Kaveri Lupt Nahi Huvi Thi in Hindi Short Stories by Arunendra Nath Verma books and stories PDF | कावेरी लुप्त नहीं हुई थी

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कावेरी लुप्त नहीं हुई थी

कावेरी लुप्त नहीं हुई थी

अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

‘ सुहानी, तुम्हारी दादी दो दिन से मुंह फुलाए बैठी हैं. आखीर क्या फायदा हुआ इतना लंबा चौड़ा प्रोग्राम बनाकर, इतनी दूर तुम्हारे पास आने का? तुम्हे सामने पाकर तो इन्हें निहाल हो जाना चाहिए था. पर देखो भला, क्या शकल बना रखी है?’

उमेश मुखातिब तो थे अपनी पौत्री सुहानी से, लेकिन असली इरादा था अपनी पैंतालीस साल से सहचरी रही छाया को गुदगुदा कर हंसा देने का. पिछले दो दिनों से उनकी नाराज़गी झेलने के बाद अब और देर तक छाया का रूठना उन्हें गवारा नहीं था. छाया के पास अपनी नाराज़गी व्यक्त करने का एक ही तरीका था – हंसना, खिल खिलाना छोड़ कर बस अपना मौन मुखर कर देना. इस मौन को तोड़ने का एक ही तरीका उमेश को आता था – उनके सामने ही किसी और से उनके रूठने की तस्वीर वे मजेदार शब्दों में इस वाकचातुर्य के साथ खींचते कि छाया के लिए रूठा रहना असंभव हो जाता. वे हंस पडतीं और उदासी के बादल जाने कहाँ उड़ जाते. पर इस नुस्खे के लिए किसी तीसरे की उपस्थिति बहुत आवश्यक थी. किसी ऐसे की जो उन दोनों के मन में कभी भी, कहीं भी बेखटके झाँक सकता. जिसके सामने वे छाया का मखौल उड़ाते तो वह और अधिक आहत न हो जातीं. और अभी मणिपाल में इस काम के लिए सुहानी से बेहतर और कौन मिल सकता था.

उमेश और छाया अपनी लाडली पौत्री सुहानी का सान्निध्य केवल एक दो दिन के लिए पा सकने के लिए दिल्ली से हज़ारों मील दूर चलकर मणिपाल आये हुए थे. सुदूर, सुरम्य, तटीय कर्नाटक का वह शहर बेशक दर्शनीय था, इतना तो सुहानी से फोन पर बार बार सुनकर वे जान ही गए थे. लेकिन यह भी उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि सुहानी मणिपाल की इतनी तारीफ़ केवल उन्हें अपने पास बुलाने के लिए करती थी. पौत्री का हर आग्रह उनके लिए माने रखता था. फिर भी, मणिपाल मेडिकल कोलेज में सुहानी दूसरे साल की छात्रा न रही होती तो उनका इतनी दूर आने का कोई डौल नहीं बैठता. एक साल तो उससे दूर किसी तरह वे रह लिए. पर पहले साल की पढाई के अंत में सुहानी ने बताया कि अगला सत्र तुरंत प्रारम्भ होने के कारण उसके लिये अभी भी घर आना संभव नहीं हो पायेगा मम्मी पापा दोनों डॉक्टर थे, उन्हें तो आने की फुर्सत मिलने से रही. उसे उम्मीद थी तो केवल दादू-दादी से. उनके प्राण उसी में तो बसते थे. उसने मनुहार करते हुए कहा कि कर्नाटक जैसे सुन्दर प्रदेश में उन दोनों को घूमने के लिए आना ज़रूर चाहिए, भले मणिपाल में एकाध दिन ही रुकें.

सद्यस्फुटित सुहानी और प्रौढ़ सौम्यता से भरपूर छाया के स्वभाव में आयु के अंतर के बावजूद साम्य बहुत था. दादी और पौत्री दोनों के चेहरों पर एक स्वाभाविक सी मुस्कान हमेशा एक सदाबहार फूल की तरह खिली रहती थी. ऐसी मुस्कान जो मौक़ा मिलते ही एक चमकीली उन्मुक्त हँसी में बदल कर जी भर बरस जाने के लिए आतुर रहती थी. दादी के स्वभाव में भी जन्मजात खिलन्दड़ीपन आयु के पैन्सठ्वें पडाव तक पहुँच जाने के बावजूद अभी तक ठाठ से अपना डेराडंडा जमा कर बैठा हुआ था पर उनकी मुस्कान अब सशब्द ज़ोरदार हँसी में कम ही बदलती थी. जैसे दीन दुनिया से बेखबर पहाडी नदी पत्थरों के ऊपर इक्कड़ दुक्कड़ खेलते हुए, अनजान शब्दों वाले गीत जोर जोर से गाते हुए, पतली कमर को झटके दे देकर उछलते, कूदते, नाचते हुए नीचे मैदानों में उतरती है पर वहां अपने चारों और फैला हुआ विस्तार देखकर अचानक सहम जाती है वैसे ही छाया बढ़ती आयु के साथ कुछ तो गंभीर हो ही गयी थीं. शायद चढ़ती उम्र बेवजह ही इंसान के हर क्रियाकलाप पर अपनी लगाम खींचे रहती है, उसकी उन्मुक्त हँसी पर भी अपनी हेकड़ी कायम रखने से बाज़ नहीं आती. लेकिन वह बात सुहानी पर तो लागू नहीं होती. सुहानी की मुस्कान, उसका खिलन्दडीपन, उसकी हँसी के फव्वारे अभी उस पडाव पर थे जहाँ उम्र की हेकड़ी भी नहीं चलती है. बीस वर्ष की सुहानी माँ-बाप, दादा-दादी के भरपूर लाडप्यार में पली थी. देखने में सुन्दर, पढने में कुशाग्र. घर भर की आँखों का तारा. उसके जीवन में अवसाद पहली बार आया भी तो इतनी खुशियों की भीड़ में छुपकर कि सुहानी को उसकी मौजूदगी महसूस करने में भी कुछ दिन लग गए. मेडिकल कोलेज में दाखिला मिल जाना इतना सुखद था कि प्रियजनों से बिछुड़ने का दुःख ज़्यादा दिनों तक उसे साल नहीं पाया. दुखी होने के लिये समय ही कहाँ मिलता था. अब दादू-दादी मणिपाल आयें तो भी अधिक समय उन्हें नहीं दे पायेगी यह उसे मालूम था. तभी वह आग्रह करती रही कि दादू दादी आयें तो बंगलुरु, मैसूर, कुर्ग आदि घूमते हुए आयें. तब जाकर उनका इतनी दूर आना सार्थक हो सकेगा.

उमेश और छाया बढ़ती आयु के बावजूद अभी अशक्त नहीं हुए थे. आयु के हिसाब से स्वास्थ्य अच्छा ही था दोनों का. जवानी के दिनों का सैलानीपन का उनका शौक अधेड़ उम्र में भी किसी हद तक बना हुआ था. भारत हो या विदेश, काफी दुनिया उन्होंने देख रखी थी. आयु के छः दशक से अधिक पार करके जो जोश ठंढा पड़ने लगा था उसे सुहानी के आग्रह ने फिर से जगा दिया. अंत में वे दोनों दिल्ली की कड़कती ठंढ को पीछे छोड़ दक्षिण भारत के सुरम्य स्थानों के सौंदर्य को आँखों से पी लेने के लिए निकल पड़े. पर उनका मन जानता था कि मणिपाल में सुहानी के साथ बिताये दो तीन दिन ही इस दो सप्ताह लम्बी यात्रा का प्राप्य होंगे. बंगालुर और मैसूर वे पहले भी आ चुके थे. पर मणिपाल से तीन सौ किलोमीटर पहले कुर्ग के प्राकृतिक सौन्दर्य ने उनका मन मोह लिया. यहाँ वे पहली बार आये थे. सच पूछो तो ऐसा कुछ अनोखा नहीं था कुर्ग में जो उन्हें अभिभूत कर देता. लेकिन वहां के पर्यावरण की निर्मलता और कोफ़ी और चाय के बागानों के मीलों लम्बे विस्तार में फैला हुआ उसका शांत रहस्यमय सा संसार उन्हें भा गया. कुर्ग की पर्वतीय ऊँचाइयों और हरी भरी ढलानों में चलते चलते वे तालकावेरी में कावेरी का पावन उद्गमस्थल भी देखने गए जहाँ कावेरी अपनी एक क्षीण छवि दिखा कर धरती की गोद में लुप्त हो जाती है और दस किलोमीटर दूर फिर प्रकट होती है भागमंडल में. तब तक उसकी बूंद बूंद से बनी क्षीण धारा धरती की कोख में ही एक तन्वंगी किशोरी नदी का रूप धारण कर चुकी होती है. उसी को देखकर जो बरसों पुरानी घटना उमेश के स्मृतिपटल पर कौंध गयी और जिसे उन्होंने निहायत मासूमियत के साथ छाया को बता भी दिया वह छाया को इतना आहत कर गयी थी कि दो दिनों से वे रूठी हुई थीं. पहले तो उमेश ने हंस कर कहा था कि वे खाहमखाह वहाँ ताड़ बना रही थीं जहाँ तिल भी नहीं था. पर छाया की हँसी जब नहीं लौटी थी तो उन्होंने तय किया था कि सुहानी के सामने जब वे हंस कर सारी बात सुनायेंगे तो छाया भी मुस्करा पड़ेंगी.

धरती की कोख में नन्ही कावेरी के लुप्त हो जाने और मीलों दूर एक किशोरी के रूप में पुनर्जन्म लेने का बिम्ब उमेश के ध्यान में आया और वे सहम से गए. “धत्तेरे की! फिर मुझे कावेरी की याद आ गयी. पहले भी सारी मुसीबत उसी याद को उजागर करने से आयी थी.‘ उन्होंने सोचा और मन की बात उनके पारदर्शी चेहरे पर उतर आयी.

‘क्या हुआ दादू?’ सुहानी ने उन के चेहरे पर बदलते हुए भावों को पढ़ लिया.” अभी तो आप बताने वाले थे कि दादी क्यूँ नाराज़ हैं आपसे. अब आप का चेहरा कह रहा है कि ज़रूर आपने ही कुछ गड़बड़ की है. बताइये न, ऐसा क्या कर डाला आपने कि वह रूठ गयीं आपसे? लगता है आपने टूर में उनकी अच्छी तरह से सेवा सुश्रुषा नहीं की.’ वह उन्हें और दादी दोनों को छेड़ती हुई बोली.

‘ क्या बताऊँ बेटा. असल में हम दोनों जिस दिन कावेरी के उद्गम स्थल पर उसका लुप्त हो जाना और भागमंडलम में फिर से प्रकट हो जाना देखने गए, तुम्हारी दादी उसी दिन से नाराज़ हैं. इतनी छोटी सी और इतनी पुरानी बात पर कि तुम्हे बताउंगा तो तुम हँसते हँसते लोटपोट हो जाओगी. पर डर ये है कि फिर वही राग छेड़ने पर ये और गुस्सा न हो जायें’ उमेश ने कहा.

‘दादू से कह दो, अपनी जवानी के किस्सों से तुमको तो दूर ही रखें. मुझे तो जो कुछ बताना था वो बता ही चुके” अब तक चुप बैठी छाया अचानक तिलमिलाकर बोलीं.

