शब्दभंडार की कमी के कारण वह सिर्फ "नही" ही कह पाता, और इतना कहना भी दादीमां को परम आनंद से भर देता । तब दादीमां कहती "बेटा खूब पढ़ना और अपने पापा जैसा बड़ा आदमी बनना ।"
'वाह दादीमां क्या बात कह दी. क्या मै पापा जैसा बन सकता हूं' वह सोंचता 'यह तो बस सपने के सच होने जैसी बात है' पर वह इतना ही पूछ पाता "मै पापा जैसा बनूंगा? "
"हां, क्यों नही. " दादीमां कहती "ज़रूर बनोगे, लेकिन इसके लिये खूब पढ़ना पड़ेगा । "
वह दादीमां की पूरी बात तो समझ नही पाता, पर यह जानकर रोमांचित हो जाता कि वह पापा जैसा बन सकता है ।
पापा ने पूछा "तो, हमारा बहादुर बेटा बंटी स्कूल जायेगा न? "
उसने हां मे सर हिलाया । पापा ने खुश होकर उसे ऊपर उठा लिया और बोले "देखो अब हमारा बेटा बंटी बड़ा हो रहा है । "
उसने खुश होकर अपने हाथ पैरों को देखा अरे ये तो बड़े नही हुये । लेकिन वह यह बात पापा को नही बताना चाहता; डरता है कि, पापा की खुशी को ग्रहण न लग जाये ।
"मै पापा जैसा बनूंगा?" उसने पूछा.
"हां, क्यों नही. तुम तो मुझसे बेहतर बनोगे ।"
"इत्ता बड़ा? "
"इससे भी बड़ा...."
और भी बहुत कुछ था । कुछ , जो कुछ नन्हे बंटी की समझ मे आता भी और नही भी आता ।
फिर उस दिन ममा ने नन्हे बंटी को सुबह जल्दी जगाया "उठो-उठो बेटा, आज से स्कूल जाना है न? " सुनते ही बंटी उठ बैठा । घर मे सभी जाग गये थे । नन्हा बंटी इस समय सबकी चेष्टाओं का केंद्र बिंदु था । और यह उसके लिये कम गर्व की बात न थी ।
ममा ने उसे जल्दी से तैयार कर दिया. फिर उसे नाश्ता कराया, दूध पिलाया और उसकी पीठ पर नया-नया बैग लाद दिया, गले मे पानी की बॉटल लटका दी और बताया कि जब भी प्यास लगे इसी से पानी पीना । तब तक पापा जल्दी करो, जल्दी करो का शोर मचाते रहे । फिर उसे लेकर कार मे बैठ गये । ममा और दादीमां भी कार तक आईं । वे दोनो उसे लगातार हिदायतें देती जा रही थी, जिनमे से कुछ उसका नन्हा मस्तिष्क ग्रहण करता और कुछ नज़र अंदाज़ करता जा रहा था । यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक पापा ने कार बढ़ा नही दी । जब कार चलने लगी तो दोनो उसे हाथ हिला हिला कर टाटा बाय करने लगीं, और तब तक करती रहीं जब तक वह नज़रों से दूर नही हो गये ।
तो यह है स्कूल । सामने एक बड़ी सी इमारत थी । पापा बंटी का हाथ पकड़ कर उस इमारत मे दाखिल हो गये । वहां उन्होने एक आंटी से कुछ कहा औऱ नन्हे बंटी का हाथ उस आंटी के हाथ मे पकड़ा दिया । वह आंटी उसे अंदर ले चली । नन्हा बंटी चुप चाप साथ चलता रहा । कुछ दूर चलने के बाद वह पापा को देखने पीछे मुड़ा । यह देख उसका कलेजा धक से रह गया, कि पीछे पापा तो थे ही नही । अचानक वह अपने आप को बिल्कुल अकेला महसूस करने लगा । अब क्या होगा? न यहां ममा है न पापा । अब मै क्या करूंगा । अब अपने घर कैसे जाऊंगा? क्या अब मै हमेशा यहीं रहूंगा? अचानक उसे ममा,पापा और दादीमां की याद आने लगी । क्या अब मै उन्हे कभी नहीं देख पाऊंगा? सहसा उसकी आंखे भर आई ।
सामने एक ग्राउंड था, जहां झूले और फिसलपट्टी के अलावा भी बच्चों के खेलने के कई सामान और खिलौने रखे थे । उस मैदान को पार करके वह आंटी उसे एक कमरे के सामने ले गइ जिसमे कई डेस्क चार कतारों मे जमे हुये थे, जिन पर उसी के जैसे छोटे-छोटे बच्चे पहले से बैठे हुये थे । इतने सारे उसी के बराबर के बच्चे एक साथ उसने कभी नही देखे थे । उनके सामने एक टेबल के पीछे रखी एक कुर्सी पर एक आंटी बैठी बच्चों से कुछ कह रही थी । इस आंटी ने अंदर वाली आंटी को मै’म करके आवाज़ दी । अच्छा तो यह है मै’म । उसने मन मे सोंचा । उस आंटी ने मै’म से कुछ कहा औऱ नन्हे बंटी को वहां छोड़ कर कही चली गई ।
मै’म ने उसे अपने पास बुलाकर पूछा- "वहाट इज़ योग नेम? "
"बंटी ।" सहमे हुये बंटी ने कहा ।
"बंटी? बंटी इज़ नॉट योर नेम, इट इज़ योर पेट नेम । इज़ इट क्लीयर? "
बंटी समझ नही पा रहा था कि क्या जवाब दे । नन्हा बंटी यह भी नहीं समझ पा रहा था कि आंटी है या मै’म, जो भी हो, इतनी गुस्से मे क्यों है ? उसने क्या गलती की है? ओह! हां, ममा ने सिखाया था 'माय में इज़ राहुल …'
"माय नेम इज़ राहुल ।"
"राहुल व्हाट? व्हाट राहुल... पूरा नाम बोलो ।"
"राहुल... स् ... स्... स.. क.. से... ना ।"
"ओ के, सिट ।"
वह आहत् था । आज तक उससे किसी ने इस सुर मे बात नही की थी । वह तो घर और अड़ोस पड़ोस मे हर किसी का चहेता था । आज तक हर किसी ने उससे प्यार से ही बात की । कभी ममा या पापा नाराज भी होते, लेकिन ऐसा रूखा अपमान जनक व्यवहार करने वाले लोग भी होते होंगे, यह तो उसकी कल्पना से भी परे था । उसे अपनी ममा की याद आगई । वह कितनी सुंदर है? वह कितनी प्यार से बात करती है । क्या मै’म को वैसे बात करना भी नही आता, छी: बैड आंटी ।
"नाऊ गो …" अचानक वह चीख उठी "मेरे सिर पे मत खड़े रहो …"
वह चुपचाप बाहर जाने लगा ।
"बाहर नही... सीट पे जाओ... हे भगवान! क्या मुसीबत है... "
एक बच्चे के साथ वाली जगह खाली देख, वहां बैठने लगा । उस बच्चे ने धक्का देकर भगा दिया । उसने निगाहों मे सवाल लिये मै’म की तरफ देखा, वह रजिस्टर खोले अपने काम मे व्यस्त थी । वह चुप चाप पीछे जाकर बैठ गया । तभी मै’म ने सिर उठा कर देखा ।
"तुम वहां पीछे जाकर क्यों बैठ गये? आगे तो जगह खाली है । चलो आगे आकर बैठो । वह फिर उसी जगह आकर बैठ गया । इस बार उस बच्चे ने कुछ नहीं किया और चुप चाप उसे वहां बैठने दिया ।
कुछ देर बाद उसे प्यास लगी, उसने अपनी वाटर बॉटल निकाली और पानी पीने लगा । मैम ने जैसे ही देखा बोली "क्लास मे पानी पीने से पहले पर्मिशन ली थी? इसे अपना घर समझ लिया है? मम्मी ने मैनर्स नहीं सिखाये ।"
