मदद
चालीस-पचास लठबंद आदमियों का एक गिरोह लूट-मार के लिए एक मकान की तरफ़ बढ़ रहा था।
अचानक उस भीड़ को चीरकर एक दुबला-पतला अधेड़ उम्र का आदमी बाहर निकला। पलटकर वह बलवाइयों से लीडराना अंदाज़ में मुख़ातिब हुआ—“भाइयो! इस मकान में बेअंदाज़ा दौलत है, बेशुमार क़ीमती सामान है…आओ, हम सब मिलकर इस पर कब्ज़ा कर लें और मिले हुए माल को आपस में बाँट लें।”
हवा में कई लाठियाँ लहरायीं। कई मुक्के भिंचे और ऊँची-आवाज़ में नारों का फव्वारा-सा छूट पड़ा।
चालीस-पचास लठबंद आदमियों का गिरोह दुबले-पतले अधेड़ उम्र के आदमी की अगुआई में उस मकान की तरफ तेज़ी से बढ़ने लगा जिसमें बेअंदाज़ा दौलत और बेशुमार कीमती सामान था।
मकान के सदर दरवाज़े के पास रुककर दुबला-पतला आदमी फिर बलवाइयों से मुख़ातिब हुआ—“भाइयो! इस मकान में जितना भी माल है, सब तुम्हारा है। देखो, छीना-झपटी नहीं करना, आपस में लड़ना नहीं। आओ।”
एक चिल्लाया—“दरवाज़े में ताला है।”
दूसरे ने ऊँची आवाज़ में कहा—“तोड़ दो।”
“तोड़ दो…तोड़ दो।” हवा में कई लाठियाँ लहरायीं, कई मुक्के भिंचे और ऊँचे नारों का एक फव्वारा-सा छूट पड़ा।
दुबले-पतले आदमी ने हाथ के इशारे से दरवाज़ा तोड़ने वालों को रोका और मुस्कराकर कहा—“भाइयो! ठहरो, मैं इसे चाबी से खोलता हूँ।”
यह कहकर उसने जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला। एक चाबी छाँटकर ताले में डाली और उसे खोल दिया। शीशम का भारी-भरकम दरवाज़ा एक चीख के साथ खुला। सारा हुजूम दीवानों की तरह अंदर दाखिल होने के लिए आगे बढ़ा हुआ।
दुबले-पतले आदमी ने माथे का पसीना अपनी आस्तीन से पोंछते हुए कहा—“भाइयो! आराम से…जो इस मकान में है, सब तुम्हारा है…फिर इस अफ़रा-तफ़री की क्या ज़रूरत है?”
हुजूम फौरन ही शांत हो गया। बलवाई एक-एक करके मकान के अंदर दाख़िल होने लगे; लेकिन ज्यों ही चीज़ों की लूटमार शुरू हुई, फिर धाँधली मच गई। बलवाई क़ीमती चीज़ों पर बड़ी बेरहमी से हाथ साफ करने लगे।
दुबले-पतले आदमी ने जब यह मंज़र देखा तो बड़ी दुखभरी आवाज़ में लुटेरों से कहा—“भाइयो, आहिस्ता-आहिस्ता…आपस में लड़ने-झगड़ने की कोई ज़रूरत नहीं…नोच-खसोट की भी कोई ज़रूरत नहीं…सहयोग से काम लो। अगर किसी के हाथ ज्यादा क़ीमती चीज़ आ गई है तो उससे जलो मत…इतना बड़ा मकान है, अपने लिए कोई दूसरी चीज़ ढूँढ़ लो, मगर वहशी न बनो…मारधाड़ करोगे तो चीज़ें टूट जायेंगी…इसमें नुकसान तुम्हारा ही है…”
लुटेरों में एक बार फिर अनुशासन-सा भर गया; और भरा हुआ मकान आहिस्ता-आहिस्ता ख़ाली होने लगा।
दुबला-पतला आदमी कभी-कभार हिदायत देता रहा—“देखो भैया, यह रेडियो है…ज़रा आराम से उठाओ। ऐसा न हो कि टूट जाये…इसके तार भी साथ लेते जाओ…तह कर लो भाई, इसे तह कर लो…अखरोट की लकड़ी की तिपाई है, हाथीदाँत की पच्चीकारी है…बड़ी नाज़ुक चीज़ है…हाँ, अब ठीक है…नहीं-नहीं, यहाँ मत पियो, बहक जाओगे। इसे घर ले जाओ।…ठहरो-ठहरो, मुझे मेन-स्विच बंद कर लेने दो, कहीं करंट न लग जाये…”