‘हद कर दी तुमने भी, कैसे बिना बात का बतंगड़ बना रखा है तुमने. ----’ उमेश के कुछ और बोलने से पहले ही सुहानी ने गलबहिंया डालकर उनसे इठलाते हुए पूछा ‘ अरे बताइये न दादू कहानी क्या है?’ ‘

‘ बिलकुल ठीक कहा तुमने बेटा, बस छोटी सी कहानी ही थी, वह भी बहुत मासूम सी. और उसी को सुनकर तुम्हारी दादी के दिमाग का पारा चढ़ गया. लो तुम भी सुनो .

‘मैंने बताया न कि हम लोग कुर्ग में कावेरी के उद्गम स्थल तालकावेरी में बना मंदिर देखने गए थे जहाँ कावेरी एक ऊंचे टीले जैसे शिखर पर एक क्षीण जलधारा के रूप में प्रकट होती है. जलधारा भी कैसी, बस बूंद बूंद टपकता जल. फिर कावेरी धरती की कोख में लुप्त हो जाती है. और कई मील तक भूमिगत रहने के बाद एक प्राप्तयौवना नदी बन कर प्रकट होती है. उसे देखकर एक बहुत पुरानी घटना याद आ गयी. आज से आधी शताब्दी पह्ले एक बेहद सुन्दर लड़की के साथ मैंने एक रेल यात्रा की थी. उसका नाम भी कावेरी था. उस यात्रा के बाद जीवन में फिर कभी उससे मिलना नहीं हुआ. मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि ऐसी किसी लड़की का नाम लेने से तुम्हारी दादी रूठ सकती हैं. अरे भाई, उन दिनों आज जैसा तो था नहीं कि लड़के लड़की खुले दिल से, बिना किसी अपराधभावना के मिलें जुलें. पता नहीं कैसे तुम्हारी दादी समझ गयी हैं कि वह लड़की मेरी ऐसी दोस्त थी जिसे मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ.’ उमेश ने जैसे सुहानी के बहाने छाया को समझाते हुए कहा.

‘अच्छा, सुहानी बेटा, पूछ भला अपने दादू से, इतने दिनों बाद उस लड़की का ज़िक्र किया ही क्यूँ. है न उसकी याद इनके दिल में छुप कर बैठी हुई? तभी तो इतनी शिद्दत से याद किया उस दिन.” छाया बोलीं.

दादी दादू के इस अजीब से अफ़साने को सुनकर सुहानी हंसने लगी. ‘अब तो आपको तफसील से बताना ही पडेगा इस कावेरी के किस्से को’

‘ क्या बताऊँ? बता तो दिया. ले फिर से सुन ले सारी बात. बात आज से पूरे पचास साल पहले की है. मैं तब सरविस में नया नया आया ही था. मुझे सरकारी काम से एक बार हैदराबाद से बंगलोर जाने का आदेश मिला. हैदराबाद से रात में चलकर अगली दोपहर तक बैंगलूर पहुँचाने वाली ट्रेन के फर्स्ट क्लास के डिब्बे में मेरा आरक्षण था. मैं बैठा तो डिब्बे में कोई और नहीं था यद्यपि बाहर चिपकी पर्ची पर दो महिलाओं के नाम लिखे हुए थे –बताते बताते उमेश की आँखों के आगे फिर वह दृश्य सजीव हो उठा. वे उसमे खो से गए –

ट्रेन सीटी देकर प्लैत्फोर्म से सरकने ही वाली थी कि एक कुली ने झटके से डिब्बे का दरवाज़ा खोलकर दो छोटे सूटकेस अन्दर फेंके और एक अधेड़ सी महिला को जल्दी चढ़ जाने के लिए तेलुगू में कुछ कहने लगा. उमेश ने उन्हें हिचकिचाते देखा तो उठकर अपने हाथ का सहारा देकर उन्हें अन्दर खींच लिया. पीछे पीछे एक बीस इक्कीस वर्षीया तन्वंगी युवती स्वयं फुदक कर डिब्बे में चढ़ ही पाई थी कि ट्रेन ने सरकना शुरू कर दिया. प्रौढ़ महिला घबराई हुई थीं. अपनी मैसूर सिल्क की सारी के पल्ले को चेहरे पर डुलाकर माथे पर छलछला आया पसीना सुखाने लगीं. और वह युवती? वह पहले मुस्कराई, फिर हँसी. क्षण भर के बाद थोड़ा दम लेकर उसने कन्नड़ में जो कुछ कहा उसका तात्पर्य रहा होगा ‘अम्मा, आज तो बड़ा मज़ा आया!’ तभी अम्मा ने आधे रोष और आधी मुस्कान के साथ उससे जो कहा उसका साफ़ साफ़ अर्थ था “ अब बंद भी कर अपने दांत दिखाना‘ इस मीठी झिडकी को सुनकर वह बजाय सहम जाने के हँसी से और भी दुहरी हो गयी. उमेश कुछ हतप्रभ से होकर उसे देखते ही रह गए. निर्निमेष था उनका निहारना. तीखे नयन नक्श वाली, वह लावण्यमयी किशोरी कुछ कुछ ऐसी ही थी जैसी कि बचपन में नानी से सुनी कहानियों में सुनहले बालों वाली राजकुमारी होती थी. तभी उन्हें मौक़ा मिल गया बातों का सिला जोड़ने का. अम्मा ने अचानक चौंक कर कहा ‘ अरे, ठंढे पानी वाला फ्लास्क तो छुट ही गया!’ और उनकी मस्त मौला बेटी को एक बार फिर से हंसने के लिए नया मसाला मिल गया. उमेश ने अपने साथ की पानी की बोतल उनकी तरफ चुपचाप बढ़ा दी. बस इसी से शुरू हुआ था उनकी बातचीत का सिलसिला.

पहले प्रौढा ने उन्हें कोंवेन्टी अंग्रेज़ी में धन्यवाद दिया, फिर भगवान् को धन्यवाद दिया कि एक भले व्यक्ति का साथ उन्हें मिल गया था वरना वे तो रात की इस ट्रेन में अपनी बेटी के साथ अकेले जाने में कुछ सकुचा रही थीं. उमेश ने अपने सरकारी पद का हवाला देकर जब उन्हें पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया तो वे खूब मुखर हो गयीं. पर जैसे ही उनके सवालों के जवाब में उमेश ने बताया कि उनका घरपरिवार दिल्ली में था अब तक प्रायः चुप बैठी कावेरी जैसे जाग पड़ी. फिर जब दिल्ली के बारे में उसने सवाल पूछने शुरू किये तो उनका अंत ही नहीं था. गणतंत्र दिवस परेड से लेकर दिल्ली के कोलेजों तक के बारे में इतना कौतूहल था उसे कि उमेश को वह लड़की कम और क्विज़मास्टर अधिक लगने लगी. कावेरी का औपचारिक परिचय तो उमेश को नहीं दिया गया था पर इतनी सहज और वाचाल थी वह कि उमेश को उसके बारे में कुछ पूछने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. रह रह कर अपने और अपने परिवार के विषय में वह कुछ ऐसा बोल जाती थी जैसे उमेश उन सबको जानता हो. उसके निश्छल स्वभाव की सादगी एक खुले आकाश के वितान की तरह थी जिसमे उमेश के अजनबीपन का पंछी ऊंची उड़ान भरता हुआ देखते देखते ओझल हो गया. उसकी मीठी आवाज़ और छन-छन करती चूड़ियों की झंकार जैसी उसकी हँसी उमेश को अन्दर तक भिगोने लगी. संभ्रांत परिवार की उस माँ बेटी की जोडी की अत्यंत उदात्त और सहज बातचीत में बहकर युवा उमेश कब सह्यात्रीपन का फासला घटाते घटाते अपनापन की दहलीज पर पहुँच गए कहना कठिन था. पर तभी ‘अम्मा’ ने कावेरी को दुलार भरी झिडकी देते हुए कहा कि रात बहुत हो रही थी अब उन्हें सो जाना चाहिए. साथ ही यह भी जोड़ दिया कि कल बंगलोर पहुंचते ही परिवार में होने वाले उत्सव के लिए कावेरी को तरोताजा भी दिखना होगा तो उमेश के पास कोई विकल्प नहीं बचा सिवाय इसके कि चुपचाप डिब्बे की लाईट बंद करके अपनी बर्थ पर लेट कर आँखों से दूर उडी हुई नींद को बुलाने के कठिन काम में जुट जाएँ. ‘क्या आयोजन है कल उनके परिवार में? कावेरी क्या उस आयोजन में बहुत अहम् किरदार अदा करने वाली है? या उससे केवल इतनी अपेक्षा है अम्मा को कि मेहमानों के बीच वह थकी थकी सी न लगे?’ बहुत सारे प्रश्न उमेश के मन में उमड़ते घुमड़ते रहे और वे जाने कितनी देर तक करवटें बदलते रहे. पर मां बेटी दोनों सहज मन और प्रसन्न चित्त से कुछ ही मिनटों में गहरी सांस लेकर नींद के आगोश में समा जाने का संकेत देने लगीं. उमेश के कानों में कावेरी की खनखनाती हँसी देर तक दूर किसी मंदिर की घंटियों की तरह प्रतिध्वनित होती रही. ‘कल सुबह उठते ही बातों का सिलसिला फिर शुरू कर दूँगा, क्या पता कावेरी की शहद घुली आवाज़ जीवन में फिर कभी सुनने को मिले या नहीं!’ यही सब सोचते हुए अंत में उनकी आँखें लग गयीं.

