देह के दायरे
भाग - बाईस
खट...खट...द्वार के खटखटाने की आवाज सुनकर पूजा की नींद टूटी | आज उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं था | देव बाबू के स्कूल जाने के उपरान्त वह आराम करने के लिए पलंग पर लेटी तो लेटे-लेटे ही उसकी आँख लग गयी |
घड़ी की ओर पूजा की दृष्टि गयी तो अभी एक बजा था |
“इस समय कौन हो सकता है?” एक पल तो वह बुदबुदायी और उठकर दरवाजा खोलने के लिए चल दी |
“अरी रेणुका, तू! बड़े दिनों बाद याद किया तूने अपनी बहा को!” द्वार खोला तो सामने रेणुका को पाकर वह विस्मित रह गयी थी | आगे बढ़कर उसने रेणुका को गले से लगा लिया | गले मिलीं तो दोनों का दिल भर आया |
“तूने तो इतने दिनों में भी मुझे याद नहीं किया दीदी |” रेणुका ने भी भरे गले से कहा |
दरवाजे पर खड़ी वे दोनों कुछ देर मन हल्का करती रहीं और फिर कमरे में आ गयीं |
“दीदी, तुम्हें हो क्या गया है?” पूजा के मुँह की ओर देखती हुई रेणुका कहे बिना न रह सकी |
“क्यों? क्या बात है?” हँसते हुए पूजा ने कहा |
“तुम तो पहचान में भी नहीं आतीं | अभी साल-भर भी तो तुम्हारे विवाह को नहीं हुआ! सुखकर काँटा हो गयी हो |”
“शादी के बाद ऐसा ही होता है रेणुका!”
“नहीं दीदी, शादी वाली कोई खुशी तो तुम्हारे मुख पर दिखाई नहीं देती |” पूजा की आँखों में झाँकते हुए रेणुका ने कहा |
“छोड़ इस बात को, अपनी सुना | इतने दिनों क्या करती रही, कैसा जीवन बीत रहा है?” पूजा ने बात को मोड़ते हुए कहा |
“बस, अच्छा ही बीत रहा है |”
“शादी कर ली?”
“करती तो क्या तुझे खबर नहीं होती?”
“कोई लड़का देखूँ?”
“किसकी बात कर रही हो?”
“पंकज की |”
“कॉलिज की बातों को भूली नहीं हो?”
‘भूल जाती तो यह स्थिति ही क्यों होती |” मन ही मन पूजा ने सोचा मगर मुँह से कुछ न कह सकी | उदासी की एक हल्की-सी परत उसके मुख पर फैल गयी |
“क्या बात है पूजा, उदास क्यों हो गयी?”
“वैसे ही, तू बता-करूँ पंकज से बात?”
“पंकज यहीं रहता है?”
“हाँ, इसी मकान में ऊपर वाला कमरा ले रखा है |”
“हूँ...|” रेणुका कह उठी |
“क्या विचार है?”
“नहीं पूजा, मैं किसीको पसन्द कर चुकी हूँ |”
“अच्छा! मगर किसे?”
“राजन को |”
“वही कॉलिज वाला करोड़पति?”
“हाँ पूजा |”
“खूब समझ लिया है?”
“इसमें समझ से नहीं, भावनाओं से काम लिया जाता है पूजा |”
“तो कब कर रही हों शादी?”
“बस, शीघ्र ही मैं घर वालों के सामने यह विस्फोट करने वाली हूँ | वैसे मैं जानती हूँ कि यह सम्बन्ध दोनों में से किसी के घरवालों को स्वीकार नहीं होगा |”
“तो फिर...?”
“हम हिन्दुस्तान छोड़कर कनाडा जा रहे हैं पूजा | वहाँ भी उनका व्यवसाय है |” बिना किसी हिचकिचाहट के रेणुका ने कहा |
“माँ-बाप की इच्छा का विरोध करना ठीक नहीं है रेणुका |”
“क्यों, क्या बिल्ली सौ चूहे खाकर हज को जा रही है |” वही कॉलिज वाली शोख –मुसकान एक बार से फिर रेणुका के मुख पर उभर आयी |
“मैं अनुभव की बात कर रही हूँ रेणुका |”
“क्यों, तू खुश नहीं है क्या?” चौंकते हुए रेणुका न कहा |
पूजा खामोश होकर रह गयी |
“क्या बात है पूजा, तुम बहुत उखड़ी हुई लग रही हो?”