इतने में, एक कोने में शोर उठ खड़ा हुआ। चार बलवाई रेशमी कपड़े के एक थान पर छीना-झपटी कर रहे थे।
दुबला-पतला आदमी तेज़ी से उनकी तरफ़ बढ़ा और झिड़कते लहजे में उनसे कहने लगा—“तुम लोग कितने बेसमझ हो…चिंदी-चिंदी हो जायेगी ऐसे क़ीमती कपड़े की…घर में सब चीज़ें मौज़ूद हैं…गज़ भी होगा, तलाश करो और नापकर कपड़ा आपस में बाँट लो।”
अचानक, एक कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आई—अफ़-अफ़-अफ़… और पलक झपकते ही एक बहुत बड़ा गद्दी कुत्ता छलांग लगाकर अंदर लपका और लपकते ही उसने दो-तीन लुटेरों को भँभोड़ दिया।
दुबला-पतला आदमी चिल्लाया—“टाइगर…टाइगर!!”
टाइगर, जिसके मुँह में एक लुटेरे का नुचा हुआ गिरेबान था, दुम हिलाता हुआ दुबला-पतला आदमी की तरफ़ निगाहें नीची किए क़दम उठाने लगा।
टाइगर के आते ही सब लुटेरे भाग गये थे। सिर्फ़ एक लुटेरा, जिसके गिरेबान का टुकड़ा टाइगर के मुँह में था, बाक़ी रह गया था। उसने दुबला-पतला आदमी की तरफ़ देखा और पूछा, “कौन हो तुम?”
दुबला-पतला आदमी मुस्कराया—“इस घर का मालिक…देखो-देखो, तुम्हारे हाथ से काँच का मर्तबान गिर रहा है…!”
बँटवारा
एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक चुना। जब उसे उठाने लगा तो वह अपनी जगह से एक इंच भी न हिला।
एक शख़्स ने, जिसे अपने मतलब की शायद कोई चीज़ मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करने वाले से कहा—“मैं तुम्हारी मदद करूँ?”
संदूक उठाने की कोशिश करने वाला मदद लेने को राज़ी हो गया।
उस शख़्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज़ नहीं मिल रही थी, अपने मज़बूत हाथों से संदूक को हिलाया और उठाकर पीठ पर धर लिया। दूसरे ने सहारा दिया; और दोनों बाहर निकले।
संदूक बहुत बोझिल था। उसके वज़न के नीचे, उठाने वाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी होती जा रही थीं। मगर इनाम की उम्मीद ने उसके शारीरिक श्रम के एहसास को आधा कर दिया था।
संदूक उठाने वाले के मुक़ाबले में संदूक को चुनने वाला बहुत कमज़ोर था। सारे रास्ते सिर्फ़ एक हाथ से संदूक को सहारा देकर वह अपना हक़ बनाये रखता रहा।
जब दोनों सुरक्षित जगह पर पहुँच गए तो संदूक को एक तरफ़ रखकर सारा श्रम करने वाले ने कहा—“बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?”
संदूक पर पहली नज़र डालने वाले ने जवाब दिया, “एक चौथाई।”
“यह तो बहुत कम है!”
“कम बिल्कुल नहीं, ज्यादा है…इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।”
“ठीक है, लेकिन यहाँ तक इस कमरतोड़ बोझ को उठाके लाया कौन है?”
“अच्छा, आधे-आधे पर राज़ी होते हो?”