स्वाभाविक था कि सुबह उमेश की नींद देर से खुले. आँखें खुलीं तो देखा वे दोनों तरोताजा होकर रात के कपडे चेंज करके स्टील की छोटी कटोरी और स्टील के ग्लास के साथ मिलने वाली ताज़ा ब्र्यु की हुई दक्षिण भारतीय कोफ़ी की चुस्की ले रही थीं. कावेरी ने ललक के साथ गुड मोर्निंग कहा. अम्मा ने केवल मुस्करा कर सर हिलाया और उनकी नाक में जड़ी हीरे की कील झिलमिला उठी.

सुबह होने वाली बातों में उमेश को कुछ विशेष रस नहीं मिला. शायद उनके मन को अगले घंटे के अन्दर ही इस यात्रा के समाप्त हो जाने का दुःख साल रहा था. इस बार अम्मा ने अपनी तरफ से पहल की. बोलीं ‘स्टेशन पर कावेरी का बड़ा भाई हमें लेने आ रहा है. हम मल्लेश्वरम में रहते हैं. आज तीसरे पहर हमारे यहाँ एक उत्सव है . तुम भी आना. पहुँचने में दिक्कत नहीं होगी. कावेरी के दादा जी कोर्पोरेशन के चीफ इंजीनियर रहे हैं और पिता हिन्दुस्तान एरोनाटिक्स में जी एम हैं. सब लोग जानते हैं.’

उमेश का मन बल्लियों उछलने लगा. भगवान इतने कृपालु होंगे यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. मारे खुशी के वे यह पूछना ही भूल गए कि आयोजन आखीर था क्या. ठीक से पूछने का समय भी नहीं मिला. वे तरोताजा होने के लिए चल दिए और जब कपडे चेंज करके वापस लौटे तो गाड़ी बंगलूर सिटी स्टेशन के सिग्नल को पार कर चुकी थी. स्टेशन पर उतर कर कावेरी ने अपने भाई से बड़े चाव से मिलवाया. वह भी सुदर्शन और शालीन नौजवान था. हाथ मिला कर दोस्ती पक्की करने वाले अंदाज़ में उसने कहा ‘ अम्मा ने आपको बताया होगा आज शाम को कावेरी की सगाई का आयोजन है. आप आइयेगा ज़रूर.’

