आइना सच नही बोलता
हिंदी कथाकड़ी
भाग १६
लेखिका _कविता वर्मा
सूत्रधार – नीलिमा शर्मा निविया
माँ की बात ने नंदिनी के हौसलों को बुझा दिया। वह अपने कमरे में आकर लेट गई और सोचने लगी पापा भाई और दीपक तो रेखा के उस ओर खड़े हैं जिनकी सोच से उसे लड़ना है उसे बदलना है लेकिन अभी तो उसे उन लोगों की सोच भी बदलना है जो उसके साथ उसके पाले में खड़े हैं। वह हैरान थी कि माँ जिसे बचपन से पिता के शासन तले घुटते देखा है वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व का एक कोना तलाशने को भी तैयार नहीं थी। ना ही खुद की जिंदगी की परछाई तले अपनी बेटी और बहू की जिंदगी के स्याह उदास पहलू को देखना चाहती पर है ना महसूस करना। माँ ऐसा कैसे कर सकती है? क्या इतने सालों के दुःख और दमन ने उसके भीतर की स्त्री और माँ को भी मार दिया है ?जिससे अब वह अपनी बेटी और बहू के लिए तटस्थ हो गई है यथास्थिति से समझौता कर लिया है और अब किसी तरह के मानसिक संघर्ष में ना खुद शामिल होना चाहती है और ना ही उसे और भाभी को शामिल होते देखना चाहती हैं।क्या जीवन में शांति का मतलब अपनी इच्छाओं और आकाँक्षाओं को मार देना ही है ?
नंदिनी अपने विचारों के झंझावात में उलझी थी तभी चिंहुक उठी। पेट में एक मीठी सी मरोड़ उठी अंदर से कोई थपथपाहट हुई जैसे उसे इन उदास विचारों से बाहर लाने की कोशिश की जा रही हो। एक हाथ अपने पेट पर रख दूसरे से खुद को सहारा देते नंदिनी उठ बैठी। ओह कितना मीठा एहसास था। उसमे पलने वाला नन्हा जीव उसके अंदर करवट बदल रहा है शायद उसकी बैचेनी को समझ कर उससे बात करना चाहता है। ओह मेरा बच्चा। नंदिनी ने फिर हलचल महसूस करने की कोशिश की लेकिन वहाँ शांति थी। आज पहली बार उसने इसे महसूस किया था किससे कहे किसे बताये। ओह दीपक काश के आप मेरे पास होते। आप सुनते महसूस करते अपने बच्चे से बात करते। नंदिनी अकेलेपन से घिर गई। दीपक की बाँहों के घेरे बेतरह याद आने लगे। वह उठकर ड्रेसिंग टेबल के सामने जा खड़ी हुई। पेट पर से आँचल सरकाकर उसने विकसित होते शरीर को देखा तभी फिर हलचल हुई और ' उई माँ ' कहते एक सिसकारी उसके मुँह से निकल गई।
दरवाजे पर आहट हुई भाभी चाय की ट्रे लिये खड़ी थीं उसने झट से आँचल ठीक किया और लजा गई। "ननद रानी हो गई नींद पूरी "भाभी ने हँसते हुए कहा।
"कहाँ भाभी नींद ही नहीं आई बस यूँ ही लेटी थी थोड़ी देर।"
"लगता है दीपक बाबू की याद सोने नहीं दे रही है " भाभी ने कहा तो मुस्कुराकर, पर उनकी आँखों का सूनापन छुप ना सका। दोनों ख़ामोशी से चाय पीते रहे और कनखियों से एक दूसरे को देखते रहे एक दूसरे से अपना दर्द छुपा कर और एक दूसरे के दर्द को भाँपते रहे।
"आपकी सहेली सुनीता का फ़ोन आया था " भाभी ने धीरे से कहा।
"ओह्ह मैं तो भूल ही गई , भाभी मैं उससे मिलने नहीं जा सकती " नंदिनी ने अनुनय की।
"क्या बात कर रही हो नंदिनी ऐसी हालत में, जानती हो ना उसके साथ क्या हो चुका है ? माँ को पता चला कि मैंने फ़ोन की बात बताई है तो मेरी खैर नहीं। चुपके से उसे फ़ोन कर लेना वह भी तड़प रही है तुमसे बात करने के लिये।"
"भाभी उसे यहाँ बुला लूँ तो। "
"बात तो एक ही है ना बिन्नो , ऐसे समय उसकी परछाई भी नहीं पड़नी चाहिए तुम पर। कहीं कोई ऊंच नीच हो गई तो दीपक बाबू और उनके घरवालों को क्या जवाब देंगे हम लोग। "
नंदिनी का हाथ अनायास अपने पेट पर चला गया वह मीठी सी हलचल याद आ गयी ,"ठीक है मैं फोन पर बात कर लूँगी " उसने धीरे से कहा।
"हैलो" एक धीमी सी आवाज़ फोन पर उभरी। " सुनीता मैं नंदू नंदिनी , कैसी है तू ?" जवाब में एक सिसकी सुनाई दी तो नंदिनी भी अपने आँसू नहीं रोक पाई। उसे खुद से ग्लानि हुई कि ऐसे समय भी वह मिलने नहीं जा सकी।
"तू कैसी है , दीपक जीजाजी कैसे है , तू खुश तो है ना नंदू सब ठीक है ना ?" लगातार प्रश्न सुनीता की उससे मिलने की तड़प बता रहे थे पर दोनों ही मजबूर थीं।
नंदिनी को याद आया पहले वे दोनों गाँव बाहर शिव मंदिर में घंटों बैठे बाते करती रहती थीं। "सुनीता तू शिव मंदिर आ जा ना मैं भी घूमने का कह कर आ जाती हूँ। तुझसे मिलने का बड़ा मन है। "
"पागल हुई है क्या नंदू तेरी ऐसी हालत में मुझसे मिलना चाहती है , जानती है ना अब मैं विधवा हूँ " सुनीता ने बहुत रोका पर सिसकी नंदिनी तक पहुँच ही गई। " तू अपना ध्यान रख मिलने की जिद ना कर सब कुछ ठीक से हो जायेगा ना तो मैं खुद तुझसे मिलने आऊँगी शायद। " कहते कहते सुनीता का स्वर धीमा पड़ गया।
फ़ोन कट गया और दोनों फ़ोन को सहेली का कंधा समझ कर उसपर सिर टिकाये हिलक हिलक कर रो रही थीं। कैसे रीति रिवाज हैं ये कैसा अंध विश्वास ?
स्कूल के पीछे बड़े इमली के पेड़ के नीचे बैठना दोनों को पसंद था ,उस दिन नंदिनी ने झिझकते हुए पूछा था "सुनीता तेरे वो शुरू हो गए क्या ?"