“ठीक है, खोलो संदूक।”
संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी। उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में काट डाला।
जायज़ इस्तेमाल
दस राउंड चलाने और तीन आदमियों को ज़ख़्मी करने के बाद पठान भी आख़िर कामयाब हो ही गया।
एक अफ़रा-तफ़री मची हुई थी। लोग एक-दूसरे पर गिर रहे थे। छीना-झपटी हो रही थी। मारधाड़ भी जारी थी। पठान अपनी बंदूक लिए हुजूम में घुसा और तक़रीबन एक घंटा कुश्ती लड़ने के बाद थर्मस पर हाथ साफ़ करने में कामयाब हो गया।
पुलिस पहुँची तो सब भागे, पठान भी।
एक गोली उसके दाहिने कान को चाटती हुई निकल गयी। पठान ने इसकी बिलकुल परवाह न की और सुर्ख रंग थर्मस को अपने हाथ में मज़बूती से थामे रखा।
अपने दोस्तों के पास पहुँचकर उसने सबको बड़े गर्वीले अंदाज़ में थर्मस दिखाया।
एक ने मुस्कराकर कहा, “खान साहब, आप यह क्या उठा लाये हैं?”
पठान ने पसंदीदा नज़रों से चमकती हुई थर्मस को देखा और पूछा, “क्यों?”
“यह तो ठंडी चीज़ें ठंडी और ग़र्म चीज़ें ग़र्म रखने वाली बोतल है।”
पठान ने थर्मस पर नज़रें गाड़ते हुए कहा, “ख़ू…अम इसमें निसवार डालेगा…गर्मियों में ग़र्म रहेगा, सर्दियों में सर्द!…”
बेख़बरी का फ़ायदा
लबलबी दबी। पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली।
खिड़की में से बाहर झाँकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।
लबलबी थोड़ी देर बाद फिर दबी। दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली।
सड़क पर भिश्ती की मश्क फटी। वह औंधे-मुँह गिरा और उसका लहू मश्क के पानी में घुलकर बहने लगा।
लबलबी तीसरी बार दबी। निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज्ब हो गयी।
चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी। वह चीख भी न सकी और वहीं ढेर हो गयी।
पाँचवीं और छठी गोली बेकार गयी। कोई हलाक हुआ न ज़ख़्मी।
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया।
अचानक सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता हुआ दिखाई दिया।
गोलियाँ चलाने वाले ने पिस्तौल का मुँह उसकी ओर मोड़ा।
उसके साथी ने कहा, “यह क्या करते हो?”
गोलियाँ चलाने वाले ने पूछा, “क्यों?”
“गोलियाँ तो ख़त्म हो चुकी हैं!”
“तुम ख़ामोश रहो…इतने-से बच्चे को क्या मालूम?”
मुनासिब कार्रवाई
जब हमला हुआ तो मुहल्ले में कुछ अल्पसंख्यक लोग क़त्ल हो गये। जो बाक़ी बचे, जानें बचाकर भाग निकले। एक आदमी और उसकी बीवी अलबत्ता अपने घर के तहखाने में चिप गये।
छिपे हुए मियाँ-बीवी ने दो दिन और दो रातें हमलावरों के आने की आशंका में गुजार दीं, मग़र कोई न आया।
दो दिन और गुज़र गये। मौत का डर कम होने लगा। भूख और प्यास ने ज्यादा सताना शुरू किया।
चार दिन और बीत गये। मियाँ-बीवी को ज़िन्दग़ी और मौत से कोई दिलचस्पी न रही। दोनों उस शरणस्थली से बाहर निकल आये।
पति ने बड़ी धीमी आवाज़ में लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ आकृष्ट किया और कहा, “हम दोनों अपना-आप तुम्हारे हवाले करते हैं। हमें मार डालो।”
जिनका ध्यान आकर्षित किया था, वे सोच में पड़ गये—“हमारे धरम में तो जीव-हत्या पाप है…”
उन्होंने आपस में मशविरा किया और मियाँ-बीवी को मुनासिब कार्रवाई के लिए दूसरे मुहल्ले के आदमियों के सिपुर्द कर दिया।
करामात
लुटा हुआ माल बरामद करने के लिए पुलिस ने छापे मारने शुरू किये।
लोग डर के मारे लूटा हुआ माल रात के अँधेरे में बाहर फेंकने लगे। कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने अपना माल भी मौक़ा पाकर अपने से अलग कर दिया ताकि कानूनी गिरफ़्त से बचे रहें।
एक आदमी को बहुत दिक़्क़त पेश आयी। उसके पास चीनी की दो बोरियाँ थीं जो उसने पंसारी की दूकान से लूटी थीं। एक को तो वह जैसे-तैसे रात के अँधेरे में पास वाले कुँए में फेंक आया; लेकिन जब दूसरी उसमें डालने लगा तो ख़ुद भी साथ चला गया।
शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गये। कुएँ में रस्सियाँ डाली गयीं।
जवान नीचे उतरे और उस आदमी को बाहर निकाल लिया। लेकिन वह चंद घंटों बाद मर गया।
दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए उस कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था।
उसी रात उस आदमी की क़ब्र पर दीये जल रहे थे।
ग़लती का सुधार
“कौन हो तुम?”
“तुम कौन हो?”
“हर-हर महादेव…हर-हर महादेव!”
“हर-हर महादेव!”
“सुबूत क्या है?”
“सुबूत…? मेरा नाम धरमचंद है।”
“यह कोई सुबूत नहीं।”
“चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।”
“हम वेदों को नहीं जानते…सुबूत दो।”
“क्या?”
“पायजामा ढीला करो।”
पायजामा ढीला हुआ तो शोर मच गया—“मार डालो…मार डालो।”
“ठहरो…ठहरो…मैं तुम्हारा भाई हूँ…भगवान की क़सम, तुम्हारा भाई हूँ।”
“तो यह क्या सिलसिला है?”
“जिस इलाक़े से मैं आ रहा हूँ, वह हमारे दुश्मनों का है…इसीलिए मज़बूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ़ अपनी जान बचाने के लिए…एक यही चीज़ ग़लत हो गई है, बाक़ी मैं बिल्कुल ठीक हूँ…”
“उड़ा दो ग़लती को…”
ग़लती उड़ा दी गयी…धरमचंद भी साथ ही उड़ गया।
जैली
सुबह छ: बजे पैट्रोल पम्प के पास हाथ-गाड़ी में बर्फ़ बेचने वाले के छुरा घोंपा गया।
सात बजे तक उसकी लाश लुक बिछी सड़क पर पड़ी रही; और उस पर बर्फ़ पानी बन-बन गिरती रही।
सवा सात बजे पुलिस लाश उठाकर ले गयी। बर्फ़ और ख़ून वहीं पड़े रहे।
फिर एक टाँगा पास से गुज़रा।
बच्चे ने सड़क पर जीते-जीते ख़ून के जमे हुए चमकीले लोथड़े की तरफ़ देखा—उसके मुँह में पानी भर आया। अपनी माँ का बाजू खींचकर बच्चे ने उँगली से उस तरफ़ इशारा किया—“देखो मम्मी, जैली…!”
उम्मीदभरा आमंत्रण
आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया।
सिर्फ़ एक दूकान बच गयी जिसके मत्थे पर यह बोर्ड लटका हुआ था:
“यहाँ इमारत बनाने का सभी सामान मिलता है।”
पठानिस्तान
“ख़ू एकदम जल्दी बोलो—तुम कौन ए?”
“मैं…मैं…”
“ख़ू शैतान का बच्चा, जल्दी बोलो…इंदु ए या मुस्लिमीन?”
“मुस्लिमीन।”
“ख़ू तुमारा रसूल कौन ए?”
“मुहम्मद खान।”
“ठीक ए…जाओ।”
ख़बरदार
बलवाई मालिक-मकान को बड़ी मुश्किलों से घसीटकर बाहर लाये।
कपड़े झाड़कर वह उठ खड़ा हुआ और बलवाइयों से कहने लगा :
“तुम मुझे मार डालो, लेकिन ख़बरदार, जो मेरे रुपये-पैसे को हाथ लगाया…!”