“नहीं, वैसे ही |”
“मुझसे छिपा रही हो?”
“रेणुका, तू तो जानती है कि मैं तेरी तरह साफ नहीं कर सकती | पहले चाय पिओ...मैं बनाकर लाती हूँ | इसके बाद बातें करेंगे |
“ठीक है, तू पहले अपनी ‘चाह’ ही पिला दे |” रेणुका चाय के स्थान पर ‘चाह’ का प्रयोग करके स्वयं ही हँस पड़ी और कॉलिज के जीवन की एक हल्की-सी परछाई से पूजा के मुख पर भी मुसकान फैल गयी |
चाय पीते हुए पूजा ने अपनी जिन्दगी के दर्द-भरे पृष्ठों को रेणुका के समक्ष खोल दिया |
“यह सब हुआ कैसे पूजा?” सुनकर रेणुका सहसा ही विश्वास नहीं कर पाई |
“कारण तो मैं भी नहीं जानती |” पूजा ने स्वयं पर नियन्त्रण पाते हुए कहा | उसकी सिसकियाँ रोकने पर भी नहीं रुक रही थीं |
“कहाँ हैं तेरे मियाँ, मैं उनसे बात करुँगी |”
“नहीं पूजा, ऐसा न करना | अब वे कुछ बदल रहे हैं | तू उनके स्वभाव को नहीं जानती |”
“लेकिन हैं कहाँ देव बाबू?”
“स्कूल गए हैं |”
“कब लौटेंगे?”
“कोई निश्चित समय नहीं है |”
“ओह! मगर तू उनका इतना ख्याल क्यों रखती है?”
“क्या करूँ, भारतीय नारी हूँ न |”
“फिर भी, पढ़ी-लिखी हो | अपने अधिकारों के लिए संघर्ष क्यों नहीं करती?”
“कई बार किया है मगर उनके समक्ष टिक नहीं पाती |”
दोनों वहाँ बैठी काफी देर तक बातें करती रहीं | सन्ध्या के छः बज चुके थे मगर पूजा को इसका ध्यान न था | काफी दिनों से वह रेणुका से मिल ही नहीं पाई थी | आज जो मिली तो शाम के खाने की सुध भी भूलकर उससे बतियाती रही |
अपने समय की विपरीत आज देव बाबू छः बजे छुट्टी होते ही सीधे घर आ गए | उनके साथ ही पंकज भी था | रेणुका को वहाँ देखकर देव बाबू मुसकरा उठे |
“अरे वाह! आज तो हमारा कमरा ही कॉलिज का क्लास-रूम बन गया है |” हँसते हुए उन्होंने कहा |
“कॉलिज का क्लास-रूम कैसे जीजाजी?”
“भई हम चार सहपाठी एक स्थान पर मिले हैं तो क्या यह क्लास-रूम से कम है?”
पंकज और देव बाबू आगे बढ़कर सामने बिछे पलंग पर बैठ गए |
“दोनों उदास-उदास क्यों बैठी हो? पूजा, उठी भई, हमारी साली का अच्छी तरह से अतिथि-सत्कार करो |”
“दीदी तो कर चुकी | अब आप ही कुछ करिए |” हँसते हुए रेणुका ने कहा |
“आप तीनों मुझे इसका मौका दें |” कहते हुए पंकज खड़ा हो गया |
“कहाँ जा रहे हो पंकज?” रेणुका ने पूछा |
“सेवा के लिए सामग्री एकत्रित करने |” कहकर बिना कुछ सुने ही पंकज बाहर निकल गया |
जब पंकज लौटकर आया तो उसके हाथ में बहुत-सा सामान था | पीछे-पीछे लड़का चाय की ट्रे लिए आ रहा था |
चाय पीने के बाद रेणुका चलने के लिए उठ खड़ी हुई |
“आज यहीं रुको रेणुका |” देव बाबू ने कहा |
“नहीं, आज तो जाना है, फिर कभी ठहरा लेना |” एक गहरी मुसकान के मध्य रेणुका ने कहा, “क्यों, ठहराओगे न जीजाजी?”
रेणुका की बात पर देव बाबू भी निरुत्तर हो झेंपे बिना न रह सके और रेणुका हँसती हुई कमरे से निकल गयी |
तीनों दरवाजे पर खड़े उसे जाते हुए देखते रहे | कुछ देर बाद पूजा खाना बनाने के लिए रसोई में चली गई और देव बाबू कमरे में बैठे पंकज से बातें करते रहे |