"वो क्या ?" इमली के चटकारे लेते हुए सुनीता ने लापरवाही से पूछा था।
" अरे वो जो सब लड़कियों को हर महीने होते हैं ना " नंदिनी ने झिझकते हुए पूछा।
" तो सीधे पूछ ना माहवारी ये वो क्या है ? इसका मतलब नंदू तेरे भी शुरू हो गये कब से ? सुनीता ने गलबहियाँ डालते हुये पूछा।
"इसी महीने से , कितना गन्दा लगता है ना सबसे अलग थलग रहना , ये नहीं छूना वो नहीं छूना। "
"हें तू मानती है ये सब " सुनीता ने आँखें फैला कर कहा फिर हँसते हुए बोली मैं तो माँ की नज़र बचा कर सब छू लेती हूँ और तो और अचार भी निकाल लेती हूँ। "
"पागल है क्या तू, अचार ख़राब हो गया तो ," नंदिनी ने हैरानी से पूछा।
"पागल हाथ तो धुले हुए साफ रहते हैं ना तो अचार कैसे ख़राब होगा ? विज्ञानं कहता है ये शरीर की प्राकृतिक क्रिया है बाकी सब अंधविश्वास है , मैं नहीं मानती ये सब। और एक बात बताऊँ सुनीता हँसते हँसते दोहरी हो गई "मैं तो साल भर से हर महीने अचार छू रही हूँ ख़राब होना था तो अब तक हो जाता।"
नंदिनी ने महसूस किया वो मुस्कुरा रही है। विज्ञानं की बिंदास छात्रा सुनीता आज उससे मिलने से डर रही है भाभी उसे मिलने से मना कर रही हैं और खुद नंदिनी अपनी सहेली से मिलने की कोई जिद नहीं कर पा रही है। हम औरतों का दिल कितना कमजोर होता है ना, साथ ही इच्छाशक्ति भी, तुरंत झुक जाते हैं हर दम किसी अनहोनी की आशंका से डरे हुये।
आईने के सामने खड़ी नंदिनी अपना ही अक्स नहीं पहचान पा रही थी। डरी सहमी आहत उपेक्षित नंदिनी किस दम पर माँ भाभी और खुद की जिंदगी बदलने के सपने देख रही है ? तभी आईने में भाभी का अक्स उभरा मुरझाई और उपेक्षित अपनी उमंगों को भुला चुकी भाभी , अपने को अपशकुनी मानने वाली सुनीता सब नंदिनी में डगमग होने लगे। तू कुछ नहीं कर पायेगी तेरा हश्र भी भाभी सा होता हुआ माँ सामान होगा। बहुत बड़े बड़े सपने देख लिए तूने ये जो लड़की इस आईने में नज़र आ रही है बदहवास, बिना आत्मविश्वास के ये कुछ नहीं कर पायेगी कुछ भी नहीं। मान जा बेकार की बातों में अपना सिर ना खपा क्योंकि आईना झूठ नहीं बोलता।
"नंदू नंदू बेटा " खट की आवाज़ के साथ कमरा रौशनी से भर गया माँ को देख नंदू उनसे लिपट कर रो पड़ी।
"क्या हुआ बेटा तू यहाँ अकेली अँधेरे कमरे में क्या कर रही है, तेरी भाभी कहाँ है ? साक्षी ओ साक्षी " माँ ने आवाज़ दी। " तुम कहाँ थीं यहाँ नंदिनी को कमरे में अकेले छोड़ कर ?"
"वो माँ मैं " नंदिनी की हालत देख कर भाभी घबरा गई मैं पानी लाती हूँ कह कर दौड़ पड़ी। माँ ने उसे बिस्तर पर लिटाया और आँचल से उसके आँसू और पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर वह कुछ प्रकृतिस्थ हुई। "मैंने सोचा तुम नंदिनी के साथ हो मुझे बताना तो था वो अकेली है। ऐसे में शाम के समय अकेले अँधेरे कमरे में बुरे बुरे ख्याल आते हैं डर गई वो " माँ के स्वर में नाराजगी थी। भाभी सिर झुकाये सुनती रहीं और नंदिनी उन्हें देखती रही।