उमेश के विचारों की लड़ी एक झटके से टूट गयी. एक छलांग में आधी सदी का विस्तार वे लांघ गए. सुहानी को उन्होंने आग्रहपूर्वक पूछते सुना कि आखीर किस घटना की याद में वे खोये हुए थे. उन्हें लगा कुछ तो बताना ही पडेगा. पर सारा किस्सा बयान करने से क्या फ़ायदा. बस यही बताना होता कि वे उस निमंत्रण पर मल्लेश्वरम तक जाने के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाए थे. कावेरी उनके जीवन में जैसे अचानक आई वैसे ही क्षण भर के लिए अपनी उन्मुक्त हँसी बिखरा कर लुप्त भी हो गयी थी. पर सुहांनी को कुछ तो बताना ही था. बोले ‘अरे बेटा, कुल इतनी सी बात थी कि एक बार रेलयात्रा में मुझे एक लडकी का साथ मिला था. उसका भी नाम कावेरी था और कावेरी नदी जैसी ही उत्फुल्ल और पवित्र लगी थी वह मुझे. हाँ सुन्दर भी बहुत थी. पर मैं उससे जीवन में दुबारा कभी नहीं मिला. उस दिन तुम्हारी दादी के साथ जब कावेरी को लुप्त होते और पुनः प्रकट होते देखा तो मैंने बस इतना कहा ‘एक और कावेरी को मैंने एक बार देखा था. आधी सदी पहले. कैसा लगेगा यदि वह भी यहीं कहीं धरती की कोख से दुबारा बाहर आकर विचरती हुई कावेरी नदी की तरह दीख जाए?’ बस इतना ही कहा था मैंने और तुम्हारी दादी उसे इतना बड़ा फसाना बना बैठीं.

एक बार फिर सुहानी को खिलखिला कर हंसते हुए सुना उमेश ने पर उन्हें उस हँसी में वह सहजता नहीं लगी जो सुहानी के बचपन में होती थी. फिर भी हंसते हंसते ही वह बोली ‘सच दादी, बस इतनी ही सी बात थी. आप भी कमाल करती हैं, बेचारे दादू को यूँ ही परेशान कर रही हैं. खैर, अब जल्दी से चेंज कर लीजिये. मैं आपको यहाँ का विख्यात मंदिर दिखाती हूँ जिसकी आधुनिक डिजाइन यहीं के आर्किटेक्चर के छात्रों ने बनायी है.’ और वह छाया का हाथ पकड़ कर दूसरे कमरे में ले गयी.

पर जब वह छाया को अन्दर छोड़कर वापस आयी तो चेहरे पर हँसी का स्थान गंभीरता ने ले लिया था. उमेश को तो पहले ही लगा था कि सुहानी की हंसी में कुछ मिसिंग था. आते ही उसने उमेश को आड़े हाथों लिया ‘ क्या दादू, आप इतने बड़े हैं, अब क्या मैं आपको समझाउंगी कि पैंतालीस साल से जो आपकी संगिनी है उसके सामने किसी ऐसी लडकी की याद में खो जाना ठीक नहीं जो राह चलते कुछ देर के लिए मिल गयी हो. क्या औरत के मन को आजतक नहीं समझ पाये आप दादू?’

उमेश अवाक रह गए. अब तक तीन ही बातें वे सोच पाए थे- वे निर्दोष थे, छाया नकचढी थी और सुहानी एक बच्ची थी. एक झटके में तीनों बिन्दुओं पर गलत साबित हो जायेंगे यह उन्होंने सोचा न था. कुछ क्षणों तक वे सुहानी को देखते रहे, फिर फुसफुसाए ‘ मेरी बच्ची, तू देखते देखते इतनी बड़ी हो गयी?’ और स्नेहातिरेक से सुहानी का माथा उन्होंने चूम लिया.

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