आइना सच नहीं बोलता - १९
नंदिनी की चुप को सौ बरस हो गये हैं. ये वो चुप है जो कुछ घंटों में सौ बरस लाँघ लेती है. ये लंबाई में नहीं गहराई में नापी जाती है.
दीपक की माँ अमिता कमरे के दरवाज़े तक आ कर लौट-लौट जाती हैं. लज्जित हैं, भीतर नहीं आ पाती अपनी पुत्रवधू तक. नन्हा दिवित उसके पास सोया ही सोया था, नंदिनी को इसका भी होश नहीं. 'इससे तो थोड़ा रो लेती, ताने उलाहने देती.. सवाल पूछती.. पर ये चुप बड़ी भारी है.. ये चुप उस पत्थर की तरह है जिसे अमिता अपने गले में बँधा महसूस कर रही हैं. जिसके भार से वो लज्जा और ग्लानि के गहरे सागर में डूबती जा रही हैं.
'नंदिनी! उठ बेटा. बालक को संभाल. दूध का वक़्त हो गया बेटा. उठ..' यन्त्र्चलित सी नंदिनी उठ कर बैठ गयी और बच्चे को गोद में ले लिया. चुपचाप बात मानने की आदत बहुत पुरानी है. उसकी आँखों की ओर देखने से कतराती रहीं अमिता.
'मैं तेरे लिए अभी पंजीरी-दूध ले कर आई,' कहकर वह उस कमरे से ऐसे निकल गयीं जैसे कोई अपने आप से भाग रहा हो. खुद से बड़बड़ाती डब्बे टटोलती रहीं, समय के बीत जाने की ओट में राहत तलाशती रहीं. 'हाय रे दीपक! ये तूने क्या कर डाला. कैसे कहूँ इस बच्ची से कि तू हमारी सारी आशा पर पानी फेर गया इस बार. कैसे समझा सकूँगी उसे कि ये जो चला गया है हमारी तुम्हारी ओर पीठ करके ये अब नहीं लौटेगा. कभी नहीं.' टूट गयी हैं अमिता पर अभी अपने बारे में सोचना भी मयस्सर नहीं उन्हें।
ये कोई नयी बात नहीं. बाप-बेटे के बीच कितनी बार पुल बनी हैं वो. कितनी बार बड़े बड़े तूफ़ानों को उन्होंने कड़वे घूँट निगल कर पार किया है. दोनों ओर के तानों, निराशा के झकोरों को चुपचाप बर्दाश्त किया है. दो पुरुषों के अहम को चुप झेला है उन्होंने।
अचानक वो नंदिनी याद आ गयी उन्हें जो वधु रूप में उनके दहलीज़ पर खड़ी थी. जितनी सलोनी उतनी ही सहमी, बड़ी उम्मीद से उनकी ओर देखती हुई. फिर उसने कैसे वो भरी-भरी आँखें झुका ली थीं. अमिता का मन भर आया था. आज उस लड़की से कैसे कहें कि ये सारे रिश्ते जिस नाम से जुड़े थे वो उनके बीच से ऐसे उठ कर चला गया जैसे कोई वैतरणी पार कर जाए.
अपने ही ख़याल से सिहर उठीं फिर.. 'ना ईश्वर! शायद इस संतान का मोह उसे खींच लाए. जहाँ भी रहे बना रहे..'. अचानक दिवित के अचकचाकर रोने की आवाज़ से वो चौंक उठीं. 'हे ईश्वर!' पुकारती वह कमरे की ओर दौड़ीं.
नंदिनी बिस्तर पर औंधी पड़ी थी और दिवित उसकी गोद में अचानक मांँ को न पाकर हिलक हिलक कर रो रहा था. 'नंदिनी! नदिनी! उठ बच्चे! अरे शरबती! जल्दी आ,' अमिता ने लपक कर पोते को छाती से लगा लिया. किसी अनिष्ठ को छू कर निकल जाने के भाव से वो काँप रही थी.
'नंदिनी! उठ बेटा! होश कर. शरबती!! जल्दी आ.' माँ-बेटे दोनों को संभालें तो कैसे. शरबती के साथ-साथ उनके पति ठाकुर समरप्रताप सिंह भी दरवाज़े तक आ कर रुक गये. परंपरागत संकोच से पुत्रवधू के कमरे की दहलीज़ ना लाँघ सके. वहीं बेचैन खड़े हो बार बार पूछ्ते रहे, 'सब ठीक है ना? मुन्ना ठीक है ना? कहीं गिर-गिरा तो नही गया?'
'आप जाकर डॉक्टर को फोन करिए. मुन्ना ठीक है,' शरबती तबतक नंदिनी के मुँह पर पानी की छींटें मार रही थी. दिवित को पालने में लिटा कर अमिता भी नंदिनी के तलवों को रगड़ने में लग गयीं. कुछ सेकेंड में नंदिनी ने आँख खोले और वापिस मूंद लिए.. जैसे किसी कड़वी सच्चाई से मुँह चुरा रही हो.. जैसे किसी बुरे सपने को वापस भेज रही हो उसकी ही नकली दुनिया में..
तेज़ कंपकंपी से उसकी देह हिलने लगी.. दाँत पर दाँत कस गये.. मुँह से अजब सी आवाज़ निकल रही थी.. जैसे किसी के सपनों का महल भरभरा कर गिर रहा था.. और उसे पल-पल ढहते देखने की यंत्रणा से कोई मुक्ति नहीं थी.
और अंत में फूट ही पड़ी रुलाई.. लहर दर लहर.. ऐसी जैसी उसने कभी खुद भी नहीं जानी थी. जिस पते को वो इतने दिनों से ढूँढ रही थी.. रातों दिन सोचती रही थी.. जागती-सोती आवाज़ देती रही थी उसे पता चल चुका था कि वो तो कहीं था ही नहीं.. कहीं भी नहीं.. ना दिन में ना रात में.. ना सच में ना झूठ में..
'माई री! ओ माँ मेरी! माँ.. मेरे साथ ही क्यूँ रे माँ?'.. ऐसी रुलाई की सुनने वालों और देखने वालों की आत्मा में दरार कर गयी और वो सारा दुख उन दरारों में से रिस कर वहीं जा जमा. उस रुलाई ने जाने कितने दिनों की कसर निकाली और बहते बहते नंदिनी रीती खाली कोरी हो गयी..
कोई सपना सा चलता रहा, 'काली-कत्थई रात जैसी वैसी उसकी पोशाक.. बालों की चोटी खुलती सी.. गालों पर काजल की सूख चुकी रेख.. और फटी-फटी सी बदहवास आँखें.. वो दौड़ रही है सूनी निर्जन गलियों में.. बस पैरों की झांझर बज रही.. उस नगर के सभी घर खाली.. जनशून्य.. पुकार रही है किसी अपने को.. आवाज़ ही नहीं निकलती.. यहीं कहीं घर की याद है पर वो बस याद है.. जिसे एक एहसास मिटाए दे रहा कि उसका कोई नहीं है.. कोई भी नहीं..' 'माई री!...'
'नंदू! उठ बेटा.. जाग जा. ये बस एक सपना है. उठ!' अमिता की आवाज़ का सहारा ले कर नींद ने करवट बदली और नंदिनी जाग गयी. अमिता ने उसका मुँह पोंछ दिया और नींबू शरबत का एक चम्मच उसके मुँह में डाला. धीरे धीरे नंदिनी ने आधी कटोरी खाली की. 'तू आधे दिन से सो रही है बेटा. डॉक्टर तुझे नींद का इंजेक्शन दे गये थे. अब उठ. खुद को संभाल,' सास का स्वर रुंध आया था.
दिवित को सीने से लगाए उन्नींदी सी वो अपने सास-ससुर के बारे में सोचती रही. 'उन्होंने भी तो अपना बेटा खो दिया है. अगर वो मुन्ना के सहारे जी सकते हैं तो मुझे भी कोशिश करनी चाहिए.' पर जो सवाल लौट लौट कर आ रहा था और अपना जवाब माँग रहा था वो था उन प्रेम को समर्पित क्षणों का.. वो सब क्या था अगर प्रेम नहीं था? क्या वो देह की क्षुधा मिटाने काम साधन भी थीं?
दिन बीतने थे.. बीतते रहे. अब वो इतना संभल चुकी है कि अकेले ही रोती है. उसे पता है कि अमिता भी अकेले में ही रोती हैं. उसके ससुर जी ने पूरे प्रकरण पर अबोल धर लिया है. ये उनका तरीका है परिस्थितियों से निपटने का. आने वाले चुनाव में उन्होंने अपने आपको जान बूझ कर झोंक दिया है जिससे कि उन्हें दीपक की बदसलूकी, उसका विश्वासघात याद ना आए. वो हार नहीं मान सकते, समरप्रताप बाबू जैसे लोग हारने के लिए नहीं जन्मते. इस माहौल में एक नन्हा सा दिवित ही उन तीनों के जीने का संबल बन गया है.