अब माँ नंदिनी को अकेले नहीं छोड़ती थीं साक्षी को भी सख्त हिदायत थी उसे अकेला न छोड़ा जाये। दो चार दिन में ही नंदिनी उकताने लगी इसलिए अब वह कभी भाभी के साथ रसोई में हाथ बंटाती कभी भतीजे के साथ खेलती। वह रहती सबके साथ पर उसके दिमाग में सुनीता भाभी और खुद की स्थिति घूमती रहती। एक से दूसरे से तुलना करती , पर कौन बेहतर है कौन कमतर समझ नहीं पाती। साक्षी खुश दिखने की कोशिश करती है पर एक खालीपन है खुद की तलाश का। सुनीता दुखी है खुद को दुखी दिखा सकती है उसका आत्मविश्वास धीरे धीरे मर रहा है। खुद अपने पर आकर वह अकसर अटक जाती है समझ नहीं पाती खुश है या दुखी।
दीपक के फ़ोन आते रहते हैं उसके वहाँ से जाने पर अकेलापन तो महसूस करते हैं पर उसे प्रकट गुस्से में करते हैं कोई तीखी अपमानजनक बात कह कर। उसे छोटा पिछड़ा नासमझ बता कर। उसको महत्व देना शायद उनके पौरुष को गवारा नहीं था। जिस हुलस से वह फोन उठाती है रखते हुए उतने ही अवसाद से भर जाती है , फिर खुद को पाने की दिमागी जद्दोजहद शुरू हो जाती है पर कर कुछ नहीं पाती।
माँ को बाजार जाना था उसने भी चलने की जिद की "माँ घर में बैठे बैठे बोर हो गई हूँ , फिर गाड़ी से ही तो जाना है। माँ ने साक्षी को भी साथ चलने को कहा। नंदिनी की उदासी देख अब माँ साक्षी के लिये कुछ सहृदय होने लगी हैं या सहृदय तो पहले भी थीं पर घर के पुरुषों के डर से और कहीं साक्षी अपने सपनों को उड़ान ना देने लगे इस भय से थोड़ी तटस्थ बनी रहती थीं।
माँ की खरीदी के बाद नंदिनी और साक्षी गोलगप्पे खाने रुक गयीं , तभी नंदिनी की नज़र सामने साड़ी की दुकान पर पड़ी दिमाग में कुछ आया और उसकी आँखें चमक उठीं।
"भाभी मेरे लिये कुछ करोगी ?"
इस अनायास प्रश्न से साक्षी चौक गयी ,'हाँ लेकिन क्या ?" उलझन भरे शब्दों में प्रतिप्रश्न आया।
"चलो मेरे साथ " नंदिनी साक्षी को खींचती हुई सी ले गई।
बेटी की इच्छा माँ कैसे मना करती साक्षी ने आसमानी और हलके गुलाबी रंग की दो प्लेन साड़ियाँ ले लीं फिर लंबा चक्कर लगा कर फेब्रिक कलर ब्रश और फ्रेम भी खरीदी। माँ कुछ कुछ समझ रही थीं पर चुप रहीं। रास्ते में साक्षी ही बोल पड़ी "माँ भाभी अपना ये हुनर पूरी तरह से भूल जायें इससे पहले मैं उनके हाथ की बनी साड़ियाँ तो पहन लूँ नहीं तो हसरत ही रह जायेगी। "
पेंटिंग फिर शुरू करना साक्षी के लिये ननद का आग्रह था जिसे उसने पूरे मन से ग्रहण किया। पहले एक पुराने दुपट्टे पर हाथ साधा फिर एक साड़ी पर बेल बूटे और दूसरे में विशाल समुद्र में तैरते जहाज़ और छोटी छोटी नावों की सुंदर सी सीनरी का चयन किया। माँ के पीछे पड़ नंदिनी ने सुंदर सुंदर फ्रॉक मोज़े साड़ी के लिये लेस और जाने क्या क्या बनाने को कहा। अब दिन में घर का मुख्य दरवाजा बंद कर नंदिनी के कमरे में बैठक जमती। नंदिनी मोबाइल पर रेडियो लगा देती ,पुराने गाने सुन कर माँ खुद को रोक नहीं पाती और गुनगुनाने लगती। उनकी आँखें मुंद जातीं और उन गीतों के सहारे देखे किसी सपने को याद कर उनके होंठों पर हलकी स्मित की रेख बड़ी भली लगती। सपने भी तो कुछ देर हकीकत से परे खुश होने का जरिया हो सकते हैं। साक्षी और नंदिनी भी अपना कोरस शुरू कर देतीं। कभी अंताक्षरी तो कभी पुराने किस्से कहानी। हाँ दुखी करने वाली बातें कोई याद नहीं करता। माँ और साक्षी भी इन सुख के थोड़े दिनों को भरपूर जीने का आनंद लेने लगीं थीं।