वह रुआंसा हो गया । उसकी ममा कितनी अच्छी है । ये लोग कितने गंदे हैं । मुझे यहां नहीं रहना । मुझे अपनी प्यारी ममा के पास जाना है । वह उठ खड़ा हुआ लेकिन तुरंत वापस बैठ गया क्यों कि मैम ने फिर घुड़की दी-
"बैठ जाओ, कहां जा रहे हर हो? "
लगातार डांट उलाहनो और झिड़कियों ने बंटी के आत्म्विश्वास की धज्जियां उड़ाकर रख दीं । कुछ ही घन्टों ने उसे हीन-भावना से भर दिया । वह अपने आप को और अपने परिवार यहां तक कि अपने संस्कारों को भी औरों की तुलना मे निकृष्ट समझने लगा । क्लास के सभी बच्चों मे भी उसके प्रति ऐसे ही भाव जागृत हो गये थे ।
टिफिन टाईम मे एक बच्चे से झगड़ा हो गया; क्योंकि वह टिफिन छीन रहा था । प्ले टाईम मे एक लड़के ने उसे टंगड़ी मार दी और मैम ने इसे अनदेखा कर दिया; क्योंकि वह उससे ऊब चुकी थी । नन्हे बंटी ने भी उसे टंगड़ी मार दी जिससे वह लड़का गिर गया और रोने लगा जिससे मै’म डर गई । वह बेसाख्ता बंटी पर बरस पड़ी- “यह क्या कर दिया ? तुम्हे घर मे यही सब सिखाया गया है क्या ? हे ईश्वर ! इसका क्या करूं ?”
इस दोहरे व्यव्हार से बंटी का मन मै’म के प्रति घ्रिणा से भर गया ।
बंटी को लगने लगा, प्रताड़ना का यह दौर अनवरत चलता रहेगा; लगातार … … । तभी जैसे एक चमत्कार की तरह, सायरन की एक लम्बी पुकार ने सरा परिदृष्य ही बदलने लगा । चारों तरफ़ बने हुये बेरौनक और निर्जीव कमरों ने यकायक कितने बच्चों और शिक्षकों को अपने दरवाज़ों से बाहर उगलना चालू कर दिया । बच्चे दरवाज़ों से निकलकर किलकारिया मारते, हर्ष ध्वनियां करते, हिरनो की तरह कुलांचे भरते, तेज़ी से पूरे ग्राऊंड पर छा गये और उतनी ही तेज़ी से बाहर निकल गये । एक हलचल सी मच गई । हर्ष और उत्साह की एक लहर सी चल पड़ी । इस लहर ने नन्हे बन्टी के सारे कड़वे अनुभवों को क्षण भर मे मिटा दिया उसका मुरझाया चेहरा भी हर्ष के उन्माद से दमक उठा । वह समझ नही पारहा था, यह सुखद परिवर्तन कैसा ? यह हुआ क्या है । स्कूल खत्म हुआ था । छुट्टी हो चुकी थी ।
बंटी की क्लास के सारे बच्चों को सावधानी के साथ इकट्ठा करके बरामदे मे लाया गया । अधिकतर बच्चों को यहां से अलग-अलग स्कूल-बसों मे बैठा दिया गया । बंटी और कुछ और बच्चे उनके पैरेंट्स के इन्तेज़ार मे रोक कर रखे गये थे । एक मै’म ने आवाज़ दी “नीरज तुम्हारे पापा … …”
पापा शब्द सुनते ही बंटी लपका लेकिन मै’म ने उसे कन्धे से पकड़ लिया “तुम नीरज हो क्या …? नीरज के पापा अये हैं ।“
नीरज तुरंत अपने पापा की तरफ़ भागा । बंटी निराशा के उद्वेग से रुआंसा हो गया । करीब ही था कि उसकी आंख से आंसू निकल पड़ते, कि उसकी नज़र बहर गेट से अंदर आते अपने पापा पर पड़ी । उसकी सूनी आंखों मे चमक आगई । सुस्त पड़ चुके शरीर मे जैसे बिजली सी दौड़ गई । वह बेतहाशा पापा की ओर दौड़ पड़ा । इससे पहले कि कोई उसे रोकता या कुछ समझ पाता, वह अपने पापा की टांगों से लिपटा हुआ था । पापा तुरंत नीचे झुक कर उकड़ू बैठ गये और बंटी को सीने से लगा लिया । नन्हे बंटी ने अपनी दोनो बाहें कसकर पापा के गले के इर्द गिर्द लपेट दी ।
“पापा का बेटा कैसा है ?” पापा ने पूछा । जवाब मे नन्हे बंटी ने अपनी बाहों की जकड़ और मज़्बूत कर दी और सिर को पापा के कन्धे मे धसा सा दिया । यही वह क्षण था जब नन्हे बंटी की डूबती आशाओं को फ़िर से नव-जीवन मिल गया था । वह उस एक क्षण का वर्णन नहीं कर सकता, लेकिन महसूस तो कर सकता था । उसकी सारी दुश्चिन्तायें मिट गईं और अब बस राहत ही राहत थी ।
पापा ने उसे अपनी जेब से चॉकलेट निकाल कर दी, लेकिन लेकिन उसे चॉकलेट के लिये अपने पापा के गले से लिपटी अपनी बाहें हटाना स्वीकार नही था … …।
घर पहुचने पर ममा और दादीमां ने बंटी को घेर लिया । दोनो उसे बारी बारी से प्यार करते और स्कूल के बारे मे सवाल पूछते जाते । बंटी अपने परिवार और लाड़ दुलार के बीच आकर भाव विभोर सा था । कहना तो वह बहुत कुछ चाहता था लेकिन वह देखी हुई चीज़ों का वर्णन ही कर सकता था, अपनी अनुभूतियों का वर्णन कैसे करता । वह अपनी बात को इन्ही शब्दों मे कह पाया “मै’म बैड है , ममा अच्छी …” सुन कर ममा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । बेटे ने पहली बार किसी से तुलना करके उसे श्रेष्ठ बताया था । वह अपने आपको गौरवान्वित महसूस कर रही थी ।
आज सुबह फ़िर ममा ने जल्दी जगा दिया- “चलो बेटा जल्दी करो … आज से तो स्कूल-बस तुम्हे लेने आयेगी … चलो, जल्दी करो, नहीं तो बस छूट जायेगी … मेरे राजा बेटे को स्कूल जाना है न …?”
‘स्कूल’ शब्द सुनते ही कल का सारा दृश्य बंटी की आंखों के सामने से गुज़र गया । उसके रोंगटे खड़े होगये । नहीं, वह फ़िर से अपमान और प्रताड़ना के उन अनुभवों को नही जीना चाहता । कभी नही! साथ ही अपने परिवार के वह चेहरे भी उसके मस्तिष्क मे उभरते है, जिनमे गर्व और प्रसन्नता के मिले जुले भाव है । वह गर्व और प्रसन्नता जो उसके स्कूल जाने को लेकर है । ममा, पापा और दादीमा के चेहरों के वे भाव जिनको वह विस्तार से न समझ सकता है न समझा सकता है; लेकिन महसूस कर सकता है । और यही उसकी आंतरिक उर्जा का स्त्रोत हैं । वह इसे खो नहीं सकता । वह इन्कार नही कर सकता । इन्कार नहीं करना चहता । इन्कार नहीं करता ।
नन्हा बंटी कुछ नहीं कहता, लेकिन उसकी बड़ी-बड़ी आंखे डबडबा जाती है । वह नहीं चाहता, लेकिन आंसू की दो बूंदे, जबरन उसकी आंखों से लुढ़क कर गालों पर बह आती हैं ।
_ मिर्ज़ा हफ़ीज़