सुमित्रा ने इन दिनों में नंदिनी की आँखों में हज़ारों सवाल देखें हैं। वो कब तक इस घुटन को झेलें। कुछ पूछती भी नहीं बस बेबस दुखी नज़रों से उन्हें जब तब देखती रहती है। नंदिनी की बेचैनी के आगे उन्होंने भी घुटने टेक दिए.
'ये सब शायद रुक सकता था बेटा. हम सब इतने बड़े धोखे से, दुख से बच जाते पर दीपक के बाबूजी नहीं माने तो नहीं ही माने. दीपक तो एक अमरीकन लड़की सिल्विया से प्रेम करने लगा था. उन दोनों में बहुत प्रेम था. दोनों यहाँ आकर शादी करना चाहते थे. उसने बहुत कोशिश की पर उसके बाबूजी नहीं माने. बेटे के होने की खबर भी दी उन्होनें तब भी उसके बाबू टस से मस ना हुए. तब उसने गुस्से में हम सब से दूरी बना ली थी और बस मुझे कभी-कभी फोन कर लेता था. काश हम समय रहते चेत जाते तो इतने जीवन ना नष्ट होते,' अमिता एक सांस में सब कह गईं।
नंदिनी सब सुन कर सन्न रह गयी. कितने ही चित्र उसके सामने बनते बिगड़ते रहे. किसी आकाश से गिर रहे थे अनुरिक्त प्रश्नों के उत्तर और अधूरे चित्रों को किसी जिगसा पज़ल की तरह पूरा कर रहे थे. उस मुक़म्मल तस्वीर से वो खुद को गायब होता देख रही थी और उसकी जगह तेज़ी से उभर रही थी एक सुनहरे बालों और नीली आँखों वाली सुशिक्षित स्मार्ट और आत्मविश्वास से भरी एक अमरीकन लड़की जिसका नाम था सिल्विया. 'इतनी बड़ी बात...' बस इतना ही कह पाई।
रात नंदिनी के बाहर-भीतर जाग रही थी. सब सो चुके थे. अमिता भी पोते को कलेजे से सटाये उसके पास ही सो रही थीं. दोनों को देखती नंदिनी को मोह हो आया अपनी सास पर. इतना तो उसकी माँ ने उसका ध्यान नहीं रखा होगा कभी जितना उन्होंने हमेशा रखा है उसका. शायद खुद को उसका कसूरवार मानती हैं. उसने तय कर लिया वो यहीं रहेगी. दिवित अपने घर रहेगा. शायद किसी दिन उसके नहीं तो संतान के मोह में और माँ-पिता के खातिर लौट आए दीपक. अब हर बात शायद के चश्मे से देखने लगी है नंदिनी.
'सिल्विया! सिल्विया!!' नंदू दोहरा रही है खुद से. कैसा लगता है किसी दूसरे का नाम उन दोनों के बीच. पर यहाँ शायद वो खुद दूसरी है. वो दोनों तो शुरू से साथ हैं. प्रेम में इतना डूबे हैं कि उन्होने विवाह के बंधन को भी ज़रूरी नहीं समझा. और आम सोच से अलग वो दोनों एक दूसरे के लिए हमेशा बेचैन रहे. उसका साथ, उसकी संतान कु्छ नहीं कर सके उस आकर्षण को उल्टा करने में. सिल्विया भी तो दीपक के लिए रुकी रही. एक संतान! उफ़!! एक संतान भी है.
अपने शरीर की झुरझुरी को बाहों में समेटे हुए उसने कोशिश की कल्पना करे दीपक की उस प्रथम संतान को और उसने घूम कर सोते हुए अपने नवजात को देखा. उसका मन भर आया. आँखें भी. ना वो दीपक की पहली स्त्री है ना दीवित उसकी प्रथम संतान. किसी अंजाने ईश्वर को मन ही मन साक्षी मान दीपक को पुकार उठी, 'लौट आओ दीपक. यहाँ हम सबको तुम्हारी ज़रूरत है.'
उसका मन बार बार उनके साथ बिताए दिनों की ओर दौड़ता रहता है। सारे सारे दिन नंदिनी कमरे से बाहर नहीं निकलती. शिशु को बस दूध पिलाने तक ही देखती है. अमिता ने ही उसे दीपक की पुरानी चिट्ठियों का एक पुलिंदा थमा दिया है और दिवित को अपने पास ही रखती हैं.