दिन बीतते गए दीपक एक बार भी नंदिनी से मिलने नहीं आये उनकी चिड़चिड़ाहट बढ़ती जा रही थी। डिलीवरी के दिन नज़दीक आ रहे। नंदिनी को दीपक की याद बेतरह आती पर वह भी उन्हें आने को ना कहती। वह नहीं चाहती थी दीपक का असली रूप घर में सबके सामने खुले। दीपक एक बार अपने पिताजी को देखने गये थे चाहते तो आ सकते थे पर नहीं आये और नंदिनी ने भी ये बात सबसे छुपा ली।
उस दिन नहाकर नंदिनी तुलसी में जल चढ़ा रही थी कि अचानक दर्द की तेज़ चिलक से उसकी चीख निकल गयी। पापा भैया भाभी माँ सभी दौड़े आये। दर्द शुरू होते देख पापा ने तुरंत गाड़ी निकालने को कहा तो माँ ने डपट सा दिया ,अभी उसे कमरे में ले चलो। साक्षी तू जल्दी से दूध गरम कर ला ,माँ थैले में सामान रखने लगीं। बीच बीच में उसका सिर सहलाती और हिम्मत रखने को कहतीं। पापा और भैया कमरे के बाहर चक्कर लगा रहे थे बीच बीच में पूछते अब चलें और माँ याद करके हॉस्पिटल, डॉक्टर , दीपक की माँ और दीपक को फ़ोन करने को कहतीं। पापा आज माँ के सामने बेबस लग रहे थे। आज सारे फैसले माँ के हाथ में थे। करीब एक घंटे बाद माँ नंदिनी को लेकर गाड़ी में बैठीं आज उनकी देरी पर पापा झल्ला भी नहीं पा रहे थे। दर्द के बीच भी नंदू मुस्कुरा दी ,यही वह बात है जहाँ पुरुष बेबस हो जाता है। ज़माने को जानने समझने वाला इस मसले पर अनाड़ी।
नंदिनी की सास डलिया भर सामान के साथ पोते को देखने आईं। लड्डू पंजीरी बच्चे के कपडे नंदिनी साक्षी और उसके बेटे के लिये कपडे। सभी हतप्रभ थे ये कैसी उलटी रीत। "समधन जी आप तो मुँह मीठा करो मैं दादी और आप नानी बन गये हो। मेरे दीपक का कुलदीपक आया है। नंदिनी ने सासु माँ की आँखों में झाँक कर देखा उस अनकहे प्रश्न से बचने के लिये उन्होंने आँखें फेर लीं। दीपक नहीं आया नंदिनी उसकी बेरुखी समझ नहीं पा रही थी। ना खुद के लिए उसका रूखापन ना ही अपने बेटे के लिये उसका ये बेगानापन।
सूत्रधार नीलिमा शर्मा निविया
परिचय लेखिका
कविता वर्मा
वर्तमान निवास इंदौर
जन्मस्थान टीकमगढ़
शिक्षा बीएससी बी एड
पंद्रह वर्ष गणित शिक्षण
लेखन कहानी कविता लेख लघुकथा
प्रकाशन कहानी संग्रह 'परछाइयों के उजाले ' को अखिल भारतीय साहित्य परिषद् राजस्थान से सरोजिनी कुलश्रेष्ठ कहानी संग्रह का प्रथम पुरुस्कार मिला।
नईदुनिया दैनिक भास्कर पत्रिका डेली न्यूज़ में कई लेख लघुकथा और कहानियों का प्रकाशन।
कादम्बिनी वनिता गृहशोभा में कहानियों का प्रकाशन।
स्त्री होकर सवाल करती है , अरुणिमा साझा कविता संग्रह में कविताये शामिल।