.....और जनता हार जाएगी
विवेकानन्द राय
वे दिन बीत गए जब संसदीय जनतंत्र और कल्याणकारी राज्य एक-दूसरे के लिए कार्य करते थे। हालांकि दोनों औद्योगिक पूँजी के ही उत्पाद हैं। अब संसदीय जनतंत्र पूँजीवादी जनतंत्र में तब्दील हो चुका है, इसलिए उसकी प्रक्रिया और परिणति पर कोई दुविधा बेमानी है। फिर भी औचित्य के लिए कुछ नाटक तो करने ही पड़ते हैं । इसके तहत फिलहाल राज्य प्रायोजित बहस इस गणित पर कराई जा रही है कि आगामी आमचुनाव में किस दल, गठबंधन और नेता की जीत होगी और किसकी सरकार बनेगी। दरअसल, विचार और बहस इस पर होनी चाहिए कि आगामी लोकसभा और सरकार कितनी संप्रभु और जनपक्षधर होगी। इस कोण से चिंतन और चर्चा का कारण यह है कि भूमंडलीकृत भारत में जितने लोकसभा चुनाव हुए हैं और उनकी कोख से जितनी भी भारत सरकारें बनी हैं, उनकी संप्रभुता में निरंतर गिरावट हुई है। ऐसा इसलिए हुआ है कि भयावह अंतरराष्ट्रीय दबावतंत्र देश पर काबिज़ करा दिया गया है और सरकारें उनकी मन-माफ़िक चल रही है। इस स्थिति में ज़ाहिर है कि सोलहवाँ लोकसभा चुनाव भी पहले की तरह भीषण दबावतंत्र के साए में होगा। अब सिर्फ़ यह पहचानने की ज़रूरत है कि इस दबावतंत्र में कौन-कौन सी शक्तियाँ और घटक भागीदार हैं। यदि शिखर से धरातल तक दबावतंत्र में भागीदारी की सूची बनाई जाए तो नामावली काफ़ी विस्तृत होगी, इसलिए कुछ महत्वपूर्ण शक्तियों और घटकों को रेखांकित करना ही सामयिक और प्रासंगिक है।
सबसे पहले सैन्य पूँजीवाद को लें। उल्लेखनीय है कि विश्व-पूँजीवाद की पैदल सेना इन दिनों सैन्य पूँजीवाद है। अमेरिकी-यूरोपीय राजसत्ताएं इसी के नेतृत्व में चल रही हैं और दुनिया पर हावी हैं। युद्धवाद और आतंकवाद को निरंतर क्रियान्वित करना, सैन्य सामग्री-सामरिक प्रौद्योगिकी एवं विध्वंसक हथियारों की तिज़ारत करना और राजसत्ताओं को अपने दबाव में रखना सैन्य पूँजीवाद की रणनीति है। दक्षिण-पूर्व एशिया इन रणनीतियों की प्रयोगस्थली है, जहाँ भारत सैन्य सामग्री का सबसे बड़ा खरीदार है, इसलिए सैन्य पूँजीवाद इतनी दिलचस्पी अवश्य लेगा कि आगामी लोकसभा और सरकार ऐसी बने जो उनकी नीतियों-रणनीतियों को बाधित नहीं करे। वांछित चुनाव परिणाम पाने के लिए वह सीमा पर तनाव, देश में अशांति और सांप्रदायिक विभाजन का अप्रत्यक्ष कार्यान्वयन कराएगा ताकि मतदाताओं में मानसिक विचलन हो और वह उन दलों, गठबंधनों और दलाल नेताओं को समर्थन दे जो सैन्य पूँजीवाद द्वारा पोषित हों। यह अनायास नहीं है कि 1980 के बाद भारतीय राजनीति में सामरिक घोटाले, सीमा की असुरक्षा और आतंकवाद दैनिक मुद्दे बने हुए हैं और बने रहेंगे। इस आरोपित संकट में जो चुनावी फसल कटेगी वह सैन्य पूँजीवाद के अनुकूल होगी।