चावल में से कंकड़ की तरह चुनती है वो पुराने क्षण. उलट पलट कर फिर दूर फेंक देती है. कड़ियाँ जुड़ने लगी हैं. उसे याद आते हैं वो अबूझ से पल.
बंगलोर में आए उन्हें कुछ दिन ही हुए थे. दीपक की वो एक अजीब सी नाराज़गी.. वो उखड़ा उखड़ा रहना ना उसे समझ आता ना ही कोई राह खोलता उन दोनों के बीच. वो हर वक़्त सहमी सहमी रहती. उसने कितनी ही रातों को देखा था दीपक को अकेले बालकनी में टहलते बेचैन होते हुए. कितनी शामें उसने पति को अकेले बैठे बीच के बड़े कमरे को धूएँ सेे और ऐश ट्रे को सिगरेट के अधजले टुकड़ों से भरते देखा था. वो दीपक की बेचैनी महसूस करती पर उस के केंद्र तक कभी पहुँच नहीं पाती. आज वो जोड़ रही है तो लगता है वो उस समय कितना बेचैन था सिल्वीया के लिए..
न्यू यॉर्क के मैंनहैटन में उसका दफ़्तर था और वहीं सिल्विया भी काम करती थी. दीपक न्यू जर्सी के होबोकोन में एक फ्लॅट में तीन दोस्तों के साथ रहता था. तीनों के अलग-अलग कमरे और अलग-अलग ज़िंदगियाँ भी थी फिर भी देश से दूर एक अजब सा जुड़ाव पनप गया था तीनों में. सिल्विया स्कार्ज़डेल की रहने वाली थी और रोज़ चालीस मिनट की सबवे यात्रा कर ऑफीस आती जाती. दीपक और सिल्विया एक प्रॉजेक्ट पर काम करते करते बहुत पास आ चुके थे और आख़िर में उन्होंने एक साथ एक फ्लैट ले लिया. सहजीवन में बस विवाह नहीं था और दीपक ने यह बात अपने माँ-पिता से छुपा रखी थी. वो अच्छी तरह जानता था उसके बाबूजी इस रिश्ते के लिए कभी भी हां नहीं कहेंगे.
'तो मुझसे विवाह के लिए दीपक का सिल्विया के लिए प्रेम डगमगाया था.' पता नहीं क्यूँ ये जान कर नंदिनी को एक अजीब सी राहत मिली. मानव मन कहीं भी सुकून ढूँढ ही लेता है. भले ही वो कितना भी क्षणिक ही क्यूँ ना हो. 'जैसे वो मेरे बच्चे को छोड़ कर वहाँ गया है ऐसे ही सिल्विया के बच्चे को भी छोड़ कर आया था'.
'छोड़ तो आया था नंदू पर तू उसे रोक ही कहाँ सकी?' उसने खुद से कहा और उठ कर आदमकद आईने के सामने खड़ी हो गयी. 'क्या वो तब भी तेरे ही पास था जब वो तुझे खुद में समेटे प्रेम कर रहा था? क्यूँ नहीं तभी सुन लिया था तेरे मन ने उन मूंदी आँखों से किए गये प्रेम के विह्वल पलों में जब वो 'लव यू सील.. बेबी' बुदबुदा उठता था. सुना था तूने. चिहुंकी भी थी पर तेरे अकुलाए मन ने कान मूंद रखे थे. जिस विवाह को बचा रही थी वो कहाँ बचा? तुझ तक आने के लिए उसे पेग की ज़रूरत पड़ती थी ना. लगभग हर बार.. और कितनी बार आया ही वो. दिवित की आहट ने तो जैसे उसे होश में ला दिया हो. उसके क़दम हमेशा के लिए दूसरी राह की ओर मुड़ गये थे..'
खुद को निहारते ये सवाल उसने खुद से लगातार पूछे. बहते आँसुओं को नहीं रोका. कुछ था जो बह रहा था उन आसुओं के साथ. और वो उसे रोकना भी नहीं चाहती थी. वो अपने सारे भ्रमों को बहुत पीछे छोड़ आगे बढ़ना चाहती थी. उसे मालूम था कि बेटे से हारे उसके सास-ससुर ने अपने पोते में अपने सुख ढूँढने शुरू कर दिए हैं। उसे भी जीने के बहाने ढूँढने होंगे.
उसने मेज़ के दराज़ खोली और धीरे-धीरे अपनी चूड़ियाँ उतारनी शुरू कर दीं. हर चूड़ी के साथ कोई पुराना क़र्ज़ उतार रही थी वो जीवन का.
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अपर्णा अनेकवर्णा