बगुला
आचार्य हरगोविन्द ने विषय संबद्ध संकल्पना को टेबल पर रखने का निर्देष षारदा को कई दिन पूर्व दिया था। षोध विषय को न्यास देने में आचार्य जी को पाण्डित्य प्राप्त था। आापकी चरण रज मस्तक पर धारण करने वाले दर्षन निष्णात, विद्यावाचस्पति और विद्यावारिधि की उपाधियों से अलंकृत हो महाविद्याालयों, विष्वविद्यालयों में साहित्य की नव मीमांसा कर रहे थे।
कभी आचार्य जी भी पढ़ते-लिखते थे परंतु अब वे अध्ययन से आगे निकल चुके थे। मुखार विंद से जो उच्चारित होता वही साहित्य में नव प्रतिमानों के रूप में स्थापित हो जाता। विशय कोई भी हो आप सर्वज्ञ, सर्वविशयी विषेशज्ञ। कहीं कोई साहित्यिक जमघट लगता तो भीड़ बटोरने के लिए आचार्य जी का नाम ही पर्याप्त होता। गम्भीरता की पूरी बनावट-बुनावट। एक्जिक्यूटिव श्रेणी और पांच सितारा सुविधाओं के बिना इनका ज्ञान अर्जित करना दुःसाध्य। पूरे षिक्षा जगत में इनके आषीष के बिना कोई किसी तरह की आषा नहीं कर सकता था। तमाम सिफारिषों, आग्रहों और षारदा के विनयोपरांत आपने उसे षोध दृष्टि से अनुगृहीत करने की स्वीकृति दी थी।
इधर कुछ दिनों से प्रोफेसर एकनाथ की आत्मकथा की चर्चा पूरे देष में चल रही थी। हिकारत और अमानवीयता का जीवंत दस्तावेज थी यह आत्मकथा। षारदा ने अपने षोध विषय के रूप में इसका चयन कर अध्याय-उप अध्याय का खाका बनाया था।
’क्या लिखी है......? इस सब पर हम काम नहीं करा पायेंगे। कोई दूसरा विषय सोचो। पहिले सोचो कि साहित्य होता क्या है?
साहित्य मानव की विकासषील प्रवृत्ति के मार्मिक अंषों की कलात्मक अभिव्यक्ति है जिसमें किसी भी समाज-राश्ट्र की चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब होता है। इसका समाज से अन्तस्संबंध है। विचार चिंतन और विष्लेशणपरक भावों का औदात्यीकरण नाना रुपों मंे छायांकित कर वाङमय की विविध विधाओं का विकास होता है। इसके तत्वों में ग्रहणषीलता, कल्पना, भाशा, सौश्ठव और विराट का दर्षन होता है। संकीर्ण, सीमित घटनाएं-परिघटनाएं साहित्य की कोटि में नहीं गिनी जा सकतीं। षिल्प, रचनात्मक इहा और सौंदर्य से रहित लेखन प्रलाप नही ंतो क्या है? हृदय-आत्मा का परिश्कार और इन्हें अनहत तक की योगावस्था को पुश्ट करने वाली विधा पर विचार किया जा सकता है। प्रौढ़ ज्ञानवान पण्डित जनों के दिव्य पाण्डित्य, विष्लेशण और निर्धारण के पष्चात् ही कृति को साहित्यिक मान्यता मिलती है। यह सब और ऐसा लेखन राम-राम.......! साहित्य की यह दुरावस्था!’
षारदा आचार्य जी के क्रोध से भिज्ञ थी सो तुरंत आज्ञा लेना ही उचित था। दूसरी तरफ इस साहित्यिक कृति के बारे में आचार्य महोदय ने तफ्षीष की तो मालूम पड़ा कि ऐसी मौलिक रचनाओं पर षोध को प्रोत्साहित करनेवाली संस्थाएं तथा षोध निर्देषक को मानदेय का प्रावधान है। मौका तो स्वर्णिम था परंतु प्रो. एकनाथ से बात करना आचार्य जी के सामंतही अहं को चोट पहँुचाने वाला था। बचपन से जीवन के इस तीसरे पड़ाव तक आचार्य जी खुर्राट सामंती परंपरा के पोषक रहे थे।
सिद्धांतों को स्वार्थानुसार तरमीम कर देने वाला ही विद्वान है। संस्कार वान होना जड़ता, रूढ़िग्रस्तता नहीं तो क्या है? षब्दों की बाजीगरी से नैतिकता-अनैतिकता की परिभाषा रूप परिवर्तन कर लेती है।
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’डाॅक्टर साहब नमस्कार! ...... जी-जी अभी डायलिसिस पर हैं....। हम कह रहे थे आपकी आत्मकथा पर यहाँ विष्वविद्यालय ने कुछ कार्य कराने का विचार किया है।
....नहीं-नहीं हम आप मिलकर ही समाज और साहित्य.........। हम हम ऐसा नहीं सोचते......................।’
काॅल कमप्लीट हो गई थी और आचार्यजी का कार्य भी संपन्न हो चुका था।
’स्ससुर... एक नमस्कार से लाख रूपइया का मानदेय। समतापरक साहित्य सृजन का पुरस्कार...।आचार्य हरगोविन्द काॅफी हाउस में अपने मित्रों के साथ चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे।