Devo ki Ghati - 2 in Hindi Children Stories by BALRAM AGARWAL books and stories PDF | देवों की घाटी - 2

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देवों की घाटी - 2

यात्रा की तैयारियाँ

भाग-1 से आगे

उसके बाद बाकी ग्यारह दिनों तक दादा जी ने उन्हें यात्रा के दौरान काम आने वाली जरूरी चीजें बताने और उन्हें इकट्ठा करने में व्यस्त रखा। रस्सी, चाकू, एक छोटा और एक बड़ा ताला, टॉर्च, लाइटर, दो इलैक्ट्रॉनिक लालटेनें, मोमबत्तियाँ, दो-चार क्लिप्स, बैंड-एड्स, नेपकिन्स, टिश्यू पेपर, नहाने व कपड़े धोने के लिक्विड साबुन, टूथपेस्ट, हाजमे की गोलियाँ और चूर्ण। पहनकर चलने के लिए कपड़े के जूते, सिर ढँकने के लिए गर्म टोपियाँ व मफलर, स्कार्फ। और-भी पता नहीं क्या-क्या।

“एक काम और करना है…” दादा जी ने एक दिन कहा।

“क्या दादा जी?” दोनों ने एक-साथ पूछा।

“ममता से कहना—तुम्हारे कपड़ों को इस तरह सेट करे कि जो कपड़े इस्तेमाल हो चुके हों, उन्हें वापस उसी ब्रीफकेस में न रखना पड़े।”

“तो?” निक्की ने पूछा।

“तो यह कि साफ कपड़े एक ब्रीफकेस में और गन्दे कपड़े दूसरे ब्रीफकेस में।”

“मैं समझ गयी दादा जी।” मणिका बोली, “ऐसा करने से हमें हर बार सारे के सारे कपड़े उलटने-पलटने नहीं पड़ेंगे। है न !”

“बहुत समझदार लड़की है।” उसकी बात पर दादा जी खुश होकर उसके सिर पर हाथ फिराते हुए बोले।

ठीक पहली जून को हुआ, उनकी यात्रा का शुभारम्भ। जल्दी करते-करते भी ये लोग दोपहर के बाद ही घर से निकल पाए। प्रसन्न मन से निक्की और मणिका टैक्सी में सवार हो गए। उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि मम्मी और डैडी भी दादा जी के साथ आ रहे हैं।

‘‘मम्मी, डैडी आप भी!!’’ मणिका के मुँह से फूटा।

‘‘जी हाँ, हम भी।’’ सुधाकर ने रौब के साथ कहा। ममता केवल मुस्कराकर रह गई।

‘‘दादा जी, आपने तो हमसे कहा था कि यात्रा पर जाने की बात लीक आउट नहीं करनी है!...’’ इस पर मणिका ने शिकायतभरे अन्दाज में दादा जी से कहा, ‘‘सरप्राइज़ देना है।’’

‘‘हाँ तो, मिल गया न सरप्राइज़।’’ सुधाकर बोला,‘‘हमें न सही, तुम्हें।’’

‘‘दिस इज़ चीटिंग दादा जी!’’ निक्की दादा जी से रूठने के अन्दाज़ में बोला।

‘‘मैंने कोई चीटिंग नहीं की।’’ दादा जी बोले, ‘‘मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने जो बात छिपाए रखने को कहा था, उसे दोनों पक्षों ने निभाया।’’

बच्चों ने इसके बाद कोई शिकायत नहीं की क्योंकि वास्तव में तो वे खुश थे कि मम्मी-डैडी भी उनके साथ यात्रा पर चल रहे हैं।

यात्रा की शुरुआत

यात्रा शुरू हुई।

‘‘पहली बार अब से दस साल पहले गए थे हम इस यात्रा पर, है न बाबूजी?’’ टैक्सी आगे बढ़ी तो सुधाकर ने बात शुरू की, ‘‘निक्की तो तब पैदा भी नहीं हुआ था।’’

‘‘ठीक कहता है।’’ दादा जी ने हामी भरी, ‘‘लेकिन तब हम टैक्सी से नहीं, ट्रेन से गए थे और तेरी मम्मी और बच्चों का चाचा विभाकर भी साथ थे।’’

‘‘मम्मी जी इस बार विभाकर भैया के साथ मैसूर, ऊटी की यात्रा का आनन्द लेने गई हैं।’’ ममता बोली, ‘‘वे इस बार भी हमारे साथ ही रहतीं तो कितना मज़ा आता।’’

