प्लेटफार्म नंबर 16
शाम के कोई सवा सात बज रहे थे. जब प्राइवेट टैक्सी से मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचा. आसमान बादलो से घिरा था. टैक्सी के खिड़की से बाहर झांककर देखा तो स्टेशन कोहरे की सर्द लिहाफ ओढ़े खड़ा था. अमूमन दिल्ली में सर्दिया अक्टूबर के महीने से ही शुरू हो जाती है पर इतनी सर्दी पड़ेगी इसकी उम्मीद नहीं थी मुझे. मैं अपने दोनो हाथो को भींचकर सर्द मौसम की ठंड चुभन को कम करने की नाकाम कोशिश करने लगा. स्टेशन पर काफी भीड़ थी. एक तो अक्तूबर का महीना उपर से ये तीज त्यौहार. होता भी क्यों नहीं यही एक वक़्त होता है जब अपने अपनों के पास रहना चाहते है. मैं भी तो यही सोच के आया था न. अपने अकेलेपन से दूर...बहुत दूर जाने के लिए... की तभी अचानक आई आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर खीचा. साहब मेरे पैसे –आवाज़ टैक्सी ड्राईवर की थी.
मैंने अपनी जेब से पांच सौ का नोट निकाला और ड्राईवर की तरफ बढ़ा दिया. स्टेशन के अंदर पहुंचा तो मालूम पड़ा की ट्रेन अपने निर्धारित समय से 2 घंटे बाद जानी थी. मैंने ट्रेन के आने के प्लेटफार्म का पता किया और उस ओर चल दिया..प्लेटफार्म नंबर 16....कुछ दूर चहलकदमी करने के बाद मैं प्लेटफार्म पर बने सीट पर बैठ गया...आदित्य करीब तीन साल बाद अपने घर लखनऊ जा रहा था. दिल्ली में छोटी सी कंपनी में काम करते आदित्य आज तीन साल हो गए थे..
आदित्य को अकेले रहने की आदत थी….. शुरू से नहीं थी बस हो गई थी. अकेले रहते रहते आदमी भीड़ से इतना दूर निकल आता है की मन में उठ रहा शोर भी उसे सुनाई नहीं देता है. अकेलेपन के रास्ते पर चलते चलते आदित्य इतना आगे बढ़ गया था की, जहाँ किसी का शोर पहुंचे भी तो हवा बना के चली आए.. यूँ तो आदित्य को अकेले रहने की आदत नहीं थी पर वो मिले उस धोखे से कभी उबर ही नहीं पाया था. उस धोखे ने कभी उसे अकेलेपन की गर्त से बाहर आने ही नहीं दिया था..
शुरू में जब आदित्य ने नई नई नौकरी ज्वाइन की थी तो उसकी माँ ने उसे फ़ोन करके कहा था. बेटा! ये नौकरी शौकरी तो चलती रहेगी मेरी मान तो तू शादी कर ले……. पर उस समय आदित्य ने अपनी माँ से कहा था – माँ मुझे नहीं करनी कोई शादी वादी मैं अकेला ही ठीक हूँ…….आज आदित्य अकेला था पर खुश था ये बात आजतक आदित्य अपने आप से भी नहीं कह पाया था. ऐसा नहीं है था की किसी ने उसके दिल के दरवाजे पर दस्तक न दी हो. पर आदित्य ने अपने आप को इतना कठोर बना लिया था. की न कोई एहसास बाहर से अंदर आ सकती थी न ही अंदर से बाहर..
स्टेशन पर बैठे आदित्य ने न जाने क्या सोच के अपनी माँ को फ़ोन लगा दिया. फ़ोन माँ ने उठाया. आदित्य ने आगे कहा हेल्लो माँ! और चुप हो गया. आदित्य की हेलो हाँ के शब्द ने माँ को सबकुछ बयाँ कर दिया. ऐ माएँ भी कितनी अजीब होती है न. दुनियाभर की खबरे भले ही न हो पर अपने बच्चे की एक आवाज़ से दिल का सारा हाल पता कर लेती है.. आदि तू ठीक है न बेटा.. माँ ने कहा. माँ मैं ठीक हूँ बस थोड़ी सी जुखाम है......कुछ देर खामोश रहने के बाद आदित्य ने कहा - माँ मैं अभी स्टेशन पर हूँ...... घर आ रहे हो बेटा माँ ने पुछा.. जी हाँ माँ! कहके आदित्य ने फ़ोन कट कर दिया... आदित्य ने अपने लखनऊ आने की बात अपने माँ को अभी तक नहीं बताई थी........................ मैंने घड़ी की तरफ देखा तो घड़ी करीब सवा नौ का टाइम दिखा रही थी..ट्रेन के आने में अभी डेढ़ घंटा था. मैंने पास के स्टाल से एक पानी की बोतल ,कुछ बिस्किट के पैकेट्स और एक कप कॉफ़ी ली और वापस उसी जगह जाकर पर बैठ गया... आदित्य को लखनऊ तक का सफ़र लखनऊ मेल से करना था.. यूँ तो लखनऊ मेल अपने निर्धारित समय से ही रवाना होनी थी. पर कोहरे के वजह से ट्रेन को 2 घंटे बाद रवाना किया जाना था................... जब किसी का इंतज़ार न हो तो वक़्त कैसे बीत जाता है ये पता ही नहीं चलता...... पर ट्रेन के इंतज़ार में न जाने क्यों आज एक एक पल काटना मुश्किल हो रहा था. समय न कटता देख आदित्य ने अपने जेब से जब मोबाइल निकाली तो उंगलिया न जाने क्यों उस फेसबुक के आइकॉन पर आकर ठहर गई. जैसे उसे मेरा ही इंतज़ार हो. फेसबुक के खुलते ही किसी लड़के के साथ नेहा का फोटो मेरी आँखों के सामने था....मेरी ज़िन्दगी के वे चार महीने जैसे किसी चलते फिल्म की भांति मेरे आँखों के सामने से गुजरने लगे.......मैं उसकी यादों में खोने लगा था डूबने लगा था............. ये वही लड़की थी जिसके साथ आदित्य ने अपनी ज़िन्दगी के सपने देखे थे....ज़िन्दगी की ख़ूबसूरती का पोशाक पहने, प्यार का इत्र लगाए, धीरे धीरे बादलो के उतरते किसी पहाड़ी के बीच सड़क पे बांहों में बांहे डाले ज़िन्दगी यूंही गुज़रती रहे यही सपने देखे थे आदित्य ने...पर इसके उलट नेहा उन सपनो इतेफाक नहीं रखती थी....उसके सपने कुछ और थे वो हमेशा से शानोशौकत की ज़िन्दगी जीना चाहती थी...उसके लिए प्यार के मायने कुछ और थे उसे पैसो से प्यार था आदित्य से नही.....उसने प्यार के उपर पैसे को तरजीह दी..
.आज नेहा अपनी ज़िन्दगी में आगे बढ़ चुकी है....पर आज भी आदित्य वही खड़ा है अपने अकेलेपन के साथ | अपनी ज़िन्दगी की यादों में खोए आदित्य का ध्यान तोड़ा उस अचानक आई आवाज़ ने ...एक्सक्यूज मी!. देखा तो एक हाथ सूटकेस और कंधे पर एक बैग लटकाए लड़की मेरे आँखों के सामने खड़ी थी. एक्सक्यूज मी! क्या मैं आपका मोबाइल कुछ देर के लिए इस्तेमाल कर सकती हूँ.. फिर से उसकी आवाज़ मेरी कानो में गूंजी. मैं उसको कुछ देर देखता रहा. कुछ देर देखने के बाद मैंने हाँ में सिर हिलाया और मोबाइल आगे उसकी तरफ बढ़ा दिया.
उस लड़की ने मेरे हाथो से मोबाइल लिया और करीब दस मिनट बाते करने के बाद मुझे थैंक यू कहते हुए मेरी तरफ वापस आगे बढ़ा दिया. मैंने बिना कुछ कहे उसके हाथो से मोबाइल वापस ले लिया.., वो मेरी मोबाइल की बैटरी डेड हो गयी थी इसलिए मैंने आपसे आपका मोबाइल माँगा था.. इतना कहते हुए वो लड़की मेरे बगल में खाली पड़े सीट पर आकर बैठ गयी.. शायद पहली बार वो लड़की अकेले सफ़र कर रही थी.. उसका चेहरा और उसके हाव भाव अकेले सफ़र करने की घबराहट साफ़ साफ़ बया कर रहे थे.... ढलती रात के साथ कोहरे की सर्द चादर स्टेशन को पूरी तरफ अपनी गिरफ्त में लेने लगा .. ठंड की चुभन बढ़ती जा रही थी. मेरे बगल में बैठी वो लड़की ने ठंड की चुभन को कम करने के लिए अपने दोनों हाथो से अपने आप भीच लिया..पर उसकी हर एक कोशिश नाकाम साबित हो रही थी.. काफी देर बैठे रहने से मैं उकताने लगा था. सो मैं दोबारा आसपास चहलकदमी करने लगा.. ट्रेन के आने के अनाउंसमेंट के साथ मेरा इंतज़ार ख़त्म होने को था. तभी एक ज़ोरदार आवाज़ के साथ इंजन बोगियों को खीचती हुई प्लेटफार्म पर आने लगी.. थोड़ी देर में धीरे धीरे धीमी होती रफ़्तार के साथ प्लेटफार्म पर आकर रुक गई.. स्टेशन पर ट्रेन के इंतज़ार बैठे बाकी यात्री फैले अपने सामान को समेटकर एक एक करते ट्रेनों में चढ़ने लगे थे. मैंने भी अपना सामान उठाया और ट्रेन की तरफ चल दिया.. S7 सीट नंबर 41 जी हाँ यही था मेरा सीट नंबर जहाँ मुझे मिले रिजर्ववेशन आधार पर बैठना था.. बढ़ी भीड़ के बीच मैं किसी तरह ट्रेन में चढ़ गया. और लोगो से भरे गलियारे से धीरे धीरे आगे बढ़ता हुआ अपनी सीट पर जा पहुंचा. मैंने अपना सामान सीट के नीचे लगे कड़े से बांधकर एडजस्ट किया और वही खिड़की के पास जाकर बैठ गया. खिड़की से बगल के प्लेटफार्म पर खड़ी ट्रेन साफ़ साफ़ दिखाई पढ़ रही थी और उसमे चढ़ने की जद्दोजहद करते लोग..
धीरे धीरे मेरी आसपास की सीटो पे अपने अपने रिजर्ववेशन के मुताबिक लोग बैठ चुके थे... ठीक मेरी बगल की सीट पर एक महिला अपने 6 साल के बच्चे को लिए बैठी थी और ठीक उसके उपर वाली सीट पर एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति. और मेरे ठीक बगल में एक बुजुर्ग दंपत्ति. पर मेरे सामने वाली सीट अभी भी खाली थी. मैं दोबारा खिड़की से बाहर देखने लगा की तभी मेरे पैर पर लगे ठोकर ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खीचा.