इसका मतलब यह नहीं है कि सैन्य पूँजीवाद के सामने अन्य पूँजीवादी स्वार्थसमूह गौण हैं। पूँजी का वर्गचरित्र एक ही होता है, सिर्फ़ नाम पृथक होते हैं। इसलिए आगामी आमचुनाव में बहुराष्ट्रीय पूँजी-दलाल पूँजी-लुंपेन पूँजी – महाजनी पूँजी आदि का समान अभियान चलेगा और निरंतर चल भी रहा है। नई अर्थनीति (विश्व पूँजीवादी कार्यक्रम) लागू होने के बाद से अधिकांश राजदलों की भूमिका निरर्थक और कागज़ी बना दी गई हैं। अधिकतर संसदीय दलों की आर्थिक-राजनीतिक नीतियां लगभग समान हैं, सिर्फ़ सामाजिक-सांस्कृतिक नीतियों में अंतर हैं। ये अंतर भी विश्व पूँजीवाद के सामने याचना की हैं, चुनौती की नहीं। इसलिए बहुरूपी पूँजी के सामने अधिकतम संसदीय प्रक्रियाएँ समर्पणवादी हो गई हैं। पूँजीतंत्र इतना प्रभावशाली हो गया है कि वह खुलेआम आगामी प्रधानमंत्री के लिए नाम प्रस्तावित कर रहा है। जो प्रक्रिया दलीय लोकतंत्र के हिस्से थी, वह अपने प्रायोजक पूँजीतंत्र के नामांकन की मोहताज है।
जिस तरह बहुराष्ट्रीय पूँजी भारत को उत्पादक देश बनने के ख़िलाफ़ है और इसे दलाल पूँजी के सहयोग से बाज़ार बनाए रखना चाहती है, उसी तरह बहुसंख्य राजनीतिक दल मतदाताओं को अपना बाज़ार और उपभोक्ता बनाए रखना चाहते हैं। वे इसके लिए जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, धन आदि के वैध-अवैध इस्तेमाल के लिए तमाम हथकंडे अपनाते हैं। राजनीतिक शुचिता, घोषणापत्र आदि तो सिर्फ़ मुखौटे हैं। कोई आश्चर्य नहीं होगा कि पूँजीतंत्र राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों पर निशान लगाने लगे या इन्हें पसंदीदा प्रत्याशियों की सूची थमाने लगे। राज्यसभा में पूँजीतंत्र के प्रतिनिधियों की संख्या पहले ही अच्छी-खासी है। यह असंभव नहीं है क्योंकि संसद ने अनेक कानून पूँजीतंत्र के हित में बनाए हैं और उनके विरोध की महज़ नाटकीय कोशिशें दिखाई गई हैं। तमाम गतिविधियां और परिदृश्य स्पष्ट करते हैं कि पूँजीतंत्र के आपराधिक दबाव को कोई चुनौती नहीं है। तभी तो लुंपेन पूँजीतंत्र का औजार सट्टाबाजार बता रहा है कि किस दल, गठबंधन और नेता की जीत और सरकार बनने की कितने पैसे-रूपए की संभावना है ? संसदीय जनतंत्र का इससे अधिक पतन और क्या हो सकता है? इस तरीके से गठित सरकार किस ‘असली सरकार’ द्वारा चालित होती है, इसका नज़ारा छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में दिख जाता है। छत्तीसगढ़ भारतीय जनतंत्र की असलियत दिखा रहा है, जहॉं केंद्र और राज्य सरकारों की बंदूकों के घोड़े पर पूँजीपतियों की अदृश्य उॅगलियाँ हैं और निशाना आदिवासी हैं। यही दृश्य किसी न किसी रूप में पूरे भारत में उपस्थित है । धनबल और काला धन के शिकंजे से संसदीय राजनीति को निकालने की कोई पहलकदमी न न्यायपालिका में है और न संसद में, जबकि बाहुबल और सज़ायाफ़्ता