‘‘ठीक है बहू, वह साथ रहती तो परेशान ही ज्यादा करती।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘तुम्हें तो पता ही है कि यात्रा में उसे उल्टियाँ आने की बहुत तगड़ी बीमारी है।’’

‘‘वह बीमारी भी झेल ही ली जाती बाबूजी।’’ ममता ने कहा, ‘‘अब विभाकर भैया भी तो उसे झेलेंगे ही।’’

‘‘चलो अब मज़ा किरकिरा न करो बार-बार उसका नाम लेकर।’’ दादा जी शरारती अन्दाज़ में बोले।

‘‘बाबूजी...!’’ ममता ने बनावटी तौर पर आँखें दिखाते हुए तुरन्त उन्हें टोका, ‘‘आने दो मम्मी जी को...उन्हें बताऊँगी यह बात।’’

‘‘अरे, तू सीरियसली मत लिया कर मज़ाक को।’’ दादा जी ने कहा।

‘‘...और आप लोग जो मज़ाक-मज़ाक में कह जाते हो सीरियस बात को, उसका क्या?’’ ममता ने तर्क पेश किया। फिर सुधाकर की ओर इशारा करके बोली, ‘‘पता है, ये कितनी सीरियस बातें कर जाते हैं मुझसे? और पकड़े जाने पर कहेंगे—मैं तो मज़ाक कर रहा था। एकदम आप ही पर गए हैं...।’’

‘‘अरे, उनका बेटा हूँ तो उन्हीं पर जाऊँगा न!’’ उसकी बात सुनकर सुधाकर बीच में बोल उठा।

‘‘बेटे तो मम्मी जी के भी हो, उन पर क्यों नहीं गए?’’ ममता ने पूछा।

‘‘कुछ बातों में तो उन पर भी गया हूँ।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘वो तुमसे डरती हैं, मैं भी डरता हूँ।’’

‘‘हे भगवान! माफ कर देना अगर मैंने एक पल के लिए भी उन्हें डराए रखना चाहा हो...’’ सुधाकर की इस बात पर ममता अपने दोनों कानों को हाथ लगाकर रुआँसी आवाज में बोली।

‘‘बस हो गई छुट्टी!’’ पीछे बैठी मणिका के मुँह से निकला, ‘‘आपने मम्मी का मूड ऑफ कर दिया डैडी।’’

‘‘अब मज़ाक की बात को सीरियसली लेगी तो इसका क्या हमारा भी मूड आफ हो जाएगा।’’ सुधाकर ने कहा, फिर ममता की ओर कान पकड़कर बोला, ‘‘सॉरी यार!’’

‘‘मम्मी, कम ऑन यार!’’ पीछे से निक्की बोला, ‘‘मै आपके साथ हूँ।’’

‘‘मैं भी।’’ मणिका ने कहा।

‘‘और मैं भी...’’ दादा जी बोले।

‘‘और मैं तो बैठा ही इनके साथ हूँ।’’ सुधाकर ने कहा। फिर ममता से बोले, ‘‘नो टियर्स ड्यूरिंग द जर्नी माई डियर...यात्रा पर निकले हैं, हँसती-मुस्कराती रहो।’’

ममता ने सिर्फ गरदन हिलाकर हामी भरी और लम्बी साँस खींचकर तनकर बैठ गई।

‘‘मान गई!’’ उसकी मुखमुद्रा से प्रसन्न होकर सुधाकर बच्चों की तरह ताली बजा उठा।

ममता हँस दी।

पुरानी यादें

‘‘हाँ, तो बात यह चल रही थी कि पिछली बार टैक्सी से नहीं, ट्रेन और बसों से यात्रा की थी हमने।’’ माहौल को पुनः पहले-जैसा रूप देने की नीयत से दादा जी बोले।

‘‘हाँ,’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘टैक्सी से जाने लायक तब अपनी आमदनी ही कहाँ थी बाबूजी?’’

‘‘रेलवे-स्टेशन पर पहुँचकर करीब दो घण्टे तक ट्रेन का इन्तज़ार करना पड़ा था, याद है?’’ दादा जी ने पूछा ।

‘‘खूब याद है।’’ सुधाकर ने कहा, ‘‘उन दिनों आज की तरह यह सुविधा भी तो नहीं थी कि ट्रेन के आने का सही समय रेलवे की इंटरनेट साइट पर देख लें। अब तो मोबाइल सेट पर ही मालूम हो जाता है सब कुछ।’’

‘‘हाँ, रेलवे स्टेशन पहुँचने पर जब ट्रेन के लेट आने की खबर मिलती थी तो कितनी कोफ्त होती थी।’’ दादा जी बोले, ‘‘ऐसा लगता था कि सारी भागदौड़ बेकार गई।’’

‘‘बिल्कुल यही बात थी।’’ सुधाकर बोला, ‘‘यह भी होता था कि रेलवे स्टेशन पर अभी, कुछ देर पहले ट्रेन के आने की उद्घोषणा भी हो चुकी होती थी, लेकिन ट्रेन नदारद। उसका इन्तज़ार तब बोरियत में बदलने ही लगता था।’’

‘‘और फिर, प्लेटफार्म पर अचानक हलचल-सी मचती थी। प्लेटफार्म के किनारे पर खड़े होकर उत्सुकता से ट्रेन के आने की दिशा में झाँक रहे लोग स्फूर्ति से भर उठते थे। बहुत दू...ऽ...र, सामने से आती गाड़ी का इंजन काले धब्बे-सा दिखाई देता था। उसे देखते ही वे वापस अपने सामान और बीवी-बच्चों की ओर लपकते थे।’’ दादा जी ने जोड़ा ।

‘‘मर्द की झिड़कियों से डरे-सहमे बीवी-बच्चे सामान के पास खड़े रहते थे। बीवी सोचती थी कि उसे जब न घर में इज्जत मिलनी है और न बाहर, तो औरत को ऊपर वाले ने बनाया ही क्यों? और बच्चे सोचते थे कि जब पापा जितने बड़े हो जाएँगे तब वे भी प्लेटफार्म के किनारे खड़े होकर गाड़ी को झाँकेंगे और बाँह पकड़कर अपने बच्चों को भी झाँकवाएँगे। यह नहीं कि खुद तो मज़ा लेते रहें और बच्चों को डराते-धमकाते, पीटते रहें।’’ सुधाकर बोला।

‘‘यह, तूने बचपन से अपने मन में दबी बात आज बोल ही दी।’’ सुधाकर की इस बात पर दादा जी ने चुटकी ली।

‘‘अरे नहीं बाबूजी, मैं तो नारी-मन और बाल-मन में उभरने वाली एक सामान्य-सी इच्छा को शब्द दे रहा था।’’ दादा जी के टोकने पर सुधाकर ने संकोचभरे स्वर में कहा।

सभी हँस दिए।

टैक्सी धीरे-धीरे अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रही थी।

‘‘अच्छा छोड़।’’ दादा जी ने कहा, ‘‘फिर से पुरानी कमेन्ट्री पर आजा।...ट्रेन तेजी से आई और धीमी होते-होते प्लेटफार्म पर आकर रुक गई।’’

‘‘बाबूजी भी पूरे मूड में नज़र आ रहे हैं!’’ दादा जी की इस बात पर ममता ने चुटकी ली।

‘‘मूड में क्यों न नज़र आऊँ बहू...’’ ममता की बात पर दादा जी तपाक-से बोले,‘‘इसके कई फायदे हैं। पहला यह कि पुरानी बातें ताज़ा हो जाएँगी वरना हम बूढ़ों के ज़माने की बातें आजकल सुनता कौन है? दूसरा यह कि इस तरह सफ़र मज़े में कट जाएगा, क्यों बच्चो?’’

‘‘जी दादा जी, मज़ा आ रहा है।’’ दोनों बच्चे करीब-करीब एक साथ बोले, ‘‘आप दोनों पुराने दिनों की बातें करते रहिए।’’

‘‘चलो, चलो...सामान उठाओ और रिज़र्वेशन वाले डिब्बे की ओर बढ़ो।’’ बच्चों की बात खत्म होने से पहले ही सुधाकर इस तरह बोले कि टैक्सी में बैठे दादा जी, ममता और बच्चे, यहाँ तक कि टैक्सी का ड्राइवर भी एकबारगी चौंक पड़ा। उसने टैक्सी के ब्रेक दबाकर उसकी रफ्तार काफी धीमी कर दी और बायीं ओर का सिग्नल देकर उसे साइड में ले आया।

‘‘बीवी और बच्चों से यह कहता हुआ बाप सामान को अपने सिर और कंधों पर लादना शुरू करता था...या फिर, पहले से ही तय कर रखे कुली को पुकारता था और बच्चों को इधर-उधर यानी बाँह, कन्धा, कॉलर जो हाथ में आ जाए वहाँ से उन्हें पकड़कर तेजी-से गाड़ी की ओर लपकता था।’’ यों कहते हुए जब उन्होंने अपनी बात पूरी की तो सड़क के एक ओर खड़ी हो चुकी टैक्सी में पसरा सन्नाटा जोर के ठहाके के साथ टूट गया।