नेताओं से मुक्ति का आभास दिया जा रहा है । लेकिन क्या काला धन और धनबल से मुक्ति के बिना बाहुबल या आपराधिक शक्ति से संसदीय राजनीति को मुक्त किया जा सकता है? यह असंभव है क्योंकि ईंधन तो काला धन ही है। इस तरह का राजनीतिक और न्यायिक शीर्षासन भारतीय संसदीय राजनीति में ही संभव है। सच्चाई तो यह है कि कथित वैध-अवैध पूँजीतंत्र और धनबल-बाहुबल के बीच अघोषित और अलिखित समझौता है क्योंकि पूँजी के चरित्र की बाध्यता और विशेषता यही है। इस तथ्य को एक अन्य भारतीय संदर्भ प्रमाणित करता है। पूँजीवादी सिद्धांतकार यह कयास लगा रहे थे कि जब विश्व पूँजीवाद का चक्र चलेगा तो जाति-धर्म- क्षेत्र-अस्मिता आदि के पुराने आधार नष्ट हो जाएँगे और एक नया मानव-पुल निर्मित होगा। यह आश्वस्ति झूठी थी। यह बड़बोलापन था, क्योंकि पूँजीतंत्र को विभाजित जन-समाज चाहिए, तभी तो खूनी मुनाफ़े की प्रक्रिया आसानी से चलेगी। इस तरह विश्व पूँजीवाद के लिए भारत की ज़मीन अत्यंत उपजाऊ साबित हुई है क्योंकि यहाँ की पुरानी सामंती-महाजनी- पुरोहिती व्यवस्था ने पहले ही जन-समाज को खंड-खंड में बाँट रखा है। अनेक धर्मों, हज़ारों जातियों, सैकड़ों आस्मिताओं में विभाजित जन-समाज तो पूँजीतंत्र के लिए मुँहमाँगा वरदान है। इसके लिए विश्व पूँजीवाद को ब्राह्मणवाद का कृतज्ञ होना चाहिए। यह भी हज़ारों साल पुराना दबावतंत्र ही है जो कभी विवेकसम्मत मानस इस देश में बनने नहीं देता। भारतीय संसदीय राजनीति तो शतरंज के इस पुराने खेल में पहले से ही माहिर है।
ज़ाहिर है कि इस वास्तविकता के अंतर्गत बहुरूपी पूँजीचक्र और दबावतंत्र में फंसे संसदीय जनतंत्र की मुक्ति निकट भविष्य में संभव नहीं है, इसलिए जो ‘जनादेश’ आएगा, वह आधा-अधूरा, बंदी और बंधक होगाᣛ? सच तो यह है कि आगामी ‘जनादेश’ वर्तमान दबावतंत्र को अधिक क्रूर और जनविरोधी बनाएगा । यह जनादेश जनता के हित में निर्णायक परिवर्तन की इच्छा से लैस नहीं होगा। यह विरोधाभास नहीं बल्कि पूँजीवादी जनतंत्र की अपरिहार्य नियति है। इस नियति में बदलाव संभव है, यदि सोलहवें लोकसभा चुनाव को प्रभावशाली स्वार्थ समूहों और शक्ति घटकों के भीषण सत्ता संघर्ष का माध्यम बनने से रोका जा सके। लेकिन एैसी प्रतिरोधक मशीनरी कहाँ है? जन-दबाव भी नहीं है जो बूथ कब्ज़ा, फर्जी मतदान और मतदाताओं की ख़रीद फ़रोख़्त तक को लगाम दे सके। बड़े दबावतंत्र से जूझने की तो बात ही दीगर है। एैसी निर्विकल्पता में चुनाव पर जन-दबाव बन ही नहीं सकता। एैसे में ज़ाहिर है कि चुनाव पर दबाव किन ताकतों का होगा। जिसे जनादेश कहा जाएगा, वह दरअसल प्रभावशाली शक्ति गुटों द्वारा हथियाया गया शासनादेश होगा। निश्चय ही आगामी लोकसभा चुनाव भी सत्ता पर अधिकार की ही लड़ाई है, लेकिन यह लड़ाई जनता हार जाएगी।