‘‘इतना सीरियसली बोला यार तू...कि मैं तो डर ही गया।’’ ठहाका रुका तो दादा जी ने सुधाकर से कहा।

‘‘मेरा तो पैर ब्रैक को तेजी से दबाते-दबाते किसी तरह बस रुक गया...’’ टैक्सी-ड्राइवर नाराज़़गी के स्वर में चहका, ‘‘आप जितनी चाहो बातें करो सर जी, लेकिन इतना सीरियस ड्रामा न क्रिएट करो कि मुझसे कोई चूक हो जाए।

‘‘सॉरी यार,’’ उससे माफी माँगते हुए सुधाकर बोला, ‘‘दरअसल, मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि हम टैक्सी में बैठे हैं। उधर बाबूजी ने आदेश दिया और इधर मैं तुरन्त शुरू हो गया।’’

ड्राइवर ने उसके बाद कुछ नहीं कहा। गाड़ी को स्टार्ट कर गियर में डाला और आगे बढ़ चला।

‘‘अच्छा, एक बात जो हमें शुरू में ही कर लेनी थी, अब कर लें?’’ सुधाकर ने उससे कहा।

‘‘क्या बात?’’ ड्राइवर ने पूछा।

‘‘अरे भाई, पहली गलती तो यह कि हमने आपसे आपका मोबाइल नम्बर नहीं लिया और दूसरी यह कि आपका नाम अभी तक नहीं जाना।’’

‘‘मोबाइल नम्बर तो आपके मोबाइल पर आया हुआ है ही।’’ ड्राइवर बोला,‘‘घर के पास पहुँच जाने की सूचना देने के लिए मैंने आपको फोन किया था।’’

‘‘हाँ...’’ जेब से अपना मोबाइल निकालकर उसके ऑपरेशन्स को खोलते हुए सुधाकर बोला,‘‘नाम बताओ, सेव कर लेता हूँ।’’

‘‘अल्ताफ।’’

‘‘ए एल टी ए एफ...’’ मोबाइल में उसका नाम सेव करते हुए सुधाकर बुदबुदाया फिर उससे बोला, ‘‘ठीक है?’’

‘‘जी।’’ उसने कहा।

‘‘अब हम आपको ‘आप’ नहीं, छोटे भाई की तरह ‘तुम’ कहेंगे और अल्ताफ कहकर ही पुकारेंगे।’’ सुधाकर ने कहा।

‘‘जी।’’

‘‘अब, कल्पना कीजिए बाबूजी कि पुराना ज़माना है, आप निक्की और मणिका को लेकर रेलवे स्टेशन पर आ बैठे हैं...मम्मी जी साथ में हैं। वही, पुराने जमाने वाला सीन।’’ अल्ताफ को छोड़कर सुधाकर ने दादा जी से बातें करना शुरू किया, ‘‘अचानक ट्रेन आ जाती है और आप इन्हें लेकर अपना कम्पार्टमेंट ढूँढने लगते हैं...’’

‘‘कर ली कल्पना...’’ दादा जी अपनी आँखें मूँदकर बोले, ‘‘भागती हुई भीड़ में इन दोनों का हाथ थामे मैं और तेरी मम्मी कुली के पीछे-पीछे दौड़ लगा रहे हैं ।’’

‘‘तभी आपको मेरी आवाज़ सुनाई देती है—बाबू जी...मम्मी जी...इधर...इधर...आप दोनों से भी पहले बच्चे मेरी आवाज़ की दिशा में देखते हैं।...उसी दौरान आपका भी ध्यान मेरी ओर चला आता है। आप सब मेरी ओर दौड़ आते हैं।...’’

‘‘तू हमारे रिज़र्वेशन वाले डिब्बे के बाहर खड़ा है।’’ दादा जी ने आँखें मूँदे-मूँदे ही बोलना शुरू किया, ‘‘हम तेरे पास जा पहुँचे हैं। कुली के सिर से बिस्तरबंद व सूटकेस उतरवाकर तूने शीघ्रता से डिब्बे में रख दिया है और एक-एक कर बच्चों को और अपनी मम्मी को उसमें चढ़ा दिया है। सब के बाद मैं भी डिब्बे में चढ़ गया हूँ। तूने आगे बढ़कर मेरे और अपनी मम्मी के पाँव छुए हैं और अब बच्चों के सिर पर हाथ फिरा रहा है।’’ यों कहकर दादा जी एक पल को चुप हुए, फिर बोले, ‘‘तुम कैसे आ गए?…मैंने तुझसे पूछा।’’

भाग-3 में जारी…